सुहैब अहमद फ़ारूक़ी पुलिस अफसर हैं, गम्भीर शायर हैं। वे उन शायरों में हैं जो अच्छा गद्य भी लिखते हैं, जैसे यह संस्मरण देख लीजिए-
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‘मुन्ना! क्या यह स्पोर्ट्सस्टार मैं ले लूँ?’ इदरीस भाई ने यूँ तो स्पोर्ट्स्टार ले तो रखी ही थी अपने हाथों में। मगर इस ‘ले लूँ’ का मतलब स्थाई रूप से लेने से था। मिट्टी के तेल वाले स्टोव पर चढ़ी खिचड़ी अभी दम पर थी मतलब उसके पकने में वक़्त था। दम के इस वक़्त को गुज़ारने के लिए इदरीस भाई स्पोर्ट्स्टार के पन्ने पलट रहे थे। कवर पेज पर स्टेफ़ीग्राफ़ का मनमोहक चित्र था। इदरीस भाई की नज़रें कवर पेज पर आकर रुक जाती थीं। पता चला कि मेरी तरह वह भी स्टेफ़ी के दीवाने थे। मरे हुए मन से मगर ऊपर से फ़राख़-दिली दिखाते हुए मैंने कह दिया जी ले लीजिए।
साल 1989 या शायद 1990 था। महीना भी याद नहीं। सर्दियां चढ़ रही थी या उतर, यह भी नहीं याद। मगर खिचड़ी का सीज़न ज़रूर था। खिचड़ी से मुराद नई उड़द दाल और नए चावल से बनी खिचड़ी है। जाड़ों में मुरादाबाद और बिजनोर ज़िलों का यह मुख्य व्यंजन है, जो सूरज के चढ़ने के बाद मीठी धूप निकलने पर खाया जाता है। इस इलाक़ाई व्यंजन की विशेषता यह है कि इसका ग़रीब से लेकर अमीर घरों तक एक समान भाव और श्रृद्धा से सेवन किया जाता है। यह नाममात्र को ही खिचड़ी होती है क्यूंकि इस मुख्य व्यंजन की साइड डिशेज़ आपके बजट के अनुसार इतनी हो सकती हैं जितनी फाइवस्टार रेस्टोरेंट के किसी मेन-कोर्स की भी नहीं। घी, दही, दूध की मलाई, छाछ, हरे धनिये-हरी मिर्च की चटनी, लहसुन-लाल मिर्च की चटनी, अचार के साथ खाई जाती है खिचड़ी और अगर रात की सब्जी बच रही हो तो वह भी खिचड़ी को भीतर और बाहर दोनों तरफ़ से समर्थन दे देती है। हज़रात वह स्वर्गिक आनन्द प्राप्त होता है कि आत्मा तक तृप्त हो जाती है।
#स्योहारा: उन दिनों का मेरा पता 107/10, मोहल्ला मिलकियान, स्योहारा, जिला बिजनोर था। हिन्दू कॉलेज, मुरादाबाद से बीएड कर रहा था। स्योहारा-मुरादाबाद-स्योहारा ट्रेन से अप-डाउन वाली पढ़ाई थी। स्ट्रगल के उन दिनों में पढ़ाई के अलावा ज़िन्दगी का दूसरा अहम काम क्रिकेट के साथ जीना था। तब सोते जागते खाते क्रिकेट ही था। हालांकि पढ़ाई का स्थान रिलीजियस ड्यूटी जैसा था मगर मोक्ष की प्राप्ति तो क्रिकेट खेलकर ही होती थी। स्योहारा के दोनों इण्टर कालेज की फ़ील्ड्स पर तो सीनियर खिलाड़ियों का क़ब्ज़ा रहता था। काउंटी क्रिकेट वाले हम जैसे बी-क्लास खिलाड़ी मोहल्ले के खाली प्लॉट्स या आस पास के बंजर खेतों पर निजी मेहनत से बनाई हुई पिच पर खेलते थे। हाँ! इन क्रिकेट-ग्राउंड्स में खेल संशोधित नियमों के साथ खेला जाता था। किसी के घर में शॉट का छक्के के रूप में जाना आउट तो माना जाता ही था लेकिन गेंद को वापस खेल में लाना भी उसी