वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया की किताब ‘जीते जी इलाहाबाद’ पर यह सुंदर टिप्पणी लिखी है आलोक कुमार मिश्रा ने। आप भी पढ़िए और ममता जी को जन्मदिन की शुभकामनाएँ दीजिए-
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‘इलाहाबाद मेरे लिए यूटोपिया में तब्दील होता जा रहा है। वह गड्ढों-दुचकों भरा ढचर-ढूँ शहर जहाँ ढंग की कोई जीविका तक नहीं जुटा पाए हम, आज मुझे अपने स्पर्श, रूप, रस, गंध और स्वाद में सराबोर कर रहा है।’ (पृ 82)
‘जीते जी इलाहाबाद’ की ये पंक्तियाँ पढ़ते हुए न जाने क्यों मुझे लेखिका ममता कालिया की वे पनीली आँखें दिखने लगती हैं जिनमें इलाहाबाद के संगम की तरह ही अतीत की कितनी ही धाराओं का बहाव दर्ज़ है। ये सब पढ़ते हुए पीछे छूट गया अपना गाँव भी इस दिल्ली जैसे महानगर में बार-बार नमूदार हुआ जाता है। हर बार लगता है कि ज़रूरी नहीं जो पीछे छूट गया हो वह हमसे दूर ही हो गया हो। उल्टे हो सकता है कि वह और मज़बूती से हमारे दिलो-दिमाग में अपनी जगह बना रहा हो। आख़िर स्मृतियाँ कब अलग हो पाती हैं वर्तमान से?
लेखिका ममता कालिया से वैसे तो इलाहाबाद 2003 में ही छूट गया। इस बीच जीवनसाथी रवीन्द्र कालिया भी नहीं रहे, जिनके बगैर उनकी स्मृतियों का कोई कोना पूरा नहीं होता। पर छूट गये और छोड़ गये की जो सशक्त उपस्थिति ममता जी के जीवन और लेखन में है वह अपनी भीनी सुगंध से हम पाठकों को हर बार सराबोर करती है। यह पुस्तक- ‘जीते जी इलाहाबाद’ तो है ही पूरी इत्र की शीशी, जिसे अब गाजियाबाद में रह रही लेखिका ने ‘अपने’ इलाहाबाद के रस से तैयार किया है।
पाठक के तौर पर जैसे-जैसे इस किताब से हर्फ़ दर हर्फ़ गुजरता हूँ चारों ओर से आकर एक इलाहाबाद मुझे अपनी गिरफ़्त में लेता जाता है। मैं कभी इलाहाबाद में रहा नहीं हूँ। हाँ एक बार किसी प्रतियोगी परीक्षा के लिए गया ज़रूर था वहाँ। दिमाग में उसी की उधेड़बुन थी। फिर भी संगम तक अकेले ही तफरी कर आया था। बहुत अच्छा लगा था। लेकिन ऐसे आने-जाने को वहाँ रहना तो नहीं कह सकते न? पर बिना वहाँ रहे भी इस इलाहाबाद से किसे न प्यार हो जाए जो लेखिका की तरह न जाने कितनों के अस्तित्व में शामिल होकर देश-दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में धड़क रहा है, स्मृतियों में महक रहा है, कागज़ पर अक्षर-अकर खिल उठता है, पढ़ते हुए अक्सर पास में किसी बड़े-बूढ़े की तरह आकर बैठ जाता है।
इलाहाबाद, मुंबई की तरह सपनों का शहर नहीं है, पर अपनों का शहर ज़रूर है। लेखिका ममता कालिया अपने जीवन और स्मृति में शामिल ऐसी कितनी ही जगहों, लोगों और रिश्तों को किताब के पन्नों पर उकेरती चलती हैं जिनसे इलाहाबाद बना है, इलाहाबादी बने हैं। स्मृतियों में उभरता, उतरता एक हक़ीक़त है इलाहाबाद और उस हक़ीक़त की बहुरंगी तस्वीर है ‘जीते जी इलाहाबाद।’
