कुछ कहा रूक कर पवन ने
कुछ सुना झुक कर गगन ने
शाम भी लिख गयी अधूरा
उषा भी न पढ़ पायी पूरा
नाप डाला उस नयन ने
एक मधुरिम सजल निमेष में
जब आया तेरे देस में।
विपिन विरह का जलन
मरकट मुक्ता का चलन
तड़ित जो नीरद में बसा
आवेग जो धमनी को कसा
तृषा सलिल बन गया
तेरे पुलक के उन्मेष में
जब आया तेरे देस में।
झर सुमन ने विरह बताया
मूक तृण ने जिरह सुनाया
टूट तारिका भी बोली
भेद चातकी ने खोली
हट कर फिर भी स्वप्न बसा
सुरभित सासों के परदेश में
जब आया तेरे देस में।
चांदनी को बादलों से घेरते
सौरभ से सने क्षण विखेरते
मुखर स्पंदन का मेला
अनवरत चला पंथी अकेला
सत्य की साधना यही है
जो लिखा अमिट संदेश में
जब आया तेरे देस में।
3
कौन हो तुम
कौन हो तुम इस अर्न्तमन में।
नित कसक जगाता नये-नये
निज छाया से अकुलाता हूँ
प्यासे नयनों में उमड़ घुमड़
बरसकर भी, प्यासा रह जाता हूँ
तन के उद्वेलित तरंग पर
रजनी के अन्तिम पहिर में
कौन हो तुम इस अर्न्तमन में।
लगता है कोई शोणित में
निरन्तर स्वर्ण तरी खेता है
गुंजता एक संगीत सा फिर
बाहों में रह रह, भर लेता है
पा लिया किसे मैने अब
खोया क्या-क्या, राह वंकिम में
कौन हो तुम इस अर्न्तमन में।
निज मन पीड़ा कैसे पहुँचाऊँ
करूण भाव कैसे भर लाऊँ
क्या छूती नहीं, मेरी आहें तुमकों
इस आग में, तैर नहाऊँ
मृदुल अंक भर, दर्पण सा सर
बंदी बनाया मुझे निमिष ने
कौन हो तुम इस अर्न्तमन में।
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बहुत ही उत्तम भौया
यार ! प्रभात रंजन जी , क्यों मूर्ख बना रहे हो। अब यही घासलेटी साहित्य पिलाओगे?