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आमाके… दाओ! आमाके…दाओ: शरतचंद्र और ‘आवारा मसीहा’

आवारा मसीहा’ शरतचंद्र की जीवनी है। विष्णु प्रभाकर की बरसों की तपस्या का परिणाम। इस यादगार किताब पर एक पठनीय टिप्पणी लिखी है लेखिका निधि अग्रवाल ने। आप भी पढ़िए-

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आमाके… दाओ! आमाके…दाओ!

डॉ. निधि अग्रवाल

कहते हैं जब रवींद्रनाथ ठाकुर ने शरतचन्द्र से कहा था-  “तुम अपनी आत्मकथा लिखो।” उनका उत्तर था- “गुरुदेव यदि मैं जानता कि मैं इतना बड़ा आदमी बनूँगा तो मैं किसी और प्रकार का जीवन जीता।”

मुझे लगता है कि यदि शरतचन्द्र ने किसी और प्रकार का जीवन जिया होता तो वह भले ही गुरुदेव बन जाते किन्तु शरत् न बन पाते। वे शरत् जो परकाया प्रवेश कर स्त्री मन के हर उस रहस्य को सहज लिख जाते हैं जो वह स्वयं से भी लुकाय रहती है। जो उनमें नीचे गिरने की सहजता न होती तो उनके भावों की अभिव्यक्ति वह उठान न पाती। लोगों के दुख उन्होंने कभी ऊंचे पीढ़े पर बैठ, निर्णय सुनाते, उन्हें ग्लानि में धकेलते न सुने। एक आबदारी का पुल बनाया जिस पर दो भग्न हृदय साथ टहल,कुछ शांति पाए। ऐसे ‘शरत्’ का न होना हमारे साहित्य को निश्चित ही अकिंचन करता।

आवारा मसीहा की भूमिका का यह अंश देखिए-

शरतचन्द्र कहते थे- लेखक के व्यक्तिगत जीवन को लेकर परेशान होने से क्या लाभ ? वह लेखक है इसलिए अपने जीवन की सब बातें उसे बतानी होंगी, इसका आखिर क्या अर्थ है? उसकी रचनाओं के भीतर उसका जितना परिचय मिल सकता है उसी को लेकर संतुष्ट होना उचित है। एक दिन मैं नहीं रहूँगा तुम भी नहीं रहोगे लोग मेरे व्यक्तिगत जीवन के बारे में जानने की इच्छा नहीं करेंगे तब यदि कोई मेरी लिखी हुई रचना बची रहेगी तो वह उसी को लेकर चर्चा करेंगे। मेरे चरित्र को लेकर नहीं।काश वह देख सकते कि आज उनके जीवन को लेकर कितने चिंतित हैं और कैसी कैसी मनगढ़ंत बातें उन्होंने फैला दी है सत्य और मिथ्या के बीच कहीं कोई अंतर नहीं रह गया। यही बातें सुनकर कभी गुरु रवींद्नाथ कह उठे थे- “मैं इसीलिए तो मरना नहीं चाहता।”

लेकिन मुझे लगता है कि आपसे ईर्ष्या रखने वाले आपकी उपस्थिति से कब डरते हैं? जितना आप आगे बढ़ते हैं उतना ही वे आपके विषय में भ्रांतियाँ फैलाकर आपको पीछे धकेलना चाहते हैं। आज जब शरतचंद्र के साथ समय खंड साझा करने वाले सभी काल कवलित हो गए तो  शेष रहा है उनका साहित्य, उनके लिए पाठकों का अथाह प्रेम और अपने प्रिय लेखक का अंतर्मन अधिक से अधिक जानने की जिज्ञासा।

एक लेखक जिसने अपनी जीवनी नहीं लिखी, उसे ढूँढने के लिए उसके लिखे हर पात्र को पढ़ना और खंगालना पड़ता है। लेखक अपनी किस कहन में कितना प्रतिशत उपस्थित है यह कब जाना जा सकता है। कब शरत् अपनी शरारत राजू के कंधे धर दें और कब राजू के गुनाह अपने सिर उठा ले, यह स्वयं लेखक भी नहीं जानता। आवारा मसीहा की भूमिका में विष्णु प्रभाकर जी लिखते हैं कि स्वयं उनके मामा और बाल सखा द्वारा उनके बारे में जो दो पुस्तक लिखी हैं उनमें परस्पर विरोध है। कभी-कभी तो मुझे लगता था कि कोई मुझे चुनौती देने वाला है कि शरतचन्द्र नाम का कोई व्यक्ति इस देश में नहीं हुआ। कुछ अज्ञान लेखकों ने स्वयं कुछ उपन्यास लिखे और शरतचन्द्र के नाम से चला दिए। यह धारणा सत्य ही है कि मनुष्य शरतचन्द्र की  प्रकृति बहुत जटिल थी। साधारण बातचीत में भी अपने मन के भावों को छुपाने का प्रयत्न करते थे और उनके लिए कपोल कल्पित कथाएँ करते थे। जब कोई पूछता है कि यह घटना स्वयं उनके  जीवन में घटी है, तो वे कहते न न गलत कहता हूँ, सब गल्प, मिथ्या एकदम सच नहीं। शरत् के उपन्यासों में उन्हें तलाशते हमें याद रखना होगा कि वह कहते थे उपन्यास लिखने बैठने पर कोई हुबहू अपनी कथा नहीं लिखता। उसी तरह अपने को छोड़कर कोई सार्थक सृष्टि भी नहीं होती।

