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अद्वैतवाद के हामी शायर ग़ालिब

आज महान शायर ग़ालिब की पुण्यतिथि है। आज पढ़िए प्रसिद्ध सितारवादक और संगीत के प्राध्यापक असित गोस्वामी का यह लेख-

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कोई शख्स़ एक ही वक़्त में मुसलमान भी हो और काफ़िर भी हो, यह बात थोड़ी विचित्र लग सकती है. परन्तु ग़ालिब जैसी शख़्सियत के मामले में  यह तज़ाद (विरोधाभास) कोई हैरत की  बात नहीं। ग़ालिब ने ख़ुद कहा है कि मैंने शराब कभी छोड़ी नहीं और रोज़ा कभी रखा नहीं इसलिए मैं एक मुसलमान नहीं, बल्कि एक काफ़िर हूँ। दूसरी ओर वो  यह भी कहते हैं कि अगर मैं शराबनोश नहीं होता तो मेरे धार्मिक विचारों के कारण मुझे एक वली समझा जाता-

ये मसाइल-ए तसव्वुफ़ ये तेरा बयान ग़ालिब

तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता

ग़ालिब एक दार्शनिक नहीं थे। पर अपनी शायरी के माध्यम से अपना एक विचार या दर्शन प्रस्तुत कर रहे थे। अपने  फ़ारसी संग्रह ‘कुल्लियात-ए-ग़ालिब’ में उन्होंने कहा है कि अगर काव्य का शौक़ इस धरती का क़ानून होता तो मेरे काव्य की शोहरत परवीन नक्षत्र के समान (ऊँची) होती और अगर काव्य कला एक धर्म होता तो मेरी यह किताब एक धार्मिक किताब होती –

गर ज़ौक़-ए-सुख़न ब दहर-ए-आईं बूदी

दीवान मरा शोहरत-ए-परवीं बूदी

ग़ालिब अगर ईं फन्न-ए-सुख़न दीं बूदी

आँ दीन रा यज़दी किताब-ए-ईं बूदी

ग़ालिब की शायरी के हवाले से उनके धार्मिक विचारों की पड़ताल करें, तो हम पाते हैं कि वे इस्लाम की मूल मान्यता एकेश्वरवाद पर यक़ीन रखते थे। उनके इस विश्वास की शहादत बहुत से  अश’आर में मिलती है। एक शेर में वो कहते हैं कि उसे कोई देख नहीं सकता है, वो अपने आप में एक ही है उस जैसा कोई दूसरा नहीं हो सकता है-

उसे कौन देख सकता कि यगाना है वो यकता

जो दूई की बू भी होती तो कहीं दो चार होता

फ़रमाते हैं कि सब स्वीकार करते हैं कि तू एक ही है, अद्वितीय है और कोई तेरे समकक्ष या आमने-सामने नहीं आ सकता-

सब को मक़बूल है दावा तिरी यकताई का

रूबरू कोई बुत-ए आइना-सीमा न हुआ

ग़ालिब तौहीद, ईश्वर के अद्वितीय होने के, यानी ईश्वर केवल एक ही है, इस विश्वास के हामी और शिर्क यानी बहुदेववाद या बुत-परस्ती के मुख़ालिफ़ नज़र आते हैं। वे कहते हैं कि जो एक ही  है  उस को अनेक रूपों में तराशना आराधना का एक मिथ्या रूप है I इन काल्पनिक बुतों ने मुझे काफ़िर बना दिया है –

कसरत आराई-ए-वहदत है परिस्तारी-ए-वहम

कर दिया काफ़िर इन असनाम-ए-ख़याली ने मुझे

ग़ालिब सभी संप्रदायों में आपसी हम-आहंगी  के पैरोकार थे। हम एक ईश्वर को मानने वाले हैं और हमारा काम बंधी-बंधाई रीतियों को छोड़ना है। जब समुदायों का अंतर मिट जाता है तब ही वो असल में धर्म का अंश होता है-

