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कविता दुःखों के साथ कि गयी सबसे बड़ी नाइंसाफ़ी है: रवित यादव

दिल्ली विश्वविद्यालय के लॉ फ़ैकल्टी के छात्र रवित यादव की कुछ नई कविताएँ पढ़िए। गद्य-पद्य कविता में कुछ नए प्रयोग हैं-
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1-कविता, दुःखों के साथ कि गयी सबसे बड़ी नाइंसाफ़ी है।
……….……..
 
कोई ऐसी कविता ढूँढ रहा हूँ जो यह बता सके कि कौन से दुःखों को काग़ज पर लिखना है और कौन से दुःखों को सिर्फ महसूस करना है? दिल से गुजरते हुए मस्तिष्क तक पहुँच जाने वाले इन अवसादों को एक अच्छी कविता बना देने के लालच में, मैं हर बार इन्हें यहाँ इस तरह पन्ने पर उतारने लगता हूँ। सवाल यह है कि कहीं कविताएँ, दुःखों की साथ कि गयी नाइंसाफी तो नही? हर कविता अपने आप में कहीं इसीलिए तो अधूरी नही रह जाती की शायद महसूस करने की भाषा अभी तक हम सही मायनों में खोज ही न पाएँ हो और हिंदी, अंग्रेजी, तथा उर्दू इत्यादि सब उसकी भरपाई के लिए बनाई गई वैकल्पिक भाषाएँ हों। ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मुझे नही मिलते कई बार शब्दकोश में वे शब्द जो कह सके चुभन की हर चिलचिलाहत, जो फोड़ सके मेरे दुःखों का मवाद और और जिन्हें लिख कर छोड़ देने मात्र भर से भर जाएँ मेरे सारे घाव।
 
महसूस होते हर एक भाव को कलम के हवाले कर देना कितना वाज़िब है? यदि इस स्याह हवालात में हवलदारों द्वारा उन दुःखों को और दुःख दिया गया तो ? कहीं पूछताछ में उनकी जान ले ली गयी तो? कहीं उनसे जबरन किसी दस्तावेज में साइन करवाके सुखों के आवरण में जमानत पर छोड़ दिया गया तो? सुनवाई करने वालों ने पैसे लेकर कहीं उनको लंबी सश्रम सजा सुना दी तो? मैं नही चाहता कि मेरे दुःखो को किसी अखबार में पैंतीस पैंतीस साल बाद निर्दोष बताकर छापा जाए और किसी के पास उनके खोये हुए वक्त को लौटाने के लिए सहानुभति के सिवाय कुछ न हो।
 
इस तरह अंतहीन सवालों की एक फेहरिश्त है मेरे पास, पर जवाबों की तलाश नही है। लगता है शायद “कविता, दुःखों के साथ की गई सबसे बड़ी नाइंसाफ़ी ही है।”
 
2- माँ के लिए
 
हम तलाश रहे है
प्रेम
सिर्फ प्रेमिकाओं की आँखों मे
 
 
 
मुड़कर देख क्यों नही लेते
एक बार
अपनी माँ की आँखे।
 
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माँ का हाथ
इस्त्री की तरह होता है
माथे पे आयी सिकनों को
वह हाथ फेर के मिटा देती है।
 
——–
 
 
 
3- पायल के बहाने से
 
मैं उससे बात करने के बहाने ढूंढता हूँ। कभी किसी पुरानी अंडर रेटेड मूवी के शिल्प के बहाने तो कभी नुसरत साब के गानों की सरगम, धुनों और मुर्खियों के सहारे। ये फिल्में और ये गाने ना होते तो शायद मैं और वो भी ना होते। किसी गाने की कोई एक पसंदीदा लाइन और बस शुरू हो जाते हम। लिखने वाले के दिमाग मे झांकने लगते। क्योंकि हम में से कोई संगीत नही जानता तो गाने लिखने में मुश्किलात आती। वो कहती कि एक काम करो धुन किसी भी गाने की उठा लो और लिरिक्स बदलकर बना लेते है कुछ। फिर जब लिख जाएगा तो बदल देंगे धुन भी। लहलहा के हँसते फिर दोनों और एकदम से चुपचाप।
 
 
क्या तुम पायल पहनती हो?
 
