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राधाकृष्ण की कहानी ‘वरदान का फेर’

कल सत्यानंद निरुपम जी ने राधाकृष्ण की कहानी ‘वरदान का फेर’ की याद दिलाई। राधाकृष्ण को लोग भूल गए हैं लेकिन कभी प्रेमचंद ने उनकी प्रशंसा की थी और युवा शोधकर्ता संजय कृष्ण ने लिखा है कि प्रेमचंद के निधन के बाद ‘हंस’ का काम देखने के लिए शिवरानी देवी ने उनको बुलवाया था। उन्होंने श्रीपत राय के साथ मिलकर ‘कहानी’ पत्रिका भी उस दौर में निकाली थी। वे बहुत अच्छे कथाकार थे। आप उस कहानी को पढ़िए आप समकालीन दौर में खुद को बुद्ध समझने वाले अनेक लोगों की याद आ सकती है-

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महात्मा बुद्धदेव के जन्म के पूर्व ही एक और महात्मा बुद्धूदेव पैदा हो गये हैं। इनका पहला नाम कुष्मांडसेन। जन्म कपिलवस्तु नगर में नहीं, कपाल-वस्तु में हुआ था। बुद्धदेव की भांति ये ‘राज-परिवार’ में पैदा हुए थे, लेकिन इनके बाप राज नहीं चलाते थे, राजमिस्त्री का काम किया करते थे। दुनिया में सबके माता-पिता मर जाते हैं, इसलिए एक दिन इनके भी बाप मर गये और इनकी माँ भी उन्हीं के साथ जलकर सती हो गयी। अपने मां-बाप के मर जाने से कुष्मांडजी धरती पर लोट-पोट कर खूब रोए। जब रोने-कलपने से भी इनका मिजाज ठंडा नहीं हुआ, तब घर से बाहर निकलकर पागल की तरह घूमने लगे। लौटकर घर जाते तक नहीं। और अगर घर में जाते तो भी वहां खाने-पीने के लिए कुछ नहीं था। बाप तो मरने के बाद इनके लिए एक ‘करनी’ छोड़ गये थे और मां भंडार घर में एक खाली भांड़ रख गयी थी। यह करनी और भांड़ किसी तरह भी खाना बड़ा कठिन था। इसलिए उन्होंने अपने आपको बिल्कुल भगवान के भरोसे छोड़ दिया और दर-ब-दर घूमने लगे। किसी ने कुछ दे दिया तो खा लिया और नहीं तो चुपके से सो गये। पनही से कोई सरोकार नहीं, एक फटी लंगोटी पहने जिसके द्वार पर पहुंच जाते, वही साधु समझकर इनके चरणों पर लोट जाता था। ये किसी से बोलते-चालते भी नहीं थे, इसी कारण लोगों का ख्याल हो गया था कि ये कोई पहुंचे हुए महात्मा हैं। इसी समय कुछ लोग इन्हें महात्मा बुद्धूदेव कहने लगे। पीछे इनका नाम ही यही पड़ गया। एक दिन वे किसी बनिये के दरवाजे पर पहुंचे। बनिये ने आवभगत करके कहा-‘महात्मा जी…!’ बुद्धूदेव का मिजाज उस दिन कुछ बमका हुआ था। तड़ककर बोले-‘खबरदार, मुझे महात्मा कहोगे तो मैं सिर तोड़ दूंगा। मैं बहुत मामूली आदमी हूं।’ जो आदमी साधुओं की सेवा करते हैं, वे अपने मतलब से किया करते हैं। अगर कोई मतलब न हो तो सब साधु भूख के मारे मर जायें। किसी का मतलब रहता है कि मुझे बिना परिश्रम के बैकुण्ठ मिल जाये, कोई धन चाहता है, कोई लड़का चाहता है, कोई निरोग होना चाहता है। वह बनिया भी अपने मतलब से ही बुद्धूदेव की खातिर कर रहा था। अपनी दुकान पर बैठे-बैठे बेफिक्री के मारे मुटाकर भिसिंड बन गया था। देखो तो ऐसा लगे जैसे भूसे का ढेर। यही फिक्र थी कि किसी तरह दुबला हो जाऊं। तो जब उसने देखा कि बुद्धूदेव का मिजाज ही नहीं मिलता, तब उसने विनय से अपना काम निकाला, बोला-‘देखिये महाराज, बिगड़ने का काम नहीं। पहले क्रोध थूक दीजिए, तब मेरी बात सुनिये।’ महात्मा जी शान्त होकर बोले-‘अच्छा मैं सुनता हूं। बोलो, क्या कहते हो?’ बनिया बोला-‘अगर दुनिया में केवल मैं अकेला आपको महात्मा जी कहता, तो आप बिगड़ सकते थे, बल्कि बिगड़कर मार भी सकते थे, लेकिन आप देखिये, दुनिया में हर कोई आपको महात्मा जी कहता है। फिर जब सब कोई आपको महात्मा जी कहता ही है, तब केवल आपके अकेले विरोध करने से क्या होगा? आप जरूर महात्मा जी हैं। भला आपके महात्मा होने में क्या सन्देह है?’ तब बुद्धूदेव की आंखें खुल गयी, सोचने लगे-‘जब सब लोग मुझे महात्मा जी कहते हैं तब मैं जरूर महात्मा ही हंू। लेकिन, तारीफ तो देखिये, मुझे आज तक इसका पता भी न था कि मैं सचमुच कोई महात्मा हूं।’ बनिये से पूछा-‘खैर, तुम कहते ही हो तो मैं महात्मा ही मालूम होता हूं। लेकिन जरा मुझे यह बताना कि अब मैं क्या करूं?’ बनिया फौरन इनके पैरों पर गिर पड़ा। हाथ जोड़कर बोला-‘महाराज, आप मुझे यही वरदान दें कि कुछ दुबला हो जाऊं।’ इसमें कोई सन्देह नहीं कि बुद्धूदेव जी महात्मा होने से बहुत पहले ही दुबला होने की दवा जानते थे। वे बोले-‘तुम मन मसोसकर सिर्फ पन्द्रह दिनों तक उपवास रह जाओ। भगवान चाहेगा, तो तुम इतने में ही ऐसे दुबले हो जाओगे कि चलना-फिरना भी कठिन हो जायेगा।’ बनिये ने वरदान पाकर पुनः बुद्धूदेव जी को प्रणाम किया। खूब भरपेट तर माल खिलाया और मन ही मन खुश हुआ। इधर, बुद्धूदेव भी कम प्रसन्न नहीं थे। पहली खुशी तो यह थी कि अपने अनजाने में ही महात्मा हो गये, दूसरी खुशी थी वरदान दे सकते थे, और तीसरी बड़ी खुशी यह थी कि आज खूब छककर माल पर हाथ फेरा था। बुद्धूदेव जी सोचने लगे-‘अब तो महात्मा हो ही गया, इसमें कोई शक-सुबहा नहीं। खैर, कहो कि मुझे पहले ही यह खबर लग गयी कि मैं महात्मा हो गया हूं, भगवान बेचारे बनिये राम को युग-युग जिलावें। हां, मुझे अब क्या करना चाहिये?’ बुद्धूदेव जी तीन-चार महीने तक इसी उधेड़-बुन में पड़े रह गये। पीछे सोच-समझकर तय किया कि महात्माओं को बिल्कुल निराला भोजन करना चाहिये। ऐसा भोजन करूं कि जो देखें दंग हो जायें। बहुत विचार करने के बाद उन्होंने साबूदाना खाना आरंभ किया। दोनों जून एक-एक कटोरा साबूदाना उबाल कर पीते थे। मंडूकोपनिषद का पाठ भी किया करते थे, अब अगर कोई खाने के लिए अच्छी-अच्छी चीजें इनके सामने रखता, तो ये घुड़ककर कह उठते-‘इन चीजों को देखने से लार टपकती है। इन्हें फौरन मेरे सामने से हटाओ। मैं दोनों जून केवल साबूदाना खाया करता हूं। मेरे व्रत का हाल नहीं जानते?’ लोग कहते-‘वाह! देखो, कितने बड़े तपस्वी हैं। केवल साबूदाना खाकर ही जीवन-धारण करते हैं। धन्य हैं’ बुद्धूदेव को अब तपस्वी शब्द सुनकर चौंकना पड़ा था। महात्मा जी हो चुके थे, अब न जाने किधर से तपस्वी भी हो गये। इन्हें ख्याल आया कि अब तपस्वी भी हो ही गया, तब थोड़ी तपस्या भी कर लेनी चाहिए। बस एक दिन चुपके से उठे और जंगल की राह ली। कहीं जंगल इनका देखा-भाला तो था नहीं, जंगल खोजते-खोजते किसी शहर में जा निकले थे। मुश्किल से किसी तरह एक जंगल पा सके। पाना था कि बेखटक जंगल में घुस ही तो पड़े। ठीक बीचोबीच जंगल में जाकर तपस्या आरम्भ की। पहले तो धुआं पीकर रहने लगे। इसमें इन्हें बड़ी तकलीफ होती थी। धुआं पीते-पीते बड़े जोर से खांस उठते थे। खांसी के मारे इनका दम उखड़ जाता था। लेकिन तपस्या तो कठिन होती ही है। मोहनभोग खाकर तो तपस्या की नहीं जाती। इन्होंने डटकर तपस्या की। कभी हड़बड़ाकर पानी में घुस गये और सात दिन तक वहीं किसी टीले पर बैठे रहे। कभी उचककर किसी पेड़ पर चढ़ गये और उसकी डाल पकड़ तीन-चार दिनों तक लटकते रहे। कभी फल खाते थे, कभी कन्द-मूल, कभी मौज आ गयी तो किसी पेड़ की सारी पत्तियां नोचकर चबा जाते थे। इसी तरह इन्होंने सात वर्षों तक घोर तपस्या की। अब तो इन्द्रदेव घबराए। दौड़े ब्रह्मा जी के पास गये। बोले-‘बाबा, अब मैं बिना मारे मरा, यह कुष्मांडसेन जरूर मेरी गद्दी लेगा।’ ब्रह्मा जी ने आश्वासन दिया-‘ठहरो वत्स, घबराने की कोई जरूरत नहीं, बुद्धूदेव को मैं तुरंत तपस्या से हटा देता हूं।’ इन्द्र ने अपनी राह ली। ब्रह्मा जी बुद्धूदेव के पास आकर बोले-‘बेटा, वर मांग!’ बुद्धूदेव जी, घबड़ा गये-अब मांगू तो कौन-सा वर मांगू-‘प्रभो, जरा ठहर जाइये मैं सोचकर कहता हूं।’ यह कहकर बुद्धूदेव जी ने सोचना आरम्भ किया, तीन घंटे तक सोचते ही रह गये। आखिर ब्रह्मा जी कितनी देर खड़े रहते। डपटकर बोले-‘तुम्हें वरदान लेना है कि नहीं?’ डपट सुनते ही बुद्धूदेव जी का मिजाज सरक गया। जो कुछ सोच-समझ कर मांगना चाहा था, वह भूल गये। ब्रह्मा जी ने घुड़क कर कहा-‘जल्दी से तीन वरदान मांग ले, नहीं तो मैं जाता हूं।’ बुद्धूदेव जी ने हाथ जोड़कर कहा-‘हे प्रभो, यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं, तो मुझे यह वरदान दीजिये कि हज्जाम मुफ्त में मेरी हजामत बना दिया करे।’ ब्रह्मा जी ने कहा-‘तथास्तु, अब जल्दी से दूसरा वरदान मांग।’ बुद्धूदेव जी ने फिर हाथ जोड़कर कहा-‘हे प्रभो, यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं तो मुझे दूसरा वरदान यह दें कि जब मैं झोली सीने के लिए किसी दर्जी को कपड़ा दूं तो वह उसमें से एक अंगुल भी न चुराये।’ बुद्धूदेव ने जी-भर कर वरदान तो मांगा नहीं था। ब्रह्मा जी को क्रुद्ध देखते ही इनके हवास गुम हो गये थे, इसलिए हाथ जोड़कर बोले-‘हे प्रभो, यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं तो मुझे तीसरा वरदान यह दीजिये कि मैं जब चाहूं तब आपसे और तीन वरदान मांग लूं।’ एक दिन की बात है, बुद्धूदेव को निमंत्रण देकर एक सेठ जी अपने घर ले गये। सेठ जी ने इन्हें खूब डटकर खिलाया और इनके सोने के लिए एक चारपाई का प्रबन्ध कर दिया। संयोग की बात, चारपाई में बहुत अधिक खटमल थे। इनके सोते ही खटमलों ने धावा बोल दिया। इन्होंने इतना अधिक भोजन किया था कि करवट बदलने मे ंभी तकलीफ होती थी। खटमलों ने जो काटना आरम्भ किया तो त्राहि-त्राहि चिल्लाने लगे। सहसा इसी समय इन्हें अपने वरदान का ख्याल हो गया। जल्दी ब्रह्मा जी को पुकारकर बोले-‘हे प्रभो, मैं अभी आपसे तीन वरदान मांगता हूं। पहला वरदान मुझे यह दीजिये कि अभी फौरन इन खटमलों को मार डालिए। अभी मेरा पेट बहुत दुख रहा है, इसलिए मुझे दूसरा वरदान यह दीजिये कि किसी वैद्य के यहां से कोई पाचक की गोली मांग लाइये, और तीसरा वरदान मैं यही मांगता हूं कि जब मैं चाहू तब आपसे तीन वरदान और मांग लूं।’ क्या करते बेचारे ब्रह्मा जी! वचन हार चुके थे। तुरंत खटमलों को मारना शुरू किया। इन्हें यमलोक पहुंचाकर वैद्य जी के यहां गये। उनसे पाचक की गोली मांगकर बुद्धूदेव को खिलायी। तब अपने ब्रह्मलोक को जा सके। दूसरे दिन बुद्धूदेव कहीं जा रहे थे। रास्ते में राजा का साईस किसी घसकटे को ढूंढ़ रहा था। सहसा उसकी नजर बुद्धूदेव पर पड़ गयी। उसने पूछा-‘तू घसियारा है?’ बुद्धूदेव बिगड़ कर बोले-‘मुझे कौन घसियारा कहता है? देखता नहीं है, मैं महात्मा हूं?’ असल में इनकी सूरत ही बकलोल की तरह थी, इन्हें महात्मा समझना भी जरा मुश्किल था। साईस ने कहा-‘अच्छा, अगर तू घसियारा नहीं है तो जरा चलकर घोड़े की लीद तो उठा ला।’ इस पर बुद्धूदेव जी क्रोध के मारे जलते तेल के बैगन बन गये। फौरन ब्रह्मा जी को पुकारकर बोले-‘अभी तुरंत इस पाजी को तीन घूंसा मारिये। फिर इसको पटककर सिर मूंड दीजिये और तीसरा वरदान यह दीजिये कि जब मैं चाहूं तब आपसे तीन वरदान और मांग लूं।’ ब्रह्मा जी ने सोचा, ‘यह अजब बुद्धू है। कोई बढ़िया वरदान तो मांगता नहीं, मुफ्त में हैरान करता है। दुनिया में यह वरदान का झमेला न रहता, तो कितना अच्छा था।’ आखिर बड़ी मुश्किल से ब्रह्मा जी ने उस साईस को तीन घूंसे लगाये, फिर उसे पटककर उसका सिर मूंड़ा और तब चले गये। इसी तरह एक दिन बुद्धूदेव जी खा रहे थे। एकाएक इनके मन में विचार आया कि आज बैगन की पकौड़ी और कुछ दही-बड़े होते तो कितना अच्छा था। बस तुरंत हाथ जोड़कर बैठ गये। ब्रह्मा जी को पुकार कर बोले-‘हे प्रभो! कृपा करके कहीं से पाव भर बैगन की पकौड़ियां लेते आइये। मेहरबानी करके दो-चार दही-बड़े भी लेते आइयेगा और तीसरा वरदान यह दीजिये कि जब मैं चाहूं तीन वरदान और मांग लू।’ इसी भांति बुद्धूदेव जी को जिस चीज की जरूरत पड़ती ब्रह्मा जी को पुकारकर तुरंत उसी का वरदान मांग लेते। ब्रह्मा जी को इन्होंने हैरान-परेशान कर छोड़ा। आखिर एक दिन ब्रह्मा जी इन्हें फुसलाकर स्वर्ग ले गये। वहां स्वर्ग की छटा देखते ही बुद्धूदेव जी मस्त हो गये। बोले-‘अब मैं दुनिया में नहीं जाना चाहता।’ ब्रह्मा जी तो यह चाहते ही थे। इन्हें स्वर्ग में रख लिया। उसी दिन यह कानून बनाया कि केवल भगवान के नाम पर तपस्या करने वालों को उसकी मनचाही चीज वरदान से नहीं मिला करेगी। अगर उन्हें शौक हो तो वे उसके लिए परिश्रम करें। तब से देवलोक में यही नियम चलता है, और अब किसी को भी वरदान नहीं दिया जाता, केवल वास्तविक परिश्रम का पुरस्कार दिया जाता है।

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6 comments

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