विष्णु जी लिखते हैं-

“जीवनी क्या है? अनुभवों का शृंखलाबद्ध कलात्मक चयन! इसमें वे ही घटनाएं पिरोई जाती हैं, जिनमें सम्वेदना की गहराई हो, भावों को आलोड़ित करने की शक्ति हो।”

यहाँ में जीवनी और आत्मकथा में निहित अंतर पर ठहरी हूँ। जीवनी में वही दर्ज हो पाएगा जो उन्होंने दुनिया के सामने आने दिया होगा। जो छुपाया उनमें से कुछ लेखन में झलका होगा किन्तु मन की भीतरी तहों में कैद सबसे कोमल और निजी भावों को कैसे जाना जाए?  किसी की जीवनी लिखते हम बता सकते हैं कि उसने कौन सी राहों से गुज़र कौन सी मंज़िल पाई किन्तु उन राहों की चुनाव की दुविधा और दुश्वारियों का, राह में आई लड़खड़ाहट का, मंज़िल मिलने पर उपजे आह्लाद या अफ़सोस का वर्णन, अंतर्मन की झलक केवल एक ईमानदार आत्मकथा में ही सम्भव है।

शरत् ने जो जीवन जिया, जिसने उन्हें शरत् बनाया उस जीवन के प्रति, चयनों के प्रति, रुझानों और अवसादों के प्रति शरत् की लड़ाइयों से जो हम जान सकते थे कि तमाम मासूमियत लिए और दुनियादारी से अनछुआ व्यक्ति कैसे टीस भरा जीवन, मुस्कराहट कायम रखे जीता है, इसके सूत्र अब हम कभी नहीं जान पाएँगे।

शरत् से हिंदी साहित्य के पाठकों का परिचय कराने के इस प्रयास में विष्णु प्रभाकर जी लिखते हैं- “मैंने कला को भले ही खोया हो, आस्था को नहीं खोया।” मुझे लगता है कि शरत् से जुड़े संस्मरण सुनाते, उनके विषय में लिखते कितने ही लोगों की कितने ही लोगों के प्रति और स्वयं शरत् के प्रति आस्था ने भी सच को छुआ होगा, उसको  अनजाने मलिन किया होगा किन्तु इतने पर भी शरत् के प्रति जनमानस के स्नेह की आत्मा बेदाग ही रहेगी।

शरतचन्द्र के शब्दों में निहित यह आस्था ही पाठक को ‘आवारा मसीहा’ पाने की प्रसन्नता भी देगी। यह आस्था ही इसके आत्मजीवनी  न होकर जीवनी होने पर एक महीन निराशा भी देगी। यही आस्था पाठक को विष्णु प्रभाकर जी के प्रति श्रद्धा से भर भी देगी। वैसे ही ज्यों बेटी के घर जा बेटी से भेंट न हो उसकी प्रिय सखी से कुशल क्षेम मिल जाए। तसल्ली होने पर भी एक कसक रह जाती है। यही तो है शरत् का असली रूप ; एक ही समय में प्रेम, क्रोध, आशा, निराशा सबको एकमेव किए। इसी रूप में उन्होंने स्वीकारा अपने आस पास प्रत्येक को बिना उनके अस्तित्व , उसकी शुचिता पर कोई प्रश्नचिन्ह लगाए हुए। जैसा कि विष्णु प्रभाकर जी ने लिखा है- “वे मनुष्य को देवता के नाते नहीं, मनुष्य के नाते ही प्यार करते थे।” इस मसीहा का सब हासिल उसकी आवारगी से ही हुआ इसमें मुझे कोई अतिश्योक्ति नहीं लगती।

‘आवारा मसीहा’ किताब की बात करूँ तो मैं कहूँगी इसे पहले पन्ने से अंत तक पढ़िएगा। हर संस्करण की भूमिका में कई सुंदर बातें और विश्लेषण हैं, जिन्हें पढ़ते आप विष्णु जी की लेखनी के प्रेम में पड़ते जाएँगे। जब भी शरत् की बात होगी गुरुदेव का ज़िक्र जरूर आएगा और इसका मुख्य कारण पाठकों और आलोचकों द्वारा दोनों की तुलना नहीं, वरन शरत् की गुरुदेव के प्रति श्रद्धा है, अपने लिखे पर उनका आशीर्वाद पाने की निष्कलुष चाह है और यह चाह एक नए लेखक की स्थापित लेखक से नहीं है। यह एक भक्त की अपने भगवान के प्रति है।

विष्णु जी लिखते हैं-

रवींद्रनाथ ने बंकिमचन्द्र की भाषा को सहज-सरल बनाया था। शरतचन्द्र ने उसे और प्रांजल तथा अंतः स्पर्शी बना दिया। रवींद्रनाथ के चरित्र विचारों के मानवीय संस्करण हैं। उनका लक्ष्य है देशातीत-कालातीत मानव। शरत् के पात्र रोज़मर्रा के जीवन से बेमेल नहीं लगते।कारण, उनजे पीछे स्रष्टा की अभिज्ञता का असीम कोष है।

इस पर भी वे इस सत्य को स्वीकारते हैं कि प्रत्येक आगे आने वाले की तरह शरतचन्द्र अपने दोनों( बंकिम व रवींद्रनाथ) महान पूर्ववर्तियों के ऋणी हैं।

