विमलेश त्रिपाठी समकालीन हिंदी कविता में जाना-पहचाना नाम है। उनकी तीन कविता संग्रहों का एक जिल्द में प्रकाशन हुआ है जिसका नाम है ‘लौटना है एक दिन’। प्रलेक प्रकाशन से प्रकाशित इस कविता संग्रह से चयनित 11 कविताएँ पढ़िए-
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1
लोहा और आदमी
वह पिघलता है
और ढलता है चाकू में
तलवार में बन्दूक में सुई में
और छेनी-हथौड़े में भी
उसी से कुछ लोग लड़ते हैं भूख से
भूखे लोगों के ख़िलाफ़
ख़ूनी लड़ाइयाँ भी उसी से लड़ी जाती हैं
कई बार फ़र्क़ करना मुश्किल होता है
लोहे और आदमी में।
2
अकेला आदमी
उसके अकेलेपन में कई अकेली दुनियाएँ साँस लेती हैं
उन अकेली दुनियाओं के सहारे
वह उस तरह अकेला नहीं होता है
अकेले आदमी के साथ चलती हुई
कई अकेली स्मृतियाँ होती हैं
कहीं छूट गए किसी राग की
एक हल्की-सी कँपकँपी की तरह
एक टूट गया खिलौना होता है
कुछ मरियल सुबह कुछ पीले उदास दिन
कुछ धूल भरी शामें
कुछ मुश्किल से बिताई गई रातें
इत्यादि…इत्यादि…
जो हर समय उसके चेहरे पर उभरी हुई दिख सकती हैं
कि उसके चलने में अपने चलने का वैशिष्ट्य
सिद्ध करते हुए स्पष्ट कौंध सकती हैं
लेकिन शायद ही यह बात हमारी सोच में शामिल हो
कि अकेला आदमी जब बिल्कुल अकेला होता है
तब वह हमारी नज़रों में अकेला होता है
हालाँकि उस समय वह किसी अदृश्य आत्मीय से
किसी महत्वपूर्ण विषय पर
ले रहा होता है कोई कीमती मशविरा
उस समय आप उसके हुँकारी और नुकारी को
चाहें तो साफ़-साफ़ सुन सकते हैं
अकेले आदमी की उँगलियों के पोरों में
आशा और निराशा के कई अजूबे दृश्य अटके रहते हैं
एक ही समय किसी जादूगर की तरह
रोने और हँसने को साध सकता है अकेला आदमी
अकेला आदमी जब बिल्कुल अकेला दिखता है
तब वास्तव में वह अकेलेपन के विशेषण को
सामूहिक क्रिया में बदल रहा होता है
और यह काम वह इतने अकेले में करता है
कि हमारी सोच के एकांत में शामिल नहीं हो पाता
और
सहता रहता है किसी अवधूत योगी की तरह वह
हमारे हाथों से फिसलते जा रहे समय के दंश
सिर्फ़ अपनी छाती पर अकेले
और हमारी पहुँच से दूर
अकेला आदमी कत्तई नहीं होता सहानुभूति का पात्र
जैसा कि अक्सर हम सोच लेते हैं
यह हमारी सोच की एक अनपहचानी सीमा है
नहीं समझते हम
कि अकेला आदमी जब सचमुच अकेला होता है
तो वह गिन रहा होता है
पृथ्वी के असंख्य घाव
और उनके विरेचन के लिए
कोई अभूतपूर्व लेप तैयार कर रहा होता है।
3
कुम्हार का चाक भूख भैरवी और एक प्रश्न
समय उसकी मुट्ठी से
आहिस्ता-आहिस्ता रेत की तरह झर रहा है
आ बैठा है वह अरार पर बेखबर
समय के भूखे पेट में बिलाते जा रहे सूरज के साथ
सुन रहा है वह
पानी को चीरकर दूर देश से आती हुई
बाँसुरी की मद्धिम तान
राग भैरवी
रूक गया है समय का चाक
या कि वह झर रहा है लगातार
जैसा कि अक्सर होता है भीमसेन जोशी के पागल अलाप में
हालांकि वह नहीं जानता
कि भीमसेन नहीं रोक सकते हैं समय का झरना
