देवेश पथ सारिया उन कुछ युवा कवियों में हैं जो अच्छा गद्य भी लिखते हैं। ख़ासकर आलोचनात्मक गद्य। यह टिप्पणी उन्होंने युवा लेखिका अणुशक्ति सिंह के उपन्यास ‘शर्मिष्ठा’ के ऑडियो बुक को सुनकर लिखी है। वाणी प्रकाशन से प्रकाशित यह उपन्यास ऑडियो बुक में स्टोरीटेल पर उपलब्ध है। आप युवा कवि देवेश पथ सारिया की यह टिप्पणी पढ़िए-
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मैं उपन्यास कम पढ़ता हूं। बहरहाल, कई वर्ष बाद इस वर्ष अंग्रेजी का एक और हिंदी के चार उपन्यास पढ़े-सुने हैं। कल स्टोरीटेल पर अणुशक्ति सिंह का उपन्यास ‘शर्मिष्ठा’ सुना। जी, इन दिनों सुनने को तरजीह दे रहा।
कौरवों और पांडवों के पूर्वज युग की मनस्विनी शर्मिष्ठा के जीवन संघर्ष को यहां दिखाया गया है। बहुत सी घटनाएं, पात्र और पहलू जिनकी जानकारी अब तक मुझे एकतरफा तौर पर रही, उनकी अंदरूनी तहें इस किताब में खुलती हैं। जैसे, नहुष के सर्प योनि प्राप्त करने को लेकर यहां लेखिका एक दूसरी दृष्टि प्रदान करती हैं। कुछ पौराणिक संदर्भ जो ऊपरी तौर पर पढ़ने में अतार्किक लगते हैं, उन्हें यहां लेखिका ने एक धारा रेखीय प्रवाह प्रदान किया है।
इस किताब का प्रमुख स्वर तार्किक स्त्रीवाद है। अणुशक्ति फेमिनिस्ट के तौर पर जानी जाती हैं। फेमिनिस्ट आंदोलन ज़रूरी है, पर उसमें विचारधारा के सही मार्ग का अनुपालन बहुत मुश्किल काम है। अणुशक्ति यह संतुलन बहुत अच्छे तौर पर इस पुस्तक में बिठाती हैं।
याद करिए रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ की कविता पंक्तियां- “राजा किसी का नहीं होता”। शर्मिष्ठा के दृष्टिकोण से देखें तो उसके जीवन के दोनों ही राजा (पिता और प्रेमी) उसके जीवन में दुख का कारण बने। दुख से बचा सकने की सामर्थ्य होते हुए भी अकर्मण्य बने रहना भी दुख का कारण होना ही है। वह दौर ऐसा था कि स्त्रियां कुल और वंश की मर्यादा के चलते सारा अज़ाब अपने सिर ले लेती थीं। वैसे अब भी दौर कौनसा पूरी तरह बदल गया है?
लेखिका ने एक ही घटनाक्रम को अलग-अलग पात्रों के नजरिए से दिखाया है और यह पाठक की समझ पर छोड़ा है कि वह किसे सही मानता हैं। सब पढ़ने के बाद और स्वयं से तमाम जिरह करने के बाद मुझे लगा ग़लत तो देवयानी ही थी। शर्मिष्ठा देवयानी की ‘पंचिंग बैग’ जैसी नज़र आती है। स्त्रियों की दुर्गति के लिए पुरुषों के अतिरिक्त स्त्रियों की भी जो भूमिका है, वह आज से नहीं है।
यदि देवयानी का दोषी कोई था तो वह थी देवगणों की चाल जिसे क्रियान्वित करने हेतु बृहस्पति पुत्र को शुक्राचार्य के पास शिक्षार्थ भेजा गया। देवगणों या तथाकथित ‘शुचितावादी’ समूह द्वारा किए गए अधर्म की यह बानगी थी जो महाभारत में अपने चरम पर पहुंचती है। वहां कृष्ण का आत्मालापी अंतर्विरोध काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘उपसंहार’ में मिलता है।
क्या यह वाजिब बात है कि एक पिता जो अपने पुत्र के लिए कभी उपस्थित ही नहीं रहा, पुत्र के युवा हो जाने पर उस पुत्र के क्षत्रियोचित गुणों के लिए उसी पिता को श्रेय दे दिया जाए जबकि लालन-पालन का सारा श्रम और संघर्ष मां ने किया है? याद रखिए कि यहां शर्मिष्ठा एक योद्धा भी है, धनुर्विद्या में निपुण। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि शर्मिष्ठा के पुत्र पुरू ने अपना यौवन, पिता ययाति को देते समय एक बार भी अपनी मां और अपनी नवविवाहिता पत्नी के बारे में नहीं सोचा? ऐसे ही अन्य उदाहरण भी हमारी पौराणिक कथाओं में मिलते हैं जो पितृसत्तात्मक समाज की गवाही देते हैं। पुरू की पत्नी उसे वयोवृद्ध देख आत्महत्या कर लेती है। तब बृहस्पति पुत्र कच आते हैं और शुक्राचार्य के श्राप का असर समाप्त कर देते हैं। वही कच एक बार भी अपनी संजीवनी विद्या का प्रयोग कर चित्रलेखा को जीवित करने का प्रयास नहीं करते। यह अलग बात है कि देवयानी के श्राप के चलते उन्हें सबसे अधिक आवश्यकता की घड़ी में अपनी संजीवनी विद्या को भूल जाना था, किंतु एक बार वे प्रयास करते तो यह न्यायोचित लगता। पुरोहित पुरू को राज सिंहासन पर नहीं, अपितु चित्रलेखा की राख के ढेर पर आसीन होने का रास्ता साफ़ करते नज़र आते हैं। कैसा ताना-बाना है यह समाज का?
यहां एक महत्वपूर्ण बात यह है कि उपन्यास पीरियोडिक होते हुए एवं भाषा उस युग के अनुरूप होते हुए भी, भाषा और स्त्रीवाद का ट्रीटमेंट यहां किसी भी आम पाठक को जोड़ता हुआ महसूस होगा।
यह एक कठिन विषय था और मेरी दृष्टि में अणुशक्ति विषय का निर्वाह बड़े अच्छे ढंग से कर गई हैं।
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अणुशक्ति अद्भुत लेखिका है । साधारण शब्दों को पिरोकर असाधारण भाव रचती है । साहित्य ने इस कहानी को अब तक इस रूप में कभी नहीं लाया था । विषय के साथ न्याय करती हुई भाषा का बहाव और कसाव अच्छा लगा।
खूब लिखिए अणु जी
I have read your article carefully and I agree with you very much. This has provided a great help for my thesis writing, and I will seriously improve it. However, I don’t know much about a certain place. Can you help me?