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प्रलय की लय साधने की आकांक्षा

आज वरिष्ठ लेखक, विचारक नंद किशोर आचार्य का जन्मदिवस है। इस अवसर पर पढ़िए युवा लेखक चंद्र कुमार का यह लेख, जो कथारंग साहित्य वार्षिकी 2020-21 (सं. हरीश बी. शर्मा) में प्रकाशित हुआ था। आपके लिए यह पठनीय लेख हम दे रहे हैं-

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नहीं,
अब कोई सपना नहीं
साँसें हैं केवल —
होने को अपने
विलय करती हुई
लय में न होने की….

18 दिसम्बर 2019 की दोपहर केन्द्रीय साहित्य अकादमी के सबसे प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी सम्मान की घोषणा की जानकारी होते ही मैंने उन्हें (नन्दकिशोर आचार्य) फ़ोन किया। मैंने बड़े ही उत्साह से बताया कि साल 2019 के लिये हिन्दी भाषा के लिये उनके नाम की घोषणा हुई है। कुछ देर की चिर-परिचित चुप्पी के बाद बाद उनका पहला प्रश्न था कि आधिकारिक घोषणा हो गयी? मैंने बताया कि अब तो राष्ट्रीय समाचार चैनलों पर भी ख़बर की पट्टी चल पड़ी है, तब बोले कि हाँ, कल फ़ोन आया था और जब तक आधिकारिक घोषणा ना हो, बताना उचित नहीं था। मैं हैरान था। जिस ‘कल’ उनके पास फ़ोन आया था उस दिन शाम को काफ़ी देर तक मैं उनके साथ था। हमेशा की तरह बहुत सी बातें हुई, फिर भी ज़रा-सा भी इशारा तक नहीं किया कि इतना बड़ा सम्मान उन्हें मिल रहा है! लेकिन अपने बारे में वे ऐसी बातें कब बताते हैं। पिछले दो-तीन दशकों से साल-दर-साल कोई ना कोई पुरस्कार, सम्मान या अभिनंदन होता रहा है लेकिन हमें ख़बर उनसे नहीं, कहीं और से ही मिलती रही है। जब सूचना घोषित हो जाती तब संकोच करते हुए माँ-बाबा को बता देते। इससे ज़्यादा कभी कुछ नहीं। अब तो माँ और बाबा भी नहीं रहे तो किसे बतायें। बहरहाल, जब सारी ज़िंदगी यही हुआ है तो यह पुरस्कार फिर कौनसा अलग है।

लेकिन यह पुरस्कार दरअसल अलग है। खुद उन का मानना है कि जब कोई पुरस्कार समकालीन-समानधर्मा लेखकों द्वारा प्रस्तावित, प्रतिपादित और अर्पित किया जाता है तो वह आपकी साधना को स्थापित करता है। वह इस मायने में विशेष होता है कि वह आपके व्यक्तित्व से ज्यादा कृतित्व को सम्मानित करता है। यह पुरस्कार इसलिये भी विशेष है कि यह उन्हें उनके काव्य-संग्रह के लिये मिला है। वे अपने को मूलत: कवि मानते हैं, बाक़ी सभी विधाएँ और अलंकरण अपनी जगह। स्वभाव भी बिलकुल वैसा — बाहर से धीर-गंभीर लेकिन भीतर बहुत नरम और मिठास लिये।

वे खुद कह चुके हैं —

मेरे सीने में/ एक झरना है/

बस इसी बात का तो/ मरना है !

जिस तरह उनकी कविताएँ सतह से समझी नहीं जा सकती, शब्द-दर-शब्द बहुत गहरे उतरना पड़ता है, वैसे ही उन्हें समझने के लिये धैर्य चाहिये – फ़ौरी कुछ भी संभव नहीं। भाषा में शब्दों को बरतने का जो मिज़ाज उनका कविता के लिये है, वैसा ही जीवन में ही। अनावश्यक कहीं पर भी कुछ नहीं। लेकिन हमेशा किसी ख़ास बात को इंगित करते हुए। बिल्कुल सटीक। कवि है इसलिये ऐसे है या इसी कारण वे कवि है, कहना ज़रा मुश्किल है। वे अनेक बार कह चुके हैं कि उनके लिये साहित्य सृजन दरअसल एक संवेदनात्मक अन्वेषण है और जब तक अनुभूत ना हो, लिखना सार्थक नहीं होता। इस आत्म-अन्वेषण की प्रक्रिया में वे खुद को उस प्रक्रिया को सौंप देते हैं जहाँ अनुभूतियाँ शब्द बन जाती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो वे कभी तयशुदा ढाँचे को शब्द नहीं देते, बल्कि स्वयं को शब्दों को सौंप देते हैं। यही कारण है कि उनके शब्दों से गहन अनुभूति हमेशा झरती दिखाई पड़ती है।

क्योंकि वे अपने लेखन के शुरुआती दौर में उर्दू शायरी और जेन कविताओं से प्रभावित रहे हैं, इसलिये बेवजह शब्द जाया करना उनके यहाँ नहीं पाया जाता। उनका लेखन, चाहे वह नाट्य लेखन हो या कविताएँ, हमेशा संश्लिष्ट और सान्द्र भाषा में होता है। अपने निबंधों और साहित्य समालोचना तक में वे भाषा के अतिरेक से बचते रहे हैं।

वे दरअसल किसी भी तरह के दिखावे से हमेशा परहेज़ करते है। घर में जितनी भी शादियाँ उनकी देखरेख में हुई है वह इस बात को पुख़्ता करती है कि गांधी की सादगी उन्होंने केवल पुस्तकों तक सीमित नहीं रहने दी, उसे जीवन में भी हुबहू उतारा और लोगों को प्रेरित किया। ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ वाले समय-काल में भी वे जो बोलते-लिखते है, जीवन बिल्कुल वैसा ही जीते हैं। स्वायत्तता के बड़े पक्षधर आचार्य जी घर में भी इसे आज़माते हैं। हम सबको अपने निर्णय करने की जितनी स्वायत्तता मिली, वह बड़े घरों में मुश्किल से मिलती है। हालाँकि इसकी ज़िम्मेदारी भी, ज़ाहिर सी बात है, फिर हमें ही उठानी होती है।

घर के अन्य बच्चों से मुझे उन का स्नेह हमेशा ज़्यादा मिलता रहा है। अपने बचपन के दिन जब भी याद करता हूँ तो हमेशा उनकी एक ही छवि मन में उभर आती है और वह है दिन के किसी भी वक्त जब कमरे में होते तो हाथ में कोई अख़बार, पत्रिका या किताब। शायद ही कोई दिन हो जब वे पढ़ते ना दिखें। रेल-हवाई जहाज़ तक के सफ़र में एक अलग थैले में कुछ पुस्तकें रहती हैं। समय से काफ़ी पहले स्टेशन-एयरपोर्ट पहुँच जाते हैं और फिर किताब उनकी हमसफ़र। जीवन-दृष्टि को हमेशा कुछ नया आयाम देते रहने की उनकी चेष्टा ही है कि वे आज विविध विषयों पर साधिकार लिखते-बोलते हैं। मैंने उनके कहने पर बहुत सी देशी-विदेशी लेखकों की पुस्तकें ऑनलाइन मँगवाई है जिनके लेखक या पुस्तक शीर्षक का नाम तक नहीं सुना होता। पढ़ने के लिये क्या पढ़ा जाए, हमारे लिये तो यही एक बड़ी समस्या है लेकिन उनकी खोज अनवरत जारी है।

सही और ग़लत को परखने के लिये उनका पैमाना हमेशा एक ही है। अक्सर छोटी-छोटी बातों में ज़ाहिर कर देते हैं अगर कुछ ग़लत हो तो। गलती छोटी या बड़ी नहीं – बस गलती होती है और जिसे सुधारना ज़रूरी हो। वैसे ही, झूठ से उन्हें बहुत चिढ़ मचती है। झूठ बस झूठ होता है – छोटा या बड़ा नहीं! साफ़गोई से की गयी कोई भी बात वे इत्मिनान से सुनते हैं और अपना विचार भी, जहाँ ज़रूरी हो, व्यक्त करते हैं। एक धीर-गंभीर छवि वाले विचारक – लेखक के पीछे का आदमी बिल्कुल वैसा ही है जैसा हर अभिभावक होता है। हालाँकि याद नहीं पड़ता कि कभी उन्होंने किसी भी, बड़ी या छोटी उपलब्धि पर पीठ थपथपाई हो, लेकिन हमेशा महसूस किया है कि पीठ के पीछे वे एक चट्टान की तरह संबल देते रहें हैं। क्योंकि वे बहुत सी बातें हमें खुल कर नहीं बताते लेकिन उनका कवि ह्रदय कुछ भी छुपा नहीं पाता। लिहाज़ा उनके हर नये कविता संग्रह से उनकी मन:स्थिति का सहज अंदाज़ा लगाता रहा हूँ। एक छत के नीचे रह कर भी परस्पर संवाद जब कविता के माध्यम से बखूबी हो तो फिर बोल कर शब्द क्यूँ ज़ाया किये जाये!

आचार्यजी की प्रचलित छवि एक गंभीर अध्येता की रही है। हालाँकि कुछ अंतरंग दोस्त है जिनके आने पर सोचना पड़ता है कि क्या ये वही हैं! लेखन उनके लिये कर्म ही नहीं, जीवन है। साफ़गोई से अपनी बात कहने के पक्षधर आचार्य जी कभी-कभी आक्रामक लगते हैं लेकिन यह उनकी नहीं, हमारी प्रवृति है कि हमें अपने बारे में लाग-लपेट वाली बातें ज़्यादा सुहाती है जो वे नहीं करते! जान-पहचान वाले उनके इस स्वभाव से वाक़िफ़ हैं अतः उनके लिये यह कोई नयी बात नहीं।

वे आजकल प्राकृत भारती, जयपुर में अहिंसा-शान्ति ग्रंथमाला के संपादन के कार्य में जुटे हैं जहाँ उन्होने कुछ बरस पहले हिन्दी जगत (और संभवतः दुनिया) का पहला “अहिंसा विश्वकोश” संपादित किया। प्राकृत-भारती के अतिथि गृह में जहाँ वे रहते हैं उसकी तुलना किसी कुटिया से करें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। एक साधक ही दरअसल समय और संसाधनों का सही उपयोग करना जानता है, और साधु-सा जीवन जीते रहे आचार्य जी के लिये यही तो जीवन का फ़लसफ़ा  है। जितना संभव हो, समय हमेशा कुछ रचते-पढ़ते-गढ़ते निकले। शिक्षा के सरोकार और शिक्षित होने का प्रमाण यही है कि अपनी क्षमतानुसार आप मानव जीवन की बेहतरी के लिये जितना कर सके, ज़रूर करें। उन को देखकर दावे के साथ कह सकता हूँ कि जीवन के प्रति न्याय करने का माद्दा हो तो फिर कुछ भी असंभव नहीं। कम से कम उनके लिये तो हरगिज़ ही नहीं। जीवनानुशासन का जैसा अनुभव उन्होंने किया है, उसका अंश-मात्र भी मैं कर सकूँ, तो यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।

साल 2020 का अधिकांश समय कोरोना महामारी के डर के साये में, ताले में बीता। लॉकडाउन ने जहाँ कुछ परेशानी ज़रूर पैदा की लेकिन आचार्य जी ने इस समय में भी लेखन-संपादन का अपना कार्य जारी रखा। अब जबकि हम मार्च 2020 के आख़िर से शुरू हुए लॉकडाउन के प्रभाव को जानने-समझने में लगे हैं, वे अपनी वर्तमान परियोजना अहिंसा-शान्ति ग्रंथमाला के तहत लगभग दस संपादित-अनुवादित पुस्तकें तैयार कर चुके हैं। नियमित लेखन, मनन-चिन्तन और आने वाले समय की योजनाएँ तो वैसे भी उनके रोज़मर्रा का काम है। ऐसा समर्पण किसी भी क्षेत्र में हो तो वहाँ के शिखर तक पहुँचने का सफ़र मुश्किल हो ही नहीं सकता।

(सन्दर्भ: हिंदी के लिये वर्ष 2019 का केंद्रीय ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ नन्दकिशोर आचार्य को उनके कविता संग्रह ‘छीलते हुए अपने को’ के लिये घोषित हुआ है। यह कविता संग्रह 2013 में वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर से प्रकाशित हुआ था।)

~ चंद्रकुमार

१) कुछ भी तो नहीं
 
 
 
कुछ भी तो नहीं ठीक-से हुआ
न बचपना, न समझदारी
न दोस्ती, न दुश्मनी
न प्रेम, न परिवार
न तन्दुरुस्ती, न बीमारी
न हँसना, न रोना
न नींद, न जागना
न रेंगना, न तन कर खड़े रह पाना
— कविता भी नहीं
 
 
 
न कामदी हुआ, न त्रासदी
ठीक-से जीवन 
इस लिये डरता हूँ
ठीक-से मरूँगा तो न?
 
 
 
२) एक दुनिया है
 
 
 
एक दुनिया है
जिस ने बनाया है मुझे
एक दुनिया है
जो मैं ने बनायी है।
 
 
 
किस काम की है दुनिया—
जिस ने बनाया है उसे
उस की नहीं हुई वह!
 
 
 
कितना बेमानी हूँ
              मैं भी
जिस ने यह दुनिया बनायी
पर जो
अपनी दुनिया का नहीं हुआ!
 
 
 
३) जो गुम है
 
 
इतनी आवाज़ों के बीच
सुन लेता हूँ आवाज़ 
वह
जो गुम है
सुरों में मेरे
गाती हुई खुद को
मैं खुद नि:स्वर हूँ गो
 
 
 
४) क्या करे कवि
 
 
 
इस तरह बदलता है
दुख
ताक़त में
कविता हो कर
 
 
 
क्या करे कवि अब —
ताक़त जितनी जुटायेगा
दुख उतना उठायेग

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