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समावेशी क्वियर फ्रेंडली कार्यस्थल की निर्देश पुस्तिका है ‘क्वियरिस्तान’

परमेश शाहनी की किताब ‘क्वियरिस्तान’ पर यह टिप्पणी लिखी है युवा लेखक महेश कुमार ने, जो केंद्रीय विश्वविद्यालय गया के छात्र हैं। एक ज़रूरी किताब पर सार्थक टिप्पणी-

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30 दिसंबर को कोलकाता हिंदी मेला से लौटते हुए ट्रेन में ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग चढ़े और पैसा माँगने लगे। कुछ लोग मजाक कर रहे थे, कुछ हँस रहे थे, कुछ परिवार के साथ थे तो हल्की झिझक और थोड़ा डर के भाव के साथ दस-दस रुपया बढ़ाते गए। मेरे मित्र ने सहज होकर पैसा दिया और कहा कि अब तो सरकार ने आपलोग के लिए आरक्षण और अन्य सुविधाओं की व्यवस्था कर रही है। आपको अपने समुदाय को आगे बढ़ाना चाहिए। उस ट्रांसजेंडर ने बड़े प्यार से कहा सर पर हाथ रखते हुए कहा कि ‘बाबू सरकार तुम्हें नौकरी दे दे बहुत है, तुम जैसे सम्मान करने वाले लोग व्यवस्था में होंगे तो हमलोग भी बढ़ जाएँगे।’ यहाँ रोजगार की स्थिति पर व्यंग्य तो है ही साथ में है ‘सम्मान की उम्मीद’। उनके लिए सम्मान पहली प्राथमिकता है। हम उनकी पहचान का सम्मान करें, सार्वजनिक, सरकारी,कॉरपोरेट तथा विभिन्न कार्यस्थलों को समावेशी बनायेंगे तो वे खुद अपनी जगह बना लेंगे। यह समावेश का मॉडल क्या हो और कैसे क्रियान्वित हो इसका मॉडल प्रस्तुत करती है परमेश साहनी की किताब ‘क्वियरिस्तान’। किताब 2020 में वेस्टलैंड बिजनेस ने प्रकाशित किया है। हिंदी जगत में इसकी चर्चा न के बराबर हुई है जबकि यह पुस्तक ‘क्वियर भारत कैसा हो’ का प्रस्ताव है।

                           किताब पसंद आने का एक प्रमुख वजह पूछिएगा तो मैं कहूँगा ‘लेखक का लहजा’। वह लहजा है ‘प्रेम और विनम्रता’। जो भी प्रस्ताव वो रख रहे हैं उसका ट्रीटमेंट ही ‘प्रेम और उम्मीद’ है। इसकी एक बानगी देखिए “please consider this book as a companion piece to all the other brilliant form of activism prevalent across our country in other spheres.” यहाँ कितने प्यार से लेखक सभी भारतीयों से कह रहे हैं कि मेरे काम को भी विमर्श के दायरे में देखा-सुना जाए। कहीं कोई रोष नहीं है भाषा में। दरअसल क्वियर विमर्श का प्रस्ताव ही प्रेम है।  उनके लैंगिक पहचान और लैंगिक अभिव्यक्ति को ‘अप्राकृतिक सेक्सुअलिटी’ कहकर जिस तरह उन्हें हाशिए पर डालकर उनके देह को यौन उत्पाद के रूप में वस्तुकरण किया गया है उसका प्रतिकार का तरीका ‘प्रेम की राजनीति’ ही हो सकता है। इसलिए क्वियर विद्वान/विदुषी अपनी ‘सेक्सुअलिटी’ को केंद्र में रखकर ही अपने सिद्धांत बना रहे हैं। इनका विमर्श किसी भी तरह के विखंडन का निषेध करता है। इसलिए परमेश साहनी ने अपने किताब को ‘समावेश'(inclusion) की श्रेणी में रखा है। वे कहते हैं  “न यह क्रमबद्ध विवरण है और न ही यह इतिहास और घोषणापत्र के बीच कोई लकीर खींचता है।”

