आज बाबा नागार्जुन की जयंती है। उनको याद करते हुए दो कविताएँ वरिष्ठ लेखक-कवि प्रकाश मनु ने लिखी है। आप भी पढ़िए-
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बाबा, हम फिर आएँगे
बाबा, हम फिर आएँगे तुम्हारे पास
बाबा, हम फिर-फिर आएँगे,
तुम सुनाना हमें किस्से…
तुम सुनाना हमें कहानियाँ!
तुम सुनाना हमें कहानियाँ
पकी हुई जिंदगी की भट्ठी में,
तुम सुनाना हमें कहानियाँ
मिलीं जो तुम्हें टेढ़ी-मेढ़ी ऊबड़-खाबड़ यात्राओं में
धूल में धूल, मिट्टी में मिट्टी होते हुए।
सुनाना उन्हें ठेठ किसानी अंदाज में फैलाते हुए दूर तलक
उनमें लपेटते हुए सुख-दुख का लंबा इतिहास।
सुनाना कहानियाँ हमें जिनमें भरपूर हो रस-गंध-स्पर्श
और स्वाद सिके हुए भुट्टों की तरह
तरौनी गाँव के आम, लीची और ताल-मखानों की तरह
खूब पके हुए अहह: कटहल की तरह
सुनाना कहानियाँ
जो पकी हों गरम राख और उपलों की धीमी-धीमी
धुमैली आँच में।
बाबा, हम फिर आएँगे तुम्हारे पास
तुम फिर-फिर सुनाना जोड़ा मंदिर की कहानी
जेल में कैदियों के बीच चले आए एक प्यारे से
नेवले की कारस्तानी।
(नाम उसका तुमने रखा था बाबा?)
दिखाना हमें जेल की सलाखों पर टिकाए सिर
कैसे देखते ही देखते पकती और बुढ़ाती है जिंदगी
सुनाना हमें धूप की चादर में अटकी
नीम की दो टहनियों की कथा,
सुराजियों के संग हाड़ तुड़ाते बलचनमा की बिथा!
और अंत में सुनाना उस आततायी किले की कहानी
जिसमें बंद है राजकुमारी
और जिसके भीतर से आ रही हैं लगातार
उत्पीड़न की आवाजें
बताना उस किले में घुसने का राज…
जरा तफसील से!
बाबा, हम फिर आएँगे तुम्हारे पास।
तुम फिर-फिर सुनाना हमें कहानियाँ
सुनाना किस्से अपनी औघड़ मलंग जिंदगी के
हासिल किए जो तुमने जिंदगी के कड़े
इम्तिहानों को जीतकर!
बताना तो जरा बाबा, इस कदर ठसके से
जिंदगी जीने का भेद
हम सुनेंगे और मुसकराएँगे मंद-मंद
मन ही मन तुम्हारी दबंगी पर होते हुए हैरान,
तुम्हारी किसानी दाढ़ी से आती हुई गंध
भरते हुए नथुनों में
हम ढूँढ़ेंगे रास्ता जिंदगी का तुम्हारे किस्से-
कहानियों के बीहड़ जंगल में!
ठीक है, तुम हुए अदेह, पर इससे क्या!
कल भी तुम समाए थे हम सबमें
अपनी बेतरतीब दाढ़ी और बिखरी बातों के साथ
सबकी आत्मा और जोत बनकर
आज भी हो, रहोगे कल भी…!
हम फिर-फिर सुनने आएँगे कहानियाँ
तुम सुनाना रस ले-लेकर वे अनमोल
किस्से-कहानियाँ और खोलना
उनमें जिंदगी के बड़े-बड़े राज
बड़े-बड़े भेद!