बल्लेबाज़ की ज़िम्मेदारी थी। खेत में पिच तो आप अपने ज्ञान और अनुभव द्वार अर्जित तकनीक और उपलब्ध संसाधनों से तैयार कर लेते थे मगर आउट फील्ड तैयार करना हर तरह की पहुँच से दूर था। कितना ही बढ़िया कट या ड्राइव शॉट लगाओ मगर क्या मजाल गेंद पहले टप्पे के बाद बाउंड्री तक फील्डर से पहले पहुँच जाए। कभी कभी तो तीसरा रन यूँ मिल जाता था कि फील्डर जिसकी पोज़ीशन शॉट के नज़दीक होती थी वह पहले इंतज़ार करता था कि गेंद बाउंडरी तक खुद ही पहुँच जाए मगर मजबूरन उसको ही आउट-फील्ड में रुकी गेंद तक पहुंचना होता था। तब बल्लेबाज़ के पास अपनी महारत दिखाने को एक ही शॉट था कि गेंद बिना टप्पा खाए बाउंड्री पार हो। लेकिन छक्के के साथ यह दिक्क़त कि गेंद नाली या झाडी में कौन ढूंढे? क़ब्रिस्तान की साथ वाली फ़ील्ड्स के साथ तो गेंदों के गुम होनी की वारदात आम थी। अब मुर्दों से कौन छीन कर लाये? उन दिनों चन्दा करके क्रिकेट की किट जुटाई जाती थी। प्रैक्टिस में तो रबर या कॉर्क वाली गेंद का इस्तेमाल होता था। इतवार और छुट्टी को दूसरी टीम के साथ मैच होता था। तब परस्पर विरोधी टीमें एक मत होकर आधी आधी राशि डालकर नई लेदर बॉल खरीदते थे। जीतने वाली टीम खेली हुई वही लेदर-बॉल ‘विक्ट्री-ट्राफी’ के रूप में ले जाती थी और फिर ख़ास-ख़ास मौकों पर प्रैक्टिस उस बॉल से होती थी। मिलकियान में उन दिनों एक नया क्रिकेट फील्ड विकसित हुआ था। ठाकुरद्वारा रोड पर आमों के पुराने बाग़ थे। आम के पेड़ों की उम्र ज्यादा होने के कारण उन पर फल नहीं आते थे। आवासीय प्लॉट्स के रूप में विकसित होने की संभावना के साथ वह बाग़ धीरे-धीरे हम बी-क्लास खिलाड़ियों के ग्राउंड के तौर पर इस्तेमाल होने लगा था। शुक्र है उन बड़े ज़मींदारों का कि उन्होंने अपनी जायदाद के साथ इस हो रहे खेल का बुरा नहीं माना। बस उस क्रिकेट-ग्राउंड की यह निराली बात थी कि उसमें लगे पेड़ पूर्ण निरपेक्ष भाव से बल्लेबाज़ की प्रतिभा और फील्डर के कौशल की घड़ी-घड़ी परीक्षा लेते रहते थे। इस निरपेक्षता को यूँ समझिए कि जो पेड़ चौके या छक्के की राह में अड़ने पर बल्लेबाज़ द्वारा कोसा जाता वही पेड़, अगले हवाई शॉट पर निश्चित रूप से कैच लपकने को तत्पर फील्डर के रास्ते में आ जाता और कोसने वाला वही बल्लेबाज़ अब उसे दुआओं से नवाज़ देता था।
उन दिनों उबैद अख्तर साहब, जिनको प्यार से बब्बू भाई बुलाया जाता था। बुलाया अब भी बब्बू ही जाता है मगर अब वह बब्बू मास्टर हैं, डबल-विकेट क्रिकेट टूर्नामेन्ट बड़े धूम धाम से कराते थे। तीन या चार दिन का उत्सव सा हो जाता और इसी तरह पूरे उल्लास से टूर्नामेंट संपन्न होता। इस टूर्नामेन्ट की ख़ास बात यह भी थी कि हर छक्के पर छ: रूपये का नक़द इनाम भी दिया जाता था। इन छ: रुपयों की क़ीमत का अंदाज़ा ऐसे लगाएं कि उन दिनों विल्स-नेवी-कट दस सिगरेट्स की एक