आज पढ़िए पाकिस्तान के लेखक इक़बाल हसन की कहानी। अनुवाद किया है जाने माने शायर और लेखक इरशाद खान सिकंदर ने-
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रानी बेगम का जी दुनिया से उचाट हो गया था। सारी उम्र उसने मर्द के बग़ैर गुज़ार दी थी। इश्क़ हुआ तो जाके कोई बावन बरस की उम्र में । फ़र्ज़ करें कि नाचकर गुज़ारा करने वाली औरतें बुरी होती हैं तो रानी बेगम इस हिसाब से तो बुरी औरत थी मगर जहाँ तक उसके दूसरे तौर-तरीक़ों का तअल्लुक़ था वो एक निहायत ही नेक औरत थी। कौन सा मज़ार था जहाँ उसकी तरफ़ से देगें और चादरें न चढ़ती थीं। शबे-बरात हो या मुहर्रम रानी बेगम दिल और हाथ खोलकर ख़र्च करती थी, यही नहीं कितने ही शरीफ़ सफ़ेद-पोश लोगों के घर उसकी वजह से चूल्हा जलता था। वो उस बाज़ार की थी जहाँ मर्द हासिल करना कोई मसअला नहीं था लेकिन उसने इसके बावजूद एक निकाह भी किया था। उसका शौहर बक़ौल उसके ‘चुना हुआ हरामी’ निकला जो उसकी पड़ोसन पर आशिक़ होकर उसे भगा ले गया। कोई दस बरस पहले किसी ने रानी बेगम को बताया था कि वो हैदराबाद में कहीं उस औरत से पेशा करा रहा था । रानी बेगम उस पर लानत भेज चुकी थी इसलिए उसने ज़ियादा दिलचस्पी से बताने वाले की बात न सुनी। रानी बेगम शायद मर्द के मुआमले में बदनसीब औरत थी। उसने दिल तो हज़ारों का लुभाया मगर इश्क़ का रोग बरसों न पाला। नाचना तो मुद्दत हुई छोड़ दिया था, किसी शाम तरंग में होती तो गाने वाली किसी लड़की के साथ तान उठा लेती। दो लड़कियां उसने लेकर पाली थीं एक उसकी सगी बेटी थी जिसका नाम उसने जवाहर रखा था। जवाहर की नथ उतराई अभी तक नहीं हुई थी इसलिए रानी बेगम उसे शेर की आँख से देखती थी।
अरशद पहली मर्तबा गाना सुनने आया तो जैसे रानी बेगम के दिल में उतर गया, वो रहा होगा कोई पच्चीस बरस का। रानी बेगम बावन की हो चुकी थी मगर लगती कोई बयालीस की थी। कोठे पर आने वाले कई मर्द जवाहर को उसकी बेटी नहीं छोटी बहन समझते थे। अरशद का बाप किसी सरकारी महकमे में मुलाज़िम था और इन दिनों किसी वीरान शह्र में रह रहा था। अरशद बी.ए के आख़िरी साल में था और हॉस्टल में रहता था। वो दोस्तों के साथ गाना सुनने आया और रानी बेगम को भा गया।
वो बार-बार आता रहा और हर बार महसूस करके जाता रहा कि रानी बेगम उसकी आशिक़ हो चुकी है। उसने अपने दोस्तों से इस क़िस्म के बहुत से क़िस्से सुन रखे थे जिनमें कोई मालदार तवाएफ़ किसी ग़रीब आदमी पर आशिक़ होकर उसे हर तरह से निहाल कर देती है। लेकिन अरशद को रानी बेगम में कोई दिलचस्पी नहीं थी, वो तो जवाहर के तीरे-नज़र का घायल था। उसने रानी बेगम को इस इश्क़ की हवा तक नहीं लगने दी और जब रानी बेगम ने उससे शादी की ख़्वाहिश का इज़हार किया तो अरशद बहाने करने लगा और उसने रानी बेगम को बताया कि उसका बाप लाखों रूपये का क़र्ज़दार है और ये क़र्ज़ा उस आदमी का है जिसकी बेटी से अरशद की शादी होना क़रार पायी है, हाँ अगर रानी बेगम ये बोझ उठा ले तो अरशद उससे कल ही निकाह करने को तैयार है। रानी बेगम ने अगली सुबह अरशद को पाँच लाख दे दिए और उससे अगली रात अरशद जवाहर को अपने साथ भगा ले गया।
