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सोनल की कहानी ‘जात्रा’

आज पढ़िए सोनल की कहानी। सोनल जी लेखिका हैं, दृश्य-श्रव्य माध्यमों के लिए भी लिखती हैं, सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनकी यह कहानी पढ़िए-

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 “ चलो तैयार हो जाते हैं. तीन साइट्स विजिट करना है जल्दी निकलना पड़ेगा।” देवेन्द्र  ने मुझसे कहा.

नीता ने कॉफ़ी का मग मेरी ओर बढ़ाते  हुए पूछा, “आप भी साइट पर जा रहे हैं भैया ?”

“हाँ, रास्ते में बातें भी कर लेंगे और इसका काम भी हो जाएगा.”

“तुम्हारे फ्रेंड इतनी दूर से आए हैं ..तुम दो-तीन दिन का ब्रेक ही ले लेते तो क्या पहाड़ टूट जाता ..पिछले छह  महीने में एक सन्डे भी पूरा दिन घर पर नहीं रुके हो तुम ..” अब वह अपने पति को संबोधित कर रही थी.

“तीनों साइट्स पर काम खुला पड़ा है और नेक्स्ट वीक बॉस की विजिट है.” ….कहते हुए  देवेन्द्र एक हाथ से कान पर मोबाइल लगाए, दूसरे हाथ में कॉफ़ी मग लिए बालकनी में चला गया.

“दो साल से तो हम बच्चों की समर वेकेशन तक में कहीं नहीं गए हैं , देवेन् को तो बस काम… काम और काम ..ये भी कोई लाइफ है.”

‘सच में, आजकल की वर्किंग कल्चर ही यही है. साइकल की गति एक सीमा से कम की तो संतुलन बिगड़ जाएगा.’ लेकिन मैंने नीता से यह सब नहीं कहा. इस समय मुझे  देवेन्द्र का दोस्त होने के नाते उसकी पत्नी की  शिकायतें सहानुभूति पूर्वक सुननी है और एक अच्छे मेहमान होने के नाते  नीता के पक्ष में सहमती भी देनी है.

मैं खुद अपने बारे में  सोचता हूँ. जब मैं लन्दन गया था तब  यही ख्याल था कि किसी  तरह थोड़ा पैसा कमा लूं बस,फिर इंडिया लौट आऊंगा. ज़िन्दगी अपने तरीके से जिऊंगा. लेकिन फिर बस कहाँ हुआ !  अब कहने को सब सेटल है पर उसे  सेटल बनाये रखने में व्यस्त हूँ. कितने सालों बाद देश आना हो पाया है . और वो भी गिने हुए दिनों के लिए जो भागे जा रहे हैं.

देवेन्द्र ने मोबाइल  चार्जिंग पर लगाया और बोला “नीतू कुछ ब्रेक फास्ट दे सकती हो हम लोगो को फ़टाफ़ट ?” उसके स्वर में निवेदन का भाव था.

लेकिन नीता अभी शिकायत वाले मन से बाहर नहीं आ पाई थी . उसके चहरे को देखकर मैं  समझ गया कि मेरे होने का ख्याल उसे कुछ कहने से ज्यादा देर तक रोक नहीं पाएगा.

मैंने उठ कर गेस्ट रूम की ओर जाते हुए कहा , “अरे यार इतनी सुबह-सुबह कौन खा सकता है.  विल टेक समथिंग ऑन द वे.”

देवेन्द्र  जिस कंपनी में काम करता है उसके कुछ कंस्ट्रकशन प्रोजेक्ट्स शहर से दूर एक ग्रामीण इलाके में चल रहे हैं. बारिश सामने है और उसके पहले काम पूरा किया जाना जरुरी है. आज उसे वहां पहुँचकर साइट की प्रोबलम्स सोल्व करना है  और काम  को स्पीडअप करना है  .