पुस्तक तीन पर्व में विभाजित है।

दिशाहारा

दिशा की खोज

दिशांत

दिशाहार पर्व में शरत् की ही भांति लेखक और पाठक भी भ्रमित और निरुद्देश्य भटकता है। जिस पाठक ने जितना अधिक और जितना डूब कर शरत् को पढ़ा होगा वह दिशा पाने के लिए उतना ही अधिक लालायित होकर तेज़ी से पन्ने पलटेगा। जीवन, कहानियों में रोचक लगता है किंतु जब कहानियां पुनः जीवनी में लौटती हैं तो उकता देती हैं। इस भाग में शरत् के उपन्यासों और साहसी राजू जैसी कहानियों से ऐसे ही कई वृतांत हैं जो नए पाठक को रुचिकर लगेंगे किन्तु उनका साहित्य पढ़ चुके पाठक को अधीर करेंगे। यह जानना जरूर रोचक होगा कि कैसे एक  व्यक्ति कहानियों में विभिन्न पात्रों में ढल जाता है या कैसे विभिन्न परिचय मिलकर एक पात्र गढ़ते हैं।

इस पर्व में सबसे अधिक चकित करता है उनके पिता मोतीलाल जी को जानना । उनका परिचय यूँ हुआ है-

वे यायावर प्रकृति के स्वप्नदर्शी व्यक्ति थे। सौंदर्य बोध भी कम न था। मोती जैसे शब्दों में रचना आरम्भ करते परन्तु अंत की अनिवार्यता मानो उन्होंने कभी स्वीकार ही नहीं की। मोतीलाल की सारी कला साधना व्यर्थता में ही सफल हुई। पिता की कहानियों का यह अधूरापन ही उनकी प्रेरणा शक्ति बना। यह जानने की जिज्ञासा भी होती है कि पिता की इन अधूरी कथाओं को शरत् ने या किसी अन्य ने कभी पूरा किया या नहीं? शरत् चन्द्र के लिए लिखते हैं- स्वभाव से वह अपरीग्रही था। देने में उसे मानो आनन्द आता था लेकिन यह देने के अभिमान का आनंद नहीं था यह था भार मुक्ति का आनंद। माँ के विषय में –  भुवनमोहिनी प्रेम-प्लावित आत्मा थी और शरत् साहित्य भी इसी प्रेम प्लावित आत्मा के मुक्त प्रवाह से आलोकित है।

एक स्थान पर शरत् का मित्र नीला उनके लिए अलार्म घड़ी लेकर आता है। शरत् सजल आँखों से पूछते हैं- तू मुझे इतना प्यार क्यों करता है?

वह कहता है- एक व्यक्ति दूसरे को क्यों प्यार करता है पता नहीं।

सम्भवतः शरत् ने जीवन भर हर टूटे दिल के करीब जा, इस कारण को तलाशना चाहा। चिर बिछोह की मर्मान्तक वेदना की अनुभूति भी उन्हें नीला ही असमय गुज़र करा गया था। कह सकते है कि शरत् को शरत् बनाने में उनके माता-पिता के व्यक्तित्व और नीला की इस अल्प उपस्थिति का बहुत महत्व रहा। आगे राजू के साथ उन्होंने किताबी ज्ञान तक सीमित न रह, हर साज की तरंगों को महसूसा। हर नदी ताल की गहराई मापी। हर अलक्षित को लक्षित करना चाहा। ऐसा इसलिए कि-

“प्रतिभा ने उसका मुक्त होकर वरण किया था और इसलिए किसी एक क्षेत्र में अधिक देर रहना उसे नहीं सुहाता था। नाना अनुभव और नाना परीक्षाओं में उसे रुचि थी।”

राजू -शरत् प्रसंगों में कहीं कहीं नामों की अस्पष्टता होने पर भी यह स्पष्ट है कि दोनों में गहरी दोस्ती और विश्वास था और एक दूजे के साथ ने उन्हें अधिक निडर , अधिक शैतान बनाया। शरत् ने न केवल राजू को गुरु बनाया बल्कि अपनी कई कहानियों का पात्र भी।और दुनिया को यह भी बताया कि उच्च चरित्र के लिए उच्च शिक्षित होना आवश्यक नहीं।

इसी राजू के सानिध्य में वे कालीदासी तक पहुँचे और यह परिचय ही ‘देवदास’ का आधार बना। विष्णु जी के शब्दों में – “वहीं पर उसने मनुष्य की  खोज की और जाना कि मनुष्यत्व सतीत्व से भी बड़ी वस्तु है।’

जीवन के अनगिन पाठ पढ़ाने वाला यह राजू पिता की मार के कारण घर छोड़, साधु बनने चला गया। पीछे सबसे बड़ा पाठ देकर-

‘भले ही इस संसार में दूसरे मूल्य किसी स्तर पर झूठे लगने लगे लेकिन सहज मानवीय करुणा कभी नहीं झुठलाई जा सकती।’

ऐसे ही  कई अन्य सूक्ति वाक्य आपके मन मस्तिष्क में दर्ज़ होते चलेंगे-

‘एक दूसरे के विरोधी होते हुए भी लुच्चे लफंगों में एका होता है और भले लोग अधिक होते हुए भी एक दूसरे से छिटके-छिटके रहते हैं।’

‘अरे डरता क्यों है? साँप अपना जीवन बचाएगा और हम अपना। यही संसार का धर्म है।’

आगे शरत् की साहित्यिक मंडली बनी जिसमें उनके मामाओं के अतिरिक्त योगेश मजूमदार, विभूतिभूषण और अप्रत्यक्ष रूप से विभूतिभूषण की बहन निरुपमा देवी भी शामिल थीं और अल्पावधि के लिए सौरीन्द्र भी जुड़े जिनका परिचय शरत् को  देते विभूति कहते हैं-

