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जन्मदिन पर पत्नी के नाम ख़त

जनाब सुहैब अहमद फ़ारूक़ी पुलिस अधिकारी हैं लेकिन हम उनको शायर के रूप में जानते हैं। उनकी बेगम आशकारा खानम कश्फ़ भी ज़हीन शायरा हैं। यह ख़त पढ़िए शायर पति ने अपनी शायर बेगम के नाम उनके जन्मदिन पर लिखा है-

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अस्वीकरण: यह स्वीकारोक्ति एक परिपक्व उम्र के पति की है। कृपया इसे व्यक्तिगत न लें।]

 

ऐतिराफ़: जन्मदिन पर पत्नी के नाम ख़त

 

चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम_दोनों…

 

साहिर लुधियानवी साहब के मशहूर नग़मे के सिर्फ़ मुखड़े से ही मेरी मुराद है बस। बाक़ी गीत मेरे मतलब का नहीं क्योंकि आगे उसमें छोड़ने और तोड़ने की ख़लिश वाली बाते हैं जोकि मौज़ूअ की नाज़ुकी के लिए क़तई दुरुस्त नहीं है।

 

मैं साहिर साहब के गीत के मुखड़े का सहारा लेकर कश्फ़ साहिबा तुम से इसलिए अजनबी होना चाहता हूँ कि अपनी सब कमियाँ दुरुस्त कर सकूँ। अपनी कोताहियां जो तुम्हारे तईं की हैं, को दूर कर सकूँ। तुम मुझ से शुरू दिन से ही ठहराव वाली ज़मीनी सिफ़त वाली मुहब्बत करती रहीं और साथ में चाहती थीं कि मैं भी सिर्फ़ तुमसे ही मुहब्बत करूँ मगर मैं मर्द ठहरा। बादल की मर्दाना  फ़ितरत की तरह मर्ज़ी के मुताबिक़ बरसता था। तुम्हारा वाला आदर्शवादी प्रेम मुझे फिल्मी लव की तरह एक चौंचला लगता था। फिर सबके सामने इसका इक़रार और इज़हार मेरे मर्दाना वक़ार के आड़े आ जाता था। हर मौके पर जब जब तुमने चाहा  मैं इज़हारो इक़रार को किसी न किसी बहाने टालता रहता। नौकरी की मसरूफियत का बहाना बहुत काम आया। हालांकि फ़राज़ साहब के शे’र के ज़रिए मैंने कई बार तुम्हें बताने की कोशिश की थी:-

 

ज़िंदगी से यही गिला है मुझे

तू बहुत देर से मिला है  मुझे

 

मरदानगी ईगो और ताक़त क्यों आख़िर औरत की अज़मत और शख़्सियत को उसकी जिस्मानी बनावट और बुनावट के आगे देखना नहीं चाहती? हमारे हर तरह के अप एन्ड डाउन में ‘अप’ मैं क्लेम करता रहा जबकि हर ‘डाउन’ में तुम साथ साथ उस ‘डाउन’ को बराबर ‘अप’ करने तक साथ रहती रहीं। कभी एहसास होता था तो  जिस्म की तवानाई मेरे मर्द को फिर ज़िंदा कर देती थी और मैं फिर तगड़ा हो जाता था। आज से चार साल क़ब्ल यह शेर कहा था:-

 

इक मैं जो सिर्फ़ जिस्म से आगे न बढ़ सका

इक  वो  जो  मेरी  रूह के अंदर  उतर  गई

 

शायद यह एतराफ़ था मर्द और उसकी मर्दानगी के टूटने का। रिश्ता जिस्म की जाज़बियत से आगे बढ़कर सोच की शिद्दत तक पहुंच रहा था। मर्द हार रहा था मगर ‘साथ’ जीत चुका था। तब इस हार-जीत पर एक  ग़ज़ल हुई थी जिसके ज़रिए मैंने आपके साथ को याद  किया था। उस ग़ज़ल का जिसका मक़्ता यह था:-

 

तिरा जाँ निसार था और हूँ उसी तरह हूँ उसी तौर हूँ

मैं सुहैब  शाइर-ए-दीदावर  तुझे याद हो कि न याद हो।

 

ख़ैर,

आज तुम्हारे ‘बड्डे’ पर साहिर साहब के मुखड़े  के ज़रिए, हमारी फ़ॉरएवर रिलेशनशिप के इस बीस साल प्लस मुक़ाम पर फिर से एक बार अजनबी बनकर मैं सिर्फ़ यह चाहता हूँ कि

 

मैं तुम्हारी एकतरफ़ा करम फ़रमाइयों का बदल दे सकूँ।

 

मरदानगी ताक़त का ख़ोल उतारकर बाहमी मुहब्बत को महसूस करा सकूँ।

 

प्लेटोनिक मुहब्बत, तुम जो मुझ से करती रहीं। वो तुम्हारे स्टाइल वाला आदर्श फ़िल्मी प्रेम करके सरे आम उसका इज़हार करने की हिम्मत जुटा सकूं।

 

और….. और अपनी ये ताज़ा चार लाइनें बतौर बड्डे गिफ़्ट आपके हुज़ूर में पेश कर सकूँ।

 

आइने देखकर तुझको जल जाएँगे

गर्मी ए  शौक़  से सब पिघल जाएँगे

भूलकर जिसने तुझ से मिला ली नज़र

उसकी आँखों के मौसम बदल जाएँगे

 

آئینے دیکھ کر تجھ کو جل جائیں گے

گرمیٔ شوق سے سب پگھل جائیں گے

بھول کر جس نے تجھ سے مِلا لی نظر

اُس کی آنکھوں کے موسم بدل جائیں گے

शब्दार्थ:

ऐतिराफ़=confession

ख़लिश=unease, चुभन

मौज़ूअ=topic

कोताही=indolence

तईं=for, towards

ज़मीनी सिफ़त= bearing qualities of Earth

फ़ितरत=nature

इक़रार व इज़हार=Confession and expression

वक़ार=prestige

मसरूफियत=being busy

गिला=complaint

अज़मत=greatness

बनावट और बुनावट=structure and texture

तवानाई=energy

क़ब्ल=before

जाज़बियत= attractiveness

शिद्दत= intensity

मक़्ता=The last verse of the ghazal, in which the poet uses his penname.

मुक़ाम=stage

करम फर्माइयाँ= generosity

बाहमी=mutual

गर्मी ए शौक़=Warmth of enthusiasm

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