कुल पंद्रह मिनिट में तो हम  तैयार होकर गाड़ी में बैठ गए . देवेन्द्र  ड्राइविंग सीट पर बैठा. गाडी स्टार्ट हुई और एसयूवी  ने पल भर में स्पीड पकड़ ली . मुझे पुराना समय याद आ गया. एक बार किसी दोस्त के पिताजी की जीप जुटा कर हम चार- पांच दोस्त  पचमढ़ी गए थे. आधा रास्ता तो धक्का दे कर गाड़ी स्टार्ट  करते-करते ही कट गया था …और धूपगढ़ तो बस पत्थर लगा -लगा कर  ही गाड़ी चढाई थी हमने.

देवेन्द्र वह  किस्सा याद करके हंस पड़ा. “उन दिनों के अपने मजे थे यार ..” और फिर कॉलेज लाइफ़ के एक से एक मजेदार किस्से याद आने लगे. आज के एक्जीक्यूटिव  देवेन्द्र में  कोलेज के दिनों वाले उस  खिलंदड़ देवेन्द्र की छवि झांकने लगी. शायद यह काम के रास्ते में हम दोनों को मिल गए एकांत का असर था. एक शादीशुदा आदमी का अपनी पत्नी से एकांत मांगना, फिर चाहे वह किसी पुरुष मित्र के साथ समय बिताने के लिए ही क्यों न हो, एक असामाजिक – आपराधिक -अनाधिकार चेष्टा है. माँगा तो  बिल्कुल नहीं जा सकता ..जुगाड़ा ही जाए तो बेहतर .

कोई तीस  किलोमीटर चलकर हमने  मुख्य सड़क छोड़ दी और  दाहिनी ओर मुड़ गए. मोड़ लेते ही  सड़क एकाएक सिकुड़ कर सिंगल हो गयी. ‘एकांत में जाने के लिए सड़क को भी सिंगल होना पड़ता है’. मुझे अपने ही ख्याल पर हंसी आ गयी . शहर की आबादी  ने काफी दूर तक हमारा पीछा किया लेकिन हम  तेज चलकर उसे पीछे छोड़ आये.

जैसे ही  हमारी गाड़ी घुमाव लेते हुए घाटी में उतरने लगी तो धीरे-धीरे पूरा लेन्डस्केप  बदल गया . सड़क के दोनों ओर  ऊँची -नीची घाटियों में सागौन का जंगल फैला था . सड़क पर दौड़ती हमारी गाड़ी की आवाज भर वहां थी जो जंगल का सन्नाटा तोड़ रही थी .

कोई आठ साल हो गए मुझे देश छोड़े. इस बीच मैंने योरोप के लगभग सारे देश और आधा से ज्यादा अमेरिका घूम डाला है. स्विट्जर्लेंड तो तीन बार जाना हुआ. हाँ, वही स्विट्जर्लेंड जिसकी सुन्दरता के लोग दीवाने हैं .लेकिन क्या कहूं ! मुझे ऐसी व्यवस्थित सुन्दरता कभी नहीं बांधती. लाइन से खड़े एक जैसे पेड़ देखकर लगता है ये भी योरोप की कल्चर्ड सोसाइटी का हिस्सा हैं जो जानते हैं कि कब हिलना है और कब पत्ते गिराना है.  मुझे तो हमेशा से यह बेतरतीब जंगल ही भाता है . मनमाना होने की स्वच्छन्दता न जाने क्यों हमेशा खींचती है, हर तरह हर जगह .

हम आगे  बढ़ते जा रहे थे  और सड़क एक पगडंडी सी होती जा रही थी . अब वह  बीच-बीच से  बहुत उखड़ी भी मिल रही थी. “ इससे तो सड़क न होती तो ज्यादा ठीक होता ..सुबह सात बजे निकल कर भी पहुंचते-पहुंचते तो बारह  बज जाएगी.” देवेन्द्र को गाड़ी की रफ़्तार धीमी करनी पड़ी.

मैंने कहा “मैं तो बरसों बाद  किसी कंट्री साइट पर जा रहा हूँ …लगता है देश में कुछ भी नहीं बदला !”