“शरत् दा! यह मेरा मित्र सौरीन्द्र है यह दारुण रेबिक है यानी रविंद्र नाथ का भक्त है।”

और सौरीन्द्र और मेरे जैसे हर रेबिक के लिए ‘आवारा मसीहा’ में गुरुदेव की सतत उपस्थिति किसी उपहार सरीखी है। रवींद्रनाथ की आभा के सम्मोहन में न केवल शरत् ने अपने बाल बढ़ाए बल्कि वह अपनी रचनाओं के आकलन का स्तर भी गुरुदेव की रचनाओं को ही मानते थे। इन्हीं गुरुदेव की जन्म जयंती पर उनके मानपत्र की प्रथम पंक्ति में लिखा था- “कवि गुरु, आपकी और देखने पर हमारे विस्मय की सीमा नहीं है।”

विष्णु जी कहते हैं कि  सृजन के इन दिनों में वह आकंठ प्रेम में डूबा था। यह वह समय था जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएँ मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएँ मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूँढ लेता है ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन चरम उपेक्षाओं और अनंत आशाओं की छाया में बीत रहा था।

चूँकि यह आत्मकथा नहीं हम यह नहीं जान पाते कि निरुपमा ही नीरदा थी या नहीं। किन्तु यह जानना आवश्यक भी कब है जब प्रेम से जुड़े मोहक द्वंद्व उत्तर की प्रतीक्षा में हों-

“क्या एक तरफा प्रेम कम शक्तिशाली होता है? क्या वह अपने आप में मधुर नहीं होता? मन ही मन किसी के लिए अपने को विसर्जित नहीं किया जा सकता है क्या?क्या सफलता ही उसके होने का प्रमाण है? इस वेदना को स्नेह कहो, प्रेम कहो, आयु का दोष कहो, पर इसके अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता ।बुद्धि इसकी थाह नहीं पा सकती। हृदय से इसका स्वरूप जाना जा सकता है।”

दूसरे पर्व में दिशा की खोज के साथ पाठक का चित्त भी दिशा पाता है। नए जीवन का परिचय प्राप्त करता हुआ शरत् रंगून पहुंच गया। यह प्रसंग इसलिए और महत्वपूर्ण हो जाता है कि उस समय वहाँ जहाज से आने वालों को प्लेग संक्रमण के भय के कारण 7-8 दिन के करेंटीन (quarantine) में जाना पड़ता था।

देश बदला था शरत् तो नहीं! दुनियादारी के गणित में असफ़ल, इस सुगायक ने वहाँ भी रिश्ते ही कमाए। यहीं रंगून रत्न की उपाधि पाई और अस्थिर-चंचल स्वभाव से यहीं इस उपाधि की रक्षा न कर सके। यहीं एकांत में अध्ययन को चुना, यहीं रंगों को चुना, यहीं चरित्रहीन बुना गया, यहीं शांति उनके सम्पर्क में आई। उनके विवाह के विषय में कोई ठोस सबूत नहीं मिलता, मिलती है तो सुकोमल यह पंक्ति-

‘ न जाने कितने दुखों के बीच से होकर उन्होंने यह सुख पाया था।’

किन्तु प्लेग की महामारी के बीच इस सुख की रक्षा भी कब हो सकी! शांति चली गई अशांत मन लिए एक निरुद्देश्य दिशाहीन यात्रा पर शरत् को पीछे छोड़कर। इस रंगून ने केवल शांति को ही न छीना। दुर्भाग्य कि अग्नि ने पूरा घर जला दिया।

रंगून में रहते हुए ही उनका उपन्यास ‘बड़ी दीदी ‘ भारती में बिना लेखक का नाम दिए छपी जिसे पढ़कर रवींद्रनाथ जी ने कहा- “जिसकी भी हो वह असाधारण रूप से शक्तिशाली लेखक है।”  यह और बात कि जब वे भारत लौटे तो उनका मन सदा अपने देवता से मुक्त-कंठ आशीष को कसकता ही रहा।

वह कहते  दूसरे कवियों जैसा होने की चेष्टा की जा सकती है पर रवि बाबू जैसी सुंदर कविता कोई नहीं लिख सकता है। उनका मानना था कि

 “कविता के मूल में कल्पना होने से ही वह महान नहीं हो जाती सत्य की उपलब्धि भी होनी चाहिए तभी साहित्य की सृष्टि होती है।”

मित्र कहते -“रवि बाबू की कविता बहुत कठिन है।”

वे कहते-  “यह तो ठीक है परंतु सहानुभूति की उष्मा से जो वस्तु क्लिष्टता को सरलता में बदल देती है, उसकी उपलब्धि अंतर से ही हो सकती है। नहीं तो कविता को समझने की चेष्टा विडंबना-मात्र है। कविता ऐसी हो जो पढ़ने-सुनने में सुंदर लगे। एक बार पढ़ने- सुनने मात्र से तृप्ति न हो, जिसमें ऐसा गहरा भाव हो जो सहज धारण से परे हो।”

विष्णु जी लिखते हैं- न जाने कितनी अभागी नारियों का इतिहास उसने संचित किया था उनके पास रहकर उसने गीत सीखे और अपने मुंह से अपनी यह सुख्याति करते हुए वह कभी नहीं झिझका।