डिब्बी साढ़े तीन रूपये में आती थी। इस टूर्नामेन्ट में आस पास के कस्बों, शहरों से पेयर आते थे। कुलीनता की ड्रेस उतारकर ए-ग्रेड के स्थानीय खिलाड़ी भी इस टूर्नामेन्ट में शामिल होते थे। बाहरी खिलाड़ियों को कार्यकर्ताओं के घर-बैठकों में ठहराया जाता था। मेरे पैतृक गाँव उमरी-कलां से भी इदरीस-भाई और शाद-भाई की जोड़ी इस टूर्नामेन्ट में आई थी। दोनों का स्योहारा में ठहरने का ज़िम्मा मेरा था। वे दोनों एक रात पहले मेरे पास आये थे। उन दिनों मैं ही अकेला स्योहारा रह रहा था। बाक़ी परिवार एक बार फिर ऊमरी शिफ्ट हो गया था। सुबह उठ कर फ्रेश होकर खिचड़ी के दम में आने का इंतज़ार किया जा रहा था। दम के इस वक़्त को गुज़ारने के लिए इदरीस भाई ने मेरी बुक-शेल्फ़ में से स्पोर्ट्स्टार उठा ली। मैं संघर्ष के उन दिनों में भी स्पोर्ट्स्टार जैसी अंग्रेज़ी मैगज़ीन ख़रीद कर पढ़ता था। तो इदरीस भाई स्टेफ़ी ग्राफ़ को मांग बैठे। सीनियर और स्योहारा में मेहमान होने के नाते मैं ‘न’ न कर सका।
#उमरी-कलाँ: इदरीस भाई और हम एक ही मोहल्ले के हैं। लेकिन हमारी फ़ेमिली पापा के ट्रांसफरेबल जॉब में होने के कारण एक जगह नहीं रही। आपातकाल के बाद हम लोग एटा से गाँव में रहने के लिए आ गए थे। पापा की पोस्टिंग पहाड़ों पर यानी उत्तरकाशी हो गयी थी। मेरे होश में गाँव में रहने का यह पहला तजुर्बा था। गाँव में पुरखों के हवाले से अभी भी इज्ज़त बनी हुई है मगर उन दिनों हमारी फ़ेमिली की शहर में रहकर आने की वजह से भी इलीट वर्ग वाली क़द्र होती थी। ताए-मियाँ की वजह से बेडमिंटन घर में खेला जाता था। लेकिन क्रिकेट हमारी वजह से ही आया था गाँव में। उन दिनों घर में ऊपर मंजिल वाले कमरे के फ़र्श/सीलिंग की लकड़ी की कड़ियों को एक किनारे से खोलकर लकड़ी का एक ज़ीना बनवा कर उतरवाया गया था। काफ़ी दिनों तक लोग पापा की इस इंजीनियरिंग-कृति को देखने आते रहे थे। मैंने पापा से ज़िद करके इस ज़ीने के बनाने में इस्तेमाल हुए लकड़ी के मोटे लट्ठे (कुंदे) से स्पेशल बैट बनवाया था। इस बैट के साथ हम दोनों भाई अन्य कज़िन्स भाइयों के साथ फाटक के सामने क्रिकेट खेलते थे। विकेट फाटक की उत्तरी दीवार होती थी। ठीक से खेलना सिखाने के बहाने से ताए मियाँ और इसरार ताए भी इस बैट-बॉल पर हाथ साफ़ कर लेते थे। पापा के ट्रांसफ़र होने पर 1979 में हमारी फ़ेमिली देहरादून चली गयी। 1981 में पापा को फिर पहाड़ों पर ट्रांसफर कर दिया गया। उसके बाद हम लोग स्योहारा शिफ्ट हुए। हम बड़े तीन भाई बहन मुस्लिम क़ुदरत इंटरमीडिएट कॉलेज, जिसको शोर्ट में एमक्यू कहते हैं, में दाखिल हुए और छोटे दोनों बहन और भाई जन्नत-निशां प्राइमरी स्कूल में। इस शिफ्टिंग के पीछे की वजह यह थी कि स्योहारा सड़क और रेल मार्ग से कनेक्टेड था और ऊमरी से नज़दीक भी। इसी नज़दीकी की वजह से ऊमरी आना जाना होता