किताब में इलाहाबाद की थाती रहे लोकभारती प्रकाशन, नीलाभ प्रकाशन, लोकमित्र प्रकाशन, मसिकागद प्रकाशन जैसे कई प्रकाशकीय अड्डों की चुहलबाजी है जो साहित्य और विमर्श के प्रकाश सोतों की तरह शहर को जागृत किये रहती है; तो भैरव प्रसाद गुप्त, अमरकांत, शैलेश, शिवकुमार, शेखर जोशी, शमसुर्रहमान फारूख़ी जैसे अनेक साहित्यकारों के रचना संसार और उससे जुड़ी रचना प्रक्रिया का भी दिलकश वर्णन है जिन पर कोई भी शहर नाज़ कर सकता है। लेखिका ने विजयदेव नारायण साही, उपेन्द्रनाथ अश्क, प्रोफेसर दूधनाथ, प्रसून जैसे साहित्यकारों की मानव सुलभ कमज़ोरियों को भी इस तरीके से परोसा है कि पढ़कर शिकवा या शिकन से ज़्यादा समझदारी बढ़ती है और कभी-कभी गुदगुदी सी होती है। यदि इसे वे सब भी पढ़ते तो शायद मुस्कुरा ही देते। लेखिका ने स्मृतियों की खिड़की से कृष्णा सोबती जी का उनके इलाहाबाद के घर आगमन का जो किस्सा सुनाया है वो बार-बार पढ़ने का मन करता है। अपनी सास जिन्हें वह चाईजी कहती हैं, उनकी और कृष्णा जी के बीच हुई नोक-झोंक को वह ख़ूबसूरत अंदाज में याद करते हुए लिखती हैं कि, ‘दिसम्बर के ठिठुरते दिनों में चाई जी और कृष्णा जी, दो कद्दावरों की गरमागरम मुठभेड़ की हमें कोई भनक भी न लगी। अहसास, दोनों को हुआ, पर कृष्णा जी के ग्रेस और चाईजी के गुरूर के चलते हमें पता बाद में चला।’ (पृ 190) पहली बार कुछ पढ़ते हुए किसी के व्यक्तित्व के लिए कहे गये रौब, दबदबे, गुरूर जैसे शब्द इतने मनभावन लगे कि इन शब्दों से चिपकी नकारात्मकता की धूल उड़ सी गई।
लेखिका ममता कालिया अपने अस्तित्व और स्मृतियों से चिपके जिस शहर इलाहाबाद का ब्यौरा इस पुस्तक में दे रही हैं उसमें उसके संस्मरण की दास्तान के साथ भूगोल, इतिहास, संस्कृति, बाज़ार, लोकजीवन सब गुंथे हुए साथ चले आये हैं। चौक इलाका, रानी मंडी, मेहदौरी, सिविल लाइन्स चौराहा, कुंभ मेला स्थल, अतरसुइया, अहियापुर और न जाने कितनी बस्तियाँ और जगह जिंदगी के रस से सराबोर हो टपक पड़े हैं इस लिखे में। लेकिन कोई इस भ्रम में न रहे कि वह इलाहाबाद के प्रेम में हैं तो उसकी सीमाएँ नहीं टटोलेंगी। उनकी ये पंक्तियाँ ही देखिए-
‘रोज़गार की दृष्टि से इलाहाबाद एक लद्धड़ शहर है। सत्तर के दशक में जब हम यहाँ पहुँचे केवल तीन स्तर के रोज़गार उपलब्ध थे। एक विश्वविद्यालय की प्राध्यापकी जिसमें हरदम ठाकुर-ब्राह्मण घमासान मचा रहता व जिसका फ़ायदा कायस्थ अभ्यर्थी ले जाते। दूसरा मित्र प्रकाशन से निकलने वाली दस पत्रिकाओं में सहायक या उप सम्पादक क़िस्म का और तीसरा किसी प्रकाशन गृह में बैठकर सुबह से शाम तक प्रूफ़ रीडरी।’ (पृ 13)
