Home / Featured / अंडे महंगे हो रहे है!

अंडे महंगे हो रहे है!

इंजीनियरिंग की पढ़ाई बीच में छोड़कर मास कम्यूनिकेशन की पढ़ाई करने वाले युवा लेखक नमन नारायण के लेखन में अंतर्निहित विट है और बहुत परिपक्व नजरिया। इस लेख में ही देखिए-

==================

आज मैं छत पर अकेला ही बैठा था। हॉस्टल में आज काफी शांति थी। युद्ध के बाद वाली शांति।

मैं २०१८ में यहाँ इंजीनियरिंग करने आया था। मैं पहली बार घर से दूर रह रहा था। मेरे सामने एक पूरी दुनिया खुली हुई थी, एक ऐसी दुनिया जिसे मैंने इतना करीब से पहले कभी नहीं देखा था। पिनोकियो की तरह मेरे मन में एक बेकाबू जिज्ञासा तो थी पर पिनोकियो की ही तरह गधा बन जाने का डर भी था। ख़ुशी की बात ये थी कि इस हाल में मैं अकेला नहीं था। मेरे साथ और हज़ारों लोग इसी द्वन्द का सामना कर रहे थे। इन हज़ारों लोगों में कुछ लोग ऐसे भी थे जिनके साथ मैंने अपनी इच्छाएँ और अपने डर बांटे। एक अनजान जगह में मेरा घर बनकर रहे ये दोस्त।

२०१९ में मैंने इंजीनियरिंग छोड़ने का निर्णय लिया। ये मेरा अपने जीवन में लिया अब तक का सबसे बड़ा निर्णय था। मैंने पहले भी कई निर्णय लिए थे जैसे “नान या रोटी”, “कोक या फेंटा” आदि पर ये निर्णय इंजीनियरिंग छोड़ने के निर्णय के मुकाबले थोड़े आसान थे। मेरा दिल हमेशा से ही साहित्य और सिनेमा में लगता था और अब इंजीनियरिंग की क्लासों में मेरा दम घुट रहा था। ये समय थोड़ा कठिन था और इस कठिन समय में मेरे एक दोस्त ने मेरा बहुत साथ दिया, काउंट। उसे रातभर जागने की आदत थी तो हम उसे काउंट ड्रैकुला बुलाते थे। काउंट खुद भी एक्टर बनना चाहता था पर कभी इंजीनियरिंग छोड़ने की बात अपने घर पर बोल नहीं पाया। पढ़ाई में वो ठीक-ठाक था पर उसका ज़्यादा समय शार्ट फिल्म बनाने में, फिल्में देखने में और टिंकू सिंह के एग-चिकन रोल खाने में जाता था। काउंट हमेशा कहता था, “एक बार इंजीनियरिंग ख़तम हो जाए, पूरी इंडस्ट्री पलट के रख देंगे!”, हम दोनों उसकी इस बात पर यकीन भी करते थे और बैठे-बैठे इंडस्ट्री पलटने के सपने भी देखते थे। कैंपस में जीवन बड़ी धीमी गति से चल रहा था। दिनभर कॉलेज करने के बाद रातभर मस्ती करते थे हम। कैंपस के बाहर की चिंताएँ, कैंपस के बाहर ही रहती थीं। कभी-कभी मुझे ऐसा लगता था जैसे कैंपस अपनी जगह खड़ा है और ज़िन्दगी उसके आस-पास से गुज़र रही है।

जोआन डिडियन ने अपने एक निबंध में लिखा है, “चीज़ें कैसे शुरू होतीं है ये बताना आसान है पर उनका अंत कैसे होता है ये बताना मुश्किल है”, हॉस्टल की इस फेयरी टेल की शुरुआत कब हुई ये तो मुझे बहुत अच्छे से याद है पर इसका अंत किस क्षण हो गया ये मैं अभी भी सोच रहा हूँ।

