
अमर शहीद ब्रिगेडियर लिद्दड़ की बेटी आशना लिद्दड़ के दर्द से आहत मेरे जैसे नागरिकों को आवाज़ दी है सुहैब अहमद फ़ारूक़ी ने। वे पेशे से पेशे से पुलिस अधिकारी हैं, शायर हैं-
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“I am going to be 17. So, he was with me for 17 years, we will go ahead with happy memories. It is a national loss. My father was a hero, my best friend. Maybe it was destined and better things will come our way. He was my biggest motivator.” #Aashna_Liddar.
पिक में दिखाई दे रही बिटिया आशना लिद्दड़ है। कई कफ़न बॉक्सेज़ भी दिखाई दे रहे हैं। बिटिया के सामने वाले कफ़न बॉक्स में उसके शहीद पिता हैं। शहीद का नाम ब्रिगेडियर लिद्दड़ है। पिता की उम्र 52 साल है। बिटिया की उम्र 17 होने को है। बिटिया ने अपने पिता को हीरो और सबसे अच्छा दोस्त बताया है। शहीदों के आस पास फूल बिखरे हैं। जिनकी ख़ुश्बू शायद शहीदों के जिस्मों से उठती शहादत की खुशबू के आगे मांद पड़ रही है। मैं दिल को समझा रहा हूँ कि इस सिचुएशन से ख़ुद को रिलेट न करूँ लेकिन जज़्बात मन की बात नहीं सुनते और दिल के साथ दिमाग़ भी सोचने लगता है कि मैं भी 52 बरस का हो चला हूँ। मेरी बिटिया भी 15 प्लस है। मैं भी उसका बेस्ट फ़्रेंड हूँ। हीरो तो सभी बिटियाओं के बाप होते ही हैं। ख़बर तो परसों आ गई थी। लेकिन मेरी आँखें आज क्यूँ भीग रही हैं।
यूनिफ़ॉर्म वाली सरकारी नौकरी में ‘द मोस्ट डेकोरेटड एण्ड रिस्पेक्टेड डेस्टिनेशन’ वीरगति ही होती है। इस पर फ़ख़्र होना चाहिए। फ़ख़्र तो है मगर, सामने एक बिटिया है, उसका चेहरा है और उसकी उम्र है। इसलिए आँखें नम हैं।
सन 2018 में, आँसुओं से भरी और बिलखती हुई एक और बिटिया ज़ोहरा भी नज़रों में आई थी। वह भी एक यूनिफ़ॉर्म वाले एएसआई की बिटिया थी। उससे भी ख़ुद को रिलेट होने से नहीं रोक पाया था। साहबान! मैं भी यूनिफ़ॉर्म पहनता हूँ। मेरी भी एक बिटिया है। शहीदों की इन बिटियाओं में मुझे अलीना का अक्स दिखता है। इन बिलखती तस्वीरों में बिखरते ग़म से न चाहते हुए भी रिलेट हो जाता हूँ। इस रिलेटेड ग़म से एक दर्द उठता है। इस दर्द से यूनिफ़ॉर्म वाली शहादतें याद आती हैं। लेकिन भर्ती होने पर, ट्रेनिंग पास करते समय ली गई क़सम भी याद आती है जिसमें मन के साथ तन कर्तव्य पर आहूत करने का प्रण भी था। याद आता है यह जुमला कि सबसे बड़ी गति ‘वीर-गति’ होती है। शहादत इन नौकरियों में पराक्रम की पराकाष्ठा है। फिर इस अभीष्ट गन्तव्य पर पहुंचने पर शोक कैसा और रंज क्यूँकर? तो हज़रात अपने ही ये अशआर अपने ही जैसों को समर्पित करता हूँ:-
कभी गुलों की वो ख़्वाहिश किया नहीं करते
जिन्हें अज़ीज़ हैं काँटे गिला नहीं करते
ये फूल उन पे चढ़ाते हो किस लिए लोगो
शहीद ज़िंदा हैं उन का अज़ा नहीं करते
(गुल-फूल, अज़ीज़-प्रिय, गिला-शिकायत, अज़ा-शोक प्रकटन)
हज़रात! शहादतें पहले भी होती थीं और आगे होती रहेंगी क्योंकि शो की तरह ड्यूटी भी मस्ट गो ऑन फैक्टर है और एक सोल्जर हमेशा ऑन ड्यूटी होता है।
दुआओं में याद रखें या न रखें लेकिन किसी को बददुआ न दें और न किसी की बददुआ न लें।
फ़ोटो आभार अमरउजाला।
کبھی گلوں کی وہ خواہش کیا نہیں کرتے
جنہیں عزیز ہیں کانٹے گلہ نہیں کرتے
یہ پھول ان پے چڑھاتے ہو کس لئے لوگو