बाबा, हम फिर-फिर आएँगे तुम्हारे पास।
तुम सुनाना हमें कहानियाँ
जो जितनी बार सुनो, हर बार नई लगती हैं
तुम दिखाना हमें जमाने के गुट्ठिल घट्ठों वाले कुलिश कठोर पैर
जिन्हें हम कभी देख ही नहीं पाए।
तुम दिखाना हमें जमाने की फूली हुई आँख
जिसमें दर्द और गुस्से की अनगिनती लकीरें हैं
और जो उतावले लोगों की चालाक दुनिया की चालाकी
पलक झपकते पहचानती है।
तुम मिलाना हमें लालू साह, रत्नेसर, अखिलेश, चंदू
और बद्री बाबू से
मिलवाना कि इनसे हम मिलकर भी कभी ढंग से मिले ही नहीं,
दिखाना वार्ड नं. 10 के आगे-पीछे की क्यारियों में
हुमचती फसल…
जिसे किसी कैदी ने उगाया था सबके साझे सुख के लिए।
बाबा, तुम फिर-फिर सुनाना किस्से
फिर-फिर सुनाना कहानियाँ,
फिर हँसना किसी छोटे शरारती बच्चे की तरह मिचमिचाकर आँख
और खेल-खेल में बता जाना
हजार-हजार तिलिस्मी परतों में रह रहे उस दैत्य का असली पता
जिसकी पृथ्वी पर की सारी सुख-सुविधाओं पर कब्जा है।
बताना उसे मारने का अचूक नुस्खा
बताना उसे जीतने का मंत्र
और भेदभरी आँखों से मुसकराना।
बाबा, हम फिर-फिर आएँगे
सुनने ये बे-मोल किस्से-कहानियाँ
तुम खोलना पिटारा अपने दुख-दर्द और फक्कड़ी जिंदगी का
अपने अनुभवों के कीमती दस्तावेज पढ़कर सुनाना
अपनी बूढ़ी, थकी आँखों के आगे
सधाते हुए ‘लेंस’ काँपते हाथों से…
बाबा, हम फिर-फिर आएँगे
तुम फिर-फिर हमें अपने अनुभवों की
रसवंत दुनिया में ले जाना
सुनाना हमें किस्से-कहानियाँ
और हमारी बेनूर जिंदगी को रंग-स्पर्श-गंध
और स्वाद से भरकर
लौटा देना हमीं को
हमें कुछ और जीने लायक बनाना…
बाबा, हम फिर-फिर आएँगे
तुमसे सीखने जिंदगी के मंत्र
हम फिर-फिर आएँगे तुम्हारे पास।
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हमने बाबा को देखा है
सादतपुर की इन गलियों में,
हमने बाबा को देखा है!
कभी चमकती सी आँखों से
गुपचुप कुछ कहते, बतियाते,
कभी खीजते, कभी झिड़कते
कभी तुनककर गुस्सा खाते।
कभी घूरकर मोह-प्यार से
घनी उदासी में घुस आते,
कभी जरा सी किसी बात पर
टप-टप-टप आँसू टपकाते।
कभी रीझकर चुम्मी लेते
कभी फुदककर आगे आते,
घूम-घूमकर नाच-नाचकर
उछल-उछलकर कविता गाते,
लाठी तक को संग नचाते,
सादतपुर की इन गलियों में,
हमने बाबा को देखा है!
जर्जर सी इक कृश काया वह
लटपट बातें, बिखरी दाढ़ी,
ठेठ किसानी उन बातों में
मिट्टी की है खुशबू गाढ़ी।
ठेठ किसानी उन किस्सों में
नाच रहीं कुछ अटपट यादें,
कालिदास, जयदेव वहाँ हैं
विद्यापति की विलासित रातें।
एक शरारत सी है जैसे
उस बुड्ढे की भ्रमित हँसी में,
कुछ ठसका, कुछ नाटक भी है
उस बुड्ढे की चकित हँसी में।
सोचो, उस बुड्ढे के संग-संग,
उसकी उन घुच्ची आँखों से,
हमने कितना कुछ देखा है!
सादतपुर की इन गलियों में,
हमने बाबा को देखा है!
कहते हैं, अब चले गए हैं,
क्या सचमुच ही चले गए वे?
जा सकते हैं छोड़ कभी वे
सादतपुर की इन गलियों को,
सादतपुर की लटपट ममता
शाक-पात, फूलों-फलियों को?
तो फिर ठाट बिछा है जो यह
त्यागी के सादा चित्रों का,
और कृषक की गजलें, या फिर
दर्पण से बढिय़ा मित्रों का।
विष्णुचंद्र शर्मा जी में जो
कविताई का तंज छिपा है,
युव पीढ़ी की बेचैनी में
जो गुस्सा और रंज छिपा है।
वह सब क्या है, छलक रहा जो
सादतपुर की इन गलियों में,
मृगछौनों सा भटक रहा जो
सादतपुर की इन गलियों में।
यह तो सचमुच छंद तुम्हारा
गुस्से वाली चाल तुम्हारी,
यही प्यार की अमिट कलाएँ
बन जाती थीं ढाल तुम्हारी।
समझ गए हम बाबा, इनमें
एक मीठी ललकार छिपी है,
बेसुध खुद में, भीत जनों को
इक तीखी फटकार छिपी है!
जो भी हो, सच तो इतना है
(बात बढ़ाएँ क्यों हम अपनी!)
सादतपुर के घर-आँगन में
सादतपुर की धूप-हवा में,
सादतपुर के मृदु पानी में
सादतपुर की गुड़धानी में,
सादतपुर के चूल्हे-चक्की
और उदास कुतिया कानी में—
हमने बाबा को देखा है!
सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!