हम मुवह्हिद हैं हमारा केश है तर्क-ए-रुसूम

मिल्लतें जब मिट गईं अज्ज़ा-ए-ईमाँ हो गईं

साहित्य अपने समय की सांस्कृतिक और सामजिक मान्यताओं का आईना होता है I और उन मान्यताओं में बदलाव तत्कालीन साहित्य में प्रतिबिंबित होते हैंI सूफ़ी मत के प्रभाव और हिन्दुस्तानी संस्कृति से प्रतिकृत होने के फलस्वरूप ग़ालिब के कुछ पूर्ववर्ती और समकालीन शायरों ( वली दक्खिनी, सौदा,  मीर और ज़ौक़ आदि ) ने कट्टरपंथी विचारों पर प्रहार कर समन्वय वादी दृष्टिकोण अपनाया । प्रतीकों और आडंबरों को नकारते हुए वली का कहना है कि अगर आज़ादी चाहिए तो सुबहा (मुसलमानों द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली जपमाला) और जनेऊ के बंधन से मुक्ति ज़रूरी है-

गर हुआ है तालिब-ए-आज़ादगी

बंद मत हो सुब्हा ओ ज़ुन्नार का

सौदा मानते हैं कि ईश्वर तो हर जगह मौजूद है मंदिर और मस्जिद तो ईंट पत्थर के सिवा कुछ नहीं है-

जुज़ संग क्या है दैर ओ हरम में जो सर झुके

सजदा किया है तुझको मैं पहचान हर कहीं

सौदा का ही एक शेर और देखिए। कृष्ण की इस उपमा के माध्यम से ईश्वर की हर जगह मौजूदगी को कितनी रोचकता से बयां करते हैं  –

नहीं है घर कोई ऐसा जहाँ उस को न देखा हो

कन्हैया से नहीं कुछ कम सनम मेरा वो हरजाई

ज़ौक़ ने स्थापित मान्यताओं पर तंज कसते हुए कहा है –

ज़ौक़ जो मदरसों के बिगड़े हुए हैं मुल्ला

इनको मैख़ाने में ले आओ सँवर जाएँगे

मीर भी समानता और समन्वय की हिमायत करते हुए कहते हैं-

उसके फ़रोग़-ए-हुस्न से झमके है सब में नूर

शम’अ-ए-हरम हो या कि दिया सोमनात का

उस दौर में शायर न सिर्फ़ आपसी सामंजस्य की बात कर रहे थे बल्कि बाग़ी तेवर अपनाते हुए दूसरे धर्मों की क़ाबिल-ए-क़ुबूल बातों की तरफ़ आकर्षित भी हो रहे थे। मीर ने तो कुफ़्र का ख़तरा उठा कर यहॉं तक कह दिया था कि मैं तो इस्लाम को छोड़ तिलक लगाकर मंदिर में बैठ गया हूँ  –

मीर के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो

क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया

क्या त’आज्जुब कि ग़ालिब भी इन सब से अछूते न रह सके । ग़ालिब भी यह मानते हैं कि जनेऊ और सुबहा (इस्लामी माला) जैसे  प्रतीकों की बजाए विश्वास और आस्था ही ब्राह्मण और शेख़ के लिए सही कसौटी हैं-

नहीं कुछ सुबहा‐ओ‐ज़ुन्नार के फंदे में गीराई

वफ़ादारी में शैख़‐ओ‐बरहमन की आज़माइश है

ग़ालिब का मानना था कि धर्म के प्रति आस्था में स्थायित्व पहली शर्त है –

वफ़ादारी बशर्त-ए-उस्तुवारी अस्ल-ए-इमां है

मरे बुतख़ाने में तो काबे में गाड़ो बिरहमन को

बल्कि ग़ालिब तो इससे भी आगे बढ़कर इस्लामी प्रतीक सौ दानों की माला को तोड़कर जनेऊ धारण कर लेने की राह भी सुझाते हैं-

ज़ुन्नार बांध सुबहा-ए सद-दाना तोड़ डाल

रहरौ चले है राह को हमवार देख कर

यहाँ ग़ालिब तस्बीह और जनेऊ के भौतिक स्वरूप के बीच के अंतर को तो बता ही रहे हैं (जिस प्रकार माला के दानों का आकार  ऊबड़-खाबड़ और उतार-चढ़ाव लिए होता है और जनेऊ का आकार सीधा-सपाट होता है) साथ ही उस रास्ते को समतल और आसान भी बता रहे हैं।

आठवी- नवीं सदी में शंकराचार्य ने अद्वैतवाद का सिद्धांत दिया । इस मत को वेदांत भी कहा जाता है। इस मत के अनुसार ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है और यह दृश्यमान जगत मिथ्या है और सबसे महत्वपूर्ण यह कि जीव (आत्मा) और ब्रह्म (परमात्मा) एक ही हैं उनमें में कोई अंतर नहीं है। वृहदारण्यक उपनिषद में भी कहा है  ‘अहं ब्रह्मास्मि’ अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ। अर्थात जीव ही ब्रह्म है।

इसी काल में ईरान में हज़रत मंसूर हुए हैं। उन्होंने कहा था  ‘अन-अल-हक़’। यानी मैं ही सत्य हूँ। मंसूर के इस कथन को उनके ख़ुदा होने के दावे के रूप में देखा गया और उनको अन्ततः सूली पर चढ़ा दिया गया । शंकराचार्य को भी उनके समय बहुत विरोध का सामना करना पड़ा था।

भक्ति काल तक आते आते हम पाते हैं कि इस मत को व्यापक रूप से मान्यता मिलनी आरंभ हो चुकी थी।  तुलसी दास में भी हमें इसके अंश दिखाई देते हैं । किष्किंधा कांड की चौपाई है-

सरिता जल जलनिधि महूँ जाई

होई अचल जिमि जिव हरि पाई

कबीर ने भी अद्वैत दर्शन का समर्थन ही किया है। उनकी अनेक रचनाओं में भी इसकी बानगी मिलती है-

 

जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर-भीतर पानी

फूटा कुम्भ जल जलहिं समाना, यह तथ कथ्यौ गियानी

ग़ालिब भी आत्मा और परमात्मा, जीव और ब्रह्म या सूक्ष्म और विराट के एक होने के विचार को मानते थे । इसका सबूत उनके अनगिनत शेरों में दिखलाई पड़ता है। वे कहते हैं कि संसार की हर वस्तु में तू है परंतु फिर भी तू सबसे अलग है-

हरचंद हर इक क़तरे में तू है

पर तुझ सी तो कोई शै नहीं है

ग़ालिब का मानना था कि जो दृष्टि एक बूंद में समुद्र को और एक अंश में समग्र को नहीं देख पाए वह दृष्टि बच्चों का खेल है-

क़तरे में दजला दिखाई न दे और जुज़्व में कुल

खेल लड़्कों का हुआ दीदा-ए बीना न हुआ

जिस प्रकार हर बूंद यही कह रही है कि मैं ही समुद्र हूँ उसी प्रकार हम भी उसी के हैं (वह ही हैं)

दिल-ए-हर क़तरा है साज़-ए-अन-अल-बहर

हम उसके हैं हमारा पूछना क्या

एक शेर में वो कहते हैं मैं मंसूर की तरह कोई गर्वोक्ति नहीं कर रहा हूँ परन्तु हक़ीक़त में तो मेरा क़तरा भी अपने आप में एक दरिया ही है-

क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया लेकिन

हम को तक़लीद-ए तुनुक-ज़रफ़ी-ए मंसूर नहीं

जिस प्रकार एक बूंद का अंतिम आनंद समुद्र में मिलकर अपने अस्तित्व को समाप्त कर देने में  है उसी प्रकार आत्मा को भी अन्ततः परमात्मा में ही मिल जाना है-

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना

अद्वैतवाद न सिर्फ़ यह कहता है कि आत्मा (जीव) परमात्मा का ही अंश है, या सूक्ष्म विराट का ही अंश है, बल्कि यह भी मानता है कि यह जगत मिथ्या है। ग़ालिब ने भी अनेक अशआर में इस असार संसार की बे-मसरफ़ी (निरर्थकता) की ओर इशारा किया है। एक शेर में संसार को प्रेमिका की अदृश्य कमर की उपमा देते हैं जिसके बारे में कहा नहीं जा सकता कि वो है भी या नहीं-

शाहिद-ए हस्ती-ए मुतलक़ की कमर है आलम

लोग कहते हैं कि है पर हमें मंज़ूर नहीं

ग़ालिब जीवन या अस्तित्व को एक फ़रेब और इस संसार को एक कल्पना का जाल मानते हैं और उनका मानना है कि भले ही लोग कहते हैं कि अस्तित्व है परंतु वह नहीं है-

हस्ती के मत फ़रेब में आ जाइयो असद

आलम तमाम हलक़ा-ए-दाम-ए-ख़याल है

हाँ खाइयो मत फ़रेब-ए-हस्ती

हर-चंद कहें कि है नहीं है

ब्रह्म और जीव के बीच इस एकत्त्व को फ़ारसी में ‘वहदत-उल-वुजूद’ कहते हैं। इसका अर्थ है अस्तित्त्व का एकत्त्व यानी जो कुछ है सब कुछ केवल एक ही है। इसी प्रकार ‘वहदत-उल-शुहूद’ अर्थात जो कुछ दिखाई दे रहा है वह सब केवल एक ही है। हालांकि इस मान्यता का विरोध भी होता रहा है। एक अन्य मान्यता के अनुसार ‘ला-मौजूद-अल-अल्लाह’ अर्थात अल्लाह के सिवा कोई और मौजूद नहीं है। अर्थात जो कुछ है सब अल्लाह ही है। यह एक ऐसा मक़ाम है जहाँ शुहूद (दृश्य) शाहिद ( दृष्टा) और मशहूद (दृष्टि) के बीच कोई अंतर नहीं है-

अस्ल-ए-शुहूद-ओ-शाहिद-ओ-मशहूद एक है

हैरां हूँ फिर मुशाहिदा है किस हिसाब में

इसी ग़ज़ल का एक अन्य शेर है-

शर्म इक अदा-ए नाज़ है अपने ही से सही

हैं कितने बे-हिजाब कि यूँ हैं हिजाब में

ग़ालिब के यहाँ बंदगी और ख़ुदाई के बीच का अंतर पाट दिया गया नज़र आता है। ‘जिसे तू बंदगी कहता है, दावा है ख़ुदाई का’ कहने वाले ग़ालिब की आज़ाद नज़र ब वक़्त-ए-बंदगी भी ख़ुद बीनी (आत्म-अवलोकन) में मुब्तिला है। एक शेर और देखिए-

नियाज़ पर्दा-ए इज़हार-ए ख़ुद-परस्ती है

जबीन-ए सिजदा-फ़िशाँ तुझ से आसताँ तुझ से

पहले मिसरे को पढ़कर ऐसा लगता है कि ग़ालिब  ईश-पूजा को आत्म-पूजा पर पर्दा डालने का ज़रिया कह रहे हैं अर्थात ख़ुद (आदम) को ख़ुदा के बराबर का दर्ज़ा दे रहे हैं। मगर शेर का  मिसरा-ए-सानी शेर के अर्थ की तहों को अच्छी तरह खोल देता है। यहाँ ग़ालिब कहते हैं कि जो जबीन (पेशानी) सजदा कर रही है वो तुझसे ही (तेरी ही) है, जिस आस्तान (चौखट) पर सजदा किया जा रहा है वह भी तेरा ही है । तो फिर मसजूद और साजिद को अलग अलग कैसे मान सकते हैं? जो पूजक है वो दरअसल पूज्य का ही अंश है। पूजने वाला स्वयं को ही तो पूज रहा है। इसलिए यह नियाज़ (पूजा) इस ख़ुद-परस्ती (आत्म-पूजन) पर पर्दा डालने का उपक्रम ही है ताकि प्रतीत रूप में पूजक और पूज्य, जो की असल में एक ही है, भिन्न दिखाई दें।

ग़ालिब के इतने विशाल और विस्तृत कलाम में से कोई एक पक्ष को विचार के लिए चुनना बहुत दुष्कर कार्य है । अद्वैतवाद और उससे जुड़े पहलुओं पर ग़ालिब के हवाले से बहुत कुछ लिखा जा चुका है और बहुत कुछ लिखा जा सकता है। पर अपनी सीमाओं और लेखनी की सीमाओं के मद्देनज़र अपनी बात को इस शेर के साथ समेटता हूँ।

वरक़ तमाम हुआ और मद्ह बाक़ी है

सफ़ीना चाहिए इस बहर-ए-बेकराँ के लिए

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डॉ0 असित गोस्वामी

एसोसिएट प्रोफ़ेसर (संगीत)

राजकीय महारानी सुदर्शन महाविद्यालय,

बीकानेर

9414265433

asitsitar@gmail.com

 
      

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