रानी बेगम का दिल बिल्कुल ही टूट गया और उसने कोठा बन्द कर दिया। लड़कियां पहले ही अपनी अलग-अलग दुकानें बनाना चाह रही थीं इसलिए वो रानी बेगम को फ़ौरन छोड़ गयीं।
रानी बेगम का एक घर शादमान कॉलोनी में भी था। बैंक में अच्छी-ख़ासी पूँजी थी और चन्द दुकानें थीं ठीक-ठाक किराया आता था इसलिए वो बेफ़िक्र होकर वक़्त गुज़ारने लगी। उसके साथ पुराने वक़्तों का तबलची नूरा और गाना सुनने की ख़ातिर कोई पच्चीस बरस पहले उसके कोठे पर आने और वहीँ रह जाने वाले नारू के सिवा कोई न था। रानी बेगम का दिल दुनिया से उचाट हो गया था और अब वो अपना बचा-खुचा वक़्त अल्लाह की याद में गुज़ारना चाहती सो उसने पाँच वक़्त की नमाज़ शुरू कर दी। बाज़ार से बाहर पहला रमज़ान आया तो उसने रोज़े भी पूरे रखे। नारू चरस और नूरा अफ़ीम की वजह से रोज़ा रखने से माज़ूर थे लेकिन एहतिरामन उसके सामने कुछ खाते-पीते नहीं थे।
कई दिनों से रानी बेगम महसूस कर रही थी कि अल्लाह को राज़ी करने के लिए मज़ीद कुछ करना चाहिए। क्या? उसकी समझ में नहीं आ रहा था। एक दिन दरवाज़े पर मस्जिद का चन्दा माँगने, उटंगी शलवारों और कानों तक टोपियाँ पहने, मनहूस आवाज़ों में जन्नत की ख़ुशख़बरी देने वाले आदमी आये तो रानी बेगम ने सोचा क्यों न वो एक मस्जिद बना डाले। यक़ीनन वो ये काम बख़ूबी कर सकती थी। उसके पास दौलत की कमी थी न जज़्बे की। उसने रात को नूरे और नारू से मशवरा किया तो दोनों ने अपनी ख़िदमात पेश कर दीं बल्कि ज़िन्दगी में पहली बार ये मालूम करके रानी बेगम को ख़ुशी हुई कि उसके पास आने से पहले नारू किसी ठेकेदार का मुंशी था और उसे तामीराती कामों (निर्माण-कार्य) का ख़ासा तज्रिबा भी था। तामीर के लिए जगह के मिलने में कोई मुश्किल न थी, शहर भर में प्लाट बिक रहे थे लेकिन रानी बेगम ये मस्जिद ऐन बाज़ारे-हुस्न के बीचों-बीच बनाना चाहती थी। मुद्दतों पहले सियालकोट के एक शेख़ का उसके पास आना-जाना था। उन दिनों रानी बेगम जूरी नाम के एक बदमाश से दुखी थी जिसने उसके कोठे के ठीक सामने जुवाख़ाना खोल रखा था और उस वक़्त जबकि रानी बेगम के घर नाचने-गाने की महफ़िल जमी होती थी जूरी के जुएख़ाने में हड़बोंग शुरू हो जाती थी। रानी बेगम ने इस बात की शिकायत शेख़ साहब से की जिन्होंने दो दिन बाद ही उस घर की रजिस्ट्री रानी बेगम के क़दमों में ला