प्राइड मंथ चल रहा है यानी एलजीबीटी समुदाय को लेकर जागरूकता का महीना। मुझे देवदत्त पटनायक के उपन्यास ‘द प्रेग्नेंट किंग’ का ध्यान आया। महाभारत में आए एक प्रसंग को लेकर लेखक ने मिथकीय कथाओं का अच्छा ताना-बना है। पेंगुइन से प्रकाशित इस किताब का सरस हिंदी अनुवाद किया है रचना भोला ‘यामिनी’ ने। आइए किताब की भूमिका पढ़ते हैं जिसे लेखक ने लिखा है-
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और फिर
यह सब आरंभ हुआ
ब्रह्मा के पांचवें सिर की खोज से
उनके पहले सिर ने हमें शब्द दिए
दूसरे सिर ने हमें व्याकरण दी
तीसरे ने दिया छंद
चौधे सिर ने दिया स्वर माधुर्य
अंतिम शीश का कुछ पता नहीं
वह शीश, जिसमें सारे अर्थ थे समाए
वही कहीं खो गया है
गर्भवान राजा का प्रसंग महाभारत में दो बार आता है। एक बार पांडवों के वनवास के दौरान लोमश ऋषि इसे दोहराते हैं। और दूसरी बार कौरवों केसाथ युद्ध के दौरान व्यास इसका वर्णन करते हैं। यह प्रसंग पुराणों में भी कई बार आता है, वे इसे अपनी ही अनूठी शैली में प्रस्तुत करते हैं। ये विचित्र कथा आज भी अस्तित्व में क्यों बनी हुई है, मैं यही विचार करता
रहता था। पवित्र ग्रंथों में इस प्रसंग का क्या औचित्य रहा है?
वैसे यह कथा एक आरंभिक युग से संबंध रखती है, यह कुरुक्षेत्र के मैदान में हुए युद्ध से कई पीढ़ियों से पहले की है। मेरी पुस्तक में ऐसा नहीं है। इस पुस्तक में महाकाव्यों की कथाओं को जानबूझ कर तोड़ा-मरोड़ा गया है। इतिहास को मोड़ा गया, भूगोल को कुचला गया। यहाँ युवनाश्व को पांडवों का समकालीन दिखाया गया है जो एक स्थान पर अर्जुन से संवाद
भी करता है।
इसमें युवनाश्व की माता, मांधाता का भाई व शिखंडी की पुत्री जैसे कुछ
नए पात्र भी जोड़े गए हैं। इनमें से किसी का भी ग्रंथों में विवरण या संदर्भ नहीं मिलता। मैंने कथाओं का जो ताना-बाना बुना है, ये उसी में कल्पना के माध्यम से सामने आए हैं।
जी हाँ, शास्त्रीय ग्रंथ हमें सोमवत, स्थूणकर्ण व शिखंडी की कथा सुनाते हैं। आइली (यहाँ प्रमिला), इरावन तथा बहुचारी (यहाँ बहुगामी) की कथाएँ तमिलनाडु व गुजरात की ग्रामीण व किन्नर परंपराओं से संबंध रखती हैं। परंतु मैंने इनका प्रयोग केवल प्रेरणा के लिए किया है, ये कहीं से भी मुझे सीमाओं में आबद्ध नहीं करतीं। मैंने इला और भंगाश्वन की कथा को एक
सूत्र में पिरोने की स्वतंत्रता भी ली है।
यह पुस्तक श्लोक, मंत्र, अनुष्टान, तंत्र, परिकल्पना, दर्शन व आचार की प्राचीन संहिताओं से भरपूर है। इन्हें प्रामाणिक रूप में नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि मेरा अभिप्राय यथार्थ की पुनर्रचना से नहीं रहा, मैं तो केवल विचार प्रक्रियाओं का प्रतिनिधित्व करना चाहता था।
मेरे यज्ञ के अंत में, अनेक देवों व दानवों से लंबे विचार-विमर्श के बाद, मैंने स्वयं को एक पात्र लिए हुए पाया : मेरी कथा। इसी पात्र में एक
पेय है : विचारों, भावनाओं व उपायों का मिश्रण।
मेरे आश्रयदाता, यजमान इस पात्र को सराह सकते हैं अथवा इसे तोड़ सकते हैं। इसे पी सकते हैं या थूक सकते हैं। या वे पूछ सकते हैं जैसे कि में प्रायः पूछता हूँ, ऐसा क्या है जो अधिक महत्त्व रखता है : पात्र या फिर पेय?
क्या ये घटनाएँ वास्तव में घटीं? क्या यह बात महत्त्व रखती है? क्या यह वास्तव में शीलावती, युवनाश्व, शिखंडी अथवा सोमवती के विषय में है? या यह प्रेम, न्याय, पहचान, लिंग, शक्ति व विवेक की कथा है? सार्वभौमिक औचित्य की असंभावना? कौन जाने?
अनंत पुराणों में छिपा है सनातन सत्य
इसे पूर्णतः किसने देखा है?
वरुण के हैं नयन हज़ार
इंद्र के सौ
आपके मेरे केवल दो।
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