
अजय सोडानी को हम सब उनके यात्रा वृत्तांतों के कारण जानते हैं। आज उनकी दो कविताएँ पढ़ते हैं। इन कविताओं में हम सबकी आवाज़ भी शामिल समझिए। आज के हालात पर चुभती हुई कविताएँ-
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न भगवा, ना सब्ज़
न भाषण, ना शासन
न चोटी, ना टोपी
न जुन्नार, ना जपनी
माद्दा नहीं किसी में
जो बांधे मुझे!
ओ बिकाऊ सिरदारों
लगाते आवाम तुम
चौपड़ की चाल पर
कुछ तो शर्म करो।
ओ भ्रष्टमति सयानों
पेलते झूठ तुम
सियासी ताल पर
कुछ तो शर्म करो।
ओ बेग़ैरत अफ़सरों
चाटते जूतियाँ तुम
फ़र्ज़ के नाम पर
कुछ तो शर्म करो।
ओ लुंचक पीठाधीशों
गटकते लहू तुम
प्रभु के नाम पर
कुछ तो शर्म करो।
बेशर्मों सुन लो
मैं
न चुप रहूँगा
न चुप सहूँगा
सुर्ख़रू इंक़लाब हूँ मैं
घुला-मिला
रक्तकण में लाचारों के
जो दबोचा तुमने,
फिसल गिरफ़्त से,
खड़ा होऊँगा
सीना ताने
सामने तुम्हारे
हर बार
इतिहास नहीं जानते?
जान जाओगे!
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आप पढ़ते हैं
होलोकास्ट, चेरनोबिल को
वक़्त की चादर पर अपवाद
एक काले लम्हे की तरह
कि लोग तब जिबह हुए
कि आँकड़े तब लुकाये गये
जब तारी थी सनक एक आदमी पर
औ थी जब ’पार्टी-कमेटी’ ख़ूंरेज भी
हम-आप न जानें भले पर
चिडि़या सब जानती है
कि हिटलरियत होती लाफानी
और बाँबियाँ काल निरपेक्ष
चिड़ी से खबर है इनदिनों
कि जुमलों की चाशनी में लपेट
बांबियों पर फेंक दिये गये लोग
दंश से तड़प-तिलमिला रहे
कीड़ी-माटी नाक-मुँह-फेफड़े में
उतर लील रही है जिस्म
रफ़्ता-रफ़्ता, खुरच-खुरच
कि निर्बाध पवन के बीच लोग
तरस कर हवा के मर रहे घुट-घुट
भयाक्रान्त मेमने बाड़े में क़ैद रिरिया रहे
कमेटी कर रही रेलियाँ
कुत्तों की सी फ़र्माबरदार दीमकें
लील रही हैं आँकड़े
और आप चाहे मानते रहें अपवाद
होलोकास्ट औ चेर्नोबिल को
पर पागल चिडि़या नहीं मानती
कि सुन पड़े उसे
नीरो सम बाँसुरी-नाद आज भी
कि देख रही वह
हिटलरियत का खूनी नाच आज भी
इसी कर के इन दिनों
चिडि़या की चहचह में है रुदन
इसी करके टिटहरी
चीखे है रात को जब तब
कि जख़्मी जिस्मों उठो
निकल किरच थाम
मेलों-रैलियों से बाहर
खेंच ले कमेटी से
अपने हिस्से का पवन
कि कोई प्रतिज्ञाबद्ध भीष्म नहीं तुम
रोक दो दरबारी द्यूत क्रिड़ाएं
ज़ब्त हों पासे शकुनी के अब
उठो कि है समर सर पर
और यह जाँघिये में हाथ डाल
पड़े रहने का वक़्त नहीं।
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बेहतरीन समसामयिक। सिझा करने के लिए धन्यवाद