डाली। वो घर एक मुद्दत से ख़ाली पड़ा था और वहां यक़ीनन एक ख़ूबसूरत मस्जिद तामीर की जा सकती थी। चुनाँच: रानी बेगम ने उस पुराने घर को तुड़वाना शुरू कर दिया। बाज़ार में हर किसी का ख़याल था की रानी बेगम उस जगह दुकानें या प्लाज़ा क़िस्म की कोई इमारत बना रही थी इस लिए उसके पास दो चार ऐसे लोग भी गए जिन्हें उस जगह कारोबार करने में कोई फ़ायदा दिखा। लेकिन जब एक सुबह बाज़ार वालों ने ‘मस्जिद ज़ेरे-तामीर’ (मस्जिद निर्माणाधीन) का कपड़ा हवा में फड़फड़ाता देखा तो पहले तो सबको हैरत हुई फिर लोगों ने मज़ाक़ उड़ाया। किसी ने नौ सौ चूहे वाली फब्ती भी कसी।
रानी बेगम के मस्जिद बनाने और बाज़ारे-हुस्न के ऐन बीच बनाने की ख़बर ख़ासी दिलचस्प थी और उसे एक दो अख़बारों ने छापा भी और यूँ ये ख़बर इमादुद्दीन तक भी पहुँची। मौलाना एक बड़ा मदरसा चला रहे थे, एक मज़हबी क़िस्म का अख़बार भी निकालते थे, मुंसीपाल्टी के मेंबर थे और उनका तअल्लुक़ एक आधा मज़हबी आधा सियासी पार्टी से भी था और सुनने में आया था कि अगले इलेक्शन में ग़ालिबन स्टेट असेम्बली के लिए मौलाना को टिकट भी दिया जा रहा है। मौलाना की पहली बीवी से तीन औलादें थीं। दो बेटियाँ और एक बेटा। छोटी बेटी,दामाद और बेटा मुद्दतों से अमरीका में थे। बड़ी बेटी और उसका मियां मुर्री में एक अच्छा-ख़ासा पौश क़िस्म का होटल चलाते थे जो मौलाना के वालिद साहब ने सन अड़तालीस में ईस्ट पंजाब से आकर अलाट करवाया था और जिसके लिए उस वक़्त दस हज़ार रूपये नक़द रिश्वत दी थी। मरहूम ने होटल का क़ब्ज़ा लेते ही सबसे पहले उसे उस शराब से पाक किया था जो भागते वक़्त होटल का हिन्दू मालिक अलमारी में बंद छोड़ गया था। बाद में उन्हें सर्दी की मुस्तक़िल शिकायत रहने लगी और आर्मी से रिटायर्ड एक डॉक्टर दोस्त के मशवरे पर रात को चुस्की लगाने लगे तो अफ़सोस हुआ कि कितनी क़ीमती शराब ख़्वाम-ख़्वाह जज़्बाती होकर नालियों में बहा दी! मौलाना एमादुद्दीन मौलाना कहलवाने के बावजूद कोई बहुत ज़ियादा मज़हबी आदमी नहीं थे। यूं समझ लें कि मज़हब एक तरह से उनके पेशे का हिस्सा है। मौलाना एमादुद्दीन न तो नमाज़ पढ़ाते थे और न ही उनकी कोई और मज़हबी मसरूफ़ियत थी। वो दरअस्ल मौलाना का तमग़ा अपने नाम के साथ लगाने के कॉमर्शियल बेनिफ़िट से अच्छी तरफ वाक़िफ़ हो चुके थे इसलिए अपने नाम के साथ ये दुमछल्ला लटकाए फिरते थे। उनका ज़िन्दगी में मौलाना बनने का कोई इरादा नहीं था। बस ये मुक़द्दर की बात थी और इसमें इतनी हैरत वाली भी कौन सी बात थी। जब फ़िज़िक्स में एम.एस.सी करने वाला किसी बैंक में कैशियर का काम कर सकता है, फ़ौजी एजुकेशन मिनिस्टर बन सकता है और बैंकर प्राइम मिनिस्टर तो एमादुद्दीन मौलाना क्यों नहीं बन सकते थे?
गुज़रे ज़माने की एक तवाएफ़, रानी बेगम बाज़ारे-हुस्न में मस्जिद बनवा रही है। उन्होंने नफ़रत से सोचा। लाहौल वला क़यामत नज़दीक है भई। इस दौर में जो न हो जाए वो कम है। वो उस दिन गर्ल्ज़ कालेज में एक डिबेट में जज थे। दोपहर को उनके अपने मदरसे में सर्टिफिकेट डिस्ट्रीब्यूशन का प्रोग्राम था और शाम को सालाना ‘मजलिसे-अहया-ए-उलूमे-दीनिया’ (धार्मिक पुनरुत्थान हेतु बनाया गया संगठन) का जलसा था। वो रात गए घर लौटे और अपनी दूसरी बीवी ज़मर्रुद बेगम से रोज़ाना होने वाला झगड़ा करके जल्दी सो गए। रात में किसी वक़्त उनकी आँख खुली तो सबसे पहले उन्हें उस मस्जिद का ख़याल आया जो रानी बेगम बनवा रही थी। उन्होंने बार-बार सोचा कि उन्हें सुबह उस वक़्त से से जबसे उन्होंने ये ख़बर पढ़ी थी ये ख़याल तंग क्यों कर रहा है? कुछ समझ में नहीं आ रहा था। फिर अचानक वो लेटे-लेटे उछल पड़े, फिर उठकर बैठ गए। अब उनकी समझ में आ गया था की ये ख़याल उन्हें क्यों तंग कर रहा था। अरे बाबा ये तो एक निहायत ही सुलगता हुआ सियासी मुआमला बन सकता था। एक ऐसा इशू जो मौलाना एमादुद्दीन के लिए वोटों की बरसात ला सकता था।ख़बार उनके घर का था। वो इस टॉपिक पर ऐसी धुआंधार मुहीम चला सकते थे कि उनके मुख़ालिफ़ीन (विरोधियों) को छठी का दूध याद आ जाता। उनको अभी टिकट मिलने का मुआमला पक्का नहीं था लेकिन अगर वो इस इशू पर जानदार कम्पेन चला देते हैं तो पार्टी वालों का बाप भी उन्हें टिकट देगा। उन्होंने मुस्कुराकर सोचा और तेज़ी से गंजे होते सर पर हाथ फेरा।
दूसरे दिन के अख़बार ने सुर्ख़ी जमाई “बाज़ारे-हुस्न के ऐन दरमियान मस्जिद की तामीर। तवाएफ़ की जुरअते-रिन्दाना” नीचे रानी बेगम का कच्चा चिट्ठा बयान करके अख़बार ने वतन के इस्लामियों से अपील की थी कि वो इस सिलसिले में होने वाले जुलूस में भरपूर शिरकत करें जो जुमे की नमाज़ के बाद मौलाना के अपने मदरसे से निकाला जाना था Ι
रानी बेगम सीधी सादा सी तवाएफ़ थी, उस ग़रीब को क्या पता था की वो जिसे नेक समझकर कर रही थी वो ग़लत काम था Ι उसने अपने ख़िलाफ़ जुलूस निकलने की ख़बर सुनी तो उसके हाथों के तोते उड़ गए Ι वो तो मस्जिद के हवाले से लम्बा-चौड़ा मंसूबा बनाये बैठी थी कि कैसे वो मस्जिद के साथ दुकानें बनाएगी और उनसे आने वाला किराया मस्जिद के लिए ख़र्च करेगी Ι कैसे बाद में मस्जिद के साथ एक दस्तकारी मरकज़ (हथकरघा केंद्र) बनाएगी Ι बाज़ार की औरतों को हुनर सिखाएगी कि उनमें से अक्सर का बुढ़ापा बहुत तकलीफ़ देने वाला होता था वग़ैरह Ι अभी तो मस्जिद की बुनियादें ही उठी थीं कि मौलाना अपने लाव-लश्कर समेत बीच में कूद पड़े Ι
जुलूस से पहले वहां एक जलसा भी हुआ, और ख़ूब हुआ Ι दूर-दूर से लोग आये और अजीबो-ग़रीब मौलवियों ने वो तक़रीरें कीं कि लोगों के ईमान ताज़ा हो गए Ι दिलचस्प बात ये थी कि जलसे और जुलूस के ख़त्म होने तक किसी को इस सवाल का जवाब न मिल सका कि मौलवी हज़रात मस्जिद की तामीर के ख़िलाफ़ थे, रानी बेगम के ख़िलाफ़ थे या बाज़ारे-हुस्न में उस इमारत की तामीर के ख़िलाफ़ थे Ι मौलाना एमादुद्दीन से जुलूस के ख़ात्मे पर दो एक मुंहज़ोर क़िस्म के रिपोर्टरों ने ये सवालात किये तो उन्होंने मुस्कुराकर कहा-