देवेन्द्र ने गाड़ी को सेकंड गेयर में डालते हुए कहा “बदला है ..शहरों में बहुत तेजी से चेंजेस आए हैं लेकिन गाँव अभी भी वहीँ के वहीँ हैं. डेवेलेपमेंट के मामले में अर्बन और रूरल इंडिया दो अलग-अलग दुनिया हैं . मुम्बई,दिल्ली, कलकत्ता जैसे मेट्रो और कुछ बीस-पच्चीस शहरों को शामिल कर लो ..ये है एक टाइप का इंडिया और फिर ज़रा इनके आसपास निकल जाओ ..गाँव खेड़े में और देख लो असली भारत.”

 “भई, ये तो जाति और फाइनेंशियल स्टेटस से भी बड़ा भेद खड़ा हो गया. लेकिन मुद्दा ये है कि गाँव डवलप नहीं होंगे, मतलब देश की आधी आबादी पिछड़ी रहेगी. क्या किसी  सरकार का  ध्यान नहीं जाता गाँव की समस्याओं  पर ?”  …मैंने ज़रा विरोध के स्वर में प्रश्न किया  .

“उल्टा कुछ ज्यादा ही ध्यान है. सरकारें  तो समाजवादी दिखने के चक्कर में गाँव के  डवलपमेंट के नाम पर पानी की तरह पैसा बहा रही हैं. दुनिया भर की स्कीम्स हैं गाँवों के लिए. लेकिन कोई फ़ायदा  नहीं है” … देवेन्द्र ने सड़क का एक छोटा सा अच्छा पैच पाकर गाड़ी की गति फिर बढ़ाई.

“ये तो पॉलिसीमेकर्स को सोचना चाहिए ना !..कोई हल खोजना चाहिए इसका ?”

“कुछ नहीं कर सकते पॉलिसीमेकर्स…जिसको खुद नहीं होना डवलप उसका डवलपमेंट कोई नहीं कर सकता. खुद भी तो आगे बढ़ने की इच्छा होनी चाहिए ना.  अगर वो ही नहीं है तो आपको कोई जबरदस्ती तो आगे नहीं बढ़ा सकता ना !”

“तुम्हारा मतलब है गाँव के लोग डवलपमेंट नहीं चाहते ?  उनके मन में आगे बढ़ने की इच्छा ही नहीं है ? ..ऐसा थोड़े ही  होता है ” …. मैं देवेन्द्र  की बात से बिल्कुल सहमत नहीं था .

“ये देखो सामने,  तुम  जिन पर दया दिखा रहे हो ना, ये खुद अठाहरवीं सदी से बाहर नहीं आना चाहते. दुनिया जेट की रफ़्तार से उड़ रही है और ये .. देखो इन्हें ..ये बैलगाड़ी में बैठ कर चले जा रहे हैं”.

हमारी गाड़ी को आता देख, एक बैलगाड़ी कोई सौ मीटर पहले ही किनारे खड़ी हो गयी थी. पीला साफा बांधे एक नवयुवक उसे हांक रहा था . उसके पीछे एक छोटा बच्चा और एक युवती बैठी थी. परिवार ही होगा.सोचा फोटो लूं लेकिन हम आगे निकल गए और वह दृश्य पीछे छूटता हुआ ओझल हो गया.

“चल,चाय पी लेते हैं. आगे एक दूकान है उस पर पोहा भी मिल जाएगा. और तो कुछ इधर मिलने वाला नहीं.” … देवेन्द्र ने गाड़ी की रफ़्तार धीमी की और एक बिना नाम की दुकान के ठीक सामने आसपास के लोगों  पर धूल का गुबार उड़ाती हुई स्कार्पियो के ब्रेक लगे. मैने गाड़ी का गेट खोलने के लिए हाथ बढ़ाया तो देवेन्द्र ने रोका “दो मिनिट रुक यार …सारी डस्ट ऊपर आ जाएगी.”

फिर देवेन्द्र ने कांच नीचे उतारकर सीट पर बैठे-बैठे ही आवाज ऊँची करके  पूछा “चाय, पोहा मिलेगा?”

“आओ साब बैठो  ..बस अभी पांच मिनिट में पोहा तैयार हो ही रिया है. दूध अभी आ जाय ताजा”

“ए छोरा ले बैंच पे कपड़ा मार तो बेटा”   होटल का यह मालिक मुश्किल से पच्चीस छब्बीस  का  साल का लड़का होगा . उसका असिस्टेंट, चौदह-पंद्रह साल का वह ‘छोरा’ मालिक की आज्ञा पाते ही सक्रीय हो गया. उसने होटल के बाहर लगी बैंच पोंछी फिर दूध की केतली उठाई और दौड़ लगा दी.

