
अनुकृति उपाध्याय का उपन्यास ‘नीना आंटी’ एक ऐसा उपन्यास है जिसकी शेल्फ लाइफ़ रहेगी। उसके ऊपर यह टिप्पणी लिखी है युवा कवि देवेश पथ सारिया ने-
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अनुकृति उपाध्याय के कहानी संग्रह ‘जापानी सराय’ पर मैंने टिप्पणी की थी कि अनुकृति के लेखन के अनेक ध्रुव हैं और यदि वे इनका मिश्रण करना शुरू करें तो कई अनुपम प्रयोग कर सकती हैं। कुछ हद तक ये प्रयोग उनके उपन्यास ‘नीना आंटी’ में देखने को मिलते हैं। यहां एक धनी, संभ्रांत परिवार है, जिसकी सोच मध्यमवर्गीय है। एक लड़की नीना उस सोच का अतिक्रमण करती है। बहुत-सी वर्जनाएं तोड़ती है। कालांतर में नीना आंटी पैंसठ वर्ष की, रिटायर्ड जीवन जी रही एक साहित्यिक विदुषी है।
नीना अपनी शर्तों पर जीती है और अकेली रह जाती है। उसे इस बात का कोई क्षोभ नहीं है, बल्कि जिस तरह से अजनबी लोग बिना किसी औपचारिक रिश्ते के नीना आंटी की परवाह करते हैं, उससे यही लगता है कि वह अपने चुनाव में सफल रही है। यहां रहस्य बना रहता है कि कौनसे फ़ैसले नीना के स्वयं के थे और कौनसे परिस्थितिजन्य।
एक और मुख्य चरित्र सुदीपा का है, जो नीना आंटी की बहन की लड़की है। न केवल सुदीपा, बल्कि उसकी पीढ़ी के सभी सदस्य अपनी मां, मौसियों और मामाओं की सोच से उकताए हुए हैं। वे नीना आंटी के साथ सहज महसूस करते हैं क्योंकि वे जजमेंटल बिल्कुल नहीं हैं। वे तब भी जजमेंटल नहीं होतीं जब परिवार की एक लड़की लैस्बियन होने की बात बताती है। एलजीबीटी चेतना के पक्ष में यह सांकेतिक अवदान है। नीना आंटी यदि कोई सलाह देती भी हैं, तो साथ में जोड़ देती हैं कि इसे मानना या न मानना सामने वाले के ऊपर है। और सलाह देती हैं, अपनी अलहदा अदा में:
“जब भी कुछ सुलझाना हो तो धागों को खींचना नहीं चाहिए, हल्के हाथों अलगाना चाहिए।”
इन पंक्तियों से आप अंदाज़ लगा सकते हैं कि नीना आंटी कितनी बेलौस हैं:
“अंत तो शुरुआत के साथ ही गढ़ लिए जाते हैं जान, और दिल तो दुखने के लिए ही बने हैं, इतनी न एहतियात करें अपने दिल की आप, इक दिन तो खुल के बात करें अपने दिल की आप!”
नीना आंटी के भाई-बहनों में अपनी बहन के प्रति जो भाव है, वह सिबलिंग राइवलरी से कहीं ऊपर है। आश्चर्य की बात यह है कि उनमें एक-दूसरे से कतिपय मतभेद होते हुए भी परस्पर शत्रुतुल्यता का यह भाव बिल्कुल नहीं है। सब नीना के विरुद्ध लामबंद हैं। दरअसल यह ईर्ष्या है, जो नीना के सहोदरों के भीतर युवावस्था में प्रेम, अभिरुचि एवं शिक्षा के मामलों में अपने मंसूबे पूरे न कर पाने के कारण घर कर गई है। सुदीपा और उसकी पीढ़ी के अन्य बच्चे जब नीना आंटी के पक्ष में जिरह करते हैं, तो लगता है कि युवा पीढ़ी, पुरानी पीढ़ी के दकियानूसी विचारों के ख़िलाफ़ विद्रोह कर रही है।
मुझे सुदीपा की हाज़िरजवाबी ने बहुत आकर्षित किया। सुदीपा के साथ नीना आंटी के संवादों में रोचकता है। ‘ख़ुशी’ और ‘पहेली’ जैसे विषयों पर उनकी बातचीत में गहनता है:
“अगर तुम ख़ुशी और दुःख के बारीक़ गुँथे रेशों को अलग देख पाती हो तो मेरी दुआ है कि तुम्हारी दृष्टि इतनी ही सुलफ़ बनी रहे…..”
और
“…असली प्रश्न यह नहीं है कि पहेली क्या है? सुदीपा, असली प्रश्न यह है कि पहेली क्यों है? है कि नहीं?”
फिर अनुकृति की भाषा का जादू तो है ही। पूरे उपन्यास में एक भी शब्द थोपा हुआ या मिसप्लेस्ड नहीं लगता। अनुकृति के शब्दकोश में ‘झींगुर-झंकृत सन्नाटा’ है, तो ‘गंधों का कोलाहल’ भी। परिवेश की मांग के चलते उपन्यास में बीच-बीच में कुछ अंग्रेजी शब्द भी हैं:
“रोमांटिक कहानियाँ अक्सर अनसटिस्फ़ैक्टरी होती हैं”
उपन्यास में कुछ पहलुओं का ख़ुलासा नहीं किया गया है। पड़ोस वाले लड़के के बारे में नीना आंटी का सब कुछ ज़ाहिर करना पाठक के मन में उम्मीद जगाता है कि मंगेतर के हश्र के कारणों पर भी नीना आंटी प्रकाश डालेंगी, पर ऐसा नहीं होता। इसी तरह प्रोफ़ेसर वाले क़िस्से में पाठक नीना आंटी के पक्ष में खड़ा होता है, पर अंत में वहां भी थोड़ी-सी उलझन बाक़ी रह जाती है। सुदीपा की लंदन जाने को लेकर मनोदशा थोड़ी और स्पष्ट तरीके से व्यक्त की जा सकती थी। यहां पाठक द्वारा अपेक्षित संतुलन और लेखिका का निर्णय भिन्न हो सकते हैं। रहस्यात्मक नीना आंटी जब सिर्फ़ एक रहस्य पर खुल कर बात करती हैं, तो उसका उद्देश्य सुदीपा के मन की गांठ खोलना और सुदीपा की मां के एक और पहलू से सुदीपा को परिचित कराना होता है।
नीना आंटी के माता-पिता का चरित्र बहुत सुगढ़ तरीके से लिखा गया है। उनके भिन्न-भन्न अंतर्द्वंद्व एवं अंतर्द्वंद्वों के फलस्वरुप नीना के प्रति विरोध से समर्थन की ओर रुख खटकता नहीं है।
इस उपन्यास में बाग़वानी और गुलाब जल बनाने के बारे में कुछ रोचक बातें हैं, गो कि नीना आंटी बाग़वान भी हैं। नीना आंटी का बग़ीचा बेतरतीब जंगल की याद दिलाता है, जहां वे बिना दस्तानों के बड़ी तरतीब से फूल चुनती हैं। नीना आंटी की उंगलियों से छिटककर ख़ुशबू पुस्तक के पन्नों के बीच आ बसती है।
उपन्यास का एक आकर्षण भारत की नई पीढ़ी का बदला हुआ दृष्टिकोण है, जो बिना लिहाज़ के ग़लत को ग़लत कहने की हिम्मत रखती है। खुले दृष्टिकोण के पाठक इस पुस्तक से विशेष संपृक्ति महसूस करेंगे।
~ देवेश पथ सारिया