और सूरज का धीरे-धीरे गायब हो जाना
या यह कि भैरवी की महक
अधिक लुभावनी नहीं हो सकती
बाजरे की सोंधी महक से
भूल गया है वह एक अकेली मुट्ठी
और उससे झरते जा रहे समय को
चाक रुक गया है उसका
कि समय झरकर रुक गया है उसके लिए
पड़ा है मिट्टी का लोन्दा
वैसे ही चार दिन से
और लगभग नहीं गाया गया है
नाचते चाक की लय पर
माटी का कोई बहुत ही सुरीला आदिम गीत
लगभग उतने ही दिन
और उतनी ही रात से
आ बैठा है वह यहाँ इस एकान्त में
रोटी के सपने को
पत्नी की बिसुरती आँखों में छोड़कर
और भूख को
जनमतुआ के पेट में बिलबिलाता हुआ
कि आज पूछेगा ही गंगिया माई से
कि कैसे बाजरे की रोटी
और प्याज की एक फारी के बिना
सदियों रह लेते थे साधु महात्मा इस गरीब देश के।
4
उस लड़की की हँसी
घर से दूर
इस यात्रा की थकान में
मेरे दुखों को सहलाती हुई तेरी हँसी
इस हँसी का
कर्जदार हुआ मैं
ले जाऊंगा इसे कोलकाता
और रख दूँगा
सहेजकर अपने बिस्तर के सिरहाने
कि रख दूँगा इसे
मां की आरती की थाल में
तुलसी के गमले के पास कहीं
और खड़ा हो जाऊँगा प्रार्थना की मुद्रा में
छूऊँगा हर बार इसे
अपने हारे हुए
और व्यथित क्षणों में
फिर कहता हूँ
कर्जदार हुआ मैं तुम्हारा
कि कैसे चुकाऊँगा यह कर्ज
नहीं जानता
हाँ, फिलहाल यही करूँगा
कि कल तड़के घर से निकलूँगा
जाऊँगा उस औरत के घर
जो मेरे दो बच्चे की माँ है
और पहली बार
निरखूंगा उसे एक बच्चे की नजर से
कहूँगा कि हे तुम औरत
तुम मेरी माँ हो
और अपने छुटे हुए घर को
ले आऊँगा साथ अपने घऱ ।
5
राजघाट पर घूमते हुए
दूर-दूर तक फैली इस परती में
बेचैन आत्मा तुम्हारी
पोसुए हरिनों की तरह नहीं भटकती ?
कर्मठ चमड़ी से चिपटी तुम्हारी सफ़ेद इच्छाएँ
मुक्ति की राह खोजते
जल कर राख हो गईं
चंदन की लकड़ी और श्री ब्राँड घी में
और किसी सफ़ेदपोश काले आदमी के हाथों
पत्थरों की तह में गाड़ दी गईं
मंत्रों की गुँजार के साथ
…पाक रूह तुम्हारी काँपी नहीं??
अच्छा, एक बात तो बताओ पिता-
विदेशी कैमरों के फ्लैश से
चौंधिया गई तुम्हारी आँखें
क्या देख पा रही हैं
मेरे या मेरे जैसे
ढठियाए हुए करोड़ो चेहरे???
तुम्हारी पृथ्वी के नक्शे को नंगा कर
सजा दिया गया
तुम्हारी नंगी तस्वीरों के साथ
सजा दी गई
तुम्हे डगमग चलाने वाली कमर घड़ी
(तुम्हारी चुनौती)
रूक गई वह
और रूक गया सुबह का चार बजना??
और पिता
तुम्हारे सीने से निकले लोहे से नहीं
मुँह से निकले ‘राम’ से
बने लाखों हथियार
जिबह हुए कितने निर्दोष
क्या दुख नहीं हुआ तुम्हे?
शहर में हुए
हर हत्याकाण्ड के बाद
पूरे ग्लैमर के साथ गाया गया-
रघुपति राघव राजा राम
माथे पर तुम्हारे
चढ़ाया गया
लाल-सफेद फूलों का चूरन
बताओं तुम्हीं लाखों-करोड़ों के जायज पिता
आँख से रिसते आँसू
पोंछे किसी लायक पुत्र ने??
तुम्हारे चरखे की खादी
और तुम्हारे नाम की टोपी
पहन ली सैकड़ों-लाखों ने
कितने चले
तुम्हारे टायर छाप चप्पलों के पीछे…??