ये पंक्तियाँ भी पढ़ें-
‘इलाहाबाद में ऐसी अदावतें होती रहती हैं। अदावतों में प्रतिमाओं की टक्कर होती। कई बार अदावती लेखक एक-दूसरे की प्रतिभा से प्रभावित होकर संधि कर लेना चाहते हैं पर उनके समर्थकों की भरपूर कोशिश रहती कि संधिवार्ता विफल हो जाए।’ (पृ 21)
ये पंक्तियाँ भी देखें-
‘इलाहाबाद की पुरानी पीढ़ी के साहित्यकारों ने हम नए लेखकों को कभी घास नहीं डाली। भैरव जी तो हमें इतनी हिकारत से देखते थे कि एक दिन हम सबको हरामियों की पीढ़ी तक कह डाला।’ (पृ 25)
लेखिका इलाहाबाद की सीमाएँ उजागर करने का काम खूब करती हैं हालाँकि वैसे ही जैसे कृष्ण प्रेम में पगी पर उन्हीं की निंदा करती कोई गोपी।
वह इलाहाबाद की ख़ूबियों को जब बयान करती हैं तब पाठक को अपने साथ इलाहाबाद उठा ले जाती हैं। इलाहाबाद की ये खूबियाँ पढ़ते हुए मन इलाहाबादी हुआ जाता है। इस शहर की साहित्यिक ख़ूबी को क्या बख़ूबी तरीके से उकेरेते हुए वह लिखती हैं, ‘इतनी गहमागहमी उसी शहर या क़स्बे में हो सकती है जहाँ रूचियाँ आपस में रगड़ खाती हों, सब एक-दूसरे को पढ़ते हों और संवाद गतिशील रहे। इलाहाबाद में एक स्पर्धा भी रहती। कोई नई किताब प्रकाशित होती तो सब उस पर टूट पड़ते। ख़रीद कर, माँग कर, उड़ा कर, उसे पढ़ना ही होता। इस स्पर्धा में लेखक, सहलेखक तो होते ही, विद्यार्थी, शोधार्थी और प्रतियोगी परीक्षाओं के अभ्यर्थी भी शामिल होते।’ (पृ 33) ये पढ़ते हुए अपने शहर की फिज़ाओं में घुली साहित्यिक उपेक्षा टीसने सी लगने लगती है। मानो ‘कौन जाए ग़ालिब दिल्ली की गलियाँ छोड़कर’ कहने वाले ग़ालिब को सबसे पहले लेखिका ममता जी हाथ उठाकर कह रही हों- ‘मुझे भेज दो, मैं जाना चाहती हूँ अपने इलाहाबाद।’
ममता कालिया की स्मृतियों में उनके हमसफ़र रवीन्द्र कालिया अनुपस्थित हों, ये कैसे हो सकता है? आपसी नोकझोंक में पैठ बनाकर बैठी प्रेम की कोयल अक्सर ही कूकती है इस किताब के पन्नों में। इसे पढ़ते हुए पाठक को दाम्पत्य जीवन का एक सरस पाठ पढ़ने को मिलता है। इस वाकए का जिक्र बहुत भाया-
“जब वे पम्प के साथ मुठभेड़ कर, पसीना-पसीना वापस कमरे में आते चिढ़ के मारे मुझे कूलर कि ठंडी हवा आनी बंद हो जाती। मैं कहती, ‘क्या फ़ायदा हुआ कूलर लगाने का? आधा वक़्त तो तुम इसकी मरम्मत में लगे, बाहर बैठते हो।’ रवि मुझे गुदगुदी कर देते, ‘तुम्हारे लिए ताजमहल तो बनवा नहीं पाऊँगा ममता, कूलर ही कबूल करो’।” (पृष्ठ 42) यह कहकहापन कठोर समय में भले कुछ समय के लिए दब जाए पर ये समझदार दम्पति उससे शीघ्र उबरकर दुबारा सहज हो जाता। अन्यथा प्रसून जी ने जब अकेले में देख लेखिका को अपनी बाहों में भरने को उद्यत हो चुम्बन की माँग की (हालाँकि लेखिका के सख्त इंकार पर उन्होंने खुद को रोक लिया, पृ 148) और लेखिका से नहीं बल्कि प्रसून जी से ही रवीन्द्र को यह पता चला, तब यह घटना थोड़ी सी नासमझी से आपसी रिश्तों में न भरा जा सकने वाला दरार डाल सकती थी। पर छोटे से अबोले के बाद जिस सहजता से दोनों हिल-मिल गये वो एक नज़ीर है आज के युवाओं के लिए।
इलाहाबाद की तासीर को जितना लेखिका ने समझा है उतनी ही ख़ूबसूरती से उसे सिरजा भी है। छोटी-छोटी घटनाएँ अपने पूरे वैभव और विस्तार में किसी फूल की तरह खिल पड़े हैं। वहाँ के साहित्य हलके में प्रचलित ‘तुम सी.आई.ई. के एजेंट हो’ और ‘तुम मीडियाकर हो’ जैसे जुमलों के चलन का बड़ा सजीव चित्रण है किताब में। इसे पढ़ते हुए साहित्य की दुनिया के इंद्रधनुषी रंगों से सामना होता है। ममता कालिया जी लिखती हैं, ‘कुछ तो खास है यहाँ के मिज़ाज में कि यहाँ सत्ता पक्ष की राजनीति की जगह प्रतिपक्ष की राजनीति ही पनपती है। साहित्य में भी विरोध और प्रतिरोध की घोषणा यहीं से आरम्भ होती है।’ (पृ 48) यहाँ के विद्यार्थी जीवन में व्याप्त निश्छलता, अभाव, प्रतियोगिता, आपाधापी में भी सहजता को पढ़ते हुए भी इलाहाबाद को चीन्हा जा सकता है। रानी मंडी के मकानों की संरचना पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि चलचित्र चल रहा हो।
जहाँ सुख हैं वहाँ दुख भी तो होंगे ही। सन् 1992 के बाबरी ध्वंस की घटना और उसकी पृष्ठभूमि में उपजे तनाव को भी लेखिका ने बड़े मार्मिक ढंग से याद किया है। सन् 1992 में रवीन्द्र कालिया जी अपनी माता जी के साथ रानी मंडी का घर छोड़कर मेहदौरी काॅलोनी के मकान में रहने चले गये तो भी अन्नू और मन्नू (बच्चों) के साथ ममता जी ने लगाववश वहीं रहने का निर्णय लिया। पर 6 दिसम्बर की घटना ने उन्हें नये घर में जाने को विवश कर दिया। बकौल लेखिका, ‘बिलकुल युद्ध जैसा वातावरण पैदा हो गया था। मैं उस दिन घर में थी। रानी मंडी ऐसा अल्पसंख्यक मुहल्ला था जो अमन-चैन में तो घोंसले की तरह सुरक्षित था लेकिन हिंसा का एक वाकया होने पर सुलग उठता। 6 दिसम्बर रानी मंडी के लिए ख़ूनी तारीख़ की तरह उगा। देखते-देखते वहाँ पान की, चाय की, पतंग की गुमटियां वीरान हो गईं, गली की हलचल सुनसान पड़ गई। मैं खिड़की में गली की तरफ़ देख रही थी कि बगल के मकान से एक जोड़ी हाथ निकले। हाथों में बड़ी सी कैंची थी। पड़ोसी दर्जी भाई रईस अहमद ने टेलिफोन के खम्भे से हमारे घर के टेलिफोन तार काट दिए। मेरा कलेजा धक् हो गया।’ (पृ 64) इस घटना से पैदा हुए अविश्वास ने जान से प्यारा रानी मंडी का आवास छुड़वा दिया। हिंसा में हुई विश्वास की हानि को अब तक देश भुगत रहा है।
अपनी असफलताओं या मूर्खताओं पर हँसना उससे सीखना समझदारी और दिलदारी का काम है। ऐसे बहुतेरे प्रसंग लेखिका ने अपनी स्मृति के ख़जाने से परोसे हैं। इन्हें पढ़ते हुए ज़िदगी के अनमोल पाठ सीखने को मिलते हैं। अश्क जी और कौशल्या जी के नीलाभ प्रकाशन की तरह कालिया दम्पति ने भी ‘मसिकागद’ प्रकाशन की शुरुआत बड़े-बड़े सपनों के साथ की थी। ममता जी लिखती हैं, “रवि कहते, ‘ममता जब हमारा प्रकाशन जम जाए, तुम सबसे पहले नौकरी छोड़ देना। प्रिंसपली भी क्लर्की होती है और कुछ नहीं।’ मैं भी उनके संग सपनों में उड़ने लगती।” (पृ 31) लेकिन उन्हीं दिनों पुस्तक-ख़रीद की राष्ट्रीय नीति में बदलाव आने के कारण निजी प्रकाशकों से सभी क्रयादेश रद्द हो जाने से छापाख़ानों के लिए छपाई की कीमत उगाहना भी दूभर हो गया। सोचा हुआ सब व्यर्थ गया। इसी तरह लेखिका उस वाकये को सोचकर भी अपनी समझ पर हंसती हैं जब घूमने निकलते हुए घर की चाभियां अन्दर ही रह गईं और मुख्य द्वार का स्वचालित ताला बंद हो गया। जहाँ रवीन्द्र कालिया, दोस्त, पड़ोसी सभी दरवाज़ा खोलने के लिए जद्दोजहद कर रहे थे वहीं ममता जी लिखती हैं कि, ‘अपनी विलक्षण विमूढ़ता में मुझे उस वक्त सिर्फ़ एक फ़िक्र हो रही थी कि गैस के ऊपर दूध का पतीला छोड़ आई हूँ। अगर रात भर ताला न खुला तो दूध ख़राब हो जाएगा।’ (पृ 75) है न मज़ेदार?
किताब में लेखकों की त्रयी के बनने-बिगड़ने की कहानियाँ हैं तो कुछ कालजयी रचनाओं के जन्म लेने की पृष्ठभूमि भी है। इलाहाबाद से दूर रहते हुए महानगरों के मुकाबले उसकी जीवंतता को याद करके उदास हो जाने के बयान हैं तो उसे फिर याद करते हुए जीवन के रंग में रंग जाने की चाह भी। पर इलाहाबाद तो इलाहाबाद है न! पिछले कई बरस दिल्ली के लाजपतनगर इलाके और अब गाज़ियाबाद में रहते हुए यहाँ के एकाकी जीवन में पुराना शहर बार-बार अपनी सामूहिकता में लेखिका के सामने नया बनकर आ जाता है। लेखिका कहती हैं, ‘देखा जाए तो यह एक तरह की बेईमानी है कि गाज़ियाबाद में रहते हुए भी यहाँ की नहीं गिनती अपने आपको। मेरी चेतना 640 किलोमीटर दूर मंडराती रहती है। हालाँकि अब वहाँ मेरा कोई पता-ठिकाना नहीं बचा, बैंक खाता बन्द हो गया और कई प्रियजन, परिवार रुख़सत हो गए। क़ायदे से वहाँ की यादों के फाटक पर ताला डाल कर चैन से अपने इस चौदह साला तड़ी पार को तर्पण मान लेना चाहिए।’ (पृ 80) पर भूलना इतना आसान कहाँ होता है। गाज़ियाबाद में रहते हुए जिस शिद्दत से ममता जी इलाहाबाद को जीती और याद करती हैं वह पृष्ट नंबर 80-82 में बड़े मार्मिक ढंग से उतर पड़ा है। इस जगह पर एक पाठक के तौर पर रो पड़ता हूँ, पता नहीं उस अनदेखे इलाहाबाद के लिए कि वहीं पूर्वांचल के एक कोने पर छूट गये अपने छोटे से गाँव के लिए। जो भी हो आगे बढ़ने से पहले लेखिका से बात करने का बहुत मन हो उठता है। फोन मिलाता हूँ, एक खनकती आवाज़ सुनकर, कुछ बतियाकर तृप्ति और संतुष्टि हो जाती है।