कभी पहनती थी। अब नही।
अब तो वो काला धागा पहनते है ना।
वो भी नही पहनती।
 
क्यों पूँछ रहे हो?
ऐसे ही।
अरे!!
ऐसे ही थोड़ा और जान लेना चाह रहा था।
जान लिए?
हाँ।
 
हाहाहा!!! सिली।
तुमने एक डायरी ली थी ना?
हाँ।
किधर गयी। क्या किया? कुछ लिखा।
पता नही। पड़ी है दराज़ में। कैसे लिखता? बात की तुमने?
ओफ्फो!!
हम्म। क्या है?
कुछ नही।
आज लिख लेना इतनी बात की है।
देखता हूँ।
हम ऐसे कब तक रहेंगे?
जब तक ये डायरी है।
और कब तक है ये डायरी?
जब तक तुम्हारी ये बातें है।
बातें खत्म हो गयी तो?
पता नही…
मैं तुम्हारे लिए पता है क्या हूँ?
नही मालूम। बोलो।
 
ख़त हूँ।
ख़त? कैसे?
घर न पहुँचे
राह में भटके
परदेस से भेजे खत। कुछ इस तरह के।
 
मैं दुनिया के इस छोर से भेज तो दिया गया हूँ लेकिन मुझे डाकियों पर भरोसा नही की तुम्हारे पते पर मुझको फेंक पाएंगे कि नही।
 
फ़िल्मी बातें करते रहते हो। पूरे वक्त।
 
तुम्हारे साथ होना फ़िल्म में होना ही है वरना
कौन सुनता है अब ठहर के…
आंखों में कडों देखते रहने देता है…
हाथ पकड़ के घण्टों बैठे रहना और कुछ कहने की जरूरत ही न होना….
बोलने के लिए कुछ न भी हो तब भी सुनने के लिए बेकरार रहन…
कभी बोर न होना…
खाना बनाके लाऊँ तो कितना भी बुरा हो तो कहोगी नही…
खा लोगी चुपचाप… फिर एक दिन बहाने से कह भी देना की सुनो नमक थोड़ा बचा के… और फिर गाल खींचके फ़ुर्र।।
 
चुप अब।
 
ओके।
 
अच्छा लास्ट।
 
बोलो।
 
ये ख़त (मैं) शायद तुम तक कभी न पहुँच पाए, लेकिन मैं चाहूँगा एक बार तुमको मिल सकूँ पड़ा मैं किसी दरवाजे के नीचे, और तुम उठाओ उसे अपने कमरे में लाओ और उधेड़ दो बारीकी से मेरा सिरा और पढ़ कर सहेज लो मुझे अपने अंदर और फिर दराज़ में इस उम्मीद से की कभी इसमें लिखे का जवाब भेज दोगी तुम मुझे।
 
4– आँखो के अन्वेषण
 
और फिर एक दिन मैं उसकी आँखों मे उतर ही गया। मैंने जैसे ही अपना पहला कदम उसकी आँखों के अंदर उतरते हुए रखा, मैंने देखा उसके सपनों को चुपचाप वहाँ सोते हुए। पास उन सपनों के उसकी कुछ उदासियाँ भी थी जो अभी अभी जागकर उबासियाँ ले रही थी। मैंने शोर न करते हुए चुपचाप उन्हें देखता हूँ और आगे बढ़ जाता हूँ। आगर बढ़कर मैं ढूंढने लगा उसके आँसुओं का वो स्त्रोत जहाँ से अक्सर किसी गमगीन रात में कुछ बह आया करता था। बाहरी दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग से भूमिगत जल के सारे स्त्रोत ख़त्म होते जा रहे है लेकिन आँख की आंतरिकता में आँसुओं की का यह छोटा सा जमाव रिश्तों के बीच बढ़ते ताप से भी नही सूखता। इसमें हमेशा रह जाता कुछ न कुछ बाहर आ जाने के लिए। इस खारे पानी में मैं देख रहा हूँ हमारी “इच्छाओं” की छोटी छोटी मछलियों का “सिचुएशन्स” की बड़ी बड़ी मछलियों द्वारा शिकार होते हुए, हमारे अरमानों के यकृत पर इसी पानी पर जन्मे अमीबा को घाव करते हुए। इन आँखों में उतरते वक्त मुझे तलहटी की गहराई का अंदाज़ा तो ना था लेकिन अब जब मैं देख पा रहा तो महसूस कर रहा हूँ कि एहसासों का एक पूरा जीवमंडल यहाँ इस तलहटी पर अपना भरण-पोषण कर रहा है।
इस अन्वेषण में मेरी कोशिश थी कुछ ऐसा ढूंढ लेने की जो इस स्त्रोत को सूखा दे मगर अब मैं चाहकर भी इसे सूखने नही देना चाहता। गमों को ख़त्म करने के लिए आँसुओं को सुखाना वाज़िब नही। आँसू आत्मा के बाद जीने के लिए दूसरी सबसे ज़रूरी चीज़ हैं।
आज बारिश भी हो रही है मैं कोशिश करूँगा इस पानी के ऐसे प्रबंधन की जिससे उसे संचयित किया जा सके उसकी आँखो में।
 
