
महान अभिनेता दिलीप कुमार साहब के निधन की खबर आ रही है। मुझे उनकी शख़्सियत पर सलीम खान के लिखे इस लेख की याद आई। दिलीप कुमार पर लिखा गया यह एक शानदार लेख है। यह लेख उनकी आत्मकथा ‘वजूद और परछाईं’ में शामिल है। वाणी प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक का अनुवाद मैंने किया है-
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मैं हमेशा सोचता था कि महान इन्सान के बारे में लिखना आसान होता है, खासकर दिलीप कुमार के बारे में क्योंकि उनसे जुडी घटनाओं, बचपन से लेकर आज तक के संस्मरणों के रूप में उनके बारे में इतनी सामग्री मौजूद है. लेकिन जब मैं यह लेख लिखने के लिए बैठा तो मुझे समझ में नहीं आया कि शुरू कहाँ से करूँ. बहरहाल, मैं पूरी ईमानदारी से कोशिश कर रहा हूँ.
दिलीप साहब के अब्बा मोहम्मद सरवर खान साहब, जो प्रसिद्ध अभिनेता पृथ्वीराज कपूर के पडोसी थे, वे फिल्मों को नापसंद करते थे इसलिए वे उनको मौलाना अबुल कलाम आजाद के कहने पर बम्बई सेन्ट्रल स्टेशन पर खींच कर ले आये. आजाद ने सरवर खां साहब की बातों को ध्यान से सुना और फिर दिलीप साहब से कहा: ‘नौजवान, जो भी करो पूरी ईमानदारी और शिद्दत से करो, जैसे नमाज अदा कर रहे हो.’ दिलीप साहब ने वही किया. उन्होंने अदाकारी में खुदाई पाकीजगी पैदा की, अपने पेशे को इबादत बना दिया.
दिलीप साहब ने अपनी अदाकारी के फन को धीरे धीरे कड़ी मेहनत और भरपूर लगन से सान चढ़ाया. उन्होंने अपने पेशे में ऐसी महारत हासिल की जैसे कि कोई हाल में हो. मिसाल के लिए, उनको ‘कोहिनूर’ में एक गाने में सितार बजाना था. उन्होंने एक उस्ताद से महीनों सितार बजाना सीखा. अपने फन को बेहतर बनाने के लिए उन्होंने अनेक जुबानें सीखीं. वे अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, बंगाली, मराठी और पश्तो भाषाओं में बात कर सकते हैं. उनकी अदाकारी के बारे में मैं उनके बचपन एक दोस्त, उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी का हवाला देना चाहता हूँ, जिन्होंने रमेश सिप्पी की फिल्म ‘शक्ति’ देखकर उनको बैंगलोर से फोन किया और बोले: ‘लाले, आज फैसला हो गया: तुम सबसे बड़े अदाकार हो.’ प्रसंगवश, मैंने और जावेद अख्तर ने शक्ति फिल्म लिखी थी, जिसमें दिलीप साहब, अमिताभ बच्चन, राखी और स्मिता पाटिल ने काम किया था. जब हमने दिलीप साहब को पहले पटकथा सुनाई थी, तो दिलीप साहब ने खुलासा किया कि खुदा ने उनको एक्टिंग का हुनर दिया था, वे कभी लिखना नहीं चाहते थे, लेकिन कुछ पटकथाएं और कुछ डायलौग इतने बुरे थे कि उनको लिखना पड़ गया. फिर उन्होंने कहा कि हमने बहुत अच्छा काम किया था. हमने बाद में ‘क्रांति’ फिल्म लिखी थी जिसमें उनकी अहम् भूमिका थी.
जब देविका रानी, बॉम्बे टॉकीज की महारानी ने ‘ज्वार भाटा’ में हीरो के लिए उनको चुना तो उस बड़े से स्टूडियो ने सब सदमे में आ गए क्योंकि तब के मानकों से वे सुन्दर नहीं माने गए थे, लेकिन जल्दी ही उनको जबरदस्त कामयाबी मिली.
जब दिलीप साहब 1944 में फिल्मों में आये तो उन्होंने पाया कि फिल्मों में जो अदाकार होते थे वे बड़े लाउड और नाटकीय होते थे, उनके ऊपर पारसी थियेटर का असर था. वे उन पहले अदाकारों में थे संयत तरीके से भूमिका निभाना सीखा और अपनी अदाकारी में बारीक नुस्खों को उभार कर लाए: मिसाल के लिए, दो लाइनों के बीच में लम्बी चुप्पी और जानबूझकर चुप रह जाने की उनकी अदा का दर्शकों के ऊपर बड़ा अजीब सा प्रभाव पैदा होता था. मुझे लगता है कि उन्होंने जवाहरलाल नेहरु के भाषणों को सुना था, जो अंग्रेजी में सोचते थे और हिन्दुस्तानी में बोलते थे: इसलिए उनको अनुवाद करने में पल भर लगता था जिसकी वजह से थोड़ी देर की चुप्पी पैदा ही जाती थी. नेहरु की जो देशव्यापी लोकप्रियता थी वह दिलीप कुमार का सिनेमा के दर्शकों के ऊपर गहरे प्रभाव से मेल खा गई. बाद के सालों में, दोनों एक दूसरे का सम्मान करने लगे और एक दूसरे के प्रशंसक हो गए. नौजवान दिलीप कुमार एमिली ब्रोंटे के 1847 में लिखे गए उपन्यास ‘वुदरिंग हाइट्स’ से बुरी तरह प्रभावित थे. बाद में, उन्होंने ए. आर. करदार की फिल्म ‘दिल दिया दर्द लिया’ में काम किया, जो उसी उपन्यास के ऊपर आधारित था.
दिलीप कुमार हमेशा से बहुत ही संवेदनशील किस्म के इंसान थे और आत्मपरीक्षण ऐसा नहीं था जिसे वे कभी कभार करते हों, उनके मन में वह हमेशा चलती रहने वाली प्रक्रिया थी. गहरी भावुकता उनकी जन्मजात विशेषता थी, जो कि उनके काम में लगातार दिखाई देती थी. उनका जबरदस्त अभिनय जो बेलगाम गुस्से से भरा हुआ था, जिसके कारण उनकी 1961 की फिल्म ‘गंगा जमुना’ हमेशा बेमिसाल रहेगी. अनेक स्वयम्भू स्टार ने गुस्से को दिखाया, लेकिन अगर उनकी दिलीप कुमार से तुलना करें तो वे सभी कागजी शेर नजर आते हैं.
दिलीप कुमार को ऐसे संस्थान का दर्जा दिया जाता है जिसके सभी कुछ वही थे. उनके अनेक समकालीनों और उनके बाद एक कई कलाकारों ने उनकी नक़ल करने की कोशिश की लेकिन कोई उनकी बराबरी नहीं कर सका. उनको नक़ल करने की कोशिश्स करते करते कई एक्टर सुपर स्टार हो गए. यह कम आश्चर्य की बात नहीं है करीब छह दशक के कैरियर में उन्होंने साठ से कम ही फिल्मों में काम किया? आज, नौजवान छह साल में ही 60 फ़िल्में कर लेते हैं. दिलीप साहब ने जितनी फ़िल्में की उससे ज्यादा के लिए उन्होंने न कह दिया, लेकिन तीन फिल्मों में काम न कर पाने का उनको अफ़सोस रहा: बैजू बावरा(1952), प्यासा(1957)और हमारी(सलीम-जावेद) ‘जंजीर’. अनेक कलाकार अपनी असुरक्षा और डर की वजह से बहुत सारी फ़िल्में साइन कर लेते हैं. एक बार उन्होंने काह था कि सिर्फ प्रतिभा और ईमानदारी ही डर और सभी प्रकार की असुरक्षा को दूर भगा सकती है.
मैं छह दशक से फिल्म उद्योग में हूँ और अनेक तरह के लोगों से मिलना हुआ है लेकिन मैं कभी किसी ऐसे आदमी से नहीं मिला जो दिलीप कुमार जैसा हो. वे बहुत गहरे तौर पर सुसंस्कृत इन्सान थे, काफी पढ़े लिखे और हद दर्जे के ईमानदार. उनके निजी रिश्ते भावनाओं पर आधारित होते थे जैसे प्यार, वफादारी और विश्वास. मुझे इस बात के ऊपर गर्व है कि मैं न केवल उनको जानता था बल्कि मैंने उनके साथ काम भी किया था और वे मुझे हमेशा अपना छोटा भाई समझते थे.
युसूफ खान बिन मोहम्मद सरवर खान, उर्फ़ दिलीप साहब ने बरसों पहले दर्शकों के साथ एक भावनात्मक रिश्ता कायम किया था जिसने जाति, मजहब, देश, भाषा और क्षेत्र की सभी दीवारों को तोड़कर रख दिया था. जनता के साथ जुड़ाव की इस परिघटना की वजह से जनता ने उनको करीब 60 साल तक सुपरस्टार बनाए रखा. फ़िल्म के दर्शक धर्मनिरपेक्ष होते हैं और पक्के भारतीय भी. दिलीप साहब का फिनोमिना भारत की धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक है, जो भारत की अंदरूनी ताकत रही है.
मुझे यह बात यहाँ कहने दीजिए: दिलीप साहब सर्वकालिक महान कलाकार हैं. दिलीप साहब ने अपने फैन्स, प्रशंसकों को, जिनमें मैं भी शामिल हूँ, इतनी अधिक ख़ुशी दी है कि हम सब उनके कर्जदार हैं और मैं अल्लाह से यह दुआ करता हूँ कि वह उनके हर प्रशंसक के जीवन का जरा सा हिस्सा उनको दे दे ताकि उनकी उम्र दराज हो और वे लम्बे अरसे तक हमारे साथ रहें.
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