ममता कालिया को इतना गरुर क्यों है इस ‘अपने इलाहाबाद’ पर? क्योंकि ‘दिल्ली की तरह यहाँ कोई किसी का रास्ता नहीं काटता। अपना महल खड़ा करने को किसी की झोपड़ी नहीं ढहाता। हमारे इलाहाबाद में अतिक्रमण की दुर्घटना कम-से-कम होती है। वक़्त के साथ इसका कुछ चमत्कार कम हुआ होगा फिर भी यह अभी ख़ुशगवार है। तभी तो तुषार कह उठते हैं- अदब के सिर पर मुकुट सा है इलाहाबाद।’ (पृष्ठ 118) इतनी वरिष्ठ लेखिका होकर कोई वरिष्ठई का बोझ या दंभ नहीं है ममता जी के सिर पर। जितनी गहनता से वह जमे-जमाए वरिष्ठ जनों को याद करती हैं उतने ही सघन स्नेह से अखिलेश, मनोज पांडेय, कृष्णमोहन, मृत्युंजय आदि नई पीढ़ी वालों को भी दर्ज़ करती हैं। युवा कवि संदीप तिवारी की कविता में इलाहाबाद की तासीर को पहचानती हैं। यही सब उन्हें और उनके लिखे को और बेहतरीन बना देता है। ममता जी का लिखा इतना सशक्त और जानदार है कि अक्सर ही वाक्य संरचना से जादू छलक पड़ता है। जैसे- ‘व्हिस्की का गिलास अनपिया सामने पड़ा था और मेरा पिया मुझसे उस घटना का हिसाब माँग रहा था जो हुई ही नहीं।’ (पृ 152), ‘इस तरह मैं इल्मी की जगह फ़िल्मी लेखक बनते-बनते बच गई।’ (पृ 184)।
किताब पर अपनी टिप्पणी दर्ज़ करते हुए मोह हुआ जाता है कि कहीं कुछ ज़रूरी छूट न जाए। पर गैर ज़रूरी इसमें है क्या? पिछले पृष्ठों पर अंकित चित्रमाला तक में हर एक तस्वीर अपनी मुकम्मल कहानी कहती जाती है। लगता है कवर पेज और आकर्षक होता तो और अच्छा होता। पर इससे कोई खास फ़र्क भी नहीं पड़ता जब अंतर्वस्तु इतना दमदार हो। पंजाबी मेहमानों और चाईजी की तुलनाओं में अक्सर शहर जालन्धर से इलाहाबाद का हार जाना भी खलता नहीं, अखरता नहीं, न लेखिका को न पाठक को। आख़िर परदेस पर देस और उसकी स्मृति ही हावी होगा न? देस इलाहाबाद इस भाव को बखूबी समझता है। पुड़िया में बाँधकर भले नहीं साथ ला पाईं हों इलाहाबाद को ममता कालिया, पर स्मृतियों के पटल पर उसकी जो तस्वीर उतार लाईं हैं उस पर इस शहर को भी फ़क्र होगा। अंत में लेखिका की तरह ही पाठक भी रुचि भल्ला की कविता की ये पंक्तियाँ दुहरा उठता है-
‘जब तक जीती हूँ
इलाहाबाद हुई जाती हूँ
जब नहीं रहूँगी
इलाहाबाद हो जाऊँगी मैं।’
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आलोक कुमार मिश्रा (मोबाइल नंबर 9818455879)