एक निर्दोष मन जो जिस से जुड़ा उसके गुण दोष अपनाकर जुड़ा, और जो बिना वर्ग भेद की दीवार मध्य खड़े किए सबसे जुड़ा। ऐसा अल्हड़ मन जब ऐसा मार्मिक पत्र लिखता है तो तब इस सत्य का  अहसास होता है कि भीड़ में घिरे हुए भी भावुक मन भीतर से कैसा अकेला हो सकता है। पत्र के अंश देखिए-

पंटू, कैसे दुर्भाग्यपूर्ण है जीवन मेरा। कैसे अर्थहीन, निष्फल, नीरस दिन,मास,वर्ष,सिर पर  से ऊपर से गुजर जाते हैं सोच नहीं पाता भगवान ने जब बुद्धि दी थी तो थोड़ी सुबुद्धि भी दे सकते थे नहीं तो इतना प्यार करना क्यों सिखाया प्यार करने के लिए एक पाठ मुझे भी दे देते तो क्या उनके विश्व में मनुष्य की कमी पड़ जाती मेरी नाव में पाल नहीं हैं। सीधा नहीं चलता यह कह धिक्कार देकर दोनों हाथों से उसे धकेल देते हैं। यह सब क्या मेरा ही दोष है? तुम तो भले हो। तब तुम इतने निष्ठुर क्यों हो गए?  मुझे एक लाइन लिख भेजने पर क्या तुम पतित हो जाते? नहीं जानता यह उनका कैसा न्याय है! तुम और बूड़ी (निरुपमा) कभी मुझसे विमुख नहीं होंगे मेरा यह विश्वास भंग मत करना। यदि मिथ्या भी हो तो उस से क्या हानि? यह मिथ्या किसी की कोई हानि नहीं करेगा बल्कि एक व्यक्ति को आश्रय देगा।

मन भीग भीग जाता है यह पत्र पढ़कर और लगता है कि मन में लहराता यह  अथाह पयोनिधि क्या उनके विस्तृत साहित्य में भी पूरा समा पाया होगा! इस पत्र को पढ़ क्या शरत् के हर शब्द को पुनः पुनः छू कर न देखना होगा…. और स्नेह और मान सहित हृदयालय में आश्रय न देना होगा!

इसी पर्व में शरत् के  उद्विग्न मन को दिशा देने के लिए मोक्षदा भी उनके जीवन में आईं।  जिन्हें वे हिरण्मयी कहकर पुकारते। कहते- “तुम खरे सोने के समान हो जिस पर कभी भी किसी प्रकार का मैल नहीं चढ़ सकता। तुम्हारे अंतस के उज्जवल रूप को मैंने देख लिया है। वह मेरी शक्ति बनेगा।”

केवल मोक्षदा ही नहीं , दुर्दांत बाटू बाबा(तोता), ठेठ देसी और उस पर बेहद बदसूरत असभ्य वंशीवंदन उर्फ भेली( उनका कुत्ता जिसके कारण कितने ही सम्बंध बिगड़े) को भी शिद्दत से स्नेह किया। प्रतीत होता था-   ” दुनिया संपन्न और सुंदर को प्यार करती है पर उसने मन ही मन निश्चय किया कि वह उन्हें ही प्यार करेगा जो सर्वहारा है जो असुंदर है….”

जाने क्यों दुर्भाग्य स्वयं को दोहराता है। शरद का घर एक बार फिर अग्नि को सुपुर्द हुआ लाइब्रेरी तेल चित्र पांडुलिपियाँ सब कुछ नष्ट हो गया इसमें चरित्रहीन और 500 पन्नों का नारी का इतिहास भी शामिल थे। सदा अग्नि ने ही उनके शब्दों को नहीं लीला। उनके प्यारे कुत्ते ने भी  परिश्रम से लिखे ‘मालिनी’ उपन्यास को नष्ट कर दिया था जिसे वह फिर नहीं लिख सके।

नियति के इन क्रूर प्रहारों ने पांडुलिपियों को जरूर नष्ट किया किंतु कालांतर में उनके आत्मविश्वास को बढ़ाया और उन्होंने विनम्रता से स्वीकारा कि मुझसे अच्छा उपन्यास और कहानी रवि बाबू को छोड़कर और कोई नहीं लिख सकेगा।

विष्णु जी कहते हैं कि उनकी इस अप्रत्याशित लोकप्रियता का परिणाम यह हुआ कि उनके बचपन की रचनाएं जो मित्रों के पास पड़ी हुई थी उन्हें निकालकर मित्र  प्रकाशित करवाने लगे। उन्होंने विचलित होते कहा – वह क्या मेरा लिखा हुआ है मुझे तनिक भी याद नहीं और अगर है भी तो उसे छापा क्यों आदमी बचपन में बहुत कुछ लिखता है तो क्या उसे प्रकाशित करना चाहिए वह छाप कर  मुझे लज्जित कर दिया है। देवदास को भी वह निराशा की अवस्था में लिखा हुआ मानते थे।  एक अन्य स्थान पर इसी देवदास के लिए वे कहते हैं कि देवदास के सृजन में मेरे हृदय का योग है और श्रीकांत में मस्तिष्क का।

 उनमें अब रविंद्र नाथ जैसा लिखने का विश्वास पैदा हो गया था इसलिए वह चाहते थे कि उसकी बचपन की रचनाओं को यदि प्रकाशित करना ही है तो एक बार फिर से देख लेना आवश्यक है। लेखन के प्रति उनकी सजगता के विषय में विष्णु जी लिखते हैं कि जब तक सही अर्थ देने वाला मनचाहा शब्द न मिल जाता उसे काटते ही रहता ।मन के सुर के संग शब्द का सुर मिल जाता है कि नहीं इसका उसे बहुत ध्यान रहता । वे कहते-  देखो जब तक मेरा एक्सप्रेशन सहज तथा निर्झर के समान नहीं हो जाता तब तक किसी भी तरह मेरी तसल्ली नहीं होती। रात का लिखा दिन के समय गलत जान पड़ता है। यह गलती व्याकरण की गलती नहीं है। यह भावों के अनुसार चलने वाली भाषा का अभाव है।

मैं घूम कर फिर उसी बात पर पहुँचती हूँ कि जो आरंभ से ही सही राह पकड़ी होती तब चाहे वे रविंद्र बन गए होते किंतु जो पथभ्रष्ट न हुए होते तब क्या इस वेदना कि अब अभिज्ञता पाते थे। जगदीश चंद्र बसु ने शरत् को लिखा सफलता कितनी क्षुद्र है विफलता कितनी बड़ी।

शरद ने कहा था- “ऐसा कोई नशा नहीं जो मैंने नहीं किया हो ऐसी कोई बुरी जगह नहीं जहाँ मैं न गया। आज यही सब सोचकर कभी-कभी अवाक हो जाता हूँ कि इतना करने पर भी मैंने अपने से हार नहीं मानी। मेरे मन के भीतर का मनुष्य हमेशा ही निर्मुक्त रहा।” लेकिन साधारण मनुष्य क्या इतने गहरे बैठकर किसी के अंतर में झांक पाता है। संभवत समझ  पाते अगर शरत् अपनी आत्मकथा लिख एक झरोखा हमारे लिए छोड़ गए होते।

विष्णु जी कहते हैं कि अनुभव सभी को होते हैं पर उन्हें अनुभूति में रूपांतरित करने की सूक्ष्म पर्यवेक्षक दृष्टि के बिना कलाकार का जन्म नहीं होता। शरद के पास वह दृष्टि बचपन से ही थी। यह चकित करता है कि चरित्रहीन को उस समय अश्लील माना गया था किंतु वे अद्भुत रूप से दृढ़ हो गए।

विष्णु जी कहते हैं कि वह जानता था कि क्रमशः प्रकाशित होने वाले उपन्यास को लेकर यदि वितण्डावाद  उठ खड़ा होता है तो उससे ग्राहक जुड़ते ही हैं टूटते नहीं। निंदा करने पर भी लोग पढ़ने के लिए उत्सुक रहते हैं। नहीं तो फीके रक्तहीन उपन्यास दिन-रात छपते रहते हैं। उन्हें कौन पढ़ता है? स्त्री हो या पुरुष, व्यक्ति हो या समाज शरत् मन की नब्ज पहचानते थे। एक और रोचक प्रसंग आता है-

बारीन्द्र कुमार घोष से एक जादू सीखने के गुर देते हुए शरतचंद्र , दिलीपकुमार राय को पत्र में लिखते है कि-

” वह एकाएक नहीं मानेगा मगर तुम छोड़ना मत। कुछ दिनों तक उसकी ‘अंडमन की वंशी’ की खूब तारीफ करते रहना और पुस्तक को हमेशा साथ लेकर घूमना और इस पुस्तक को ‘इतने दिनों तक नहीं पढ़ा’ यह कहकर बीच-बीच में उसके सामने अफसोस जाहिर करना. बहुत संभव है कि इतने से ही ‘विभूति’ को हथिया ले सकोगे।”

तीसरा व अंतिम पर्व दिशांत में विष्णु जी लिखते हैं कि शरद चंद के जीवन का स्वर्ण युग जैसे अब आ गया था उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई अपनी अपनी रूचि और दृष्टि से पाठको और आलोचकों ने प्रत्येक रचना की सराहना की। शरत् युवा अवस्था में जितने स्वतंत्र मन के थे प्रौढ़ होते होते उतने ही आचारवादी हो गए। शायद उन्हें लगा कि देवदास की आत्मघाती भावुकता को इतना निश्चल और महान बनाकर आदर्श रूप में प्रतिष्ठित नहीं करना चाहिए। इसीलिए तब उन्हें इतना प्रिय नहीं रहा। शरत् का यह परिमार्जन का मार्ग ही  हर सामान्य पाठक का भी है।

अपने संकोची स्वभाव के बावजूद भी शरद का परिचय का दायरा विस्तृत होता जा रहा था और देश ही नहीं विदेशों में भी उनकी प्रतिभा की कहानी धीरे-धीरे पहुंच रही थी इस लोकप्रियता का कारण यही था कि उनके पास इस जीवन में शुभ रहे थे किसी नियम विधान से निर्मित नहीं हुए साहित्य जगत से जुड़े संता संकीर्णता ईर्ष्या कुंठा के दर्शन भी किताब होते चलते हैं वही शरीयत के मनो विनोदी स्वभाव के कारण चेहरे पर मुस्कान भी बनी रहती है और उनके जीवन में अतीत राशियों से मन भी कभी रहता है साथ ही चलता है गांधी, रविंद्रनाथ, शरदचंद, देशबंधु, सुभाष चंद्र जैसे मां भारती के पुत्रों के मध्य परस्पर टकराव भी। एक ही मंजिल की तलाश में भिन्न-भिन्न रास्तों से गुजरते कई पगडंडियाँ उन्हें साथ ले आतीं कई दोराहों पर वे जुदा हो जाते।