“देखा, ये  हाल है इनके !… इनका क्या ख़ाक डवलपमेंट होगा ..अब ग्राहक इनकी भैंस का रास्ता देखें कि कब वो दूध देगी ..कब चाय बनेगी ..पर तुम जैसे कम्यूनिस्टों को फिर भी इन्हीं पर दया आएगी.” देवेन्द्र ने गाड़ी से उतरते हुए कहा .

हम  बैंच पर बैठ गए. सामने वाली  बैंच पर एक बूढ़े बाबा बीड़ी के कश लेते हुए आसमान की ओर ताक रहे थे . हमारे होने से उनकी भाव भंगिमा के ज़रा अंतर नहीं पड़ा. उधर होटल का  मालिक पोहा बनाने की तैयारी में जुट गया. उसने रगड़ कर कढ़ाही मांजी और उसे तेज जल रही भट्टी पर चढ़ा दिया.

देवेन्द्र के बैंच पर रखा अखबार उठा लिया. शायद वो एक दिन पुराना था. मैं तो जैसे ‘जेट लेग’ से बाहर नहीं आ पा रहा था. अभी परसों तक मैं दुनिया के सबसे एडवांस शहर में था जहां  सुबह के ये घंटे मिनिटों में भागते हैं . मुझे लग रहा है दस घंटे की फ़्लाइट लेकर मैं दूसरी दुनिया में आ गया हूँ. इस सूने से रास्ते पर जंगल के बीच इस चाय नाश्ते की दुकान का मालिक क्या कमा पाता होगा दिन भर में …कैसे तो ये परिवार चलाता होगा…  कैसे अपने बच्चों को  …?

थोड़ी ही देर में पोहा  तैयार हो गया. दूध भी आ गया. देवेन्द्र  ने होटल मालिक की ओर मिनरल वाटर की बोतल बढ़ाई और कहा “चाय के लिए पानी ये वाला यूज करना”

“पानी क्यों डालेंगे साब ..प्योर दूध की चाय पिलाता हूँ आपको …ले छोरा दो प्लेट पोया लगा साब वास्ते”  ..तीखी हरी मिर्च की गंध और भाप से भरा हुआ ताजा पोहा हमने दो-दो प्लेट खाया. फिर ताजे दूध में उबली चाय पीकर तो जैसे हम  अन्दर तक तृप्त हो गए. मैंने देखा देवेन्द्र  ने जब बिल चुकाया तो  होटल वाले ने बहुत मुस्कुराकर नमस्कार किया.  हम गाड़ी में बैठे तो उसने बहुत आत्मीयता से कहा, “फिर आना साब”.

“टिप दिया क्या तुमने?” मैंने आँखे उचका कर पूछा .

“नहीं तो, क्यों ?” देवेन्द्र ने आश्चर्य से पूछा.

मैंने कहा “नहीं,ऐसे ही.”

दो साइट्स पर विजिट के बाद हम तीसरी साइट पर बने ऑफिस में पहुंचे. देवेन्द्र गोडाउन, स्टाक  आदि चेक करने और टेक्निकल स्टॉफ के साथ मीटिंग करने में व्यस्त हो गया. मैंने उतनी देर पेड़ की छाया में रखी दो कुर्सियां जोड़ कर पैर फैलाए और एक गहरी झपकी का मजा ले लिया.

शाम के चार बज चुके थे. देवेन्द्र आकर मेरे पास बैठ गया. सुपरवाईजर सामने खड़ा था.

देवेन्द्र ने लेबर अटेंडेंस रजिस्टर पलटते हुए पूछा “और कितने दिन चलेगी ये जात्रा ?”