असल में समय की सबसे बड़ी समस्या यही है कि समय अच्छा भी चल रहा हो, तो भी समय चल ही रहा होता है। सितम्बर में हमारा कॉलेज फिर से खुला। मैं एक शार्ट फिल्म का आईडिया लेकर काउंट के पास गया। काउंट ने कहा कि इस सेमेस्टर वो एक्टिंग नहीं कर रहा है क्योंकि उसे प्लेसमेंट्स पर ध्यान देना है। उसने एक्टर बनने का सपना छोड़ दिया था और जान लगाकर एक अच्छी नौकरी खोज रहा था। फिर हमारा मिलना थोड़ा कम हो गया। कुछ दिनों बाद, काउंट मुझे टिंकू सिंह के यहाँ एग-चिकन रोल खाते हुए मिला। वो थोड़ी टेंशन में था, चार इंटरव्यू में रिजेक्ट होने के बाद पांचवे की तैयारी कर रहा था। उस दिन उसने मुझे एक बड़ी अजीब बात बताई। उसने कहा, “भाई, अंडे बहुत महंगे हो गए है”, फिर उसने मुझे अर्थव्यवस्था पर पड़ रहे कोरोना के दुष्प्रभावों के ऊपर एक लम्बा लेक्चर दिया। उसका हर शब्द नपा-तुला था जैसे किसी जी.डी.-पी.आई. में बात कर रहा हो। उसमे पहले वाले काउंट जैसा कुछ भी नहीं था। धीरे-धीरे मुझे ये अपने सारे दोस्तों में दिखने लगा। मेरे सारे दोस्त अब नौकरियों की तलाश में थे। हर किसी को जल्दी से जल्दी, बड़े से बड़ा पैकेज चाहिए था। उनकी ज़िन्दगी में एक रफ़्तार आ गई थी जिसे मैं समझ नहीं सकता था क्योंकि मेरी ज़िन्दगी अभी भी उस पुरानी गति पर चल रही थी। ये लोग अपने ऊपर एक बड़ा बोझ लादकर चल रहे थे, उम्मीदों का बोझ। मैं न उनका तनाव समझ सकता था न उनकी बातें। अब मेरे लिए वो अनजान हो गए थे।

मैं इस खेल का दर्शक था। इस दौर में मैंने कई प्लेसमेंट पार्टियाँ अटेंड की और कई लोगों के प्लेस न होने के दुःख में शामिल होने भी गया। दिसंबर में हमारे फाइनल एग्जाम ऑनलाइन हो गए और सब लोग एक-दूसरे को, इस कैंपस को, एक लम्बे समय के लिए अलविदा कहकर जा रहे थे। काउंट बिना किसी को मिले ही चला गया। उसकी प्लेसमेंट नहीं हुई थी। अब वो जीमैट की कोचिंग कर रहा था।

मेरे सारे दोस्त चले गए थे। मेरी ट्रेन कल थी। अब शायद ही मुझे कभी हॉस्टल के अपने इस कमरे में आने का मौका मिले पर पता क्यों आज मेरा उस कमरे में दिल नहीं लग रहा था। मैं अंदर से बहुत बेचैन था। छत पर बैठे-बैठे मैं हॉस्टल के पुराने दिन याद कर रहा था। मेरे उन दिनों के साथी अब नदी के उस पार पहुँच चुके है। मैं अकेला ही इस पार छूट गया हूँ पर पता नहीं क्यों मुझे उस पार जाने से डर लगता है। नदी के इस पार मेरी अपनी एक दुनिया है जो मैंने सालों तक तिनका-तिनका अपने सपने जोड़कर बनाई है। नदी के उस पार मेरा कुछ भी नहीं। अचानक ही एक बात मुझे याद आई। बचपन में मेरी दीदी के पास एक किताब थी, “द एडवेंचर्स ऑफ़ पीटर पैन”, उस किताब में पीटर पैन नाम का एक बच्चा था जो हमेशा ही बच्चा रहता था। उसे अपना हर एडवेंचर ख़तम करने के बाद भूलना पड़ता था ताकि वो कभी बड़ा न हो सके, ताकि उसे कभी ये पता न चल सके कि अंडे महंगे हो रहे है।

मैं भी पीटर पैन बनना चाहता हूँ।

======================

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

अनुकृति उपाध्याय से प्रभात रंजन की बातचीत

किसी के लिए भी अपनी लेखन-यात्रा को याद करना रोमांच से भरने वाला होता होगा …

6 comments

  1. अच्छा लगा पढ़कर। अपने आस-पास की सी बात लगी, अपने कुछ दोस्तों की, नहीं शायद सभी दोस्तो की, शायद सभी लोगो की उनको छोड़कर जो पीटर पैन बन गए लेखक को तरह| शायद मेरी भी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *