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सदी का सबसे क्रूर क़ातिल- रवित यादव की कविताएँ

दिल्ली विश्वविद्यालय के लॉ फ़ैकल्टी के छात्र रवित यादव की कविताएँ पढ़िए। आज के समय में बहुत प्रासंगिक हैं-
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1- सदी का सबसे क्रूर क़ातिल
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झकझोरती हैं जब
कानों पर पड़ती चीखें
 
जब थमती सांसो के साथ
जीने की आस थरथराती है
 
जब टटोलते हो
ऊष्मा को तुम
अपने परिजनों के शरीर मे
 
चिताओं की आग के सामने
खड़े हुए
जब ठंडा पड़ता है
तुम्हारा खून
 
जब चिताओं की लकड़ियाँ
नही पूछती
उन पर लेटने वालों से उनका धर्म
 
हिंदी मुसलमान सभी
जब धधक कर
जल जाते है
तुम्हारी सरकारी
आग में
 
क्या तब भी तुम्हारा राष्ट्रवाद
 
तुम्हे अंधा बनाए रखता है?
 
जब इंसान नही
संख्याएँ मर रही होती है
तब क्यों नही मर रहा होता तुम्हारा भ्रष्ट ज़मीर?
 
ज़मीन के लिए लड़ने वालों
आओ बताओ
किस जगह जलाऊँ हिन्दू
और कहाँ दफनाऊँ मुसलमान।
 
रातों के सन्नाटे में
अस्पतालों से आती आवाज़ें
जब पैदा करती है सिहरन
तब क्यों तुम रैलियों में जाकर
बहरे शाशकों का शोर सुन रहे होते हो?
 
झूठे विकास की दौड़ में दौड़ते हुए
तुम्हारे फेफड़े जवाब क्यों नही दे जाते?
 
पकड़े माथा तुम सिर्फ इन्तेजार करो
मुर्दा पड़े कंक्रीट हो चुकी
शहर की गलियों में
दौड़ती हुई एम्बुलेंस के अंदर
साइरन के शोर के बीच
अपने किसी को मृत्यु शय्या पर
लेट जाने का
 
संकरे दरवाजों से
अस्पताल में अंदर घुसने की जद्दोजहद में
देखना तुम किसी अपने की ज़िंदगी को
यूँ ही अभावों में दम तोड़ते हुए
और जो दरवाजा पार कर भी गए
तो जल जाओगे बदइन्तेजामी की आग में
सुबह तक।
 
 
विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र
कमजोर नीवों के चलते
ढह गया है।
 
संविधान में जहाँ
भी लिखा है
ऑफ द पीपुल
फ़ॉर द पीपुल
बाय द पीपुल,
 
उसे फाड़ दो
उसका कोई मतलब नही है
या थमा दो उन्हें
जो कुछ दिन पहले
तुमसे तुम्हारे होने का कागज़
माँग रहे थे।
 
मैं उम्मीद कर सकता
की शायद लाशों की एकता
इंसानो की एकता को जगा दे
लेकिन
 
मुझे यकीन है तूफान के थमने के बाद
तो भूल जाओगे तुम अपनी इस त्रासदी को
जैसे भूल गए तुम नोटबन्दी और धारा 370
और दबा आओगे अपनी खोखली आस्था
का ई वी एम।
 
 
 
2- खोखली आस्था का ई वी एम
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उखड़ती साँसों के बीच
दौड़ती,
भागती ,
गिरती ,
चीखती ,
रोती ,
बिलखती
ज़िन्दगी..
 
जिसकी तुम्हे परवाह नही।
 
तुम्हे फिक्र है तो बस तर्जनी में लगी स्याही की।
 
 
 
तुम भूलना मत कि
 
जिन जिन तर्जनियों ने तुम्हे अपनी स्याही से
सत्ता के शिखर पर पहुँचाया
वो हर एक तर्जनी
उठेगी तुम्हारी तरफ
होगा तुम्हारा भी एक दिन हिसाब।
 
 
 
जलती चिताओं के धुएं में
दम तुम्हारा भी घुटेगा।
 
लहू का एक एक कतरा
तुम्हारी सफेद पोशाकों में
दूर से नजर आएगा
और तुम्हें कहा जाएगा
इस सदी का सबसे
क्रूर कातिल।
 
