Home / Featured / आज भी सबसे बड़े हैं प्रेमचंद

आज भी सबसे बड़े हैं प्रेमचंद

आज प्रेमचंद जयंती है। पढ़िए वरिष्ठ लेखक प्रकाश मनु का यह लेख प्रेमचंद की स्मृति को प्रणाम के साथ-

……………………………………………………………………………………..

[1]

प्रेमचंद पर लिखने बैठा हूँ, तो सबसे पहले जो बात मन में आती है और कागज पर उतरना चाहती है, वह यह कि प्रेमचंद से मेरी दोस्ती बचपन से ही हो गई थी। मैं शायद छठी कक्षा में था, तभी से। तभी पहले-पहल जाना था कि कक्षा में जो पाठ्य पुस्तकें हम पढ़ते हैं, उनके अलावा भी किताबें होती हैं, और इतनी दिलचस्प कि आप सब कुछ भूलकर घंटों उनमें डूबे रह सकते हैं। और छुट्टी वाले दिन तो आप दिन भर उनसे बतिया सकते हैं।

यह मेरे लिए ‘खुल जा सिमसिम’ की तरह किसी नई और अचरज भरी दुनिया के द्वार खुलने से कम न था, जिसने मुझे लगभग बावला बना दिया था। कहीं से भी कोई अच्छी किताब मिले और मैं पढ़ूँ, इससे बड़ा आनंद मेरे जीवन में कुछ और न था। घऱ में बहन और भाइयों की ऊँची कक्षा की जो किताबें नजर आईं, उन्हें मैं चाट चुका था। तो अब क्या पढ़ा जाए? उन दिनों घर की सारी चीजें अखबारी लिफाफों में आती थीं। मैं खाली लिफाफों को खोलकर सीधा करता और पढ़ता। किसी-किसी में कोई आधी-अधूरी कहानी भी नजर आ जाती। कभी उसका बीच का हिस्सा होता, कभी एकदम शुरू या बाद का। मैं उतना ही पढ़ लेता, और कहानी का बाकी हिस्सा जो उसमें न होता, उसे बिल्कुल अपने ही ढंग से अपनी कल्पना से पूरा करता, और विचित्र रोमांच से भर जाता।

मुझमें पढ़ने-लिखने की रुचि देखी तो श्याम भैया मेरे लिए चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह और सुभाषचंद्र बोस की जीवनियाँ ले आए। मैंने उन्हें पढ़ा तो मन में एक अलग सी भावना पैदा हुई। जीवन में कुछ कर गुजरने की भावना। और यह भी कि कोई बड़ा उद्देश्य सामने हो तो आप अपना पूरा जीवन हँसकर दे देते हैं, देवता के चरणों में रखे गए किसी फूल की तरह। और जब आप अपने को समूचा दे देते हैं, तो आप बड़े भी हो जाते हैं। एक महत्तर दुनिया का अंश। यह कितने आनंद की बात है। सचमुच, कितनी बड़ी बात!…

फिर एक दिन श्याम भाईसाहब मेरे लिए वे जो पुस्तक लाए, उसने तो मेरी जिंदगी ही बदल दी। वह प्रेमचंद की कहानियों की किताब थी। किताब का नाम था, ‘प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियाँ’। उसमें ‘ईदगाह’, ‘दो बैलों की कथा’ समेत कई कहानियाँ बड़ी रुचि और आनंद से पढ़ गया। पर जब ‘बड़े भाईसाहब’ कहानी पढ़ी तो मैं हक्का-बक्का। सचमुच अवाक! मैंने अपने आप से कहा, “अरे, यह तो हू-ब-हू मेरे श्याम भैया की कहानी है। भला प्रेमचंद को कैसे पता चली…?”

श्याम भैया भी प्रेमचंद के बड़े भाईसाहब की तरह मुझ पर रोब जताने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे। पढ़ाई के बड़े लंबे-चौड़े नियम-कायदे वे बनाते थे, और खूब जबरदस्त टाइम टेबल। जबकि मेरे साथ तो ऐसा कुछ भी नहीं था। बस, जब भी पढ़ता, खूब डूबकर पढ़ता। फिर भी मैं अपनी कक्षा में फर्स्ट आता और वे मुश्किल से पास होते…या कभी-कभी तो उसी क्लास में लुढ़क होते। हालाँकि वे बड़े थे और अपने बड़प्पन का रोब जरा भी कम न होने देते। पर आखिर यह जादू हुआ कैसे? मेरे श्याम भैया प्रेमचंद के बड़े भाईसाहब में कैसे समा गए?

यह कोई आसान उलझन या पहेली न थी। पर इसे सुलझाते-सुलझाते मैं कहानी-कला का एक बड़ा जादू समझ गया। कहानीकार कोई कहानी लिखता है तो वह कहानी तो किसी एक की होती है, पर कहानी के विचित्र जादू से वह मात्र एक की नहीं, बल्कि हर किसी की कहानी हो जाती है। यह है किसी कहानी की असली ताकत, जिससे एक की लिखी कहानी किसी जादू-मंतर से सबकी कहानी हो जाती है। एक के दिल में कुछ उमड़ता हो और वह उसे वैसे ही जिंदा और दमदार शब्दों में ढाल दे, तो जितने भी लोग उसे पढ़ते हैं, सबके दिल में वही घुमड़ता है। मुझे लगा, “अरे, यह तो दुनिया का सबसे बडा जादू है। महान करिश्मा! और यह साहित्य में घटित होता है, कहानी में। वाह, कैसा कमाल है?”