अब अगर कोई देखना चाहे अगर इन आँखों को तो उसके लिए-
 
 
“बाहर से देखने मे उसकी आँखें ऐसी हैं जैसे गुलमर्ग के ठिठुरते मौसम में कोई बूढ़ी अम्मा अपनी एकलौती नातिन के लिए अपने कपकपाते हाथों में सिलाई लिए स्वेटर बुन रही हो और इसी सिलसिले में उसने काढ़ दिया हो अपना सारा अनुभव किसी क्रोशिए में।”
 
5- घर से लौटते हुए बस का एक सफर
 
घर मे आख़िरी रात। समान लगाने की प्रक्रिया में भावनाओं को रोकना एक मुश्किल काम है। भावनाएँ जो इतने दिन दिल्ली में रहने से कोमा में चली जाती है, उन्हें घर आकर फिर से हिलने डुलने की उम्मीद मिलती है। यहाँ सब एक दूसरे के लिए जीते हैं। अपना अपना राग नही किसी का। एक कि समस्या सब की सी होती है। मैं खुद को मिल रहे इतने प्रेम को समेटने की कोशिश नही नही कर रहा हूँ। कपड़ों की सारी सिलवटें माँ के हाथ की गर्मी खत्म कर देती है। पापा अपनी आदतों से इस कदर मजबूर है कि आज भी जल्दी सो गए है। खैर, सूटकेस कल के लिए तैयार है। आखिरी शर्ट रखने के साथ ही वो उमस, वो नमी , वो प्यार सब सूटकेस में कैद हो जाता है।
 
बाहर के कमरे से आवाज़ आती है, “अलार्म लगा लेना वार्ना कल भी नही निकल पाओगे।” मैं दो तीन से रोज यही कर रहा हूँ, कह देता हूँ कि कल जाऊँगा और सोता रहता हूँ सुबह तक। इस बार भी हर बार की तरह दिल्ली लौटने में दिलचस्पी नही है। वहां के लोग अपने नही हैं। कुछ हैं लेकिन यहाँ उनका जिक्र जरूरी नही।
 
अलार्म बजता है, मम्मी चाय बनाने लगती है, मैं तैयार होता हूँ, पापा टहलने निकल गए हैं। पता नही आखिरी वक्त गुजारना नही चाहते या अपने रूटीन को लेके थोड़े अधिक ही रूढ़िवादी है। ठीक उसी तरह जैसे गांधी सत्य के प्रति थे। बुंदेलखंड के पिताओं का कुछ यूं ही हाल है। अफसर बन जातें है पर रहते ठेठ है।
 
चलने का वक्त है। माँ पहले आगे के गेट से आंखों से जब तक ओझल न हो जाऊं, तब तक देखती है और फिर एक आख़िरी बार पीछे के दरवाजे से। अव मैं ओझल हूँ। माँ कहती है कि पीछे मुड़के देखने से आदमी पत्थर का हो जाता है तो मैं आगे बढ़ता रहता हूँ।
 
आगरा-दिल्ली-नोएडा
आगरा-दिल्ली-नोएडा
आगरा-दिल्ली-नोएडा
के शोर से पूरा बस अड्डा सराबोर है।
 
कहाँ जा रही है बस?
आपको कहाँ जाना है?
गोल्फ कोर्स।
जायेगी साहब आइये बैठिये। पीछे निकल जाइये पूरी खाली है।
 