तुम पहले ऐसे कातिल होंगे
जिसने अपने अंधेपन से
देखी होगी हजारों मौतें
 
जिसके बहरेपन से
मचा होगा हाहाकार
 
जिसने जहर की जगह
उम्मीद देकर लोगो को मारा होगा।
 
 
एक दिन जब ये मौतें रुकेगी
तब होगा तुम्हारा हिसाब
गवाही देगा इतिहास
तुम्हारे ख़िलाफ़
वर्तमान तुमको छोड़ देगा
लावारिस कुत्ते की तरह
और भविष्य तुमको
बुरे स्वप्न की तरह करेगा याद।
 
क्रूरता की पराकाष्ठा
के उदाहरण के रूप में
छापा जाएगा तुम्हे सरकारी किताबों में।
 
 
तुम कायरता में पीछे छोड़ चुके होंगे
तमाम उन कायरों को
जिनके ख़िलाफ़ तुमने कभी खुद जंग लड़ी थी।
 
हिटलर, मुसोलिनी सब बौने हो जाएंगे
तानाशाहों की कतार में
तुम होंगे सबसे आगे।
 
अभी भी वक्त है
रोक लो इस तबाही को
इतनी मौतों के दाग
दामन में लेकर
कोई नही जी पाया।
 
तुम्हे तो गंगा मैया ने बुलाया था
अपनी अस्थियों को इतना पवित्र तो रखो
की उसी में गर्व से अंत में बह सको।
 
 
3- शीर्षक- कोई और दुनिया है क्या?
————-
भागते शहर में रुक रुक कर चलना आसान है क्या?
आसान है क्या असफल होकर भी खुश होकर जीना?
सफलता के पैमाने सब के लिए एक ही क्यों?
हर बात का जवाब नौकरी ?
हर आस का ठिकाना नौकरी?
कंप्यूटर पर बैठकर लाख कमा लेना,
मा बाप के लिए घर बनवा देना,
शादी के लिए कलेक्टर लग जाना
ये इतनी उम्मीदें कहीं हमे तोड़ न दे।
 
 
कोई और दुनिया है क्या ?
जहाँ हमारी सभ्यता फिर से आग की खोज से शुरू कर सके।
इस बार आग की खोज के बाद सिर्फ खाने की खोज होगी
उसके बाद की सारी खोजे बंद।
आखिर हमने हासिल ही किया है
इन लगातार होते अविष्कारों से।
बिजली खोज लेने से पहले
हमने सोचा था क्या
कि उसका बिल भरने के कितनी खाली जेबें
अपना मुंह ताकती फिरा करेंगी।
हम एक जाल में है।
दुनियादारी के जाल में।
मकड़ी के जाल से भी बेहतर बुना गया है ये जाल।
मक्कारी से,
जालसाजी से,
बेईमानी से।
पहले अमीरी और ग़रीबी के बीच
एक कुआं था
फिर एक खाई आ गयी
इस खाई के सबसे नीचे इंसानो की एक परत है।
उस परत को खुरचकर
कोई एक आद
खाई को लांघता है।
मिलता है दूसरी ओर की सम्पन्नता से।
और भूल जाता है
जहाँ से वो आया है
वहाँ अब भी लोग है उसके।
 
मेरे देश के गरीबों
अगर तुम चाहते हो कि ये असमानता की खाई
और गहरी न हो
तो वही नीचे अपनी दुनिया बसा लो
काट लो खुद को इन अमीरदारों से
न आओ इनके किसी के काम
न माँजों इनके बर्तन
न धो इनके कपड़े
न करो इनकी गुलामी।
क्यों आते हो शहर?
भेड़ो की तरह।
 
और कितनी दुत्कार ?
 
लौट जाओ इन शहरों से
मत बनाओ उन सड़को को
जिस पर तुम चल न सको
मत बनाओ उन इमारतों को
जिन में तुम रह न सको।
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10 comments

  1. I am so proud off you

  2. SHUKRIYA IS HAUSLA AFZAI KE LIYE PRABHAT JI 🙌

  3. bahut kathor aur dil jalane wali baaten. great piece of writings

  4. वास्तविकता को दर्शाती कविताएँ बहुत अच्छा भैया

  5. बेहद ही मार्मिक और यथार्थ को दर्शाती कविताएँ… बहुत बधाई!

  6. युवा जाग चुका है बस क्रांति की बिगुल बजना बाकी है। अत्यंत मार्मिक और समय के यथार्थ को नस-नस में उकेरने वाला कविता।

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