था। इस बीच ऊमरी में क्रिकेट ख़ासा पोपुलर हो चुका था। पब्लिक इण्टर कालेज की सामने की ज़मीन में बाक़ायदा ग्राउंड बनाया जा चुका था। हम ऊमरी में इससे पहले इस फ़ील्ड पर सिर्फ़ वॉली-बॉल ही खेलता छोड़ आये थे। मुहल्ले में हम जैसे बाहरी दो तीन नए बच्चों की आमद हुई थी। वे भी बाहर रहने के बाद ऊमरी आ बसे थे। पहले मैं इदरीस, अय्यूब और याक़ूब तीनों को सगा भाई समझता था। बाद मैं पता चला इदरीस भाई चाचा थे जो पूरे छ: महीने भतीजे अय्यूब से बड़े थे। बड़प्पन का यह बाई-डिफॉल्ट एहसास आजकल की पीढ़ी में कहाँ? अब तो आलम यह है कि सगा भाई या सगी बहन ढूँढने से मिलती है। इदरीस भाई से वहीँ सी जान-पहचान होनी शुरू हुई थी। क्या ग़ज़ब की हिटिंग वाली बैटिंग थी उनकी। कॉलेज एंड से उनका लगाया हुआ वह छक्का, जो फ़ील्ड के बाहर पावर–ग्रिड वाले ऊंचे तारों वाली लाइन को पार गया था, उस समय दर्शनीय था एवं अब अवर्चनीय है। इदरीस भाई वग़ैरह की वजह से क्रिकेट ऊमरी के बच्चों में काफ़ी मक़बूलियत पा चुका था। हमारे घर के बड़े हॉल में क्रिकेट के वर्ल्ड कप व अन्य मैचों को सामूहिक रूप से देखा जाता था। खेलों की इस रूचि के कारण इदरीस भाई ताए-मियाँ के बहुत नज़दीकी थे। मेरे स्योहारा में रहने की वजह से ऊमरी के बारे में जानकारी कम ही है। अब भी पूछताछ से ही काम चलाता हूँ। उन दिनों मुझे बस यह पता था कि इदरीस भाई अपने भाई-बहनों में सबसे छोटे हैं और केजीके कॉलेज, मुरादाबाद में भूगोल से एमए कर रहे थे।
टूर्नामेन्ट में इदरीस भाई और शाद भाई की जोड़ी सेमी-फ़ाइनल तक पहुँची। रामपुर वाले वकील खान वाली जोड़ी ने उन्हें हरा दिया था। शाद भाई क़द में छोटे होने के बावजूद पेस बॉलर थे। लसित मलिंगा वाले स्टाइल से योर्कर फेंकते थे। मगर इदरीस भाई के छक्कों ने बाग़ में धूम मचा दी थी। इसके बाद एक दो साल और उबैद भाई ने यह टूर्नामेन्ट और कराया। फिर सब नौकरी, काम , ब्याह शादी में लग कर अपनी-अपनी आपा-धापी, जिसे ज़िन्दगी कहते हैं, में व्यस्त हो गए।
इसी शहर में कई साल से मिरे कुछ क़रीबी अज़ीज़ हैं….!
मैंने, सन 2012 में क्राइम ब्रांच की इलीट यूनिट स्पेशल ऑपरेशन स्क्वाड को ज्वाइन किया था। इसका ऑफ़िस कोतवाली दरियागंज में था। एमक्यू के सीनियर उस्मान भाई को पता चला, फ़ौरन मिलने आ गए। उन्होंने ज़िक्र किया कि ऊमरी के एक डॉ इदरीस साहब हैं जो ऐवाने ग़ालिब में नौकरी करते हैं। मेरे कान खड़े से हुए। कन्फ़र्म हो गया कि यह तो अपने इदरीस भाई हैं।
अगले हफ्ते इदरीस भाई ऑफ़िस में थे। दशकों बाद इतनी नज़दीकी से बात हो रही थी। लेकिन पुरानी अपनाईयत को तरक्क़ी और ओहदों के तकल्लुफ़ की दीमक चाट गयी थी।
‘सुहैब साहब आपको यहाँ देख कर बहुत अच्छा लगा।’ देख कर तो मुझे भी इदरीस भाई को बहुत अच्छा लगा था मगर यह नहीं अच्छा लगा कि मैं मुन्ना से सुहैब साहब हो गया। आह !
बहुत अजीब है ये क़ुर्बतों की दूरी भी
वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला
(बशीर बद्र)
मालूम हुआ कि वह ग़ालिब इंस्टिट्यूट, नई दिल्ली में क्लर्क हैं लेकिन प्रोमोशन ड्यू है। घर भी यहीं दरियागंज में ही है। 1989 में दिल्ली में ग़ालिब इंस्टिट्यूट में क्लर्क लग गए थे। मगर उनकी ज्ञान-क्षुधा अभी शांत नहीं हुई थी। उसके शमन के लिए वह दिल्ली विश्वविद्यालय से उर्दू में एमए, एमफ़िल और पीएचडी करके ही माने। इसके बाद इदरीस भाई से फ़ोन पर बात होती रही।
मैं, 2015 में थाना जामिया नगर नियुक्त हुआ था। पिछले पांच-छ: साल से, शायर बनने की जो कुलबुलाहट थी, इस पोस्टिंग के दौरान बाहर निकलने लगी थी। इस पोस्टिंग से मैं शायर के रूप में स्थापित होना शुरू हो गया। 2016 के शुरू में अचानक इदरीस भाई के नम्बर से एक वीडियो आया। मेरी जामिया मुशायरे की क्लिप थी। देख ही रहा था कि उनका फ़ोन भी आ गया। उत्साह में थे, मगर शिकायत कर रहे थे, “कमाल है सुहैब साहब आपने बताया भी नहीं कि हमारी बस्ती में, हमारे मोहल्ले में एक नए लहजे का शायर है और हमें पता भी नहीं।” ओह! ओह! तब मुझे ध्यान आया कि इदरीस भाई तो ग़ालिब इंस्टिट्यूट में हैं और शायद अब वहाँ एडमिनिस्ट्रेटिव अफ़सर हो चुके हैं। उनकी शिकायत उचित थी कि उनको क्यूँ नहीं बताया कि मैं शायरी करता हूँ। उनके यहाँ मतलब ग़ालिब इंस्टिट्यूट में मुशायरे आयोजित होते रहते हैं और अभी तक मैंने वहाँ कोई मुशायरा नहीं पढ़ा। मैंने जवाब दिया इदरीस भाई मैं तो शौक़िया पढता हूँ। ‘मैं शायर हूँ इस पर मुझे तो शक है ही, मगर दूसरे शायरों को तो इस बात पर पूरा यक़ीन है। मगर क्या करूँ? चाहने वाले बढ़ते जा रहे हैं। अस्ल वजह मैंने उनको बाद में बताई कि मैं सिफ़ारिश से नहीं पढ़ना चाहता। इसके बाद मैंने 2017 और 2018 में ग़ालिब इंस्टिट्यूट के सालाना मुशायरे पढ़े। पहले मुशायरे में मुझ पर पर अतिरिक्त भार था। मुझे तो कामयाब होना ही होना था लेकिन इदरीस भाई का भी पास होना ज़रूरी था। मेरे पढ़ने के बाद श्रोताओं की तरफ़ से मुझको मिले रिस्पोंस पर उनका चेहरा ऐसे दमक रहा था कि जैसा हमारे वक़्त में हाई स्कूल में फर्स्ट डिविजन आये हुए स्टूडेंट का चेहरा दमकता था। हम दोनों ही डिस्टिंक्शन से पास हुए थे।
26.05.2021 को मुईन शादाब साहब से मालूम हुआ कि इदरीस भाई को ग़ालिब इंस्टिट्यूट का कार्यवाहक डायरेक्टर बना दिया गया है। मेरे लिए वाकई यह निजी ख़ुशी का लम्हा था। फ़ोन पर मुबारकबाद दे दी गई। गाँव में व्हाट्सएप से सूचना दी गयी। नए बच्चों ने पूछा कि कौन हैं यह डॉ साहब? ख़ुलासा करने पर उनके परिवार का पता चला तो उन्होंने पहचान लिया, कहा अच्छा वो, जिन्होंने तारों पे छक्का पहुँचाया था।
दीवार-ए-ज़िन्दगी में दरीचा कोई तो हो…!