कुछ और बड़ा हुआ और साहित्य की दो-चार सीढ़ियाँ चढ़ीं, तो समझ में आया कि कहानी-कला के इस जादू को साधारणीकरण कहते हैं, जिससे लेखक की कहानी हर किसी की अपनी कहानी हो जाती है और उसके नायक का सुख-दुख हर किसी को अपना सुख-दुख जान पड़ता है। उसके रोने के साथ सब रोते और उसके हँसने के साथ सब हँसते हैं। उसकी उदासी हर किसी को उदास कर जाती है।

मगर फिर धीरे-धीरे यह भी साफ होता गया कि यह करिश्मा प्रेमचंद सरीखे दिग्गज लेखक के यहाँ जितने अनोखे और नायाब ढंग से होता है, वैसा दूसरे लेखकों के यहाँ नहीं। यानी यह सच है कि कहानी में एक बड़ा जादू छिपा है, कहानी की ताकत बड़ी ताकत है, पर हर्फ-हर्फ में कहानी के इस जादू को जगाना और पूरे निखार के साथ पेश करना, कहानी की ताकत का पूरा इस्तेमाल करना और उसे बेधक और मर्मस्पर्शी बना देना, यह करिश्मा तब होता है, जब उसे लिखने वाला प्रेमचंद सरीखा कोई महान कथाकार होता है।

[2]

प्रेमचंद हिंदी के सबसे बड़े कथाकार क्यों हैं, और उनका कथा साहित्य इतनी उत्कटता के साथ हमें खींचता क्यों है कि एक बार उनके निकट जाने पर हम हमेशा-हमेशा के लिए प्रेमचंद के हो जाते हैं, उनकी लिखी रचनाओं के साथ सुध-बुध खोकर बहते हैं, और उनकी मर्मस्पर्शी रचनाओं को पढ़ने के बाद हम वही नहीं रह जाते, जो पहले थे। बल्कि उनकी लिखी रचनाओं को पढ़ने के बाद खुद हमारा भी कायांतरण होता है। हम ठीक-ठीक वही नहीं रह जाते, जो पहले थे।

एक लेखक की यह शक्ति कोई छोटी शक्ति नहीं है, और वह प्रेमचंद सरीखे दुनिया के सिरमौर लेखकों के यहाँ ही मिलती है। यों एक वाक्य में कहूँ, तो प्रेमचंद का बड़प्पन क्या है और क्यों वे सहज ही हिंदी के सबसे बड़े लेखक हैं, यह मैं बिना किसी के बताए, अपने किशोरपन में स्वतः ही समझ गया था। और आश्चर्य, किशोरावस्था का यह मार्मिक अनुभव और निर्मल अहसास जीवन भर मेरे साथ रहा और मेरे आगे साहित्य और जीवन के नए-नए रास्ते खोलता चला गया।

बाद में प्रेमचंद की और कहानियाँ पढ़ीं तो पूरा एक हलचलों भरा जीता-जागता संसार उनमें नजर आया। इनमें से ‘पूस की रात’, ‘सवा सेर गेहूँ’, ‘सद्गति’ सरीखी कहानियों में देश की गरीबी, बेगार और शोषण की ऐसी अकथ कथाएँ थीं कि पढ़ते हुए आँखों से टप-टप आँसू बहते थे। इसी तरह प्रेमचंद की ‘गिल्ली-डंडा’ कहानी मुझे कभी नहीं भूलती। इसमें वह बचपन है जो ऊँच-नीच नहीं देखता और न किसी के पैसे, पद आदि के रोब में नहीं आता। अगर दो बच्चे गिल्ली-डंडा खेल रहे हैं तो जिसके हाथों में कला है, वह जीतता है और जो अनाड़ी है, वह पिदता है। इसमें कहीं छोटे-बड़े और ऊँच-नीच का फर्क नहीं है। लेकिन बड़े होने पर कहानी के उन्हीं किरदारों के भीतर ऊँच-नीच और पैसे, पद वगैरह का आतंक सा घर कर लेता है कि खेल, खेल नहीं रह जाता और अपनी स्वाभाविक प्रभा और रोनक खो देता है।

यही कारण है कि कहानी का कथावाचक जो बचपन में खेल में पिदता था, बाद में बड़ा अफसर होकर उसी गाँव में आया और पुरानी यादों को ताजा करने के लिए बचपन के मित्र गया के साथ गिल्ली-डंडा खेलता है, तो दृश्य कुछ अलग ही दिखाई पड़ता है। बचपन में उसे खूब पिदाने वाला गया अब ठीक से खेल ही नहीं पाता और खेल में बिल्कुल आनंद नहीं आता। इसलिए कि बचपन की खेल भावना अब वहाँ नहीं है, और उसकी जगह एक सांसारिक व्यवहार बुद्धि ने ले ली है। बचपन का मित्र गया, जो कि एक मामूली साईस है, उसके साथ खेलता नहीं है, बल्कि तरस खाकर उसे ही खेलने देता है और खेल में किए गए सारे अऩ्याय, सारी ज्यादतियाँ सह लेता है। कहानी का अंत होते-होते कथावाचक को समझ में आ जाता है कि असल में यही उसकी हार है।

प्रेमचंद इतनी खूबसूरती से ‘गुल्ली-डंडा’ में दोनों स्थितियों का फर्क दिखाते हैं कि पढ़ते हुए एक धक्का सा लगता है। सच पूछिए तो यही वे दरशाना भी चाहते थे, और यही उनकी कहानी कला का सच्चा सौंदर्य है।

फिर प्रेमचंद की कहानियों में विषय और शिल्प की जैसी विविधता है, वह भी कम लेखकों के कथा-संसार में नजर आती है। उनकी बहुचर्चित कहानी ‘नमक का दारोगा’ अपने कर्तव्य, स्वामिभक्ति. ईमानदारी और आदर्शों के लिए बड़े से बड़े प्रलोभन को ठुकरा देने वाले दारोगा वंशीधर की नैतिक दृढ़ता की कहानी है तो ‘ठाकुर का कुआँ’, ‘कफन’, ‘सद्गति’ जात-पाँत के भीषण कुचक्र, उच्च वर्ग के उत्पीड़न और दलित समाज के करुण यथार्थ को उकेरने वाली ऐसी कहानियाँ, जिन्हें पढ़ते हुए आज भी भीतर दर्द की एक लहर सी व्याप जाती है। सच तो यह है कि समाज में फैली ऊँच-नीच और जमींदारी प्रथा के शोषण की दिल दहला देने वाली जैसी यादगार कहानियाँ प्रेमचंद ने लिखीं, दलित लेखन के घटाटोप के बावजूद वैसी सच्ची और निर्मम कहानियाँ आज भी उँगलियों पर गिनने लायक ही हैं।

इसी तरह प्रेमचंद की ‘पंच परमेश्वर’, ‘आत्माराम’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘गुल्ली-डंडा’, ‘ईदगाह’, ‘मंत्र’, ‘परीक्षा’, ‘बूढ़ी काकी’, ‘चोरी’, ‘कजाकी’, ‘दो बैलों की कथा’, सरीखी कहानियाँ पढ़कर लगा कि ये मेरे भीतर छप गई हैं और इनका प्रभाव कभी धुँधला न होगा। कहना न होगा कि सच्चे अर्थों में भारतीय सभ्यता या हिंदुस्तानियत की कहानियाँ हैं, जिनमें परंपरा का रस है, उसके प्रति सम्मान का भाव भी। हालाँकि बीच-बीच में परंपरा के प्रति प्रेमचंद का आलोचनात्मक नजरिया भी सामने आता है और वे उसे एक नए कलेवर में ढालते हैं।

एक खास बात यह भी है कि प्रेमचंद के यहाँ प्रगति और परंपरा में विरोध नहीं, बल्कि वे दोस्ताना ढंग से एक-दूसरे के साथ आगे बढ़ते हैं। हाँ, परंपरा और रूढ़िवाद दोनों एक ही चीज नहीं है और प्रेमचंद दोनों में फर्क करते थे। वे रूढ़ियों को पसंद नहीं करते थे और अपनी कहानी, उपन्यास और लेखों में उन पर खूब कसकर पहार करते थे। पर दूसरी ओर वे परंपरा के साथ थे और हिंदुस्तानी परंपराओं की खिल्ली उड़ाने वालों को पसंद नहीं करते थे।

प्रेमचंद की कई कहानियों में देशराग और स्वाधीनता संग्राम की रोमांचित करने वाली जोशीली दास्तानें हैं। ‘जुलूस’, ‘यही मेरा वतन है’, ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’, ‘शेख मखमूर’, ‘सांसारिक प्रेम और देशप्रेम’, ‘समर-यात्रा’, ‘आहुति’, ‘होली का उपहार’ सरीखी उनकी कहानियों मन में बड़ी तेज उथल-पुथल मचा देती हैं। उन्हें पढ़ने के बाद मन में देश के लिए कुछ करने की तड़प पैदा न हो, ऐसा हो नहीं सकता। ‘जुलूस’, ‘होली का उपहार’, ‘आहुति’ और ‘समर-यात्रा’ इस लिहाज से प्रेमचंद की बहुत भावनात्मक कहानियाँ हैं। ऐसे ही ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ कहानी का आखिरी वाक्य है, “खून का वह आखिरी कतरा जो वतन की हिफाजत में गिरे, दुनिया की सबसे अनमोल चीज है।” कहानी पढ़ने के बाद यह हर पाठक के दिल में इतनी गहराई से दर्ज हो जाता है, कि जिंदगी भर इसके आखर कभी धुँधलाते नहीं है।

अपने देश के लिए कुछ कर गुजरने की प्रेमचंद की बेचैनी और भावनात्मक द्वंद्व कई जगह दिखाई पड़ता है। उनके जीवन में भी, और लेखन में भी। जमाना’ के संपादक दयानारायण निगम को प्रेमचंद ने एक पत्र में बहुत भावुक होकर लिखा था कि एक ख्वाहिश है कि देश की आजादी की लड़ाई मैं लेखन द्वारा लड़ू और प्रेमचंद ने वाकई यह करके दिखाया। उनकी लिखे दर्जनों कहानियों में आजादी की लड़ाई का ऐसा जोश और ललकार है कि उन्हें पढ़ते हुए लगता है, कि प्रेमचंद केवल कहानियाँ नहीं लिख रहे, बल्कि अपनी कलम से खुद भी स्वाधीनता की लड़ाई लड़ रहे हैं।

प्रेमचंद की देशराग की कुछ कहानियों में स्त्रियाँ विदेशी वस्त्रों आदि की दुकानों के आगे पिकेटिंग करती हैं, धरना देती हैं और जुलूस में ‘वंदेमातरम्’ और ‘भारतमाता की जय’ के नारे लगाते हुए आगे-आगे चलती हैं तो अंग्रेजी सत्ता हक्की-बक्की रह जाती है। पुलिस लाठियाँ चलाए तो किस पर? इस लिहाज से ‘जुलूस’ प्रेमचंद की सबसे मार्मिक कहानी हैं, जिसमें पत्नी मिट्ठन बाई जुलूस में शामिल है और उसका पति बीरबल सिंह लाठियाँ चलाने वाली पुलिस में दरोगा है, जिसका दूर-दूर तक आतंक है। निहत्थी जनता पर पुलिस की लाठियों की मार से कितने ही लोग घायल होते हैं, कितनों के सिर फूटते हैं, पर दरोगा को इसका जरा भी अफसोस नहीं है। पर पत्नी की आँखों में उसे अपने लिए ऐसा तिरस्कार दिखाई देता है कि वह अपराध-बोध और पश्चात्ताप से भर जाता है, और शहीद इब्राहिम अली के घर जाकर अपनी करनी के लिए माफी माँगता है।

सच पूछिए तो प्रेमचंद की ये कहानियाँ गाँधी जी की स्वाधीनता की पुकार के साथ-साथ स्वर में स्वर मिलाती कहानियाँ हैं, जिन्हें पढ़कर स्वाधीनता संगाम की एक मुकम्मल तसवीर आँखों के आगे आ जाती है।

[3]

कहानियों के बाद मैं एक दुर्निवार आकर्षण और उत्सुकता से प्रेमचंद के उपन्यासों की ओर मुड़ा, जो न जाने कब से मुझे हाथ उठाकर बुला रहे थे। मैं उनके आकर्षण को शायद समझ नहीं पा रहा था। पर एक बार प्रेमचंद के उपन्यासों की दुनिया में आया, तो कभी उससे बाहर आने का मन ही नहीं हुआ। और सच पूछिए तो आज तक नहीं आ सका।

मुझे याद है, यह सिलसिला ‘निर्मला’ और ‘वरदान’ से शुरू हुआ था। इसके बाद ‘गबन’, ‘कर्मभूमि’, ‘रंगभूमि’, ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’ और ‘कायाकल्प’ उपन्यास पढ़े, ‘गोदान’ पढ़ा, तो एक नई दुनिया मेरे आगे खुलती चली गई। भावनाओं का एक इतना बड़ा संसार, जिसमें इस महादेश की जनता का दुख-दर्द ही नहीं, पूरा इतिहास, समाजशास्त्र और संस्कृति के हलचल भरे प्रश्न, सब के सब चले आते थे और पुकार-पुकारकर उत्तर माँगते थे। इनमें से कुछ उपन्यास तो मैंने किशोरावस्था में ही पढ़े और इस कदर कि पुस्तक हाथ से छूटती ही न थी। लगता था, एक ही साँस में पूरा पढ़ लूँ। ‘निर्मला’, ‘वरदान’, ‘गबन’ ऐसे उपन्यास हैं, जिनमें से हर उपन्यास मैंने शायद दो या तीन दिन में पूरा पढ़ लिया था।

उस समय, जाहिर है, मेरे पास शब्दों का कोई बड़ा भंडार न था। छठी-सातवीं कक्षा के बच्चे के पास भाषा की सामर्थ्य ही कितनी रही होगी, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। पर प्रेमचंद को पढ़ने या उनकी भावधारा से जुड़ने में जरा भी मुश्किल आई हो, याद नहीं पड़ता। एक बड़ा लेखक सचमुच ऐसी ही होता है, जिसका मन पर आतंक नहीं पड़ता, और उससे दोस्ती के लिए परम विद्वान होना जरूरी नहीं, बल्कि एक मामूली इनसान और एक बच्चे से भी उसकी गहरी दोस्ती हो सकती है। यों प्रेमचंद को पढ़ने के बाद एक बड़े लेखक की बिल्कुल अलग सी तसवीर मेरे जेहन में बनी, और मुझे आज तक इसे बदलने की जरूरत नहीं पड़ी।

अलबत्ता, अब मन में प्रेमचंद की रचनाओं के लिए ऐसी बेचैनी और प्यास जाग गई कि लगता था, प्रेमचंद का कुछ भी मिले और मैं पढ़ूँ। प्रेमचंद नहीं थे। वे तो सन् 1936 में ही जा चुके थे, पर प्रेमचंद अपनी कहानियों और उपन्यासों के जरिए अपने निधन से कोई दो दशकों बाद फिर से मेरे भीतर जिंदा हो गए थे और मैं खुद को पूरी तरह प्रेमचंदमय पा रहा था।

मेरे जीवन का यह अनोखा प्रसंग है, जिसने मुझे भीतर-बाहर से बदल दिया।

प्रेमचंद के उपन्यासों में बीच-बीच में मनुष्य के भावनात्मक संबंधों के इतने करुण प्रसंग थे कि बिना रोए मैं पढ़ ही नहीं सकता था। हालाँकि कुछ समझ में आता था, कुछ नहीं। पर जो समझ में आता था, उसके सहारे जो चीज नहीं समझ में आती थी, उसके भी अर्थ खुलते जाते थे। और हाथ में किताब लिए मैं जान लेना चाहता था कि आगे क्या हुआ, आगे क्या, आगे क्या….?

कई बार तो पढ़ते-पढ़ते ऐसे करुण प्रसंग आ जाते कि आँखों से लगातार गंगा-जमुना बहती। हिचकियाँ तक बँध जातीं। एक हाथ में किताब पकड़े, दूसरे से मैं आँसू पोंछता जाता और आगे पढ़ता जाता। पढ़ते-पढ़ते कई बार जोर से रोना छूट जाता, पर तब भी किताब के पन्ने पलटता जाता, क्योंकि यह जाने बिना निस्तार न था कि आगे क्या हुआ, आगे…?

याद पड़ता है, उनकी ‘निर्मला’ ने मुझे बहुत रुलाया है, ‘वरदान’ ने भी। मैंने करीब-करीब रोते-रोते ही इऩ कृतियों को पढ़ा है। इनमें ‘निर्मला’ बड़ी उम्र के दूल्हे के साथ ब्याही गई लड़की के दुख और आँसुओं की कहानी है, तो ‘वरदान’ किशोरावस्था के प्रेम की चरम व्याप्ति। इसी तरह प्रेमचंद के ‘गबन’ उपन्यास ने मेरे भीतर लंबे समय तक बहुत बेचैनी भरी दस्तकें दीं। ‘गबन’ असल में एक स्त्री के गहनों के आकर्षण के कारण एक घर के उजड़ने की कहानी है। उसमें जालपा के आँसुओं की लंबी कथा है, तो साथ ही पत्नी के लिए गहने खरीदने, उसके लिए नाजायज ढंग से पैसा कमाने और फिर गबन के आरोप में तमाम मुश्किलों में फँसे रमानाथ के भटकाव की अविस्मरणीय मर्मकथा भी। हालाँकि अंत तक आते-आते प्रेमचंद जालपा को राष्ट्रीय भावनाओं से जोड़कर जिस ऊँचाई पर खड़ा कर देते हैं, वह भी चकित करने वाला अनुभव है।

सच तो यह है कि हिंदी में छपे अपने पहले उपन्यास ‘सेवासदन’ से ही प्रेमचंद ने एक अलग लकीर पकड़ ली थी, जो प्रचलित उपन्यासों की रूमानियत को छिन्न-भिन्न करके अपनी एक अलग अस्मिता कायम करती थी। ‘सेवासदन’ में ‘परपज का काठिन्य’ है। उसमें समाज-सुधार की गहरी चिंता और तड़प है, पर वह इस कदर किस्सागोई की लय में ढलकर आती है कि प्रेमचंद उपदेशक नहीं, बड़े किस्सागो ही लगते हैं। कथावस्तु के बीच-बीच में प्रेमचंद अपने विचारों की बेबाक अभिव्यक्ति की छूट लेते हैं। पर उनके विचार कथा-प्रवाह में इस कदर लिपटे हुए आते हैं कि इससे उलटे उपन्यास को बल मिलता है और अपने विचार-दर्शन से वह एक ऊँचाई पर अवस्थित नजर आता है।

कुल मिलाकर प्रेमचंद अपनी पहली ही औपन्यासिक कृति ‘सेवासदन’ में उपन्यास का जो ढाँचा खड़ा करते हैं, वही उनके बाकी उपन्यासों से होता हुआ, ‘गोदान’ तक जाता है। यह दीगर बात है कि प्रेमचंद जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, उनका कथा-लाघव कहीं अधिक कलात्मक और निखरे हुए रूप में सामने आता है और ‘गोदान’ तक आते-आते वह अपने शीर्ष तक पहुँच जाता है।

‘सेवासदन’ की कथावस्तु अनमेल विवाह से उपजी स्थितियों तथा गरीबी और बेबसी की मार से एक वेश्या के कोठे पर पहुँच गई युवती सुमन की ऐसी कथा है, जो आठ-आठ आँसू रुलाती है। उपन्यास के अंत में नायिका सुमन का कायाकल्प होता है और वह एक स्त्री के आदर्श पथ पर चल निकलती है। पर लगभग पूरा ही उपन्यास सुमन के आँसुओं से भीगा हुआ है। और अकेला ‘सेवासदन’ ही क्यों? प्रेमचंद की लगभग सभी कृतियों में स्त्री की बेबसी, आँसू और आर्तनाद की ऐसी मार्मिक अंतर्कथाएँ हैं कि लगता है, मानो प्रेमचंद के हृदय में कोई स्त्री बैठी है, जिसका रुदन और कराहें उनसे यह सब लिखवाता चला जा रहा है।

इस कदर वेग के साथ एक के बाद एक ये मर्मस्पर्शी कृतियाँ हिंदी कथा साहित्य में आ रही थीं, कि देखते ही देखते उसका मिजाज एकदम बदल गया। प्रेमचंद सिर्फ एक लेखक ही नहीं, वे पूरे युग को एक मोड़ देने वाले युगांतकारी लेखक बन गए। उनकी कलम सबकी स्पृहा का कारण बन गई, जिससे एक के बाद एक ऐसी असाधारण कृतियाँ सामने आ रही थीं कि लगता था, उनकी यह वेगवती कलम कभी रुकेगी ही नहीं। संस्कृत के कथा सरित्सागर के बाद प्रेमचंद हिंदी में अपना एक नया और विलक्षण कथा सरित्सागर रच रहे थे, और उसकी धमक दिशाओं में व्याप्त हो रही थी।

प्रेमचंद के उपन्यासों में ‘रंगभूमि’ का मिजाज कुछ अलग ही है, जिसमें स्वाधीनता की लड़ाई की बेचैनी भरी झाँइयाँ हैं। उपन्यास का एक अलग सा पात्र सूरदास मानो पांडेपुर के कथाफलक पर एक नया ही गाँधी बनकर सामने आ जाता है। सूरदास की न्याय की जिद के कारण एक के बाद एक तमाम जमीनी सच्चाइयाँ सामने आ जाती हैं। जिधर अन्याय है, उधर बड़े-बड़े मुखौटों वाले शक्तिशाली लोग हैं। दूसरी ओर न्याय के पक्ष में अकेला सूरदास खड़ा दिखाई पड़ता है, जो एकदम साधनहीन और अकिंचन है। पर वह किसी से नहीं डरता, किसी की परवाह भी नहीं करता और अपनी नैतिक शक्ति व आत्मबल से अपनी लड़ाई जारी रखता है। धीरे-धीरे सूरदास लोगों की इस कदर सहानुभूति अर्जित कर लेता है कि वह एक सच्चा जननायक बनकर उभरता है।

सच पूछिए तो ‘रंगभूमि’ की ताकत ही यही है कि वहाँ जनता के बीच से निकला कोई अंधा सूरदास अपनी कड़ी जिद से आखिर एक शक्तिशाली अन्यायी सत्ता की जड़ें हिला देता है। बेशक गाँधी जी के असहयोग आंदोलन की छाप ‘रंगभूमि’ के सूरदास पर है, पर प्रेमचंद उसे कहीं और यथार्थपरक ढंग से अपनी जमीन और लोगों से जोड़ देते हैं। ‘रंगभूमि’ पढ़ते हुए लगता है कि सूरदास में प्रेमचंद ने अपने आप को समूचा उड़ेल दिया है। सूरदास की काया चाहे अलग हो, पर उसमें आत्मा प्रेमचंद की ही है।

अब जरा ‘गोदान’ की बात की जाए, जो प्रेमचंद की रचनाओं में सबसे ऊँचा शिखर रचता नजर आता है। सच कहूँ तो अपनी किशोरावस्था में जब मैंने गोदान को पहली बार पढ़ा था, तभी से यह मेरा पीछा कर रहा है। तब से ‘गोदान’ को कई बार पढ़ा। घटनाएँ पता थीं। यानी कथा-विन्यास परिचित, पात्रों से तो पहले ही मिल चुका था। मगर हर बार ‘गोदान’ को पहले से अधिक अर्थमय, पहले से अधिक व्यंजक, काशिशभरा और असरदार पाया। कुछ और अपनत्व और तेजी से अपनी ओर खींचता हुआ।

‘गोदान’ में यह क्या है जो इतना अधिक अपना-सा है? ‘गोदान’ में यह क्या है जो इतना अधिक खींचता है? ‘गोदान’ की इस कशिश का राज क्या है? ‘गोदान’ पढ़कर हर बार यही सवाल मेरे आगे आकर खड़ा हो जाता है। और मैं स्वीकार करता हूँ कि इसका ठीक-ठीक जवाब मुझे कभी मिल नहीं पाया। या शायद यह कि सवाल तो हर बार वही रहते थे, पर जवाब हर बार बदल जाता था। गो कि बदलकर भी पूरी तरह बदलता नहीं था। जैसे कि ‘गोदान’ की तासीर, ‘गोदान’ की गहरी-गहरी सी करुणा और मर्म को छूती कथावस्तु! किशोरावस्था में पढ़ा था, तब की याद है। और अभी इकत्तर बरस की उम्र में एक बार फिर पढ़कर खत्म किया, तब भी उस जाने हुए को और अधिक गहरा-गहरा होकर जाना।

और तभी यह जाना कि ‘गोदान’ की यह खासियत—उसकी हमेशा वैसी ही बनी रहने वाली तासीर उसे महज एक उपन्यास नहीं रहने देती। उपन्यास एक-दो बार पढ़ने के बाद बासी लगने लगता है, लेकिन ‘गोदान’ नहीं। वह उससे कहीं अधिक है। बल्कि शायद उससे बहुत अधिक। और सच ही वह हमारे आधुनिक समाज का महाकाव्य है जिसमें समूचा हिंदुस्तानी समाज अपनी शक्ति, मनोरथ, सपनों और कमजोरियों के साथ प्रतिबिंबित हुआ है। ‘गोदान’ इतना बड़ा उपन्यास है कि उसमें हिदुस्तानी समाज के जो अक्स आए, उनमें खुद-ब-खुद इतिहास से कहीं अधिक सच्चा इतिहास चला आया।…और यों उपन्यास, इतिहास और भारतीय समाज की सच्ची छटपटाहट और सपनों ने मिलकर ‘गोदान’ को एक ऐसे ‘संपूर्ण’ महाकाव्य में बदल दिया, जो जितना यथार्थ के स्तर पर सही उतरता है, उतना ही रूपक के स्तर पर भी।

होरी और धनिया ने कोई महान युद्ध भले ही न लड़ा हो, पर वे करोड़ों हिंदुस्तानी स्त्री-पुरुषों की वेदना, टीस और आहत अभिमान को अपने भीतर समोए साधारण पात्र हैं, तो यह साधारणता भी क्या छोटी चीज है? सच तो यह है कि साधारण होकर भी वे हर क्षण इतने अद्भुत और असाधारण लगते हैं कि जब वे सामने होते हैं तो उनकी एक-एक बात, एक-एक शब्द, एक-एक करुण टिप्पणी हमारे सीने में नक्श हो जाती है।

और शायद यही वजह है कि ‘गोदान’ पढ़ें, तो हमें पता ही नहीं चलता, हम खुद कब साथ बहते हुए ‘गोदान’ का एक हिस्सा हो चुके होते हैं। ‘गोदान’ में धनिया और गोबर की लड़ाइयाँ तथा मजबूरियाँ खुद हमारी लड़ाइयाँ और मजबूरियाँ बन जाती हैं।

प्रेमचंद क्यों इतने बड़े हैं और आज तक कोई और उस ऊँचाई तक क्यों नहीं पहुँच पाया, इसका राज शायद यही है।

[4]

मैंने प्रेमचंद की इन विलक्षण कृतियों को पढ़ा, तब समझ में आया कि किसी कहानी या उपन्यास में सचमुच हजारों पाठकों को अपने साथ बहा ले जाने का जादू होता है। मगर उपन्यास के शब्दों में यह जादू तब जागता है, जब उसे लिखने वाला प्रेमचंद सरीखा कोई बड़ा कथाकार, बड़ा साहित्यकार होता है, जिसके पास विश्वदृष्टि हो और जिसकी संवेदना का आयतन बहुत बड़ा हो। प्रेमचंद जनता के लेखक थे। पूरे भारतीय जनता के दुख-दर्द और अंतर्वेदना से जुड़े लेखक थे, इसीलिए उनकी कृतियों को पढ़कर लगता है कि पूरी हिंदुस्तानी जनता का दुख-दर्द इनमें उमड़ पड़ा है।

महाभारत के बारे में एक बड़ी प्रसिद्ध उक्ति है कि जो महाभारत में नहीं है, वह कहीं नहीं है। यही बात कुछ भिन्न ढंग से प्रेमचंद के बारे में भी कही जा सकती है। भारत के इतिहास और सामाजिक, सांस्कृतिक पटल पर बीसवीं शताब्दी के शुरू के तीन-साढ़े तीन दशकों में जो कुछ भी घटा, वह सब प्रेमचंद के साहित्य में किसी न किसी रूप में मौजूद है। इस लिहाज से प्रेमचंद भारतीय जनमानस में उमड़ती भावनाओं का महासागर हैं, और जो उनमें नहीं है, वह कहीं नहीं है।

और आश्चर्य, अपने किशोर काल में प्रेमचंद के द्वार पर दस्तक लगाते ही मुझे यह भी समझ में आया कि प्रेमचंद सहज ही हिंदी के सबसे बड़े साहित्यकार क्यों है, और बाकी सब अपनी खास कहानी-कला और तमाम दूसरी चीजों के होते हुए भी क्यों प्रेमचंद के आगे छोटे लगते हैं।

मजे की बात यह कि प्रेमचंद अपने बड़प्पन की छाप छोड़ने के लिए कोई खास जतन नहीं करते। और इसीलिए वे सहज ही इतने बड़े हो जाते हैं कि करोड़ों भारतीयों के दिलों पर राज करने लगते हैं। हिंदी कथा साहित्य में उनकी कलाहीनता की कला आखिर सारी कलाओँ से बड़ी साबित होती है और उनकी सादा भाषा पाठकों के दिल में इस तरह उतरती जाती है कि पूरी कहानी और पात्र तक दिल में छप जाते हैं। जिस लेखक की तसवीर करोड़ों भारतीयों के दिल में बसी हो, भला इससे बड़ा और कौन लेखक हो सकता है?