मध्यमवर्गीय चेहरों के बीच “एक्सक्यूज़ मी” जैसा शब्द सारा ध्यान मेरी ओर केंद्रित कर देता है। हालांकि यह बात अलग है कि इस शब्द को सीखने के पीछे एक विशुद्ध मध्यमवर्गीय कहानी है। उसका जिक्र फिर कभी।
 
इस वर्ग के लोग लगभग समान तरह का आर्थिक व सामाजिक ताना बाना बुनते है। और कोई किसी पर बस इसी बात की धौंस दिखता है की परिवार का एक सदस्य सरकारी नौकरी पर है। 800 की शर्ट पहनने वाला 600 की शर्ट पहनने वाले को कीड़ा समझता है। अंतर बस 200 रुपया का है लेकिन खाइयाँ पैदा करता है।
 
दो बार सीट बदलकर देख ली और बैठ गया कि पीछे से आवाज़ आयी – ” 270 रुपये भैया। गोल्फ कोर्स जाओगे ना?” कंडक्टर पूछता है।
 
कंडक्टर को देखता हूँ तो तो कहीं सुना या पढ़ा शेर याद आ जाता है कि -” कंडक्टर की ज़िंदगी भी अजब है, रोज का सफर है और जाना भी कहीं नहीं।”
 
“दो वाली सीट पर बैठो न पता नही कैसी सवारी बैठ जाएगी।” एक महिला अपने पति से कहती है।
 
भाईसाहब आप बगल की सीट पर बैठ जाओ साथ में लेडीज है। किसी भी सरकारी बस में बैठे आप तो यह सुनना आम बात है। उत्तम प्रदेश की कुछ निशानियों में से है ये।
 
 
पलायन के इस दौर में जब हम सब रोजगार की तलाश में महानगरों के लिए अग्रसर है ये कुछ ऐसी चीज़ें है जिनकी कमी कभी कभी महसूस होती है।
 
आगरा से बाहर नोएडा दिल्ली एक्सप्रेसवे है। प्रतिदिन इस रास्ते मे मारने वालों की संख्या 10 है। कारण कई हो सकते है पर कोई सरकारी उपाय नजर नही आता। नजर आते है तो टोल टैक्स और उनके चारों तरफ होटल और ढाबे और जनसुविधा केंद्र जहां पर सरकारी बसें कभी रुक पाए। क्योंकि बस में सवार व्यक्ति पेशाब करने के लिए 5 रुपये नही देना चाहता।देश को समानांतर विकास की जरूरत है।
 
महिला आरक्षित सीट पर पुरुषों को सोते हुए देखना निराशनजनक है। माननीय सांसद एवं विधयाक आरक्षित सीटे भी है जिन पर शायद कभी कोई सांसद आकर बैठे।
 
विकलांग अब दिव्यांग बन गया है।
 
6- हाथ दर हाथ किताब
 
झींगुरों के शोर के बिना वाली रातें कितनी कम होती है। ऐसा बमुश्किल ही होता है कि रातों में झींगुर चुप रहे। कैसा भी मौसम हो, कोई भी ऋतु हो, झींगुर रोज रात में शोर मचाते मिल ही जाते है। मैं रोज रात में इसी समय लिखने बैठ जाता हूँ इसलिए मुझे शायद इस शोर की आदत हो गयी है। आज इत्तेफ़ाक़न सब चुप है तो यह बात यहाँ पर ऐसे ही लिखे दे रहा हूँ। उन्हें नही पता कि कैसे बिना मिले और मुझे जाने उनकी और मेरी दोस्ती हो गयी। अब जब मेज पर लिखने बैठा करता था तो रोज इन्हें कोसता था की क्या बला है चैन से लिखने भी नही देते। आज नही है तो कमी खल रही है। जाने अनजाने ये मेरे लेखन के बैकग्राउंड म्यूजिक बन गए है। ख़ैर…..
 