 कहने का मतलब है कि क्वियर समुदाय हमेशा से ही भारतीय समाज और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है और सम्मानजनक जीवन जीता रहा है। हिन्दू मिथक कथाओं में शिखंडी और वृहन्नला की कथा यह बताती है कि उनका एक स्वतंत्र व्यक्तित्व था। वे अपने समाज में कलंक की तरह नहीं देखे जाते थे। सल्तनत काल से लेकर मुग़ल राज तक बादशाहों के हरम में इनका महत्वपूर्ण स्थान था। राजकाज में भी उनका हस्तक्षेप पढ़ने को मिलता ही है। इनके प्रति घृणा की भावना का प्रसार हुआ अँग्रेजी राज के स्थापना के बाद। 1860 में आईपीसी(IPC) के तहत समलैंगिक गतिविधियों को आपराधिक कृत्य घोषित किया गया। इसे अप्राकृतिक कहकर भारतीय समाज में घृणा की हद तक प्रसारित किया गया। यही कारण है कि हिजड़ा होकर जन्म लेना पाप माना गया। उनके मरने पर साथी जूता-चप्पल से पीटते हुए अंतिम संस्कार में शामिल होते हैं जिसका अर्थ है कि ‘अब इस तरह कभी जन्म मत लेना’। जबकि भारतीय हिन्दू मिथक में ‘अर्धनारीश्वर’ की संकल्पना है।

                                                     यह किताब दो जरूरी बातों की ओर ध्यानाकर्षित करती है। पहला, क्वियर विमर्श ‘सेक्सुअलिटी की खोज’ है। अब तक तेईस तरह की सेक्सुअलिटी का पता चला है। इसलिए इस विमर्श का नाम एल्जिबिटीक्वि प्लस(LGBTQ+) है। ‘प्लस’ सेक्सुअलिटी की खोज को इंगित करने के लिए है। दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु है ‘क्वि'(Q) का विस्तार। इसके दो आयाम हैं ‘क्वियर और क्वेश्चन’। उन सभी पूर्वाग्रहों को प्रश्नांकित करना क्वियर का अधिकार है जिसके कारण उन्हें ‘अन्य’ की तरह देखा गया और उत्पीड़ित किया गया।

इस उत्पीड़न से निकलने के लिए परमेश ने दो तरीके बताए हैं ‘जुगाड़ रेजिस्टेंस’ और ‘कल्चरल एक्यूपंक्चर’।

इसका अर्थ हुआ कि पहले संघर्ष करते हुए क्वियर समुदाय बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों में अपना स्थान सुनिश्चित करे और अपनी पहचान को लेकर कुंठा से बाहर आए ताकि अन्य क्वियर भी उनके साथ आ सकें।

‘कल्चरल एक्यूपंक्चर’ (यह शब्द हैरी पॉटर के फैन एक्टिविज्म के बाद प्रचलित हुआ है) का काम होता है धीरे-धीरे सांस्कृतिक हस्तक्षेप के जरिये समुदाय विशेष का अपने उत्पीड़न से बाहर निकलना। इसके लिए सभी सरकारी,गैर-सरकारी और कॉरपोरेट में नीतिगत परिवर्तन के लिए पहल करना। परमेश साहनी ने यह काम सफलतापूर्वक गोदरेज कंपनी में किया। उन्होंने एचआर(HR) पॉलिसी को क्वियर के हिसाब से समावेशी बनाया जिसे बाद में महिंद्रा और बड़े कॉरपोरेट ने अपने कंपनियों में भी लागू किया। परमेश ने यह प्रस्ताव रखा कि हमलोग ‘मिनिस्क्यूल माइनॉरिटी'(miniscule minority) हैं। मतलब ऐसा समूह बेहद छोटा भी है और हर तरह के धर्म और समाज द्वारा उत्पीड़ित भी है। इसलिए सभी धर्मों और समाजों द्वारा उत्पीड़ित क्वियर को हम एक समूह में शामिल करने की प्रक्रिया को ‘क्वियरिस्तान’ कह सकते हैं। इसके लिए जरूरी है कि अपने ‘सामाजिक पूँजी’ का उपयोग करते हुए हम एकदूरे की आवाज बनें और सामूहिक संघर्ष करें। कॉरपोरेट को केंद्र में रखते हुए सुरक्षित और समावेशी कार्यस्थल बनाने की प्रक्रिया में वे इस बात पर जोर देते हैं कि कंपनियों को अपनी नीतियाँ बनाने में एक्टिविस्ट, स्कॉलर,कलाकारों और साहित्यकारों का सहयोग लेना चाहिए। क्योंकि उनका मानना है कि “सभी क्रांतियाँ सड़कों पर ही नहीं होती कुछ बोर्डरूम में भी होती हैं जो दिखाई नहीं देती पर महत्वपूर्ण होती हैं।” इसलिए बोर्डरूम में जितने प्रगतिशील शक्तियों का समावेश होगा नीतियाँ उतनी ही लचीली परन्तु कारगर होंगी। क्योंकि कभी-कभी इतिहास बेहद शांतिपूर्वक कॉरपोरेट सर्वर में एक ‘वर्ड डॉक्यूमेंट’ को अपडेट करने से भी बन जाता है।