विष्णु जी लिखते हैं कि शरतचंद्र इस समय आकंठ राजनीति में डूबे हुए थे साहित्य परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था राजनीति ने उस असली शरत् को ग्रस लिया था। देशबन्धु के देहावसान के पश्चात उनका राजनीति से मोहभंग हुआ।

इलाचंद्र जोशी सरीखे सुधिजनों से उनके विमर्श में कई सुंदर बातें पाठक पाता है। कला के संबंध में वे कहते हैं-

” हमारे यहां कला में कल्याण और मंगल की भावना को प्रमुख स्थान दिया गया है इसलिए जिस कलात्मक सत्य की पृष्ठभूमि में यह भावना न हो उसके प्रति मेरे मन में कभी कभी आदर का भाव नहीं रहा है।  मैंने कला को कभी क्रीड़ा- कौतुक के रूप में नहीं देखा है। मैं उसे मनुष्य के जीवन की चरम साधना के रूप में मानता हूँ।”

एक बार एक स्थान पर जोशी जी ने पूछा है-

 “रवींद्रनाथ ने अपने एक लेख में आप को लक्षित  करते हुए लिखा था- कला विशुद्ध आनन्दमूलक  सौंदर्य से संबंध रखती है। इसका निवास चीतपुर की गंदी गलियों में नहीं है बल्कि वाणी के अकलुष मंदिर में है। इस संबंध में आप क्या कहते हैं?”

उन्होंने उत्तर दिया था -जिस कवि ने अपनी एक कविता में वेश्याओं और दूसरी पतिता स्त्रियों को सती शिरोमणि माना हो और पति का शीर्षक कविता में एक वेश्या के अंतर में निहित देवत्व को अत्यंत मार्मिक सुंदरता से प्रस्फुटित किया हो वह आज कहे कि चीतपुर की गंदी गलियों से कला का कोई संबंध नहीं है। तब यह संदेह होना स्वाभाविक है कि उनके इस लेख के पीछे कोई रहस्यमय  कारण है। यह कारण व्यक्तिगत भी हो सकता है।

इन कारणों को  जानना पाठक का ध्येय नहीं है..  न होना चाहिए। पाठक तो इन दोनों ही महान विभूतियों द्वारा लिखे शब्दों में खो जाना चाहता है । विष्णु जी लिखते हैं कि रविंद्रनाथ देवत्व को जगाने के लिए तपोवन का पवित्र वातावरण उपयुक्त समझते हैं। शरद चंद्र उसी देवत्व को  चीतपुर की गंदी गलियों में खोज लेते हैं। यह अंतर इस कारण भी कि कविगुरु अभिजात वर्ग के थे, शरत् थे चिर व्रात्य(नटखट)। रविंद्रनाथ आनंद मुल्क सौंदर्य के कवि थे। साहित्य के माध्यम से वह विश्वमानव की खोज करना चाहते थे। इसके विपरीत शरत् अपनी धरती से चिपके हुए थे।

दो समकालीन लेखकों के इस अंतर को जिस प्रकार विष्णु जी ने समझने और समझाने का प्रयास किया है वह इस कारण महत्वपूर्ण है कि यह बताता है जब दो व्यक्ति क्षण भर भी परस्पर संवाद करते हैं तो उस पल में उनका पूरा अतीत और सम्पूर्ण परिवेश बोलता है और शब्दों के अर्थों की प्रतिध्वनियाँ भी इसी परिवेश की दीवारों से टकरा कर लौटती हैं। इन्हें भली प्रकार सुनने के लिए खुले कान नहीं, पूर्वग्रह और अहम से रिक्त एक खुला दिमाग चाहिए होता है।

तमाम मतभेदों के पश्चात भी इसमें कोई दोराय नहीं की विश्वगुरु का शरत् पर आपार स्नेह था और शरतचंद्र उन्हें किसी देव से कम नहीं समझते थे। ऐसा इष्टदेव जिसकी केवल उपासना ही नहीं की जाती बल्कि उससे रूठा भी जा सकता है, मनाया भी जा सकता है और लड़ा भी जा सकता है और जो कभी दुराव जाहिर होता है तो वह भाषा की अक्षमता का दोष है हृदय का नहीं। गुरुदेव का आशीर्वाद उनकी सतत चाह तथा शेष सब क्षणिक उत्तेजना का उफान।

किताब से गुजरते हुए पता चलता है की हिंदी साहित्य रायबहादुर चंद्रसेन, उपेंद्र नाथ जैसे कितने ही शरद प्रेमियों का ऋणी है जिन्होंने बार-बार आग्रह करके और जोर देकर उनसे लिखवाया। एक रोचक किस्सा नलिनी बाबू के साथ भी आता है जो उन्हें चाय पिलाने के बहाने ले गए और एक कमरे में बंद कर दिया कि जब तक लेख पुरा न होगा, नहीं खोलेंगे। शरत् ने लेख पूरा किया और उन्हें तनिक भी तो क्रोध नहीं आया। उसी तरह हँसते-हँसते नलिनी के साथ शिवपुर लौट आए। अपने विनोदी स्वभाव के कारण उन्होंने मित्र बनाए भी गवाए भी। अपने और अन्यों के विषय में कई भ्रम भी फैलाए लेकिन यह  विनोद ही तो था जिसने उनके रुग्ण देह को जिलाए रखा।

 अपने पिता की ही तरह शरत्  सदा ही सुंदर कागज पर सुंदर और दामी कलम से छोटे-छोटे मोती जैसे सुंदर अक्षर लिखा करते थे। एक व्यक्ति ने उनसे पूछा-  “शरद बाबू इतने कीमती कलम और कागज का प्रयोग क्यों करते हैं?”