मेज पर एक किताब पड़ी है। नाम है परिंदे। मेरे पास यह किताब कहाँ से आ गयी मुझे नही पता। कई सालों से धूल खा रही है तो सोचा आज पढ़ लूँ। पहले ही कोरे पन्ने पर तुम्हारा नाम लिखा है। अब मुझे याद आया कि यह किस दिन की बात है जब ये किताब और वो बीच मे सूख चुका गुलाब कैसे यहाँ मेरी मेज तक पहुँच गया था। फूल की ख़ुशबू नि:संदेह खत्म हो चुकी है लेकिन तुम्हारी याद अभी तक बरकरार है। मैं झूठ नही बोल सकता कि तुम्हारी खुशबू अभी बाकी है। याद बाकी थी तो लिख दिया।
 
मेरे मन मे बस एक सवाल आ रहा है कि तुम्हे सिर्फ मैंने एक बार ही तो बताया था कि कुछ पढ़ने का मन करे तो निर्मल वर्मा पढ़ लेना। तुम किताब ले आयी। पूरी पढ़ी और फूल रखा यह कहकर मुझे दे दी कि तुम बस रिकमेंड मत किया करो खुद भी कुछ पढ़ो। स्नातक में सब पढ़ लिया इसका मतलब यह नही की दुबारा कभी लौटोगे नही इनकी तरह। इस तरह मैंने ये किताब तुमसे ली थी।
 
आज वर्षो बाद वही से शुरू कर रहा हूँ। निर्मल वर्मा कहते है कि उदास शब्द उदासी की जगह नही ले सकता। इस किताब और तुम्हारी याद ने उदास कर दिया और मेरे पास उसे बयान करने के न तो अब शब्द बचे है ना हिम्मत। पढ़ ही पाऊँगा तो गनीमत है।
 
इस किताब के बीच मे किसी एक और युगल का नाम है। आप कुछ भी दो नाम सोच लीजिए मैं लिखूंगा नही। अक्सर दरिया गंज से खरीदी गई किताबों में आप पाएंगे इस तरह के कई नाम। न जाने कितने हाथो और आँकजो से गुजरकर यह किताब यहाँ पहुची है। कभी कभी सोचता हूँ दरियागंज जगह नही कोई कल्पना का संसार है जहाँ सिर्फ प्रेम है, साहित्य है, छुअन है, बासीपन है, और उसी से निकली ताजगी भी। मैं कभी वैसे दरियागंज गया नही लेकिन जिससे भी सुना ऐसा ही सुना।
 
फिर आते है मुद्दे पर। वो दो नाम किसके है मैं इस सोच में हूँ। किसने किसको यह किताब दी होगी। लड़की ने लड़के को या फिर लड़के ने लड़की को। यहाँ यह सवाल गैर जरूरी है वैसे। सवाल यह जरूरी है कि क्यों यह किताब उन दोनों में से किसी एक के पास नही रह पाई? किसको कौन संभाल नही पाया?
जिसने भी यह कितना दूसरे को खरीद कर दी वह इसे संभाल नही पाया। अक्सर हम ऐसे ही होते है। बेफिक्रे और लापरवाह।
 
मुझे भी कहाँ इल्म था इस किताब का। खैर अब ये सुरक्षित है। इसे पढ़कर इसे करीब ही रखूंगा। मैं नही चाहता कि यह किताब अब यहाँ से गुजरकर जब किसी के पास पहुंचे तो कोई मेरी ही तरह हम पर लापरवाह होने का इल्जाम लगाए।
 
इसी बीच झींगुर फिर से आ गए और शोर फिर से वातावरण में फैल गया। आज पढ़ ही लेता हूँ इस पुस्तक को। लिख फिर कभी लूंगा।
 
 
7- दरख़्त
 
एक दिन अचानक किसी ने पूँछा, तुम जब भी बंजर पेड़ देखते हो तो क्या सोचते हो? मैं जानना चाहती हूँ।
मैं जो हर वक्त दरख़्तों को बारिश के साथ देख-देख कर लिखता रहता हूँ, सोच में पड़ गया। किसी विषय पर लिखना मुश्किल होता है, मैं लिखता जाता हूँ फिर देखता हूँ कि विषय क्या बना है। वो बात अलग है कि हर बार विषय के बारे में मेरे विश्लेषण कच्चे-कच्चे से लगते है।
खैर, देखने लगा गली के आखिरी मकान के अंदर लगे पेड़ को। मेरी बॉल्कनी से ड्रोन व्यू आता है। मुझे दिख रही है टूटे पत्तों की जड़े। टहनियों के नुकीले नाखून। गहरी कत्थई उम्र के साथ पकी छाल। क्या ये आपस में बात करते होंगे? वैसे तो नही करते होंगे लेकिन विद्रोही टहनियाँ जरूर होंगी जो नियमों को तोड़कर जरूर ही ख़ुशफुशा रही होगी। वो किस बारे में बात कर रही होंगी? शायद उछलती इज़्ज़तों पर। या शायद देश के हालात पर? मुझे तो जामियाँ की लड़कियों जैसे लगती है जो इन कायर सरकारों के मंसूबो से हर रोज कशमकश कर रही होती है।
 
बंजर पेड़ किसी बुढ़ापे में पत्नी के गुजर जाने के बाद अकेले पड़ गए मिस्टर वर्मा की तरह होते है। पूरी ज़िंदगी परिवार के साथ ऐश से रहे। फिर अंत में अकेले। वीरान।
 
पत्तियाँ या पत्ते होते तो लगता जैसे कोई खुशनुमा परिवार है। हमें पतझड़ क्यों अच्छा लगता है? क्या हम पेड़ के उसकी पत्तियों के बिछड़न में खुश होते है? पता नही। मैं उन पत्तों की तरह बनना चाहता हूँ। जो हर स्थिति में सुंदर लगते है। चाहे हवा में हो या ज़मीन पर।
 
सोचा जाए तो एक वीरान पेड़ एक वीरान समाज का दर्पण है। जिसमें जो अपने आप को जिस तरह से देखना चाहे वैसे देख सकता है लेकिन दर्पण के पीछे कोई नही देख सकता। इस समाज के किसी भी मध्यम-वर्गीय या पूँजी-पति परिवारों के बुजुर्ग इस बंजर दरख्त की तरह है। पूरी ज़िंदगी सबको सींचा , बड़ा किया और जब वक्त आया तो अकेले हो गए।
 
 
मैं देखते-देखते उस मिट्टी के बारे में सोच रहा हूँ जो इसके साथ कब से बनी हुई है लेकिन आपस में इनकी कभी बात नही हुई। किसी ने ध्यान नही दिया। उस प्यार की तरह जो मुझे हुआ अपनी कुछ दोस्तों से लेकिन….
 
लोग मेलों में भी गुम हो कर मिलें हैं बाराहा । दास्तानों के किसी दिलचस्प से एक मोड़ पर, यूँ हमेशा के लिए जैसे कोई बिछड़ जाए वैसा है ये पेड़।
 
मुझे समझ नही आता कि क्या मुझे ये पेड़ पसंद है या नापसंद। इतना वीरान, अकेला , बंजर , सूखा होने के बाद भी कोई इतना सजीव कैसे है। शायद इसमें आसमानों के नीले-पन और रातों के साँवलापन की मिलीभगत होगी।
 
 
कुछ दिन में ये बड़ा सा पेड़ गिर जाएगा क्योंकि अब कोई पक्षी ढलते सूरज के वक्त इसके पास नही आता। न जाने कितने बे-ज़ुबानों की आवाज़ था वो , तेज हवा में पत्तों की सरसराहट के संगीत का मर्मज्ञ था वो। फिर अचानक एक दिन आयी आंधी में सब खत्म कर दिया। परिंदों के आसरे छीन लिए गए। फिर इस जगह कोई दूसरा दरख्त खड़ा नही होगा कभी।
 
इस सब के बीच अक्सर खोखले हो गए पेड़ों में रह रहे उल्लुओं को भुला दिया जाता है ठीक वैसे जैसे मुझे भूल दिया गया है।
 
 
8- इश्क़, तुम, और सरकारी बस का सफ़र
 
इश्क़ और मैं एक दूसरे से बात करते है। ये बात यूँ ही सरकारी वातानुकूलित बस में अचानक शुरू होती है।
 
पास बैठी एक महिला उदास है। उत्तर प्रदेश में अकेले सफर करती औरतें अक्सर परेशान ही दिखती है। ऊपर से साथ में बच्चा भी हो तो क्या ही मुसीबत है। अकेली परेशान औरतें कैसे छोटे से बच्चे को ढाल बनाकर अपनी मज़बूती का मजबूरन प्रयास करती है। बचपन में मेरी माँ और मैं अक्सर ऐसे ही सफर किया करते थे तो मुझे अभी ये देखकर एहसास हुआ कि मेरी माँ भी मुझसे शक्ति प्राप्त करती होंगी। उत्तर प्रदेश के पुरुष सामान्यता छेड़छाड़ नही करते दिखते। एक सभ्यता दिखती है स्त्रियों के प्रति। या यूं कहें तो सहानुभूति की अरे-अरे बेचारी पति के बिना अकेले सफर कर रही है। माहौल में अजीब सा डर है लेकिन दिख नही रहा है। ये डर सिर्फ उस महिला की आंखों में है। लगातार बस के सामने के शीशे की ओर आँखें, उन आंखों में बस पहचानी हुई सड़कों के दिखने का इंतेज़ार है। सफर किसी के लिए मुसीबत हो सकता है समझ आ रहा है। ये कोई ऐसे मुसीबत नही है कि किसी औरत के पीछे कोई मर्द पड़ा है या कोई शराबी बगल की सीट पर बैठ गया है। ये मुसीबत मानसिक है। इस को ऐसे समझने की कोशिश करते है कि हर बार जब बस रुकती है तो महिला आंख बंद करके लेट जाती है कि कोई बगल वाली सीट पर उल्टा-सीधा कोई बैठ ना जाए। फिर जैसे ही कोई महिला दिखी तो झट से उसे बैठा लिया। समझे ना? काश भले आदमियों को या औरतों को उनके कपड़े से पहचाना जा सकता जैसे कि मोदी भटके हुए छात्रों को पहचान लेते है।
 
 
 
पहले तो प्रदेश में रोजगार नही है और जो है वह बद से बदतर।
 
कल दिल्ली से आते हुए परिचालक ने सवारी नही होने की वजह से झूठ बोलकर कुछ सवारियों को बैठा लिया। झूठ ये था कि सवारी को कानपुर जाना था और एक्सप्रेस-वे से जाने वाली गाड़ियाँ प्रायः आगरा के अंदर नही जाती। ताज महल देखने वाले जाम लगा के रखते है शायद। कुल मिलाकर 1 घंटे बर्बाद होते है। लेकिन इस गाड़ी को शहर के अंदर जाना था और इस बीच एक उग्र सवारी ने तमाचा जड़ दिया परिचालक को। सरकारी आदेश के अनुसार परिचालक ये सुनिश्चित करेगा कि बस में सारी सीट भर जाए तो इस दबाव में झूठ बोल गया लेकिन झापड़ के बाद परिचालक के मुख की बेबसी तोड़ने वाली थी। बाद में बात करते हुए बोलता है कि बीवी बच्चों को पालना ना होता तो कब का ये नौकरी छोड़ देता। रोज की किच-किच। रोजगार इंसान के जीवन को सरल बनाने के लिए होते है लेकिन कागजों में चलती सरकारों ने पूरा जीवन ही लकवा ग्रस्त कर रखा है।
 
अक्सर जब अखबार पढ़ता हूँ तो देखता हूँ कि लिखा होता है देश में प्रति व्यक्ति आय में कमी आ रही है। आज इस वातानुकूलित बस में सिर्फ 5 लोग है। अखबार में लिखे ऐसे शब्दों से साक्षात्कार हो रहा है। स्थिति भयावह है। इतनी भयावह की इश्क़ पर लिखने से शुरुआत करने के बावजूद देखिए क्या लिख रहा हूँ।
 
9- मध्यमवर्गीय सुबह
 
रात के सपने सुबह उठने के बाद भी दिमाग मे ताज़ा है। एक डर है। तनाव भी कह सकते है। गैस पर चढ़े कुकर की सीटियां हल्के स्वर में बज रही है। रोटी बेलते हाथ की चूड़ियां खनक रही है। फिर एक घुप्प खामोशी और फिर हल्के हल्के से शोर। बरामदे के नल से टपकता पानी, सुबह की ठंडी हवाएं, पकता खाना सब एहसास दिल रहा है कि सुबह हो गयी है। मैं बिस्तर पर हूँ। लिख रहा हूँ सुबह उठते ही। सोचा कैसा होगा आँखें खोलते ही लिखना शुरू कर देना।
 
पिछले 26 साल से जब भी घर पर होता हूँ कुछ इस तरह ही सुबह होती है। मम्मी अक्सर शिकायत करती है कि अब पहले की तरह तुम मेरे साथ लाड़ नही करते। पापा का बस चले तो सुबह से उत्तर प्रदेश में निकलती हर भर्ती का फार्म भरवा दें। शिकायत नही है पापा से, बस बता रहा हूँ। फिर खाना बनाती माँ के पास चुपचाप खड़ा हो जाता हूँ। धीरे धीरे बात करने लगती है। कभी प्याज़ काट दो उनके लिए तो कहेगी की अब समझ आया कितना मुश्किल है खाना बनाना। कहती है कि अब थक गई हूँ। रोज रोज यही सब करके। कुछ करने लगना तो अपने साथ रख लेना। मैं भी हर बार सहमति में स्वर भर देता हूँ। दिल्ली में रहते हुए रिश्तों की इन बारीकियों से थोड़ा बेखबर हो गया हूँ। अपने लिए जीने में इतना व्यस्त था कि ध्यान ही नही गया इस तरफ। फिर सोचता हूँ कि उम्र ही कुछ ऐसी है। अक्सर 26 की उम्र में उदाशीनता आ जाती है। मैं हर चीज़ के लिए उदाशीन हूँ। घर पर हूँ पर ज्यादा बोल नही पा रहा हूँ। समझ रहे है ना आप।
 
फिर उधर से आवाज़ आती है “चाय पिओगे ना? अभी नाश्ता नही बनाया है। ले आऊँ?”
 
मैं सिर्फ चाय नही पी पाता हूँ। मम्मी समझती है तो होली में बनी मटरी ले आती है।
 
सरकारी घर के एक कमरे में मैं और मेरी माँ आपस मे चाय के साथ बातें करना शुरू करते है। मैं लिखना जारी रखता हूँ तो पूछती है सुबह सुबह किस्से बातें करने लगते हो। मैं उनका संदेह खत्म नही करता हूँ। न ही बताता हूँ की लिख रहा हूँ। फिर वो ज्यादा नहीं पूँछती।
 
बाहर आंगन में माँ ने गुलाबों की एक नस्ल तैयार कर रखी है। कहती है शादी नही हुई होती तो बोटानिस्ट होती। जहां मैं रहता हूँ वहाँ दूर दूर तक बस हरियाली और जंगल है। सुबह से हवा चलने का क्रम शुरू होता है, गुलाब और चमेली की भीनी खुशबू मन मे सराबोर हो जाती है। सारे पेड़ हिल रहे है। कुछ देर में मधुमक्खियां भी आ जाएगी गुलाबों पर। सारा रस निकाल ले जाती है। एक गुलाब बस एक दिन ही खिल पाता है। सरकारी नीतियों के तरह है ये मधुमक्खियां बस चले तो बस अपनी शहद के लिए सारा बाग उजाड़ दे।
 
लगभग 100 एकड़ में ये सारे सरकारी आवास है। छोटे बड़े हर तरह के। पिता जी थोड़ा बड़ी पोस्ट में है तो गनीमत है वरना एक कमरे के मकान में 5 जिंदगी एक साथ गुजरतें हुए भी देखा है मैंने। मुझे ऐसा समाजवाद चाहिए जहां ये भेद न हो। सामने वाले बाबू जी का लड़का मुझसे उम्र में बड़ा है और बातचीत करने में अपने जैसा ही लगता है लेकिन झिझकता है मुझसे। शायद ये मेरे घर मे कमरे ज्यादा होने का नतीजा है। खैर हम भी यही से होकर गुज़रे है तो सरकारों का पैदा किये हुआ हीन भावना के इस खेल से वाकिफ हूँ।
 
पापा ऑफिस जाते समय टेबल पर पड़े सिक्के इकट्ठा कर रहे थे तो मम्मी बोली-” गड्डियों की गड्डियां परिवार पर बर्बाद कर दीं और अब चिल्लर समेट रहे हो।” पापा हँस देते है। और मैं हू ब हू लिख देता हूँ।
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4 comments

  1. Can you be more specific about the content of your article? After reading it, I still have some doubts. Hope you can help me.

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