“अभी चार दिन की और है साब”

“नहीं रफीक …दो दिन में तो पूरा मुरम फिलिंग चाहिए मुझे ….हेड ऑफिस से विजिट है. क्या जवाब दूंगा ! …रेट बढ़ा कर नहीं बुला सकते क्या ?“

“नहीं साब …कोई नी आएगा.” रफीक ने एकदम साफ़ शब्दों  में कहा .

देवेन्द्र आँखों पर बल दिए चिंता में डूब गया.

रफीक कुछ देर खड़ा रहा फिर ..”मैं चाय बनाता हूँ साब” ..कहकर स्टोर की तरफ चला गया.

“क्या बात है,कोई मजदूर यूनियन वगैरह का मामला है क्या ?…लेबर रेट्स का कोई इशु ? मैंने  देवेन्द्र से पूछा.

“नहीं यार रेट्स का तो कोई इशु ही नहीं है. यहाँ खेत में काम का रेट है सौ रुपया रोज़ और वह भी साल में मुश्किल से चार महीने काम मिलता है इन लोगों को. और हम देते हैं डेढ़ सौ रुपये दिन …और सेमी स्किल या स्किल्ड है अगर कोई तो तीन सौ तक भी देते हैं” देवेन्द ने रजिस्टर पर साईन करते हुए कहा .

“फिर भी क्या कमा पाते हैं ये लोग. महीने भर का तीन हजार ! परिवार में दोनो लोग भी काम करे तो भी ज्यादा से ज्यादा छह हजार. ये तो बहुत कम है यार ..कैसे गुजारा होता होगा!”

 “उन्हें ज्यादा चाहिए ही नहीं. तीन हजार भी नहीं ले पाता कोई एक महीने में. पूरा महीना काम ही नहीं करता कोई . गुरूवार काम नहीं करेंगे …अमावस्या- पूर्णिमा काम नहीं करेंगे ..और जिस दिन तय कर लिया काम पर नहीं जाना उस दिन काम पर नहीं आएँगे ..चाहे कोई कीमत दो”

इस बीच रफीक चाय ले आया. देवेन्द्र ने उसके हाथ से चाय का कप लेते हुए कहा “बुलाओ पटेल को ..मैं बात करता हूँ”

“साब अभी ? आज तो अमावस  का अस्नान है. आज तो सब वहीँ हैं, फतेहगढ़ घाट पे .भंडारा है आज. पटेल साब से बात करनी है तो अपन को वहीँ चलना पड़ेगा साब !”

“ओह गॉड !…कितना पड़ता है फतहगढ़ यहाँ से?”

“साब, अठारह किलोमीटर”

“तो चलो बैठो गाड़ी में ..वही चलके बात करते हैं.”

गाड़ी मुरम वाली कच्ची सड़क पर हिचकोले खाती हुई बढ़ चली. जैसे-जैसे गाड़ी आगे बढ़ती जाती सड़क के  बीच में उभार बढ़ता जाता और आसपास की नालियाँ गहरी होती जाती. देवेन्द्र  अपनी पूरी ड्राइविंग कला दिखाकर गाड़ी को कभी दायें तो कभी बायें चढ़ाकर सुरक्षित निकालने में लगा था. तभी रफीक  ने  हाथ से रूकने के लिए इशारा किया ”अब आगे गाड़ी नी जाएगी साब.”

“मतलब …? फिर कैसे जायेंगे ?”

“बस ‘जराक’ दूर है ..वो  आगे उस  नीम का पेड़ के आगे.” उसने दूर क्षितिज में उंगली दिखाई.

गाड़ी एक पेड़ के नीचे खड़ी करके हम उस ‘जराक’ दूरी को नापते चल पड़े. शाम करीब थी. धूप की तेजी कम हो गयी थी. जंगल से आने वाली पगडंडियों से लोगों के रेले के रेले चले आ रहे थे. छोटे बच्चे पिता, काका या दादा के कंधे पर बैठे दूर तक देख पाने के आनन्द में उनके ही सर पर तबला बजा रहे थे.

“आज तुम्हें लाया और ये मशक्कत करवा दी. देखो, पांच  बज गए लंच तक नसीब नहीं हुआ  और अब ये पैदल परेड.” चलते हुए देवेन्द्र ने दुखी होकर कहा   .