 उन्होंने तुरंत जवाब दिया- माँ सरस्वती ने मुझे प्रतिभा का जो इतना बड़ा वरदान दिया है उनको क्या रद्दी कागज पर लिख कर नष्ट कर दो?

कितने ही प्रसंग जो नई दृष्टि देंगे पाठक को।एक स्थान पर कहते हैं-

“इंसान और कुत्ते में कुछ अधिक भेद नहीं कर पाता दोनों ही जानवर है इन दोनों में से मैं कुत्ते को अधिक पसंद करता हूं क्योंकि वह तभी भोंकते काटते हैं जब उन्हें क्रोध आता है लेकिन मनुष्य जिस समय मन ही मन घृणा करता है प्रकट में उस समय खूब हँसता है।”

मानव मन की सभी ग्रन्थियों की थाह पाकर भी उन्हें केवल लेखन में उतारा, अन्यों की दुविधाओं के हल रूप में कहा लेकिन अपने व्यवहार में वे कोरे भावुक और निर्मल ही रहे। विष्णु जी ने उचित ही लिखा है कि सुनने पर यह  विरोधी लगता है किंतु देखा जाए तो कृत्रिम होना सहज है पर स्वाभाविक होना सहज नहीं है।

आस्तिक होने के सम्बन्ध में एक प्रश्न का उत्तर देते वे कहते हैं-  भगवान के प्रति मेरे मन में वैसी श्रद्धा नहीं है लेकिन मैं भक्तों को प्यार करता हूँ। मै एक अनपढ़ ग्रामीण की सच्ची भक्ति में देवत्व रहता है।  मैं वही देखने गया था।

यही देवत्व शरत् की आँखों में उनके देवता के लिए महसूस कर मैं इस पल् के स्पर्श से पावन हो जाती हूँ और जब उनके षष्ठिपूर्ति के अवसर पर कविगुरु ने अपने आशीष वचन देते कहा-

“वय बढ़ती है आयु का क्षय होता है। उसको लेकर आनंद मनाने का कोई कारण नहीं है। आनंद इसलिए मनाता हूँ क्योंकि देखता हूँ कि जीवन की परिणति के साथ-साथ जीवन के दान के परिमाण का क्षय नहीं हुआ है। तुम्हारे साहित्य रस सत्र का निमंत्रण आज भी उन्मुक्त है।अकृपण दाक्षिण्य से भर उठा है तुम्हारा परिवेषण पात्र। इसलिए जय ध्वनि करने को तुम्हारे देशवासी तुम्हारे द्वार पर आए हैं। …

…आज शरदचंद्र के अभिनंदन में विशेष गर्व अनुभव करता यदि मैं उनको यह कह सकता कि तुम नितांत मेरे द्वारा आविष्कृत हो किंतु उन्होंने किसी के हस्ताक्षरित परिचय पत्र की अपेक्षा नहीं की। आज उनका अभिनंदन देश के घर घर में स्वतः उच्छ्वसित हुआ है।”

तब जो आह्लाद शरत् के मन में भर गया होगा उससे रत्ती भर कम भी मेरे मन ने न महसूस किया इस संतोष के साथ कि उनके जीवन की एक बड़ी साध जीते जी पूरी हुई। विष्णु जी लिखते हैं कि उनके मन में अब किसी प्रकार का क्षोभ नहीं रह गया। इससे अधिक और प्रशंसा उन्हें मिलती भी क्या, और कवि भी इससे सुंदर शब्द और कहाँ से लाते?

साहित्य- जगत उन्हें अपना रहा था किंतु उनका शरीर उनका साथ छोड़ रहा था। उन्हें भी इसका भान था। वे कहते-

“मेरा जीवन अंततः मानो एक उपन्यास ही है इस उपन्यास में सब कुछ किया पर छोटा काम कभी नहीं किया जब मरुँगा निर्मल खाता छोड़ जाऊँगा उसके बीच स्याही का दाग कहीं भी नहीं होगा।”

विश्वकवि के शब्दों में-

जीवन मंथन से निकला विष

वह जो तुमने पान किया

और अमृत हो बाहर आया

उसे जगत को दान दिया

यह अबूझ ही है कि निरंतर बढ़ती ख्याति और  असीम स्नेह के बीच ऐसा क्या अप्राप्य रहा जो वे आर्तनाद करते, अंतिम समय पुकार उठे-

आमाके…. दाओ! आमाके…. दाओ!

(मुझे… दो! मुझे… दो! )

सम्भवतः अपने देव के इन शब्दों में उन्होंने तृप्ति पाई होगी-

जाहर अमर स्थान प्रेमेर आसने,

 क्षति तार क्षति नय मृत्युतर शासने

देशेर माटिक थेके निलो जारे हरि

देशेर हृदय ताके राखियेछे बरि

(जिनका अमर स्थान प्रेम के आसन पर है, मृत्यु उन्हें कोई हानि नहीं पहुंचा सकती।  भौतिक दृष्टि से उन्हें देश से जुदा कर दिया गया है, लेकिन उसके हृदय में उनका स्थान सदा बना रहेगा।)

… और शरत् का अनुरागी हिंदी पाठक प्रत्येक 31 भाद्र को अपने प्रिय लेखक को स्मरण करते हुए  विष्णु प्रभाकर जी की इस महत्ती कृति के लिए उनका भी स्मरण कृतज्ञ भाव से करता रहेगा।

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6 comments

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