मुझसे रहा नहीं गया। अगले दिन मिलने ग़ालिब इंस्टिट्यूट चला गया। कोरोना लॉक-डाउन प्रदत्त फुर्सत में उनके ऑफिस में बहुत देर तक बैठा। पचास प्लस की उम्र वाली बातें शुरू हुईं। अतीत की खिड़कियाँ खुलती गईं। धीरे-धीरे पता भी नहीं चला कि कब हम उम्र को उल्टा गिनते हुए दिल्ली-वाया-मुरादाबाद-वाया-अमरोहा-वाया-स्योहारा ऊमरी पहुँच गए। मैं, इंस्पेक्टर सुहैब फ़ारूक़ी से मुन्ना बन गया और वह डॉ इदरीस अहमद; एमए, एमफ़िल, पीएचडी से इदरीस भाई हो गए।
जब मैं न हूँ तो शहर में मुझ सा कोई तो हो
दीवार-ए-ज़िन्दगी में दरीचा कोई तो हो
इक पल किसी दरख़्त के साए में साँस ले
सारे नगर में जानने वाला कोई तो हो
(किश्वर नाहीद)
इदरीस भाई अपने घर में सबसे छोटे थे। उन दिनों सबसे बड़े भाई और सबसे छोटे भाई में पीढी का अंतर होना आम बात थी। उनकी माँ का देहांत उनके उनकी छ: साल की उम्र तक पहुँचने तक हो गया था। माँ के गुज़रने के बाद उनको रोटी खिलाने का ज़िम्मा बारी-बारी बड़े भाइयों में बंट गया था। उन्हें याद नहीं कि उनको पुचकार कर कभी किसी ने खिलाया हो। ऐसा भाग्य तो माँ वाले बच्चों के साथ ही होता है। कभी-कभी किसी भाभी को खाना खिलाना याद नहीं रहता तो भूखे ही रह लिए, भूखे ही सो लिए लेकिन ख़ुद्दारी में कभी माँग कर नहीं खाया। वालिद की दूरदर्शिता के चलते ऊमरी चौराहे पर ज़मीन खरीद ली गयी थी। उसमें हलवाई की एक दूकान थी। चालीस रूपये पर जलेबी बनाने के काम पर लग गए। फिर साप्ताहिक बाज़ारों में भी जलेबी बनाने के लिए जाने लगे। उन बाज़ारों में उनको साथ पढ़ते हुए और खेलते हुए लड़के मिल जाते थे। उनको देखकर आत्म सम्मान और दृढ़ हो जाता। उन्होनें आगे बताया कि जलेबी बनाने की उनकी कार्यकुशलता को देखकर सामने दुकान करने वाले हलवाई ने उन्हें साठ रूपए का ऑफर दे दिया था। लेकिन उनकी निष्ठा पुराने वाले हलवाई के साथ ही रही। मेरे लिए यह जलेबी बनाने वाला तथ्य एक रहस्योद्घाटन था। मैंने पूछ लिया कि क्या आपके बच्चों को पता है? उन्होंने नहीं में जवाब दिया। मैंने उनसे आग्रह किया कि अवश्य बताएं। आपकी संघर्ष-गाथा से उनको उदाहरण तो मिलेगा ही साथ ही जीवन का यह स्तर जो उनको टेक-इट-फ़ॉर-ग्रांटेड मिल गया है, उसको संभाल कर रखेंगे। ख़ैर! इदरीस भाई छोटे मोटे काम करने के साथ साथ पढ़ाई करते रहे। उस ज़माने में पढ़ाई और खेल दोनों अलग अलग क्षेत्र थे। कहने का मतलब यह है कि अध्यापक यह निर्णय कर लेते थे कि या तो पढ़ लो या खेल लो। लेकिन इदरीस भाई अपवाद रहे और उन्होंने पढ़ाई के साथ उन में मौजूद खिलाड़ी को भी ज़िंदा रखा। ऊमरी से अमरोहा होते हुए मुरादाबाद से भूगोल में एमए किया। रोज़गार की तलाश दिल्ली ले आई। कहीं न कहीं इदरीस भाई के संघर्ष को मैंने भी जी लिया। शिद्दत और मेहनत से किया गया काम आपको अवश्य सफल बनाता है।
इदरीस भाई का, ग़ालिब इंस्टिट्यूट, जिसको उर्दू साहित्य की दुनिया में ऐवाने ग़ालिब के रूप में जाना जाता है, के डायरेक्टर के रूप में उन्नयन मेरे लिए एक निजी सम्मान का विषय है। मुझे पूरा विश्वास है कि यह संस्थान इदरीस भाई के निर्देशन में नए आयामों को छूएगा और हमारी बस्ती का नाम डॉ इदरीस अहमद की निस्बत से पूरे विश्व में जाना जाएगा। अपना यह मतला इदरीस भाई और उन जैसे संघर्षशील लोगों को समर्पित करता हूँ।
इस दीदा-ए-बेनूर में तासीर अता कर
जब ख्व़ाब दिखाए हैं तो ताबीर अता कर
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