6
पीली साड़ी पहने औरत
सिंदूर की डिबिया में बंद किए
एक पुरूष के सारे अनाचार
माथे की लाली
दफ़्तर की घूरती आँखों को
काजल में छुपाया
एक खींची कमान
कमरे की घुटन को
परफ्यूम से धोया
एक भूल-भूलैया महक
नवजात शिशु की कुँहकी को
ब्लाऊज में छुपाया
एक ख़ामोश सिसकी
देह को करीने से लपेटा
एक पीली साड़ी में
एक सुरक्षित कवच
खड़ी हो गई पति के सामने
अच्छा, देर हो रही है
एक याचना
और घर से बाहर निकल गई।
7
बहनें
एक-एक कर वे चली गई थीं
दूसरे घाट दूसरे खूंटे से बंध गई थीं
उनके आंचल की हवा उन्ही के साथ चली गई थीं
बहुत दूर किसी देश
नेह की बाती एक घर से उठकर
किसी दूसरे घर के कोने में
साग खोंटने की हंसुली आंगन के ताखे पर रखकर
धनिया की चटनी पिसने की सिलवट
एक कोने में छोड़
ककहरा की किताबें
और पुरानी फटी कांपियों में बनी
मीरा और बाई लछमी के अधूरे चित्र
छोड़ गई थीं वे हमारे भरोसे
उन्हें अब कुछ भी बनना न था
एक ऐसे देश और समय में पैदा हुई थीं वे
जहां उनके होने से कंधा झूक जाता था
कई बार पगड़ी दांव पर लग जाती थी
फिर भी वे हुई थीं पैदा
पिता कहते – अपना भाग्य लेकर आई थीं साथ
इस तरह किसी दूसरे से नहीं जुड़ा था उनका भाग्य
सबका होकर भी रहना था पूरी उम्र अकेले ही
उन्हें अपने हिस्से के भाग्य के साथ
उन्हें कुछ नहीं बनना था इस अभागे देश में
उनके कुछ भी बनने पर बहुत पुरानी कब्रों के
भूतों के पहरे थे
कई मिथकों के बड़े और भारी ताले
छोड़ गई थीं वे तेल की कटोरियां
रसोई घर में अपने खुरदरे हाथों के निशान
चौकी बेलना तसली कठौती करछुल छोलनी
बचपन से उन्हीं से प्यार करना
सिखाया था माँ ने
उनके पास अपना कुछ नहीं था
सिवाय लड़की जात के उलाहने के
फिर भी खूब हँसती थीं वे
कभी-कभी तो इतने जोर-जोर से
कि उनके हँसने पर भी लग जाती थी पाबंदी
रसोई में आग और धुँए के बीच तपती थीं वे
और उमगती हुई हमारे छीपे में परोसती थीं रोटियाँ
तैयार करती थीं अपने हाथों से हमें स्कूल के लिए
बिना किसी अफसोस बिना किसी शिकन
क्या उन्हें स्कूल जाने का मन नहीं करता था
अपने घर की दहलीजों से दूर वे चली गई थीं
एक ऐसी दुनिया में जहाँ से लौट पाना
इस देश में कभी नहीं रहा आसान
साल के एक दिन
उनकी भेजी हुई राखियाँ आती थीं
या अगर कभी आ गईं वे खुद
तो जैसे उलटे पांव लौट जाने के लिए ही आती थीं
मैं हर बार उनके चेहरे पर वह पहले का रंग
चाहता था देखना
वह हँसी देखना चाहता था
वह खूब-खूब हँसी
जिसमें पूरी दुनिया के लिए जगह होती थी
लेकिन हर बार उनके झुराए चेहरे पर
जब उभरती थी कोई छूटी हुई मुस्कान
तब मुझे दिखते थे सैकड़ों सवाल के रेशे
जिनका उत्तर मेरे पास नहीं था
प्रश्नों को लिए गई थीं वे साथ
एक दिन रोते-कलपते
घर के किसी कोने में मुझे अकेले छोड़
खुद के आँसू से बेपरवाह
मेरी भीगी आँखों को आँचल से पोंछती
बहनें प्रश्नों को लिए साथ लौटती थीं अपने संसार में
हमें अकेला छोड़
उस समय की याद दिलातीं
जब खूब हँसती थीं वे
और हमारी हँसी के लिए कुछ भी करने को रहती थीं तैयार
एक ऐसे समय की याद दिलातीं जब पूरी दुनिया
नफरत से भरी हुई थीं
और बहनों ने सिखाया था प्यार करना
और खूब-खूब हँसना
बहने पृथ्वी थीं
जिनके हक में मुझे लड़नी थी एक अंतहीन लड़ाई
एक दिन जीत जाने के विश्वास
और संकल्प के साथ
और एक दिन खूब-खूब हँसना था
सिर्फ उनके लिए
और उनके समर्थन मे।
8
भोपाल में बारिश
एक ही छतरी थी और बारिश थी हमारी देह पर गिरती
जहां बारिश नहीं गिरती थी
वह जगहें भी भीग रही थीं
पेड़ देख रहे थे हमारा भीगना
एक डाली मचलकर दूसरी से जा मिलती थी
दूर आसमान में एक धुंधलका था
वह हमारा मन था
बहुत दूर एक गांव के छप्पर से बारिश की बूंदें टपक रही थीं
एक स्त्री का मन भींग रहा था
वह किसी की माँ थी
पत्नी थी किसी की
उसकी आँख के पानी से मेघ बने थे और पूरे देश में फैल गए थे
जो भी हो फिलहाल हम भोपाल में थे
हम वांशिगटन डीसी में नहीं हो सकते थे
हम पेरिस या लंदन में भी नहीं हो सकते थे
एक ही छतरी में हम दो थे
गुलजार के शब्दों में आधे-आधे भीगते
या एक दूसरे के शब्दों में आधे-आधे सूखते
हम राजेश जोशी से मिलने जा रहे थे
और सच मानिए हमें बिलकुल खबर न थी
कि राजेश जोशी शिमला के राष्ट्रपति निवास में बारिश पर कविता लिख रहे थे
हमें नहीं पता था कि शिमला में भी
हो रही थी बारिश
और वहीं से चलकर वह भोपाल तक आ रही थी
मुझे याद है लड़की ने चलते-चलते रूक कर कहा था – मैं तुमसे प्यार करती हूं
उतना ही जितना राजेश जोशी कविता से करते हैं
एक हवा का तेज झोंका आया था तभी
और छतरी उड़ गई थी…।
9
कभी जब
कभी जब खूब तनहाई में तुम्हें आवाज दूँ
तो सुनना
जब हारने लगूँ लड़ते-लड़ते
तो खड़ा होना मेरे पीछे
दुआओं की तरह
प्यार मत करना कभी मुझे
अगर उसके लायक नहीं मैं
पर जब नफरत करने लगूँ इस दुनिया से
तुम सिखाना
कि यह दुनिया नफरत से नहीं
प्यार से ही बची रह सकती है।
10
कविता नहीं
आओ कविता-कविता खेलें
तुम एक शब्द लिखो
उस शब्द से मैं एक वाक्य बनाऊँ
फिर मैं एक शब्द लिखूँ
और उस शब्द के सहारे
तुम खड़ा करो एक वाक्य दूसरा
तुम थोड़ा प्यार भरो वाक्यों में
मैं थोड़ा दुख भरता हूँ
रंग कौन सा ठीक रहेगा
हरा या सफेद
या एकदम लाल रक्तिम
थोड़ा हँसो तुम
खेल जमने के लिए यह जरूरी है
मैं थोड़ा रोता हूं अपने देश के दुर्भाग्य पर
यह रोना भी तो है जरूरी
सुनो, अब देखो पढ़कर
क्या कविता बनी कोई
अरे ये शब्द और वाक्य और उनके बीच छुपे
दुख हँसी प्यार और रंग ही तो
ढलते हैं अंततः कविता में
नहीं
अब भी नहीं बनी कविता ?
अच्छा छोड़ो यह सब
शब्दों के सहारे इस देश के एक किसान के घर चलो
देखो उसके अन्न की हांडी खाली है
उसमें थोड़ा चावल रख दो
थोड़ी देर बाद जब किसान थक-हार कर लौटेगा अपने घर
तब वह चावल देखकर
उसके चेहरे पर एक कविता कौंधेगी
उसे नोट करो
वह बच्चा जो भूख से रो रहा है
उसे लोरी मत सुनाओ
थोड़ा-सा दुध लाओ कहीं से
यह बहुत जरूरी है
दूध पीकर बच्चा
एक मीठी किलकारी भरेगा
उस किलकारी में कविता की ताप को करो महसूस
और अब..?