[5]

एक बात और कहे बिना नहीं रहा जाता कि जब अपनी किशोरावस्था में मैंने प्रेमचंद को पढ़ा, तब न मैं गरीबी की पीड़ा को जानता था, न ऊँच-नीच का दर्द, और न जीवन की दूसरी समस्याओं से ही परिचित था। संयोग से मैं एक संपन्न परिवार में जनमा था, और ये सब चीजें मैंने नहीं देखी थीं। पर प्रेमचंद मेरे लिए सिर्फ एक लेखक ही नहीं, बल्कि मेरी जिंदगी के असली गुरु और बड़े अच्छे मास्टर साहब बन गए। उन्होंने अपनी रचनाओं के जरिए मुझे गरीबी की पीड़ा की ऐसी मर्मांतक कथाओं से रूबरू कराया कि पढ़कर आँसुओं से पूरा चेहरा भीग जाता था। इसी तरह समाज में ऊँच-नीच की भद्दी दीवारें, जातिगत भेदभाव की विडंबनाएँ और कदम-कदम पर ग्रसने वाले शोषण और अन्याय के ऐसे करुण चित्र प्रेमचंद के यहाँ देखने को मिले कि मैं भीतर से हिल गया।

हमारे इस जीवन में कितनी तकलीफें, कितना शोषण और अन्याय, कितना उत्पीड़न, आँसू और कराहें हैं, और इसके बीच ही प्रेम है, करुणा है और उनके कारण यह जीवन बचा हुआ है, यह पहली बार मैंने प्रेमचंद को पढ़कर जाना। थोड़ा आगे चलकर वास्तविक जीवन में भी वही दुख, समस्याएँ, शोषण और अन्याय का चक्र मैंने देखा और खुद झेला भी। गरीबी और बेरोजगारी की अकथनीय तकलीफें झेलीं, यहाँ तक कि कदम-कदम पर अपमान और उत्पीड़न भी झेलना पड़ा। पर इन्हें पहलेपहल मैंने प्रेमचंद के साहित्य को पढ़कर ही जाना, और वास्तविक जीवन में ये करुण सच्चाइयाँ बाद में झेलीं और जानीं। तब समझ में आया कि प्रेमचंद को पढ़ना सिर्फ साहित्य पढ़ना ही नहीं है, बल्कि जीवन को अपनी समग्रता में देखना है, उसकी कुरूपता और कठोर सच्चाइयों के साथ।

शायद यही वजह है कि कुछ आगे चलकर जिंदगी में मैंने बहुत सी करुण, कठोर सच्चाइयाँ देखीं और उनका गवाह बना, बहुत सी चीजें खुद भी झेलीं और भीतर तक मर्माहत हुआ, तब जिन लेखकों ने मेरा सबसे ज्यादा साथ दिया, वे प्रेमचंद ही थे। उनकी कृतियाँ मेरी दोस्त थीं। उनकी दिखाई हुई दुनिया ने, जो मैंने खाली किताबों के जरिए ही जानी, हर दुख और मुश्किलों में मेरा साथ दिया। जब भी कुछ ऐसा मेरे साथ बीतता कि मर्म पर गहरी चोट पड़ती, तो प्रेमचंद की याद आती कि देखो प्रकाश मनु, प्रेमचंद ने लिखा तो है ऐसी स्थितियों के बारे में, फलाँ उपन्यास या कहानी में। या कुछ दारुण मेरे साथ घटित होता तो अंदर से आवाज आती कि अरे, यह तो ठीक वैसा ही है, जैसा प्रेमचंद अपनी अमुक कृति में लिख गए हैं!

यों प्रेमचंद अपने समय के ही नहीं, मेरे समय के भी नायक हैं और आने वाले समय के भी नायक रहेंगे…और शायद आगे भी यह सिलसिला चलता रहेगा। हर युग में उनकी प्रासंगिकता एक नए ही ढंग से सामने आएगी। हर युग में अपने खास प्रेमचंदीय अंदाज और देसी ठसके के साथ, वे एक बड़े पारिवारिक मुखिया की तरह हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे।

मेरे जीवन का सबसे बड़ा राज और सबसे बड़ा आनंद क्या है? अगर कोई पूछे तो मैं कहूँगा कि मेरे जीवन का सबसे बड़ा राज और सबसे बड़ा आनंद भी यही है कि किशोरावस्था में प्रेमचंद से हुई दोस्ती अब तक चली आती है। वे अकसर एक गाइड की तरह मुझे अपने आगे-आगे चलते दिखाई देते हैं। कभी अचानक बहुत करीबी दोस्त की तरह मेरा हाथ अपने हाथों में थाम लेते हैं और जिंदगी की ऊँच-नीच समझाते हुए चलते हैं। कभी लिखते-लिखते मेरी कलम कुछ रुक सी जाती है और आगे का कुछ नहीं सूझता, तो अचानक मेरे भीतर बैठे हुए प्रेमचंद उसे थाम लेते हैं और लिखना शुरू कर देते हैं। तब लगता है, जैसे अँधेरे में बिजली कौंध गई हो। मैं इसरार करके प्रेमचंद के हाथ से कलम लेता हूँ और लिखना शुरू करता हूँ तो वह इस तरह सरपट दौड़ती है कि अब शायद कभी रुकेगी ही नहीं।

इस तरह प्रेमचंद की दोस्ती ने मुझे अंदर-बाहर से समृद्ध किया और हर जगह लड़ाई में वे मेरे साथ खड़े रहे। प्रेमचंद का बड़प्पन और प्रगतिशीलता क्या है और उसके मानी क्या हैँ, ऐसे क्षणों में बड़े सहज ढंग से यह मेरे आगे खुलता चला जाता है।

[5]

और अंत में दो बातें और। प्रेमचंद को बहुत लंबी उम्र नहीं मिली। केवल 56 वर्ष वे जिए। पर इस छोटी सी कालावधि में वे जो कर गए, उस पर इस महा देश की जनता और हिंदी साहित्य को सदा नाज रहेगा। अगर यह पूछा जाए कि भला हिंदी के पास विश्व के श्रेष्ठतम साहित्य में पांक्तेय ऐसे कौन से लेखक और कृतियाँ हैं, जिन्हें वह गर्व से विश्व साहित्य के आगे रख सकती है, तो सबसे पहले जिस लेखक की ओर हमारा ध्यान जाता है, वह प्रेमचंद हैं। हिंदी साहित्य के महानतम लेखक, और हिंदी साहित्य की सबसे मूल्यवान निधि भी।

लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रेमचंद हिंदी के सबसे महान कथाकार इसलिए भी हैं कि उन्हें भारत की जनता ने अपने सिर-माथे पर बैठाया है, किसी बड़े से बड़े आलोचक की कृपादृष्टि के वे मोहताज नहीं हैं। वे जो अपने निधन के कोई आठ दशकों बाद भी आज करोड़ों लोगों के दिलों पर राज कर रहे हैं, कोई बड़े से बड़ा आलोचक भी भला उनका क्या मूल्यांकन करेगा? सच तो यह है कि प्रेमचंद सिर्फ अपनी कलम की ताकत के बूते, हर तरह की जकड़बंदियों से ऊपर उठ चुके हैं और किसी विचार, मठ या वाद का बना-बनाया चौखटा उन पर फिट नहीं किया जा सकता। वे जन-जन के हृदय और आत्मा से जुड़े लेखक हैं, जो स्वभावतः प्रगतिशील, और साथ ही इस महान देश की महान परंपराओँ से जुड़े लेखक हैं, जिनके विपुल साहित्य को हिंदुस्तानी साझा संस्कृति का आईना कहा जा सकता है।

प्रेमचंद का साहित्य अपने आप में इतना बड़ा सिंधु है कि एक बार आप उनके निकट गए नहीं कि हमेशा-हमेशा के लिए उनके हो जाते हैं। फिर प्रेमचंद का साहित्य सिर्फ आपको आनंदित ही नहीं करता, वह आपको भीतर-बाहर से बदलता भी है। वह आपको कुछ और संवेदनशील और उदार बनाता है, आपको रूढ़ियों की जकड़बंदी तोड़ने के लिए ललकारता है और साथ ही धर्म, मजहब, संप्रदाय और जात-बिरादरी हर तरह की सीमाओं से ऊपर उठकर एक बेहतर मनुष्य होने के लिए ललकारता है, जिससे कि आप अपने जैसे ही किसी दूसरे इनसान की तकलीफ भी महसूस कर सक सकें, भले ही वह किसी भी धर्म, संपदाय या जात-बिरादरी का क्यों न हो। वह गरीब हो, अनाथ और बेसहारा हो तो क्या? वह मनुष्य है तो आखिर तो तुम्हारा भाई ही है न! तुम उसके प्रति सदय नहीं हो तो भला तुम अच्छे मनुष्य कैसे हो सकते हो?

कितनी सीधी सी बात, लेकिन कितनी बड़ी बात, जो सीधे मर्म को छू लेती है!

प्रेमचंद का पाठक इसीलिए केवल पाठक ही नहीं रहता, बल्कि उसे बहुत सी अग्निपरीक्षाओं से गुजरता होता है। मानो प्रेमचंद अपनी बड़ी-बड़ी, घनी मूँछों में मुसकराते हुए, हर पाठक से यह पूछते हैं कि तुमने ‘गबन’ पढ़ा, तो मानव जीवन में गहनों की व्यर्थता का अहसास तुम्हें क्यों नहीं हुआ? तुमने ‘निर्मला’ और ‘सेवासदन’ पढ़ा तो तुमने स्त्री जीवन की व्यथा क्यों नहीं जानी? तुमने ‘गोदान’ पढ़ा तो तुम किसान जीवन की गरीबी और विपदाओं से अपरिचित कैसे रह गए? तुमने ‘रंगभूमि’ पढ़ा तो तुम कैसे भूल गए कि जनता के बीच से एक अकेला सूरदास उठ खड़ा होता है तो वह कैसे जन-जन की भावनाओं का प्रतिनिधि बन जाता है और बड़ी से बड़ी आतंककारी सत्ताएँ उसके आगे थर-थर काँपती हैं!

फिर प्रेमचंद हिंदी साहित्य के मयार उसलिए भी हैं कि उन्हें पढ़कर पता चलता है कि साहित्य की ताकत क्या है। अगर बीसवीं सदी के इतिहास और समाजशास्त्र का अध्ययन करना हो, तो इसके लिए प्रेमचंद से बड़ा कोई आधार-स्रोत नहीं हो सकता। वे इतिहासकार नहीं थे पर सब इतिहासकारों से बड़े थे। वे समाजशास्त्री नहीं थे, पर सब समाजशास्त्रियों से बड़े थे।

प्रेमचंद ने अपनी एक से बढ़कर एक जानदार और मर्मस्पर्शी कृतियों के जरिए बताया कि साहित्य केवल साहित्य नहीं होता, वह समूचा जीवन होता है। इसलिए बीसवीं सदी के जीवन का सबसे बड़ा आईना अगर कोई हो सकता है, तो वह प्रेमचंद का साहित्य ही है।

**************************************

प्रकाश मनु

 

प्रकाश मनु, 545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,

मो. 9810602327,

ईमेल – prakashmanu333@gmail.com

 

 

 

==========================================

दुर्लभ किताबों के PDF के लिए जानकी पुल को telegram पर सब्सक्राइब करें

https://t.me/jankipul

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

विदेश यात्राओं ने मुझे जीवन और हिन्दी भाषा के प्रति एक नई दृष्टि दी- विजया सती

आज पढ़िए प्रोफ़ेसर विजया सती की अध्यापन यात्रा की नई किस्त। उनका यह संस्मरण बहुत …

One comment

  1. Avinash Kumar Mishra

    बहुत ही शानदार लिखा सर, मेरे जैसे नई पीढ़ी के लेखकों के लिए एक जरूरी पाठ।🙏💐😊

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *