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   डॉ.धर्मवीर का  दलित विमर्श: सुरेश कुमार

प्रसिद्ध दलित विचारक डॉक्टर धर्मवीर के जीवन और लेखन पर एक शानदार लेख ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में पढ़ा। युवा आलोचक सुरेश कुमार का लिखा यह लेख सोचा आप लोगों से भी साभार साझा किए जाए-

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  दलित चिंतन की स्वतंत्र ज़मीन और डा. आम्बेडकर के विचारों का पुर्नपाठ में आजीवन लगे रहे डॉ.धर्मवीर (9 दिसंबर 1950- 9 मार्च 2017) विलक्षण विमर्शकार और दार्शनिक थे। एक ऐसे आलोचक चिंतक जिन्होंने हिंदी अकादमिक दुनिया के अनुशासनों और आलोचकों की परवाह किये बगैर हिंदी आलोचना और दलित दर्शन की पद्धति को नया अनुशासन और आयाम देने का भरपूर प्रयास किया था। उनके व्यक्तित्व के निर्माण में उनकी गहन अध्यनशीलता और अनुसंधान का विशेष योगदान था।

     डॉ. धर्मवीर के पूवर्जों का इतिहास सन् 1857 की क्रांति के समय से मिलता है। डॉ. धर्मवीर के पुरखे मुख्य तौर पर गजियाबाद के बम्भैटे गाँव  के बांशिदे थे। कुछ दिनों बाद बम्भैटे गाँव को छोड़कर उनके पुरखे मेरठ के करीब दांतल गाँव  में जा बसे थे। बम्भैटे गाँव को छोड़ने का कारण सन् 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। इतिहासकार बताते हैं कि 31मई 1857 को हिन्डन नदी के गजियाबाद तट पर अंग्रेजों के विरुद्ध प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हुआ। इस संग्राम में भारी जनसैलाब और क्रांतिकारियों ने फिरंगी फौज़ को पराश्त कर दिया था। जिससे अंग्रेजो के पांव उखड़ गये। जब अंग्रेज क्रांतिकारियों का   पीछा नहीं कर सके तब उन्होंने गाँव  को आग के हवाले कर वापस लौट गये। डॉ. धर्मवीर बताते हैं कि उनके आदि पुरखे का नाम कल्लू था। कल्लू के बेटे का नाम हुक्मी था। हुक्मी एक शौक़ीन मिजाज के जिंदादिल इनसान थे। इनके बारे में कहा जाता है कि जब नंगला गाँव  में रहते थे तो जमींदार सैयद की हवेली पर जाड़े के दिनों में छतरी लगाकर उनका पैसा चुकाने गये थे।1 इस से अंदाजा लगाया जा सकता है कि डॉ. धर्मवीर के पूर्वज आर्थिक दृष्टि से संपन्न भले नहीं रहें हों लेकिन सामाजिक दृष्टि से चेतना संपन्न व्यक्ति थे।

  डॉ धर्मवीर के पुरखे हुक्मी की पत्नी की मृत्यु हो गई थी। उन्होंने पत्नी की मृत्यु के बाद पुनर्विवाह किया था। उच्च श्रेणी समाज की तरह दलित समाज में विधवा पुनर्विवाह पर कोई प्रतिबंध नहीं था। हुक्मी की दुसरी पत्नी से एक बेटा पैदा हुआ जिसका नाम चेतराम था। इन्ही चेतराम के बेटे हुए जिनका नाम हंसाराम था। हंसाराम का विवाह चौदह साल की अवस्था में चैतिया से हुआ था। सन् 1962 में हंसाराम नंगला गाँव  छोड़कर मेरठ कंकर खेड़ा आ गये थे। इन्हीं हंसाराम और चैतिया की तीसरी सन्तान थे-डॉ. धर्मवीर। डॉ. धर्मवीर का जन्म 9 दिसबंर 1950 को मेरठ के नगलाताशी गाँव में हुआ था। लेकिन उनका बचपन कंकर खेड़ा में गुजरा था। डॉ. धर्मवीर के पिता हंसाराम पढ़े लिखे नहीं थे। अपनी जीविका दर्जी का काम करके चलाते थे। एक दिन उनकी दुकान पर एक आर्मी अफसर आया और डॉ. धर्मवीर के पिता से बोला क्या तुम यह दुकान छोड़कर ‘आर्मी वर्कशाप’ में नौकरी करना चाहते हो ? हंसाराम ने कहा कि जरुर करुंगा। इस तरह से उन्हें ‘510 आर्मी बेस वर्कशाप’ मेरठ में लेबर की नौकरी मिल गई थी।2  डॉ. धर्मवीर की आंरभिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक मेरठ में हुई  थी। इनके पिता भले ही पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन उन्होंने आर्मी अफसरों की सोहबत में रहकर थोड़ा बहुत पढ़ना-लिखना सीख लिया था। जिसके चलते शिक्षा के महत्व से बखूबी परिचित थे। इसलिए, उन्होंने अपने सभी बेटों को शिक्षा दिलाने का प्रयास किया। लेकिन उनके बेटों में शिक्षा प्राप्त करने के मामले में डॉ. धर्मवीर ही निकलकर आगे बढ़ पाये थे। सन् 1999 डा. धर्मवीर कबीर के दर्शन पर अनुसंधान करने के लिए आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय गए थे।

   इसमें कोई दो राय नहीं है कि प्रत्येक दलित व्यक्ति की तरह भी उनका जीवन भी संघर्षमय रहा था। सन् 1966 में डॉ. धर्मवीर देवनागरी इंटर कालेज मेरठ के बारहवीं के छात्र हुआ करते थे। उनकी इच्छा थी कि आगे की पढ़ाई रुड़की इंजीनियर कालेज में जाकर करें। शायद डॉ. धर्मवीर इंजीनियर बनना चाहते थे। लेकिन उनके पिता की आमदनी इतनी नहीं थी कि उन्हें  वहां भेज सकें। डॉ. धर्मवीर को किसी से पता चला कि जो विद्यार्थी बारहवीं कक्षा में प्रथम श्रेणी से पास होते हैं। उन्हें सरकार की तरफ से छात्रवृत्ति मिलती है।  उन्होंने सारा ध्यान बोर्ड परीक्षा की पढ़ाई पर लगा दिया था ताकि रुड़की इंजिनियर कालेज में दखिले का रास्ता आसान हो जाय। जब डॉ. धर्मवीर का पूरा ध्यान अपनी पढ़ाई पर केन्द्रित था, उसी समय उनके जीवन में एक बड़ा भारी हादसा हुआ, जिसने  उनके जीवन की दिशा ही बदल कर रख दी ।

 5 जनवरी 1966 की बात है। उस दिन डॉ. धर्मवीर रोज की तरह अपने कालेज से वापस घर को जा रहे थे। उन्हें रास्ते में रेलवे पटरी क्रांस करनी पड़ती थी। डॉ. धर्मवीर बताते हैं कि “मैं अकेला ही घर से कालिज और कालिज से घर की ओर लौटता था। हमारे यहां रेल की पटरी क्रास के तीन रास्ते थे, पहला स्टेशन से, दूसरा फाटक से, तीसरा शराब मिल से। यदि मैं फाटक से जाता तो सरधाना रोड़ दूर पड़ती थी, स्टेशन से साईकिल को पुल पर चढ़ाना प्रैक्टिकली सही नहीं था, सीधा स्टेशन पर मै रिस्क की वजह से जाता नहीं था। 5 जनवरी 1966 दिन बुधवार को मैं जब कालिज से वापसी के लिए घर को चला था तो उसी वक्त मेरे दिमाग में बारहवीं कक्षा के फाइनल बोर्ड की परीक्षा की तैयारी चल रही थी। रास्ते मेरा एक सहपाठी सरदार चमकौर मिल गया ।  फिर एक और सहपाठी मिला प्रेम। हम तीनों अपनी-अपनी साइकिलों पर घर की ओर चल पड़े। वे स्टेशन की ओर से जाते थे और मैं भी उस दिन शराब मिल वाला अपना रास्ता छोड़ बिना कुछ कहे उनके साथ हो लिया। हम आपस में बातें करते-करते चलते गए। मैं यदि अकेला होता तो निश्चित ही अपने पुराने रास्ते से ही जाता। रेलवे स्टेशन पर पटरी तिरछी थी, रेल की पटरी तक एक प्लेटफार्म से दूसरे तक जाने के लिए वहां स्टेशन पर अंदर से भी पुल था, लेकिन उससे कोई जाता नहीं था। स्टेशन वालों ने कंकड़खेड़े को रास्ता ही नहीं दिया था। जो रास्ता दिया, वह बाहर बहुत दूर था। अभी तक वहां बहुत से एक्सीडेंट हुए वह जगह एक्सिडेंट ज़ोन  बन गई है। प्रेम साइकिल पर चढ़ गया। उसके बाद बीच में मैं चल पड़ा। चलते-चलते चमकौर साइकिल पर चढ़ने ही वाला था कि उसने देखा, पटरी पर कोई ट्रेन खड़ी थी, उसके पीछे की ओर से गाड़ी आ रही थी, जो हमें दिख नहीं सकती थी। प्रेम की साइकिल का कैरियल इंजन में लगा। कहते हैं,उसने हमें रुकने के लिए  आवाज दी। मैंने नहीं सुनी, चमकौर ने देख लिया, इसलिए वह साइकिल पर चढ़ा ही नहीं। मैं साइकिल पर सवार हाथों में हैंडिल, कैरियल पर किताबें और मैं साइकिल सहित पूरा का पूरा इंजन के सामने। वह मालगाड़ी थी। पलक झपकते ही मैंने  अपने आपको  उस संकट में पाया-साइकिल कहीं गिरीं, किताबें कहीं और मैं रेल की लोहे वाली पटरी पर इंजन के सामने आधा आधा उधर प्लेटफार्म की ओर गिरा। अब मैं देख रहा था। देख क्या रहा था कि जब एक्सिडेंट हुआ थोड़े से क्षण के लिए लगा  अब तू मर जाएगा।….फिर मुझे बोध हुआ, मैं आधा इधर हूं और आधा उधर, चूँकि इंजन ने आगे फेंक दिया था। आता हुआ  इंजन मुझे दिख रहा था, लगा अब यह मुझे काट देगा। मैं बैठा देखता रहा। ट्रेन जा रही है। मैं होश में था। यदि में बेहोश होता तो यह सतर्कता नहीं हो पाती। जान बची देखकर तब मैंने अपने मन में सोचा, तू अभी इंजीनियर बन जाता!3

 इस भीषण रेल हादसे में डॉ. धर्मवीर का एक पैर कट गया था। डॉ. धर्मवीर का पैर पूरी तरह से अलग नहीं हुआ था। कहते हैं, यदि डाक्टरों ने सहीं से देखभाल की होती तो उनका पैर काटने से बचाया जा सकता था।4 इस हादसे के पहले ही डॉ. धर्मवीर की शादी हो चुकी थी। डॉ. धर्मवीर का  भले ही एक पैर था लेकिन उन्होंने अपनी विकलंगता न तो कभी जाहिर की और न उसका रोना राया। इस हादसे के बाद डॉ. धर्मवीर ने जैसे-तैसे बोर्ड़ की परीक्षा दी और प्रथम श्रेणी में पास हुए ।

  इस हादसे के बाद डॉ. धर्मवीर के माता-पिता उनके भविष्य को लेकर चिंतित रहने लगे। माता-पिता ने उनकों आगे पढ़ने का निश्चय किया। डॉ. धर्मवीर की पढ़ने में विशेष रुचि थी। जब पढ़ाई पूरी हुई तो उन्होंने सिडिकेट बैंक में नौकरी करने लगे। इस बैंक में उन्होंने लभगभ पांच साल तक काम किया था। इसके बाद उन्होंने कुछ दिन मेरठ कालेज में भी पढ़ाया भी। सन् 1980 में अपनी बौद्धिकता के बल पर आइ.ए.एस. अधिकारी बने। नौकरी करते हुए वो अनवरत शोध और अनुसंधान करते रहे। डॉ. धर्मवीर के जीवन में संघर्ष स्थाई भाव बन गया था। सन् 2008 में जब डॉ. धर्मवीर केरल सरकार के सचिव थे। तब उन्हें कैंसर नामक  ने घेर लिया। दिलचस्प बात यह है कि वो न तो शराब का सेवन करते थे, न किसी मादक पादर्थ का। शायद यह बिमारी उनको लंबे  से थी। डाक्टरों के मुताबिक उनके बचने की उम्मीद काफी कम बची थी। 5 सितबंर 2008 में डॉ. कुरुविल्ला और उनकी टीम ने इस कैंसर का सफल आपरेशन कर दिखाया। डा.कुरुविल्ला की सूझबूझ से और डॉ. धर्मवीर अपनी जिजीविषा की  बदौलत डॉ. धर्मवीर कैंसर को मात देने में सफल रहे। डॉ. धर्मवीर की कैंसर बिमारी को लेकर श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ ने कैसर पर विजय की सच्ची कहानी’ (पाखी, अगस्त 2016) शीर्षक से बड़ा ही मार्मिक संस्मरण लिखा। इस संस्मरण में श्यौराज सिंह बेचैन ने बताय था कि कितनी निर्भिकता से डॉ. धर्मवीर ने इस भयंकर बिमारी का सामना किया था।5

  डॉ. धर्मवीर के मित्र मंडली की बात की जाय तो कथाकार श्यौराज सिंह ‘बेचैन’, आलोचक- संपादक डॉ. दिनेशराम, डॉ. विजय पाल सिंह और अमरनाथ उनके पुराने मित्र रहे। डॉ. धर्मवीर का श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ से जुड़ाव करीब 1990 के आस पास हुआ था। उनकी मैत्री और जुड़ाव का पुल रचनात्मक रुझान था। सन् 1997  से ही दिनेश राम उनसे जुड़े।  दिनेश राम दलित दर्शन और वैचारिकी की वाहक पत्रिका ‘बहुरि नहिं आवना’ के संपादक थे। इस पत्रिका में पहला लेख डॉ. धर्मवीर का होता था। विजय पाल और अमरनाथ से उनकी दोस्ती मेरठ से ही थी। सन् 2009 में जब डॉ. धर्मवीर केरल से अपनी नौकरी से वीआरएस लेकर आये तो विजयपाल सिंह ने वंसुधरा, गजियाबाद वाला अपना मकान रहने के लिए उन्हें दे दिया। इस मकान से श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ का आवास आठ-दस मिनट की दूरी पर ही था। डॉ. धर्मवीर को जब भी स्वास्थ्य संबंधी समस्या होती तो श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ हाजिर हो जाते थे। और, डा.धर्मवीर भी श्यौराज सिंह बेचैन के आवास पर जाते थे। दोनों चिंतक दलित साहित्य और चिंतन की परियोजनाओं पर विचार करते थे। डा.श्यौराज सिंह बेचैन अंतिम समय तक डा. धर्मवीर से मिलने दिल्ली के मैक्स अस्पाताल जाते रहे। सन् 2013 में जब डा. धर्मवीर वसुधरा, गजियाबाद छोड़कर मेरठ गये तो डॉ. विजयपाल सिंह के मकान से थोड़ी दूरी पर ही आवास लिया था। इसका कारण यह था कि डॉ. विजयपाल सिंह पेशे चिकित्सक थे और उनकी स्वास्थ्य संबंधी समस्या के समाधान में काफी मदद करते थे।

  डॉ. धर्मवीर को अपने जीवन में कई तरह की त्रासदियों से गुजरना पड़ा था। पहली त्रासदी के रुप में उनके जीवन में रेल हादसा हुआ जिसमें उनका एक पैर कट गया था। दूसरी त्रासदी में कैंसर हुआ। इन दोनों त्रासदियों से भयकर थी उनकी तीसरी त्रासदी थी पारिवरिक जीवन की। उनकी पत्नी से उनके रिश्ते मधुर नहीं रहे। डा.धर्मवीर ने अपनी आत्मकथा ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ में अपने पारिवारिक और वैवाहिक जीवन की त्रासदियों के संबंध में खुलकर लिखा है कि उनका वैवाहिक जीवन जारकर्म की भेट चढ़ गया। उन्होंने स्त्री चिंतन में मातृसत्ता और पितृसत्ता के बाद तीसरी सत्ता के तौर पर जारसत्ता को चिन्हित किया था। आत्मकथा में उन्होंने बताया कि यह जारसत्ता भारतीय परिवारों को अंदर से खोखला करने  पर लगी हुई है, लेकिन इस जारसत्ता के विरुद्ध न तो कोई आंदोलन होता है और न तो इसको मिटाने की कोई पहल होती है। डॉ. धर्मवीर का मानना था कि जारसत्ता का सर्वोत्तम समाधान तलाक़ व्यवस्था है। इसलिए उन्होंने अपने चिंतन में भारतीय तलाक व्यवस्था को लचीला बनाने के लिए कानून के बदलाव पर जोर दिया था।

 डॉ. धर्मवीर ने हिंदी अकादमिक दुनिया में लंबी तैयारी के बाद प्रवेश किया। इसका प्रमाण उनकी एक के बाद एक उम्दा अकादमिक किताबें और बहस तलब लेख हैं। डॉ. धर्मवीर ने अपनी किताबों और लेखों को अकादमिक दुनिया की सान पर चढ़ाकर धारदार बनाया और उसके अकादमिक स्तर को भी गौरव प्रदान किया। उनके अध्यन का फलक बहुत बड़ा है,जो डॉ.आबेडकर,कबीर, रैदास, आजीवक मक्खलि गोसल के दर्शन से लेकर हिंदी काव्यानुशासन, हिंदी आलोचना और भाषा विज्ञान तक फैला हुआ है। उन्होंने भाषा विज्ञान की दुनिया को एक किताब ‘हिंदी की आत्मा’(1989) दी जो मील का पत्थर है, जिसमें उन्होंने हिंदी साहित्य और भाषा के क्षेत्र में स्थिर सिंद्धातों और निष्कर्षों को उलट कर रख दिया था। उनकी यह कोशिश भाषा विज्ञान की दुनिया में एक नई लीक और लकीर खींचती नज़र आती है।

डॉ.धर्मवीर हिंदी आलोचना के इतिहास में कबीर संबंधी अनुसांधन और विशिष्ट प्रस्थापानाओं के लिए जाने जाते हैं। कबीर पर उनकी पहली किताब ‘कबीर के आलोचक’(1997) जब प्रकाशित हुई तो हिंदी आलोचना में  गज़ब का कोलाहल उठ खड़ा हुआ। इस किताब में उन्होंने हिंदी के पूर्ववर्ती कबीर संबंधी अध्यन को न सिर्फ उलट के रख दिया बल्कि आचार्य आलोचकों की स्थापनाओं को अपनी बौद्धिकता और विश्लेषण से कठघरे के दायरे में ला दिया। यह हिंदी साहित्य की दुनिया में अप्रत्यासित था, क्योंकि हिंदी आलोचना के महारथियों पर पहली दफ़ा किसी दलित आलोचक ने उनकी  बौद्धिकता और अकादमिक समझ पर सवाल उठाया था। इस किताब में डॉ. धर्मवीर के सवाल इतने मारक और तीक्ष्ण थे कि हिंदी आलोचना का उच्च स्कूल नये निष्कर्षों और सवालों का स्वागत करने के बजाये अपने-अपने गुरुजनों के बचाव में खड़ा होता दिखाई दिया। हिंदी आलोचकों ने उनकी इस किताब को आलोचना की किताब नहीं मानकर उसे विमर्श के खांचे में डालने का प्रयास किया। इस किताब में डॉ. धर्मवीर ने हिंदी आलोचना स्कूल के उच्चकोटि के माने जाने वाले आलोचकों के कबीर संबंधी आलोचना और अध्यन पर सवाल उठाते हुए कहा कि आलोचकों ने कबीर के विचारों को कबीर के आइने में नहीं बल्कि उन्हें रमानंदी चश्में से देखा है।6 यही कारण है कि हिंदी के आलोचक कबीर के विचारों तक नहीं पहुंच पाए। डॉ. धर्मवीर ने कहा कि हिंदी आलोचकों ने बिना किसी अकादमिक खोज-पड़ताल किए ही इस बात पर आंख मीच कर विश्वास कर लिया कि कबीर विधवा स्त्री की सन्तान और रमांनद के शिष्य थे। इस तथ्य की खोज पड़ताल नहीं हुई कि रमानंद एक जुलाहे को अपना शिष्य कैसे बना सकते थे।

   कबीर के अध्येताओं और आलोचकों ने कबीर के ऊपर विधवा ब्राह्मणी की संतान और रमानंद का शिष्य होने के टैग लगा रखा था। हिंदी साहित्य और आलोचना के भीतर कबीर को रमानंद का शिष्य सिद्ध की जाने वाली कवायद और कयास पर डॉ. धर्मवीर ने अपने बौद्धिक विमर्श से विराम लगा दिया। ‘कबीर के आलोचक’ में डॉ. धर्मवीर की थीसिस थी कि कबीर का गुरु कोई भी हो सकता है लेकिन रामानंद कबीर के गुरु नहीं हो सकते हैं।7 डॉ.धर्मवीर का तर्क था कि रामानंद को कबीर का गुरु बताने के पीछे हिंदी आलोचकों की मंशा सिर्फ उनकों वैष्णववादी खांचे में फ़िट करके वर्ण-व्यवस्था के अंदर मिलाए  जाने की क़वायद थी। डॉ.धर्मवीर ने ‘कबीर  विमर्श’ से हिंदी आलोचकों के उस तर्क और विचार को खारिज किया कि कबीर किसी विधवा ब्राह्मणी की कोख की उपज थे। डॉ. धर्मवीर का तर्क था कि जो आलोचक उन्हें हिंदू रक्त का घोषित कर रहें, उनक मक़सद हिंदू गौरव को स्थापित करना था। क्योंकि कबीर को जिस रक्त का अंश बताया जा रहा था, उसी हिंदू रक्त ने कबीर को अछूत और जुलाहा  बनाकर छोड़ दिया था। हिंदी आलोचना में कबीर को लेकर यह एक नई व्याख्या और प्रस्थापना थी जिस पर हिंदी के आलोचक चकित थे।

 डॉ. धर्मवीर का स्पष्ट कहना था कि हिंदी आलोचकों के पास कबीर को समझने के लिए कबीरी दर्पण का अभाव है। हिंदी  के आलोचक यदि रामांनदी दर्पण हटाकर कबीर का मूल्यांकन करते तो उन्हें कबीर की छवि हिंदू रक्त से अलग नज़र आती। हिंदी आलोचको को डॉ. धर्मवीर की यह मुहिम कबीर पर क़ब्जे की लड़ाई लगी थी।8  यह कबीर पर क़ब्जे की लड़ाई नहीं थी बल्कि कबीर को कबीर के विचारों से देखने-परखने का आग्रह और स्वतंत्र दलित चिंतन के निर्माण का पहला पड़ाव था।

  सन् 2000 में डॉ.धर्मवीर की ‘कबीर: डॉ. हजारी प्रसाद का प्रक्षिप्त चिंतन’,‘कबीर और रमानंद: किंवदंतियाँ’ और कबीर: बाज भी, कपोत भी,पपीहा भी’ कबीर के अध्यन को लेकर उनकी तीन किताबें प्रकाशित हुईं। आलोचना की इन किताबों में उन्होंने उन आलोचकों को जवाब दिया था जो कबीर के मसले पर अपने गुरुजनों के बचाव में खड़े थे। दिलचस्प बात यह है कि वीरभारत तलवार जैसे बड़े विद्वान भी अपने गुरुजनों को डा.धर्मवीर के अकादमिक प्रहार से नहीं बचा पाए। इन किताबों में डॉ. धर्मवीर ने रामचन्द्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी के कबीर संबंधी चिंतन में कोई अंतर नही किया। उनका कहना था कि उदारवादी और कट्टरवादी आलोचक एक ही लक्ष्य लेकर चलता कि कबीर को हिंदी साहित्य के इतिहास में कहीं इज्ज़त नहीं देनी और उनकी वाणी और विचारों का प्रक्षिप्त कर देना है। उन्होंने कहा कि हिंदी आलोचना स्कूल के आचार्य आलोचकों ने कबीर के बहाने रमानंद को स्थापित करने का काम किया है। इन आचार्यों का कबीर के विचारों से कुछ लेना-देना नहीं था।

  डॉ.धर्मवीर के कबीर संबंधी विमर्श ने अकादमिक दुनिया को एक नई बहस उपलब्ध कराई। इसके बाद कबीर के विचारों की दावेदारी को लेकर नहीं कबीर पर दावेदारी की एक बहस छिड़ गई। जब डॉ. धर्मवीर ने अपने विमर्श में यह विचार दिया कि कबीर न तो हिंदू थे और न तो मुसलमान थे, कबीर दलित चिंतन और आजीवका धर्म-दर्शन के वाहक थे। यह ख़याल कबीर संबंधी विमर्श में बिल्कुल नया था। इसके पहले अकादमिक दुनिया और साहित्य में कबीर को लेकर वैष्णव और निर्गुणवाली स्थापनाओं पर बहस होती रहती थी,लेकिन कबीर ने दलित धर्म और पहचान को लंबी परपंरा प्रदान करने की कोशिश की थी। डॉ. धर्मवीर का यह विचार और ख़याल  हिंदी आलोचकों को पसन्द नहीं आया। एक अकादमिक चालाकी के तहद हिंदी आलोचना का स्कूल उनके कबीर संबधी नये ख़याल और विमर्श को ढ़ँकने की कोशिस में जुट गया। डॉ. धर्मवीर ने अपनी बौद्धिकता से ‘कबीर: खसम खुशी क्यों होय?’ (2013) किताब में हिंदी आलोचकों की बौद्धिक चलाकियां और अकादमिक शरारतों को लेकर बड़ी गहनता से विचार किया था। इस किताब में उन्होंने कहा कि हिंदी आलोचकों के सामने यह चुनौती थी कि कबीर को लेकर कोई ऐसी किताब लिखी जा सकती है, जिसमें कबीर की कोई बात न हो। इस काम को हिंदी आलोचकों ने बखूबी निभाया है।

 डॉ.धर्मवीर ने कबीर पर लिखी गई हिंदी के आचार्य आलोचकों की अकादमिक पुस्तकों पर सिर्फ सवालिया निशान ही नहीं खड़ा किया बल्कि इन आचार्यों की अकादमिक पुस्तकों को उपन्यास विद्या की बताकर उनके अध्यन की तासीर को कम कर दिया था। इस किताब में उन्होंने एक बार फिर रमांनद को कबीर का शिष्य बताने वाले अध्यन और निष्कर्षों का जबर्दस्त खंडन किया, बल्कि इस बार डॉ. धर्मवीर ने अपनी बौद्धिकता की धार से रामानंद को धोखानंद कहकर कबीर को रमानदं का शिष्य कहने वाले आलोचकों के निष्कर्ष पर पानी फेर दिया था। डॉ. धर्मवीर का कहना था कि हिंदी आलोचना स्कूल के आलोचक ‘कबीर को रामानंद का शिष्य बताने में न कबीर को कबीर रहने देंगे और न रमानंद को रमानंद रहने देंगे। दोनों की सूरत बिगाड़ देंगे। एक सच्ची बात की हामी नहीं भरी जाती कि कबीर रमानंद के शिष्य नहीं थे।’9 इस किताब में डॉ. धर्मवीर ने कहा कि हिंदी के आलोचक कबीर के यहां उनके विचारों का अध्यन करने का उद्देश्य लेकर नहीं जाते, बल्कि कबीर के विचारों के साथ पुरोहितगिरी और कर्मकांड करने जाते हैं। इसलिए हिंदी आलोचकों को कबीर के विचारों और रमानंद के विचारों में फ़र्क नहीं दिखाई पड़ता। डॉ. धर्मवीर हिंदी आलोचकों का आगह करते हैं कि कबीर के ऊपर पुरोहितगिरी का जाल न फेंका जाय बल्कि कबीर को पुरोहितों के शिंकजे से मुक्त कराने की मुहिम हिंदी आलोंचकों को चलानी चाहिए। इसके बाद ही कबीर का असली विचार और स्वरुप प्रकट होगा।

  डॉ. धर्मवीर कबीर के दर्शन और चिंतन पर अनवरत अनुसांधन और विमर्श करते रहे। कबीर को लेकर उनकी स्थापनाएं और विशलेषण नवाचार और गतिशीलता से भरे होते थे। उम्र के आखिरी पड़ाव में उनकी दलित धर्म दर्शन पर ‘महान आजीवक कबीर, रैदास और गोसाल’ (2017) किताब प्रकाशित हुई थी। डॉ. धर्मवीर की यह प्रकाशित अंतिम किताब थी। यह किताब उनके तीस-चालीस साल के अध्यन और विचारों की जमापूंजी का नतीजा थी। इस किताब में उन्होंने बहुजन समाज को एक संपूर्ण आजीवक समाज के तौर पर पेश किया था। उन्होंने कहा कि यह दलित समाज किसी भी वर्ण-व्यवस्था का न अंग है और न किसी समाज का अछूत और गुलाम है। वह अपनी सभी पहचान में आजीवक है। डॉ. धर्मवीर ने अपने प्रस्थापनाओं में आगे कहा कि आजीवक समाज के लोग किसी तरह के पूर्वजन्म और पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते हैं और न किसी भी तरह की वर्ण-व्यवस्था को मानते हैं। इस तरह दलित वर्णवादी और सवर्णवादी नहीं बल्कि वह अवर्णवादी हैं।10 डॉ. धर्मवीर ने इस किताब में आजीवक मक्खलि गोसाल के दर्शन और इतिहास पर जैन और बुद्धिस्ट विद्वानों द्वारा डाली गई अकादमिक धूल को अपनी बौद्धिकता की छलनी से छानकर आजीवक मक्खलि गोसाल के दर्शन की साफ सुथरी तस्वीर प्रस्तुत की है। दर्शन के क्षेत्र में आजीवाक मक्खलि गोसाल के सिद्धांत नियतिवाद को भाग्यवाद से जोड दिया गया था। आजीवक दर्शन की मिमांसा में डॉ. धर्मवीर ने उन विद्वानों के निष्कर्षों और तर्कों का खंडन इस बुनियाद पर किया कि नियतिवाद पुनर्जन्म और कर्म के सिद्धांत के विरोध में ही प्रकट हुआ था, जबकि मक्खलि गोसाल के अध्येयताओं और विरोधियों ने उनके सिद्धांत नियतिवाद में कोई अच्छाई और सच्चाई बचने नहीं दी। इस किताब में आजीवक मक्खलि गोसाल के दर्शन की अकादमिक मीमांशा तो उन्होंने की ही, साथ में मक्खलि गोसाल के जीवन संघर्ष पर भी सुचिंतित प्रकाश भी डाला। डॉ. धर्मवीर की इस अकादमिक किताब से मालूम होता है कि मक्खलि गोसाल को जीवन में बहुजन समुदाय के अधिकारों की खातिर किस हद तक अपने समकालीन दर्शनिकों से विमर्श करना पड़ा था।

  डॉ.धर्मवीर की किताबों और लेखों को देखने का बाद दलित चिंतन का स्वरुप स्पष्ट नज़र दिखाई देता है। डॉ. धर्मवीर अपनी तीस-चालीस साल की अकादमिक और वैचारिक यात्रा के बाद इस नतीजे पर पहुंचे थे कि दलित चिंतन और दर्शन का बुनियादी कारखाना मक्खलि गोसाल का चिंतन और संघर्ष हैं। इस विचारक का कहना था कि दलित चिंतन की वैचारिकता  का सफर आजीवक मक्खलि गोसाल के चिंतन से होकर कबीर, रैदास, स्वामी अछूतानंद और डॉ. आम्बेडकर तक आता है। डॉ. धर्मवीर बताते हैं कि महावीर जैन और गौतम बु़द्ध की तरह ही मक्खलि गोसाल ने बहुजनों लिए आजीवक धर्म की नीव रखी थी। चूंकि दलित समाज के लोग अपने धर्म और दर्शन की खोज में आगे नहीं आये इसलिए  उनके विरोधियों ने उनकी पहचान के साथ अजीबो-गरीब नाम जोड़ दिए।11 जबकि दलित अपनी पहचान में आजीवक हैं। चूंकि आजीवक मक्खलि गोसाल साहित्य और दर्शन प्रचुर तौर पर मौजूद नहीं था। इसलिए, उन्होंने दलित चिंतक श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ के संघर्ष के बहाने मक्खलि गोसाल के जीवन दर्शन और संघर्ष को पेश करने की कोशिस की।

  श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ के संघर्ष का मूल्यांकन करते हुए डा.धर्मवीर ने ‘बालक श्यौराज महाशिला खंड़ों का संग्राम’ (2014) किताब लिखी थी। इस किताब में उन्होंने श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ के संघर्ष को को केन्द्र में रखकर उन्हें आधुनिक मक्खलि गोसाल का दर्जा दिया था। डॉ. धर्मवीर का मत था कि दलित महापुरुषों का जीवन संघर्ष श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ के संघर्ष जैसा रहा है। डॉ. धर्मवीर ने अपने अनुसांधन में कहा कि श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधो पर’ दलित महापुरुषों की आत्मकथा और जीवनी है। डॉ. धर्मवीर अपनी बात कहते हुए लिखते हैं : “आजीवक धर्म की बात कर रहा हूँ तो लोग मुझसे उसके संस्थापक मक्खलि गोसाल के बारे में जानना चाहेंगे। वे मुझसे उनकी जीवन-कथा पूछेंगे। मेरा उत्तर है कि नय मक्खलि गोसाल की जीवनी मेंरे पास है और नय मक्खलि गोसाल ने अपनी आत्मकथा लिख दी है। इस आत्मकथा का शीर्षक ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ है और ये हमारे नय मक्खलि गोसाल श्यौराज सिंह बेचैन हैं। इनका परंपरा में ठीक करके श्यौराज सिंह बेचैन रखा जा सकता है। जब तक किसी के द्वारा मक्खलि गोसाल की जीवनी नहीं लिखी जाती, तब तक ‘मेरा बचपन मेरे कंधों’ पर ही उनकी जीवनी है।”12

  डा.धर्मवीर अपने विचार और अनुसंधान से दलित चिंतन के क्षेत्र मे जब विशिष्ट प्रस्थापनाओं और नवाचार को लेकर आये तो हिंदी आलोचकों सहित दलित साहित्य का खेमा उनकी प्रस्थापनाओं से सहमत होता दिखायी नहीं दिया। इन आलोचकों की आलोचना भावनात्मक पद्धति पर टिकी थी। डा.धर्मवीर ने जब प्रेमचंद की ‘कफ़न’ कहानी से लेकर  ‘रंगभूमि’ का नया पाठ दलित कसौटी पर प्रस्तुत किया तो हिंदी आलोचना के खेमे में गज़ब का कोलाहल हुआ । प्रेमचंद को लेकर डा.धर्मवीर ने जो स्थापनाएं दी, उसे  कुछ आलोचकों ने कुपाठ बताया था। इसके बाद डा.धर्मवीर ने धर्म और दर्शन के मसले पर जब बुद्ध को लेकर सवाल उठाया तो कुछ दलित आलोचकों की तरफ से उनकी आलोचना की गई। स्त्री विमर्श के भीतर जब वे मातृसत्ता, पितृसत्ता और जारसत्ता की बहस लेकर आये तब उन्हें लेखिकाओं की ओर से असहमति का शिकार होना पड़ा था। एक संगठित विरोध होने के बाद भी डा.धर्मवीर अपनी प्रस्थापनाओं और तर्को पर अड़िग रहे। दरअसल, विचारों की दुनिया में जब भी कोई चिंतक मौलिक अवधारणाओं को लेकर आता है, तो उसे चौतरफ़ा विरोध का सामना करना पड़ता है लेकिन भविष्य में उसकी स्थापनाएं विचार की दुनिया में मानक बन जाती हैं।

  डॉ.धर्मवीर आधुनिक दलित चिंतन के स्कूल थे। इस स्कूल ने दलित चिंतन की स्वतंत्र वैचारिकी के निर्माण में बड़ी अहम भूमिका निभायी। डॉ. धर्मवीर ने दलित चिंतन की स्वतंत्र वैचारिकी के लिए न तो  किसी से अदावत निभाई और न  ही किसी महारथी की परवाह की। उन्होंने दलित चिंतन की स्वतंत्र वैचारिकी की परियोजना की खातिर सबसे पहले कबीर को वैष्णव और रमानंद का चेला सिद्ध करने वाले अनुसांधन का अकादमिक खंडन किया और कबीर को दलित दाशर्निक के तौर पर स्थापित किया। अपने दुसरे पड़ाव में उन्होंने डॉ. आम्बेडकर के धर्मातरण वाले निर्णय की अकादमिक आलोचना प्रस्तुत की। डॉ. धर्मवीर को बुद्ध के चिंतन और धर्म में दलित समाज की समस्या का समाधान दिखाई नहीं दिया। इस दलित चिंतक ने कहा कि दलित की मूल लड़ाई अस्मिता, हिस्सेदारी और गृहस्थ की है। उसकी लड़ाई राजपाट खोने की नहीं बल्कि पाने की है। इसलिए बाबा साहेब आम्बेडकर को धर्मातरण के बदले दलितों को स्वतंत्र धर्म की ओर ले जाना चाहिए था। क्योंकि धर्मातरण से दलितों का सामाजिक और जातिगत मसला हल नहीं हुआ बल्कि उसकी मूल पहचान को धक्का ज़रुर लगा है। दलित चिंतन की स्वधीनता के लिए उन्होंने तीसरे पड़ाव में प्रेमचंद के दलित विचारों में उपस्थिति विसंगतियों की शिनाख्त की और अकादमिक आलोचना के दायरे में दलित विमर्श के हितैषी होने वाली थ्योरी पर रोक लगाई। उन्होंने बकायदा प्रेमचंद के चिंतन और साहित्य को केंद्र मे रखकर ‘प्रेमचंद की नीले आंखें’ (2010) जैसी बड़ी किताब लिखी थी। इस किताब में प्रेमचंद के समानांतर ही स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ को स्थापित किया गया था।13 इस अकादमिक किताब में उनका अनुसांधन और विचार था कि बीसवीं सदी में प्रेमचंद नहीं बल्कि स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ दलित साहित्य के उद्भावक थे। अपने आखिरी दौर में उन्होंने महात्मा बुद्ध के समानांतर ही आजीवक मक्खलि गोसाल के दर्शन को स्थापित किया। उन्होंने अपनी नई अवधारणाओं से दलित चिंतन और उसकी वैचारिकी को स्वतंत्र स्वरुप देने की कोशिस की थी।

   सन्दर्भ

1.डॉ. धर्मवीर (2009), मेरी पत्नी और भेड़िया, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली, पृ.-466

2.वही, पृ-475

3.श्यौराज सिंह ‘बेचैन’(2013),डा.धर्मवीर का पैर कटने से बचाया जा सकता था,पाखीं,मार्च: वर्ष: 05, अंक: 08, पृ.-9,10

4.वही, देंख पृ-13

5.देंखे, श्यौराज सिंह ‘बेचैन’( 2016), कैसर पर विजय की सच्ची कहानी, पाखी, अगस्त वर्ष: 08, अंक: 11, पृ-53-63

6.डॉ. धर्मवीर(1998),कबीर के आलोचक, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली, देंखे भूमिका

  1. मेरे मत में कबीर के गुरु मक्खी और मच्छर हो सकते थे, कबीर के गुरु कुत्तें और बिल्ली हो सकते थे लेकिन रमानंद ब्राह्मण उनके गुरु कभी नहीं हो सकते थे। (डॉ. धर्मवीर(1998), कबीर के आलोचक, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली, पृ-96)
  2. देंखे,वीर भारत तलवार(1997),कबीर पर कब्जे की लड़ाई, पल प्रतिपल, अक्टूबर-दिसंबर, पृ-44 से 57 तक

9.डॉ. धर्मवीर(2013), कबीर: खसम खुशी क्यों होय ? वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,पृ-185

10.इस दृष्टि से कहा जा रहा है कि मक्खलि गोसाल की लडाई कैसी भी वर्ण-व्यवस्था से थी। जो वज्र सूची यह कहती है कि मनुष्यो का एक ही वर्ण है, आजीवक लोग उसे भी मानने के लिए तैयार नहीं है, इसलिए वे अवर्णवादी हैं। उन्हें एक भी वर्ण ही नहीं स्वीकार हैं, उन्हें ‘वर्ण’ शब्द ही स्वीकार नहीं है। (डॉ.  धर्मवीर(2017),महान आजीवक कबीर,रैदास और गोसाल, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली, पृ-51)

11.चूँकि आजीवक लोग अपने धर्म,दर्शन और समाज को बिसरा चुके थे,इसलिए विरोधियों ने उनके नये-नये और अजीब नाम रख रखें हैं। आज उन्हें साहित्य के क्षेत्र मे दलित कहा जाता है। अंग्रेजों से राजनैतिक स्वतन्त्रता के संग्राम तक उन्हें भारत में अछूत कहा जाता था जो आज कानून में प्रतिबन्धित है। उन्हें हरिजन भी कहा जाता था। लेकिन वह भी अब प्रतिबन्धित है। संविधान में उन्हें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग में विभाजित कर रखा है।( देंखे, डॉ. धर्मवीर(2017),महान आजीवक कबीर,रैदास और गोसाल, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली, भूमिका)

12.डॉ. धर्मवीर (2014),बालक श्यौराज महाशिला खंड़ों का संग्राम, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,पृ-7

13.डॉ. धर्मवीर(2010)प्रेमचंद की नीली आँखे, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली, देंखे, अध्याय-4,5 और 7

(लेखक युवा आलोचक और स्वतंत्र अध्येता हैं)

               मो. 8009824098

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12 comments

  1. सारगर्भित लेख के लिए सुरेश जी को बधाई । डॉ. धर्मवीर को जितना पढ़िये हर बार नाई जंकरियन मिलती हैं । सुरेश कुमार ने इस लेख के माध्यम से कई सारी नई जानकारियाँ दी हैं । बधाई व शुभकामनायें ।

  2. Anand Raj Singh

    बेहतरीन लेख, मैं इसे सेव कर रहा हूं।
    आप को बहुत आभार सर🙏💐

  3. कैलाश दहिया

    अच्छा लेख है। सुरेश कुमार को इसी दिशा में काम करना चाहिए था, लेकिन कुछ कारणों से ये दिशा भटक गए। खैर, देर आए दुरुस्त आए। पता नहीं महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर के साथियों में ये मेरा नाम कैसे भूल गए! इस लेख से ‘आखरी खत’ का महत्व और बढ़ गया है।

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