फिलहाल चलो
इस देश के संसद भवन में
और अपने शब्दों को
बारूद में तब्दील होते हुए देखो
………।
11
कविता से लंबी उदासी
कविताओं से बहुत लम्बी है उदासी
यह समय की सबसे बड़ी उदासी है
जो मेरे चेहरे पर कहीं से उड़ती हुई चली आई है
मैं समय का सबसे कम जादुई कवि हूँ
मेरे पास शब्दों की जगह
एक किसान पिता की भूखी आँत है
बहन की सूनी मांग है
छोटे भाई की कम्पनी से छूट गई नौकरी है
राख की ढेर से कुछ गरमी उधेड़ती
माँ की सूजी हुई आँखें हैं
मैं जहाँ बैठकर लिखता हूँ कविताएँ
वहाँ तक अन्न की सुरीधी गन्ध नहीं पहुँचती
यह मार्च के शुरूआती दिनों की उदासी है
जो मेरी कविताओं पर सूखे पत्ते की तरह झर रही है
जबकि हरे रंग हमारी ज़िन्दगी से ग़ायब होते जा रहे हैं
और चमचमाती रंगीनियों के शोर से
होने लगा है नादान शिशुओं का मनोरंजन
संसद में बहस करने लगे हैं हत्यारे
क्या मुझे कविता के शुरू में इतिहास से आती
लालटेनों की मद्धिम रोशनियों को याद करना चाहिए
मेरी चेतना को झकझोरती खेतों की लम्बी पगडंडियों
के लिए मेरी कविता में कितनी जगह है
कविता में कितनी बार दुहराऊँ
कि जनाब हम चले तो थे पहुँचने को एक ऐसी जगह
जहाँ आसमान की ऊँचाई हमारे खपरैल के बराबर हो
और पहुँच गए एक ऐसे पाताल में
जहाँ से आसमान को देखना तक असम्भव
(वहाँ कितनी उदासी होगी
जहाँ लोग शिशुओं को चित्र बनाकर समझाते होंगे
आसमान की परिभाषा
तारों को मान लिया गया होगा एक विलुप्त प्रजाति)
कविता में जितनी बार लिखता हूँ आसमान
उतनी ही बार टपकते हैं माँ के आँसू
उतनी ही बार पिता की आँत रोटी-रोटी चिल्लाती है
जितने समय में लिखता हूँ मैं एक शब्द
उससे कम समय में
मेरा बेरोज़गार भाई आत्महत्या कर लेता है
उससे भी कम समय में
बहन ‘औरत से धर्मशाला’ में तब्दील हो जाती है
क्या करूँ कि कविता से लम्बी है समय की उदासी
और मैं हूँ समय का सबसे कम जादुई कवि
क्या आप मुझे क्षमा कर सकेंगे ?
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विमलेश त्रिपाठी
बक्सर, बिहार के एक गांव हरनाथपुर में जन्म । प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही। प्रेसिडेंसी कॉलेज से स्नातकोत्तर, बीएड। कलकत्ता विश्वविद्यालय से केदारनाथ सिंह की कविताओं पर पी.एच.डी। देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा, लेख आदि का प्रकाशन। कविता और कहानी का अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद। पिछले 12 वर्षों से अनहद कोलकाता ब्लॉग का संचालन एवं संपादन।
अब तक पाँच कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह, दो उपन्यास और एक आलोचना की पुस्तक प्रकाशित।
आमरा बेचे थाकबो ( कविताओं का बंग्ला अनुवाद), छोंआ प्रकाशन, कोलकाता
वी विल विद्स्टैंड ( कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद), अथरप्रेस, दिल्ली
नॉट लाइक अ गॉड (प्रेम कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद), प्रलेक प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य
सम्मान
भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार, 2010
ठाकुर पूरण सिंह स्मृति सूत्र सम्मान, 2011
राजीव गांधी एक्सिलेंट अवार्ड, 2011
भारतीय भाषा परिषद युवा पुरस्कार, 2014
2004-5 के वागर्थ के नवलेखन अंक की कहानियां राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित।
चर्चित कहानी अधूरे अंत की शुरूआत पर पंडित प्रभुनाथ के नाम से और पिता कहानी पर उसी नाम लघु फिल्म का निर्माण।
गुआंगडॉंग यूनिवर्सिटि, चीन में पत्नी और माँ कविता स्नातक के पाठ्यक्रम में शामिल।
कन्धे पर कविता कविता संग्रह बेस्ट सेलर की सूची में शामिल।
देश के विभिन्न शहरों में कहानी एवं कविता पाठ।
कोलकाता में रहनवारी।
परमाणु ऊर्जा विभाग के एक यूनिट में कार्यरत।
संपर्क: साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,
1/ए.एफ., विधान नगर, कोलकाता-64.
ब्लॉग: www.anahadkolkata.in
Email: starbhojpuribimlesh@gmail.com
Mobile: 09088751215
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