“हज़रात आपके सवालात के बेहतर जवाबात इंशाअल्लाह कल की प्रेस कॉन्फ्रेंस में दिए जायेंगे” Ι
रानी बेगम के मज़दूर अगली सुबह तामीर की जगह पर पहुँचे तो उनका इस्तेक़बाल कुची दाढ़ियों और उटंगी शलवारों वाले लड़कों ने ईंटों और पत्थरों से किया Ι काम बंद करना पड़ा Ι
रानी बेगम के बाज़ार के साथी वैसे ही यहाँ मस्जिद की तामीर के ख़िलाफ़ थे इसलिए उनसे मश्वरा लेने का सवाल ही नहीं पैदा होता था Ι उसके साथ तो बस दो ही आदमी थे, एक उसका तबलची जिसे अब रात में अच्छी तरह सूझता भी नहीं था और दूसरा पुराना तमाशबीन जो पूरी लगन से इस काम को अंजाम देने की कोशिश कर रहा था Ι पहले उसने सोचा थाने जाए, फिर सोचा शहर में मौजूद अपने बदमाश जान पहचान वालों से मदद ले मगर मस्जिद का मुआमला था और रानी बेगम इस हवाले से कोई ऐसा काम नहीं करना चाहती थी जिससे उस काम के पाक होने पर कोई आँच आये Ι
मौलाना ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में साफ़ कह दिया कि चूंकि मस्जिद की तामीर में रानी बेगम की हराम की कमाई का पैसा शामिल हो रहा है इसलिए इस मस्जिद में इबादात वग़ैरह करना क़त्तई जाएज़ क़रार नहीं दिया जा सकता और ये की उन्होंने इस तामीर का काम बाज़ुओं के दम पर रुकवा दिया है और अगर किसी ने दोबारा उस काम को शुरू कराने की कोशिश की तो लाशों के ढेर लग जायेंगे Ι
रानी बेगम शिद्दत से परेशान थी Ι वो इस काम को हर क़ीमत पर मुकम्मल करना चाहती थी मगर मौजूदा हालात में ये नामुमकिन लगता था Ι फिर वो क्या करे Ι उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था Ι उसने ख़ुद तो कोशिश नहीं की, लेकिन अख़बार वाले ढूँढते-ढूँढते उसके पास पहुँच गए Ι वो इस सिलसिले में उसका मौक़फ़ (पक्ष) जानना चाहते थे Ι रानी बेगम को न सियासी लीडरों की डिप्लोमेटिक ज़बान आती थी, न उसे घुमा-फिराकर बात करने का ढंग मालूम था, उस दिन वो थी भी ग़ुस्से में लिहाज़ा उसने मौलाना को खरी-खरी सुनाई और धमकी दी की अगर उनके मदरसे के लड़कों ने उसकी जगह का क़ब्ज़ा न छोड़ा तो फिर वो भी जानती है कि घी निकालने के लिए उँगलियाँ कैसे टेढ़ी की जाती हैं Ι ये बयान अख़बारों में छपा तो लगा मौलाना के दिल की मुराद पूरी हो गयी Ι यही तो वो चाहते थे Ι उन्होंने पार्टी से बात की और पार्टी ने मुनासिब पब्लिसिटी करके एक और जलसे का बन्दो-बस्त कर दिया Ι ये जलसा पहले वाले से भी जियादा कामयाब रहा और तक़रीरों में कहे गए अल्फ़ाज़ से लोगों के ईमान ताज़ा और जज़्बे दूने हो गए Ι
रानी बेगम अदालत में चली गयी, मौलाना की पार्टी ने उस दिन उनसे वादा कर लिया कि अब उनको ही आने वाले इलेक्शन में स्टेट असेम्बली का टिकट दिया जाएगा Ι
जज के सवाल के जवाब में मौलाना ने जलसों में दिया जाने वाला बयान दोहराया और मज़हबी किताबों के हवालों से साबित किया कि रानी बेगम की कमाई किसी सूरत मस्जिद में नहीं लगाई जा सकती Ι रानी बेगम का कहना था कि वो पेशा कराने वाली औरत कभी नहीं रही सिर्फ़ नाच गाकर पैसा पैदा करती रही है और चूँकि ये मशक़्क़त का काम है और मौलाना एक घंटे भी नहीं कर सकते इसलिए उसकी कमाई को हराम क़रार देना सरासर ज़ियादती की बात है Ι
मुक़दमे की सुनवाई कुछ दिनों के लिए मुल्तवी कर दी गयी Ι मौलाना को इस मुक़दमे से बेपनाह शुहरत मिली और उनके वर्करों ने उनके इलाक़े के वोटरों को बराबर करना शुरू कर दिया Ι एक तरफ़ तो ये सब हो रहा था, दूसरी तरफ़ किसी ने सोचा न कभी इस टॉपिक पर बात की कि इस सारे खटराग का आख़िर मक़सद क्या था? अगर तो मौलाना एमादुद्दीन मस्जिद की तामीर रुकवाना चाहते थे तो वो काम तो हो गया था और अदालत ने वहाँ से मौलाना के मदरसे के लड़कों को हटाकर सरकारी आदमी मुक़र्रर कर दिए थे और अगर इसका कोई और मक़सद था तो वो क्या था? वकील हर पहलू से सोचते हैं Ι एक पेशी पर रानी बेगम के वकील ने ये सवाल मौलाना से पूछ ही लिया Ι मौलाना ने एक बहुत बड़ी क़सम खाकर कहा कि उन्हें मस्जिद की तामीर और उस जगह,दोनों के हवाले से कोई एतेराज़ नहीं Ι
सिर्फ़ रानी बेगम का पैसा इस काम में ख़र्च नहीं हो सकता Ι
उन दिनों मौजूदा हुकूमत पर उसकी कुछ पॉलिसीज़ के हवाले से प्रेस में ले-दे हो रही थी, हुकूमत चाहती थी ये केस जल्द से जल्द ख़त्म हो इसलिए जज को इसकी सुनवाई जल्दी करने और फ़ैसला फ़ौरन करने की हिदायत जारी कर दी गयी Ι जज ने सलाहनुमा फ़ैसला सुनाया Ι रानी बेगम जगह का क़ब्ज़ा छोड़ दे और बाक़ी की तामीर का काम मौलाना को करने दे जो इस काम के लिए अवाम से चंदा लेकर इसे अंजाम तक पहुंचाएंगे Ι रानी बेगम मस्जिद बनाना चाहती थी वो बन जायेगी, चाहे कोई भी बनवाए Ι
रानी बेगम के पास फ़ैसले को क़ुबूल करने के सिवा और कोई रास्ता भी नहीं था क्योंकि उसे मुसलसल फ़ोन पर धमकियाँ भी मिल रही थीं और तीन दिन पहले ही किसी ने रात के वक़्त नारू की सड़क पर मरम्मत करके कहा था कि उस रण्डी से कह देना अभी तो सिर्फ़ “टेलर” चलाया है अगर वो बाज़ न आई तो उसकी…देंगेΙ रानी बेगम मौलाना से सुल्ह करके अदालत से लौटी Ι
एक हफ़्ते के बाद मस्जिद की तामीर मौलाना ने अपने हाथ में ले ली Ι वो नेक और अच्छी शोहरत के आदमी थे Ι उन्हें दो लाख का पहला चेक मिसेज़ क़ुरैशी ने दिया Ι मिसेज़ क़ुरैशी के मियां मिस्टर क़ुरैशी तीन बार ग़ैर-मुल्की शराब बेचने के इलज़ाम में छोटी-छोटी सज़ाएँ काट चुके थे Ι दूसरा चेक दिलावर ख़ान की तरफ़ से आया Ι दिलावर मशहूर सट्टेबाज़ था और एक बार स्टाक मार्केट को बिठाने के जुर्म में जेल भी जा चुका था Ι तीसरा चेक मैडम नौशाबा ने दिया जो इस्लामाबाद के “कम्फ़र्ट्स पॉइंट्स” में लड़कियां सप्लाई करने का धंधा करती थी Ι
चौथा चेक…