प्रियंका दुबे के लेखन से हम सब अच्छी तरह परिचित हैं। गद्य हो या पद्य उनके लेखन में एक शब्द भी अतिरिक्त नहीं होता। आज उनका एक बहुत ही सुंदर पीस लिखा है, पढ़ने को लेकर, लिखने के जुनून को लेकर। साल बीतते बीतते एक अच्छा लेख पढ़ा सो आप लोगों से भी साझा कर रहा हूँ- प्रभात रंजन
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बचपन से अलग-अलग धर्मों के सिर्फ़ ‘धर्म’ नहीं बल्कि ‘वे ओफ़ लाइफ़’ या ‘जीवनशैली’ होने के बारे में पढ़ती सुनती रही हूँ. लेकिन ज़्यादातर धार्मिक कर्मकांड के प्रति मेरी घोर निजी उदासीनता की वजह से कभी धर्म के इस तरह ‘ज़िंदगी जीने का तरीक़ा’ होने पर
गहराई से मनन नहीं किया. हाँ, जब से लिखने-पढ़ने की साध ने मुझे अपनी गिरफ़्त में लिया है तब से यह ज़रूर लगने लगा है कि धर्म हो न हो, लेखन को बरतना ज़रूर एक ख़ास क़िस्म के नियम और संयम से पूरी जीवन शैली को बरतना है. हालाँकि मैं हमेशा से लिखने को एक स्वाभवगत शय ही मानती रही हूँ. और यह ‘स्वाभव’ तो हर लिखने वाला का एक दूसरे से जुदा हो सकता है. होता ही है. लेकिन कम-अज़-कम मुझे तो इस शय को बरतने के लिए बहुत निष्ठुर संयम में खुद को बाँधना पड़ता है.
सृजन का तो सिर्फ़ स्वप्न मात्र ही इतनी बड़ी क़ीमत माँगता है कि जिसको चुकाते चुकाते मनुष्य- सृजन का यह वाहक यानी ‘प्रयत्नशील’ लेखक– इतनी बार निर्वासित और फिर पुनर्वासित होता है कि जैसे पैदा ही बेघर हुआ हो. ‘घर’ जैसी मासूम अवधारणाएँ तो क्या, उस सुरक्षित घेरे की स्मृतियाँ भी धुँधलाने लगती हैं. खाने-पीने, सोने-जागने से लेकर विचार प्रक्रिया तक सभी कुछ सिर्फ़ सृजन के उस एक स्वप्न की धुरी से संचालित होने लगता है.
अपने मूल में ज्वालामुखी से इस आवेग को साधने की वजह से ही कई बार मुझे सृजन की इच्छा प्रेम की इच्छा की याद भी दिलाती है. और लिखने का खुद से किया गया यह पुराना वादा, गहरे प्यार में खाई गयी बिसरी हुई किसी क़सम की स्मृति में डुबो देता है.
यूं तो मेरे अब तक के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन शायद होश सम्भालते ही पितृसत्ता और सामाजिक असमानता द्वारा मुझे पर थोपे गए एक अवांछित अनचाहे युद्ध की वजह से ही आए हैं. पितृसत्ता के साथ जारी मेरा यह दशक भर पुराना बहुपरतीय-बहुस्तरीय संघर्ष, समय के साथ कब मेरे घरेलू जीवन से निकलकर मेरे सार्वजनिक जीवन और अवचेतन का हिस्सा बन गया, मुझे ठीक ठीक एहसास भी नहीं हुआ.
कई वर्षों तक मुझे लगता रहा कि मेरी सृष्टि में परिवर्तन का सबसे बड़ा वाहक सामाजिक न्याय के लिए जारी मेरा यह निजी और सार्वजनिक युद्ध ही है. एक बड़े क्षितिज पर, यह था भी परिवर्तन का वाहक, आज भी है.
लेकिन परिवर्तन के ‘फ़िशन रीऐक्टर’ में मनुष्य को धकेल देने वाली घटनाओं या परिस्थितियों के बीज अक्सर उसकी बहुत निजी चोटों में छिपे होते हैं. बाद के वर्षों में जब ‘सच में’ प्रेम जैसा कुछ हुआ तो लगा किसी ने दिल के साथ साथ पैरों के नीचे से ज़मीन भी खींच ली है. मेरी अपनी धुरी खो रही थी या मिल रही थी मुझे, तब ठीक ठीक कुछ समझ नहीं आता था. मैं पागल हो रही थी या होश में आ रही थी –निश्चित रूप से नहीं समझ पा रही थी. लेकिन इतना तय था कि मैं बदल रही थी.
यहाँ प्रिय लेखक सुजान सौन्टैग की डायरी का वह अंश भी याद आता है जहां वह कहती हैं – जो प्रेम आपके भीतर गहरे परिवर्तन न लाए, वह प्रेम ही नहीं है.
फिर जब सृजन का स्वप्न आँखों में उतरा तो महसूस हुआ कि लिखने को प्रेम से ज़्यादा नहीं, तो परिवर्तन का उससे कम महत्वपूर्ण वाहक भी नहीं माना जा सकता. प्रेम ने मेरे भीतर छिपे हुए मेरे जिस एकांत से मेरा ही परिचय पहली बार कराया था, बाद के सालों में उसी प्रेम को शोर में बहरा होते हुए देखती रही हूँ. लेकिन फिर भी, लेखन का सांसर मेरे और प्रेम के बीच बचा रह पाया. शायद सिर्फ़ लेखन का संसार ही है जो हर तरह के अनचाहे शोर से बचा रह आता है.
लिखने की दुनिया में वहीं आवाज़ें दाखिल हो सकती हैं, जिसको लेखक अपने भीतर पोसे या अपने सृजन के संसार में आने की अनुमति दे.
एक लड़की के अर्जित एकाकी दिनों और उसके पढ़ने लिखने की दुनिया : बीते महीनों से सिर्फ़ यह एक वाक्य मात्र मुझे इतना उद्वेलित करता रहा है कि इसकी स्मृति भर से ही हक़बकाई हुई सी रहती हूँ. और फिर जब धीरे धीरे मैंने इस वाक्य का वास्तविक अनुवाद अपने जीवन में करना शुरू किया है तब से तो मेरी हैरानी का कोई ठिकाना ही नहीं है.
शिमला के इस पहाड़ी घर में मेरे इन अर्जित एकाकी दिनों का एक एक पल मुझे भीतर तक यूं चौंधियाता हुआ गुजरता है जैसे मेरे पूरी शरीर पर तेज सूरज के सामने बुझती हुई सी अनगिनत आँखे उग आयी हों.
एक स्त्री के तौर पर मेरे इन एकाकी दिनों की (अति) दुर्लभता का मुझे अपनी हड्ड्डियों तक एहसास है. और शायद इसलिए एक गहरा दायित्वबोध भी हर पल किसी पुराने क़र्ज़ की तरह मेरे अवचेतन से चिपका रहता है.
सृजन का स्वप्न, जिसके बारे में मैं यहाँ एकांत से चुंधियाए अपने चित्त में डूबकर लिख रही हूँ, वह स्वप्न अब मेरे दिनों और घंटों में हर रोज़ महत्वपूर्ण परिवर्तन ला रहा है.
लड़की के भाग्य में ‘एकलव्य’ पाठक होना ही लिखा है:
इन दिनों में जब मैं अपने भीतर के बदलते और बढ़ते हुए पाठक को देखती हूँ तो अक्सर मिट्टी से द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर अभ्यास करते एकलव्य की याद आती है. फिर सुजान सौन्टैग की डायरी, ग़ालिब के शेर, मैरी ऑलिवर की कविताएँ, रिल्के के पत्र, निर्मल वर्मा की कहनियाँ और टॉमस पिंचन के उपन्यास जैसे मेरे किसी मर चुके अनाम गुरु की काल्पनिक मूर्ति में बदल जाते हैं. और भी कितना ही कुछ है जिसको पढ़ती हूँ तो लगता है जैसे मौत और मेरे बीच एक खाई उभर आयी है. पन्ने पर उभरे शब्द जैसे मुझको मुझसे ही बांधती हुई नकेल हों. या शायद एक जोड़ी हुक? एक जोड़ी हुक जिसने सिर्फ़ नारकंडा की बर्फीली शामों में मेरे स्वेटर नहीं टंकते बल्कि मौत की ओर भागती मेरी देह भी थोड़ी देर के लिए जीवन की ओर अटक जाती है.
लड़की के भाग्य में कोई ज़िंदा गुरु नहीं लिखा. उसे ‘एकलव्य’ पाठक होकर ही अपना रास्ता ढूँढना होगा. पितृसत्ता से लेकर प्रेम तक – अपने ऊपर होते तमाम आघातों का सामना खुद ही करना होगे. जैसे पृथ्वी का कोई नहीं है, वैसे ही लड़की भी अपनी परिधि में सिर्फ़ अपने साथ है. उसका कोई जीवित गुरु नहीं, कोई जीवित प्रेमी नहीं : शुरू के दिनों में यह ख़्याल किसी टीस की तरह मन में चुभता था. लेकिन फिर उन हज़ारों लड़कियों का याद मन में उठ आती जिनको इस देश में एक ‘एकलव्य पाठक’ तक हो पाना नसीब नहीं हुआ.
सृजन का स्वप्न प्यार की तरह एक घेरा बनाता हुआ आता है जीवन में. हर लिखने वाले की आँखों में यह स्वप्न अलग तरह से उतरता होगा. लेकिन मेरी आँखों में यह किसी एथलीट, योद्धा या लम्बी दौड़ के धावक की तरह उतर रहा है.
हिमाचल की सर्दियों में सूरज उगने से पहले ही मैं पैदल निकल जाती हूँ. किसी किसी दिन तो पंद्रह किलोमीटर तक चलते हुए सूरज का पीछा करती हूँ.
पैदल चलने से प्रेम तो नहीं मिलता, कभी कभी शब्द ज़रूर मिल जाते हैं.
मैं चाहती हूँ कि मैं इतना चलूँ कि चलते चलते पैर टूट जाएँ मेरे. क्योंकि अभ्यास प्यार ढूँढने का हो, दर्द सहने का, चलने का या शब्द का : एकलव्य को अर्जुन से ज़्यादा ही करना पड़ता है.
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बेहद मार्मिक और विचारणीय गद्य।