                                         इस क्रांति के प्रसार के लिए लेखक ने पाँच तरीके बताए हैं जिसमें ‘मजबूत नीतियाँ, विशेष प्रावधानों की व्यवस्था, हर सेक्टर में एल्जिबिटीक्वि+ की नियुक्ति,दोस्ताना माहौल तथा विभिन्न अस्मितावादी विमर्शों का समर्थन शामिल है। लेखक स्वीकार करती हैं कि स्त्रीवादी आंदोलन ने क्वियर विमर्श को आगे बढ़ाने में सकारात्मक भूमिका अदा किया है। सांस्कृतिक गतिविधियों द्वारा क्वियर विमर्श को आम जनता तक पहुँचाया जा सकता है। फिल्मों ने यह काम खूब किया है। ‘अलीगढ़’ इसका सबसे सशक्त उदाहरण है। व्यावसायिक दृष्टि से भी कई फिल्में सफल रहीं और जनता में जागरूकता भी बनी है। ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ इसका अच्छा उदाहरण हो सकता है। 1990से 2005 तक की फिल्मों में ट्रांसजेंडर या फेमिनिन छवि वाले चरित्र फूहड़ कॉमेडी के लिएऔर नकारात्मक रोल के लिए ही चुने जाते थे।

‘फायर’ जब आयी थी तब तथाकथित संस्कृति के ठेकेदारों ने खूब बवाल किया था। आज भी उसी प्रवृत्ति के लोग यह कहते हुए मिल जाते हैं कि ओटीटी प्लेटफार्म पर रिलीज होने वाली वेब सीरीज में जिस तरह समलैंगिक चरित्रों को बढ़ावा मिल रहा है उससे युवाओं के सेक्सुअलिटी में विचलन होगा और वे अप्राकृतिक सेक्स की ओर आकर्षित होने लगेंगे।

                                       फिलहाल तो क्वियर विमर्श में यह देखना होगा कि इसकी सैद्धांतिकी में जाति,धर्म और वर्ग को लेकर क्या संकल्पना है। यह किताब व्यावहारिक दृष्टि से कार्यस्थल को समावेशी बनाने के लिए लिखी गयी है और नागरिकों को जागरूक करना इसका उद्देश्य है। लेखक ने स्वीकार किया है कि वे एक समृद्ध परिवार से आते हैं जिन्हें परिवार का भरपूर सहयोग मिला है। साथ में उन्होंने इस किताब की सीमाएँ बताते हुए लिखा है कि ‘यह इतिहास की किताब नहीं है, इसमें ज्यादातर पक्ष भी गे के दृष्टि से है,कॉरपोरेट पर फोकस है और कई पक्ष जैसे जातिय प्रभुत्व, ब्राह्मणवादी मीडिया इत्यादि छूट गया है।’ यह लेखक की ईमानदारी का प्रमाण है। उन्होंने चर्चा किया है कि एक दलित क्वियर का संघर्ष ब्राह्मण क्वियर से ज्यादा होगा। इसी तरह आर्थिक और धार्मिक आधार पर भी संघर्ष अलग तरह से सामने आते हैं जिसपर अभी बात करना और सिद्धान्तों की निर्मिति करना बाकी है। फिलहाल तो लेखक को समावेश के सिद्धांत पर इतनी समावेशी किताब लिखने के लिए स्वागत कीजिये और आने वाली फिल्म ‘बधाई दो’ के तर्ज पर बधाई दीजिये।

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 महेश कुमार

 स्नातकोत्तर(उत्तीर्ण), दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया, सम्पर्क:-7050869088

 
      

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