करते हैं अब यही प्रतिज्ञा
भूल नहीं जाएँगे बाबा,
तुमसे मिलने सादतपुर में
हम फिर-फिर आएँगे बाबा,
जो हमसे छूटे हैं, वे स्वर
हम फिर-फिर गाएँगे बाबा।
स्मृतियों में उमड़-घुमड़कर
आएँगी ही मीठी बातें,
फिर मन को ताजा कर देंगी
बड़े प्यार में सीझी बातें!
कई युगों के किस्से वे सब
राहुल के, कोसल्यायन के,
सत्यार्थी के संग बिताए
लाहौरी वे दिन पावन-से।
बड़ी पुरानी उन बातों को
छेड़ेंगे हम, दुहराएँगे,
दुक्ख हमारे, जख्म हमारे
उन सबमें हँस, खिल जाएँगे।
तब मन ही मन यही कहेंगे
उनसे जो हैं खड़े परिधि पर,
तुम क्या जानो सादतपुर में
हमने कितना-कुछ देखा है!
काव्य-कला की धूम-धाम का
एक अनोखा युग देखा है।
कविताई के, और क्रांति के
मक्का-काबा को देखा है!
सादतपुर की इन गलियों में,
हमने बाबा को देखा है!
हम बाबा के शिष्य लाड़ले
हम बाबा के खूब दुलारे,
बाबा के नाती-पोते हम
बाबा की आँखों के तारे।
हम बाबा की पुष्पित खेती
हममें ही वे खिलते-मिलते,
हमसे लड़ते और रीझते
हममें ही हँस-हँसकर घुलते।
हमको वे जो सिखा गए हैं
कविताई के मंत्र अनोखे,
हमको वे जो दिखा गए हैं
पूँजीपति सेठों के धोखे।
और धार देकर उनको अब
कविताई में हम लाएँगे,
दुश्मन के जो दुर्ग हिला दें
ऐसी लपटें बन जाएँगे।
खिंची हुई उनसे हम तक ही
लाल अग्नि की सी रेखा है!
हमने बाबा को देखा है!
सादतपुर की इन गलियों में,
हमने बाबा को देखा है!
**nagarjuna
प्रकाश मनु, 545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,
मो. 09810602327,
ईमेल – prakashmanu333@gmail.com
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बहुत-बहुत धन्यवाद भाई प्रभात रंजन जी।
मेरा बहुत मन था कि बाबा नागार्जुन की जयंती पर ये कविताएँ
पाठकों के सामने आएँ।
‘जानकीपुल’ बड़ा मंच है। बड़े प्रबुद्ध पाठक और लेखक हैं इसके।
हो सकता है कुछ का ध्यान इन कविताओं पर जाए, जिन्हें लिखते हुए
बाबा से हुई अनगिनत मुलाकातें मेरी आँखों के आगे नाच रही थीं।
सादतपुर में अपने दोस्त चित्रकार हरिपाल त्यागी जी के साथ बाबा से
बहुत बार मिलना होता था और हर बार उनकी शख्सियत का कोई नया रंग
नई भंगिमा देखकर मैं अभिभूत होता था।
उनके भीतर से हर पल बहकर आते प्रेम के सोते में मैं खूब भीगा
और नहाया।
वे सारे स्नेह-प्यार के पल इन कविताओं में हैं, जो कविताएँ भी हैं
और एक अर्थ में संस्मरण भी।
मेरा बहुत-बहुत स्नेह और शुभकामनाएँ,
प्रकाश मनु
बहुत बहुत सुंदर
बधाई
मनु-स्मृति में आये, नागार्जुन,
मनु-मन को भाये, नागार्जुन,
मन की आँखों से हमने भी ,
अपनी यादों में हमने भी ,
एक साया तिरते देखा है
बैठे-बैठे, कुछ ही पल में,
मस्तिष्क में, मन की भूमि पर ,
जाने-अनजाने ,अनायास,
एक कवि उतरते देखा है।
दो शब्द-चित्र ऐसे पाये,
कुछ सोई स्मृतियाँ जाग उठीं,
कविता के पुण्य- वैभव को देख,
हृत्कलियाँ खिल कर नाच उठीं।
औघड़ कवि पर दो कविताएँ,
एक छंदबद्ध ,एक छंद- मुक्त ,
दोनों में नागार्जुन के ठाठ,
दोनों में बाबा खड़े चुस्त।
जीवन का गरल-सुधा पीकर,
अनगिन अनुभव के भोगी-भुक्त,
गरिमा में फक्कड़पन उनका ,
या फक्कड़पन गरिमा से युक्त ।
पढ़ने वाला ,पढ़ता जाए ,
कविता-सौन्दर्य से हो विभोर,
बढ़ता जाए ,पढ़ता जाए,
‘बाबा रस’ में हो सराबोर।
दो शब्द-चित्र हमने पाये,
कितने सुंदर,हृदयाभिराम ,
लख, स्वयं नमित होता है शीश,
कवि को कवि का सादर प्रणाम।