“क्या बात कर रहा है यार ! ..हर साइट पर चाय-बिस्किट करते तो आ रहे हैं ….और इतना सा पैदल चलने में  क्या ख़ास बात है ..उल्टा  ये जंगल वॉक..मेरे लिए तो ये कमाल का एक्सपीरिएंस हो गया !”

देवेन्द्र ने एक बार जंगल को निहारा .

महिलाओं की टोलियाँ लिए दो बैलगाड़ियां आगे जा रहीं थीं. बैलगाड़ी में बैठी रंगीन छींटदार लहंगे और चटख साड़ियों में सजी महिलाएं हंसती-खिलखिलाती कोई गीत गा रही थी. ऊचें-नीचे रास्ते पर  हिलती -डोलती बैलगाड़ी के साथ उनकी आवाज भी लहरा रही थी.

तभी कुछ किशोर लड़के हमारे पास से दौड़ते हुए निकले  . उन्होंने एक नए खेल का आविष्कार किया था. वे दौड़ते हुए जोरदार उछाल मारते और रास्ते के किनारे के पेड़ की ऊंची सी डाल से पत्ता तोड़ने की कोशिश करते.  ‘धप्प’ …अक्सर असफल होकर धूल में गिरते और सबके सब हंसते .  कभी अगर उनके हवा में उठे हाथ पत्ता तोड़ लाते तो  सारे के सारे ‘ हो..ओ’ …करते ,किलकारियां मारते.

उन्हें देखते हुए मैंने भी ऊपर ताका और  अनायास ही मेरा हाथ ऊपर उठ गया.  मुझे लगा कि पेड़ की टहनी बिलकुल मेरी पकड़ में है. …लेकिन नहीं. मैं एक भी पत्ता नहीं  तोड़ सका. मैंने आगे देखा और अगले  पेड़ की डाली को देखते हुए अपनी चाल तेज कर दी. मुझे पत्ता तोड़ लेने  की धुन ने बाँध लिया था. तभी मैंने देखा देवेन्द्र ने दौड़ लगा दी और उछल कर  चार पत्ते तोड़ लिए. हम दोनों जोर से चिल्लाए ..’हो ओ. ..’

हमारा रास्ता नदी के घाट की ओर बढ़ रहा था. दूर से ही ढोल की आवाज सुनाई देने लगी थी. फिर रंगीन लग्गियों से सजे मंडप दिखाई देने लगे. नदी किनारे बड़े-बड़े आम-नीम के पेड़ों से घिरे मैदान में मेला लगा हुआ था. नदी के किनारे ऊंचे  टीले  पर एक मंदिर था. मंदिर के सामने लगभग हर पेड़ के नीचे छोटी-छोटी चौपाल जमी थी. लोग मजे से बैठे-लेटे बातें कर रहे थे.

जमीन पर कपड़ा बिछा कर सजाई गयी  बिंदी,चूड़ी से लेकर रेडीमेड कपड़ों, प्लास्टिक के जूतों, खेल खिलौनों जैसे छोटे-छोटे सामानों की छोटी-छोटी  दुकानों के बीच से गुजरते हुए हम मंदिर की ओर जा रहे थे. छोटी-छोटी चीजें, छोटे-छोटे दाम और खरीदने से ज्यादा छू-छू कर देखने वाले महिला पुरुषों की भीड़. रंगीन कुल्फी के एक ठेले पर बच्चों की टोली जमा थी   .

नदी किनारे कुछ युवकों  का एक अनूठा खेल चल रहा था. कमर में फेंटा बांधे आदिवासी युवकों के इस खेल पर हमारी नजर अटक गयी. सफ़ेद खड़िया मिटटी से एक गोला बना था उसके बीच जमीन पर एक रंगीन रुमाल रखा था. लड़कों के  दल गोले के चारों ओर खड़े थे. हर  दल से एक-एक सदस्य बारी बारी से गोले में आकर रुमाल  उठाने की कोशिश करता और प्रतिद्वंदी दल के लड़के  ठीक रुमाल को छूने से लेकर गोले से बाहर हो जाने तक में उसे छू लेने की कोशिश करते. अगर रुमाल उठाने वाले को छू लिया जाता तो “हारा है रे…. .हारा है रे” का शोर मच जाता.

लड़कों ने देवेन्द्र को पहचान लिया.”अरे डेम वाला साब भी आया है.”

“आप खेलोगे  साब ?” एक उत्साही युवक ने पूछा.

 “अरे हाँ, हाँ साब..” एक दल के लड़कों ने फुर्ती से आगे बढ़कर देवेन्द्र  को घेर लिया. “साब हमारी टीम में ..साब हमारी टीम में.”  दूसरे दल ने संकोच के साथ मुझसे आग्रह किया. देवेन्द्र और मैंने एक दूसरे को देखा और आँखों आँखों में कहा ‘ चलो कोशिश करते हैं. ‘ हमने अपने-अपने चश्में उतारे और रफीक को पकड़ा दिए. मेरी टीम ने रुमाल उठाने के लिए मेरा उत्साह बढ़ाया. मैंने बहुत फुर्ती से गोले में प्रवेश करके जैसे ही रूमाल उठाया और उसी क्षण एक बलिष्ठ युवक ने मुझे छूने की जगह गोद में उठा लिया. देवेन्द्र को  मजा आ गया. न जाने कितनी देर हम खेल में खोए रहे. खेल पूरा हुआ तो समापन की रीति के अनुसार लड़के छपाक- छपाक करके  नदी में कूदने लगे. कुछ लड़के डुबकी लगा कर फिर बाहर आए और हमसे नहाने का आग्रह करने लगे .

लड़कों के सांवले बदन पर पानी की तरल चमक और ताजगी देख मैंने देवेन्द्र  से कहा ‘चल यार’. रफीक हमारे लिए कहीं से  दो धोतियाँ  ले आया और हम नंगे बदन धोतियाँ लपेटे नदी में कूद पड़े. खूब तैरे और लड़को के साथ मन भर कर चिल्लाए भी. नहा कर बाहर निकले तो रफीक ने हमें याद दिलाया ”साब पटेल रास्ता देखा रहे हैं .. मिल लें ?”

हम मंदिर के चोगान में पहुंचे. वहां हारमोनियम और  ढोल मंझीरे की संगत में कोई लोकगीत चल रहा था. कई  महिला-पुरुष  मस्त होकर नाच रहे थे.

“इनको देखो, साला मुश्किल से रोटी का जुगाड़ हो पाता है पर मजा हमसे ज्यादा करते हैं. यहाँ कभी परिवार के साथ एक डिनर करने निकलो और बॉस का एक  फोन आ जाए तो समझो पूरी शाम चौपट ”

“तुम जेलस  हो रहे हो. “  कहते हुए मैंने मुस्कुराकर देवेन्द्र को देखा

“ओहो साब आज यो भोत अच्छो करयो आपने जो यहाँ पधारिया …..आज अमावस है. आज तो बाल-बच्चा सब के लई के आनो थो नी…. लो आप चलो  पेला भोजन करो.”

“अरे नहीं पटेल …तुम तो ये बताओ लोग काम पे कब आएँगे ?”

पटेल को आनन्द के इस उत्सव में यह बात विघ्न जैसी लगी, बोला “काम तो परसों के पेला शुरू नी  हुई सकेगा साब.” सौ रुपये दिहाड़ी के मजदूर के स्वर में उस स्वतंत्रता की घोषणा थी जो लाखों कमाने वाले लोग सपने में भी नहीं सोच सकते.

“मुरम फिलिंग का काम अर्जेंट है…रेट डबल मिलेगा ……बीस पच्चीस लेबर लगेंगे. दो-तीन  दिन का काम है.”

“पैसा की बात नी है साब …अभी कोई काम पे नी आएगा …जात्रा अभी दो दिनऔर है. अभी तो काम नी हुई सकेगा.”

देवेन्द्र  को कुछ समझ नहीं आ रहा था. सुपरवाइजर रफीक लोकल आदमी है उसे पता है कि यह ताला पैसे से तो खुलेगा नहीं. प्रेम से खुले तो भले खुल जाय .

“अरे पेले  पूरी बात तो सुनो पटेल साब, अपने साब के बड़े साब आ रहे हैं. अब उनके सामने अपने साब की  बात बिगड़ जाए ये कोई अच्छी बात है क्या? … .कैसे भी हो काम तो करवाना पड़ेगा आपको.

पटेल पर इस बात का कुछ असर हुआ. कुछ सोचते हुए वह मंदिर की सीढ़ी पर बैठ गया ”कब आएगा बड़ा साब ?”

“चार दिन  बाद …सोमवार को.”

“ तो ठीक है साब .. रविवार के रोज  भराव हुई जाएगा.”

“एक दिन में कैसे होगा ?”

“हुई जाएगा.”

“साब, पटेल साब ने बोला है तो हो  जाएगा.” …रफीक ने देवेन्द्र को आश्वस्त किया .

पटेल सीढ़ी से उठा और बोला “लो साब अब काम की फिकर छोड़ो .. न जीमो.”

देवेन्द्र ने मेरी और देखा, मैंने धीरे से फुसफुसाकर कहा  “भाई ये तो बिजनेस मीटिंग है  जिसमें डिनर डिप्लोमेसी भी काम का हिस्सा होती है.” पूरी और आलू की सब्जी की महक ने भूख जगा दी थी. पलाश के ताजे पत्तों की पत्तल पर पानी के छीटें डालकर हमने ‘अहा..और हा हा’ करते हुए और नाक-आँख का पानी पोंछते हुए ‘हॉट एंड स्पाइसी’भोजन किया.

“मुझे तो आज बहुत अच्छा लगा. मैं फिर आऊंगा.ऐसा भंडारा कब कब होता है पटेल साब?”

“हर अमावस पे” पटेल ने कहा. “आप जरुर पधारो साब.”

“यहाँ हर अमावस पर भंडारा खाना तुम्हें महँगा पड़ जाएगा.” देवेन्द्र ठहाका लगा कर हंसा.

 “इन  साहब का तो मुश्किल है लेकिन मैं जरूर आऊंगा  और  इस बार बच्चों को भी लाऊंगा.” देवेन्द्र ने बड़ी गर्मजोशी से पटेल से  हाथ मिलाते हुए कहा.

अपनी गाड़ी तक लौटने के लिए हम बैलगाड़ी पर सवार हो गए.

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8 comments

  1. राज बोहरे

    सोनल दृश्यों के रचाव और सम्वादों में क्षिप्रता के गुण में निश्नान्त हैं। इस देश का आम आदमी जब काम पर होता है तो जम के काम करता है और जब छुट्टी पर या जीवन के आनन्द के दिनों में होता है तो हर प्रलोभन ठेंगे पर रखता है,इन भावों को ग़ज़व तरीके से रखती हुई ,फील्ड के काम और समाज की मानसिकता को गहरे से पढ़ कर नई बात कहती कहानी।

  2. राजेन्द्र सजल

    ग्राम अंचल की प्राकृतिक सादगी, गति,उत्साह,प्रेम और शहरी परिवेश की घुटन,तनाव,व्यस्थता ,को कहानी जीवंतता के साथ उकेरने में सफल है
    एक अच्छी कहानी ।

  3. मनीष वैद्य

    सोनल जी की यह कहानी बहुत हौले से हमें शहरी और ग्राम्य अंचल की यात्रा इस अंदाज में करवाती है कि हम दोनों ही जगहों को पूरी प्रामाणिकता के साथ छू पाते हैं और उनके बीच के फर्क को भी समझ पाते हैं। भाषा, प्रवाह और विषयवस्तु के बूते यह कहानी अच्छी बन पड़ी है। इधर सोनल जी ने लगातार सुगढ़ गद्य के मुहावरे को साधा है। जात्रा के लिए उन्हें बहुत बधाई।

  4. बढ़िया कहानी. साधन संपन्न शहरी जीवन की जीवन और ग्रामीण परिवेश के जीवन के

  5. अद्भुत कहानी पड़ते समय ऐसा लगता है हम अपनी जड़ों की ओर लौट रहे है बहुत सुकून मिला कहानी कहने का अंदाज़ दृश्यों को जीवंत कर देता है

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