
आज पढ़िए सुदीप सोहनी की कविताएँ। सुदीप भारतीय फिल्म एवं टेलीविज़न संस्थान, पुणे के वर्ष 2013-14 के छात्र थे। कवि, पटकथा लेखक, निर्देशक, परिकल्पक व सलाहकार के रूप में सुदीप का कार्यक्षेत्र सिनेमा, रंगमंच, साहित्य, व संस्कृतिकर्म तक फैला है। नीहसो – उपनाम से कविता लेखन। सुभद्रा, न्यूटो और प्लूटो, स्टोरी ऑफ अनटाइटल्ड कैनवास, अमृता, रूमी उनके द्वारा निर्देशित चर्चित नाटक हैं जिनके देश भर में 30 से ज़्यादा मंचन हुए हैं। 63वें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार समारोह में दादा साहब फाल्के पुरस्कार के मौके पर राष्ट्रपति भवन में गुलज़ार पर प्रदर्शित फ़िल्म का लेखन। हाल ही उनके द्वारा लिखित-निर्देशित शॉर्ट फ़िल्म ‘#itoo’ को देश के विभिन्न फ़िल्म फ़ेस्टिवल्स में सराहना प्राप्त हुई है। विगत वर्षों से देश की प्रमुख पत्रिकाओं, ब्लॉग, वेबसाइट्स आदि पर सिनेमा संबन्धित आलेख, कविता व गद्य का नियमित प्रकाशन। इन दिनों 8-वर्षीय भरतनाट्यम नृत्यांगना तनिष्का हतवलने के नृत्य पर आधारित फीचर डॉक्यूमेंट्री ‘तनिष्का’ के निर्माण में संलग्न। विश्वरंग अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल, भोपाल 2020 व 2021 के निदेशक रहे सुदीप स्क्रीनराईटर्स असोसिएशन, मुंबई के गत वर्ष सम्पन्न हुए पहले अवार्ड्स की जूरी में नामित रहे। सिनेमा पर श्रेष्ठ लेखन के लिए म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन का ‘पुनर्नवा सम्मान’। रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय भोपाल द्वारा जूनियर टैगोर फ़ेलोशिप। सिने समालोचना के लिए प्रथम विष्णु खरे स्मृति सम्मान के लिए चयनित।
प्रस्तुत है उनकी नौ कविताएँ-
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( 1 )
वो मेरे साथ मैं थी
हमने आलोक धन्वा की कविता कितनी बार साथ पढ़ी
हर बार एक दूजे से कहा मिलने की टीस पर
‘कितनी रेलें चलती हैं भारत में’
और जब कोई रेल हमने पकड़ ली तो हमेशा रेल का शुक्रिया कहा
हर बार अलगाव के समय हमने कहा
‘एक बार मिलने के बाद एक और बार मिलने की इच्छा …’
इस पंक्ति को रुँधे गले से बस इतना ही उच्चारा
एक बार मैं जब ढलान पर था पहाड़ के
और वो तेल में भेजिए तल रही थी तो
तेल की तड़क की आड़ में उसने सिसकी ली थी
मैं बताना चाहता हूँ
कि बहुत बार मैंने बहुत कुछ जज़्ब किया
पर बहुत कम बार जताया
एक बार हम समंदर के सामने थे और
उतने बड़े समंदर के सामने
हमारे सिवा और कोई न था दूर तक
मैंने चुपके ईश्वर को धन्यवाद दिया था, इस दृश्य में हमारे होने की सृष्टि पर
एक बार मठरियों को स्वाद ले लेकर इतना चखा
कि स्वाद उतर गया
पर सालों बाद मठरियाँ अब भी काग़ज़ की प्लेट में रखी इंतज़ार कर रहीं
आलू-पूरी उस जंगल की
जिसका गवाह बादल का बच्चा रहा
तस्वीर में अब भी ज़िंदा है, साँस ले रहा
हमारे बीच सदियाँ, पलों की तरह बीतीं
हमने समय को बिताया नहीं, सहेज लिया
आज जब स्मृतियों को बुहार रहा
मैंने जाना दो होकर भी हम दो नहीं कई होते हैं
वो मेरे साथ मैं थी
उसके कई हिस्से जो वो थे, उन्हें मैं जी रहा था
यक़ीन है मुझे इस बात का
मेरे भी कई हिस्से उसके पास यूँ टुकड़ों में होंगे ही
जोड़-जोड़ कर जिन्हें
अपने समय को रचने का सुख ले रहे हैं हम अकेले हो कर भी
मैं शुक्रगुज़ार हूँ ऐसे में
और नत भी समय के सम्मुख
सृष्टि में जब बदल रहा पल-प्रतिपल
हमने समंदर,पहाड़,बादल, कविता और स्वाद को बचाया
प्रेम में हमने ख़ुद को खोया, ख़ुद को रचा और ख़ुद को बचाया
(2)
सीख
जिसे प्रेम करो
उसे दुआयें दो हज़ार
कहो नहीं
जिसने अपमान किया
उसे माफ़ करो
भूलो नहीं
जो भूल गया
उसे याद न दिलाओ
जाने दो
जो ईर्ष्या करे
उस पर तरस खाओ
तरेरो नहीं
जो बीत गया
उसे विदा दो नम आँख से
और मुस्कुराओ
जो पास आना चाहे
उसको लगाओ गले जी भर के
और लौट जाने का हौसला दो
दुःख को ख़ुद से कहो इतना
कि आँसू पोंछते वक्त
कोई देखे नहीं
(3)
भाषा
मैं जिस शहर में पैदा हुआ
उसकी ज़बान भले देसी हो, पर
आत्मा को वही रुचा जिसके शब्द कलम-पट्टी पर सीखे
मैं वही भाषा बोलता हूँ
जो मेरी आँख के आँसुओं की है
जिससे मेरी नसों में प्रेम दौड़ता है
उसी भाषा में साँस लेता हूँ
अपमान के वही घाव सबसे ज़्यादा असहनीय रहे
जो मेरी भाषा में मुझसे कहे गए
स्मृतियों की भाषा भले तस्वीरों की है
मगर उसका खाद-पानी मेरी भाषा के शब्द हैं
सर से पाँव तक मैं अपनी भाषा में बहलता हूँ
करुणा और याचना के क्षणों में उसी में सिसकता हूँ
भाषा ने ही पहचान दी
होठों पर मुस्कुराहट और चेहरे पर आने वाला ताब भी
भाषा ने ही दिया
अपनी भाषा में जो न कह सका
उससे कम भरोसेमंद मुझे कुछ न लगा
हाँ, उम्मीद ज़रूर रही कि वो भी पहुँचे
जो अपनी भाषा में कह नहीं पा रहा
सफ़र में भाषा ही हमसफ़र रही
दूर देश की भाषाओं को अपनी भाषा में ही महसूस किया
वो तब भी साथ होती है
जब मैं कहीं नहीं भी होता हूँ
पत्रों में, मनुहार में
गुस्से में, इज़हार में
ठहाकों में, स्वाद में
आहों में, बीत चुके सालों में
भाषा मेरी हमरूह रही
भाषा ने तन भी बचाया और मन भी
भाषा का यह उपकार हमेशा रहेगा
कि वह माँ जैसी रही
पर सपने में भी यह अधिकार न जताया
(4)
संतूर बज रहा है
संतूर बज रहा है
और अपनी ही गोद में थक कर सो रहा है समय
घुल रहा हवा में एक-एक सुर
जैसे बूंद-बूंद रिस रहा पानी
जड़ में, किसी पेड़ की
जैसे उड़ न रहा
बह रहा हो हवा में पक्षी इक
समेटते हुए अपने पंख
संतूर बज रहा है
और धमनियों में बहुत दिनों बाद बह रही हैं साँसें
अरसे बाद जागा है प्रेम
और लिखे हैं ख़ुद को ही ख़त
जिनमें हवाला है पहाड़ों की एक सर्द रात का
जब बर्फ़ उतर रही थी उँगलियों में
और पैदा कर रही थी इक सूरज, भाप का
संतूर बज रहा है
और झील में उतर आया है चाँद किसी नाव-सा
जो तैरता रहेगा अकेले और
उतारेगा किसी किनारे
जहाँ से अकेले ही वापस लौटना होगा
(5)
पहाड़ से खिड़की
अभी जिस जगह मैं लेटा हुआ हूँ
वहीं, ठीक मेरे सामने
खिड़की है एक
खिड़की के परे
बादल हैं पसरे –
पानी वाले
पानी वाले बादल पहाड़-से लग रहे
दिखते हैं
भाप के साथ भागते बादल –
बेचैनी की तरह
खिड़की के परे
नज़र आता है पहाड़ मुझे
क्या पहाड़ से
वो खिड़की दिखती है
जहाँ इस समय लेटा हुआ हूँ मैं ?
(6)
छतें
मैं जब भी
कामों से बच-बचाकर निकलता हुआ
आता हूँ अपने शहर
तो शामों को छत पर चला जाता हूँ
और देखता हूँ आसपास की छतों को
एक-दूसरे से जुड़ी ये छतें
हथेली की रेखाओं-सी लगती हैं
समय का इक पन्ना पलटता है
और ये छतें दूसरी दुनिया में ले जाती हैं
– घरों से होती हुई कमरों में
कमरों से व्यक्तियों में
व्यक्तियों से समय में
मैं समय के पार खड़ा होकर
अपने आप को देखता हूँ
छतों से होकर मैं सुई में धागे-सा निकल जाता हूँ
अब इन छतों पर कोई नहीं दिखता
मोहल्ले का सूनापन यहाँ भी पसरा रहता है
दिखती है किसी सूपड़े में सूख रही बोर भाजी
इंतज़ार करती हुई, बूढ़ी अम्मा की तरह
दिखते हैं साइकिल के पुराने पड़े टायर
आधे तय किए सफ़र–से
टूटे पड़े किसी बल्ले में छूटा हुआ बचपन ही देखता हूँ
विदा लेते सूरज के साथ उदासी ही नज़र आती है
मैं कुछ समय चुप रहता हूँ
और अपना सबसे ख़ूबसूरत सपना याद करता हूँ
एक आँसू टिमकता है अंधेरे में
फिर धीरे से कोई ख़ुश्क गला
कोने में रखे तुलसी के गमले में
भरोसे का उजाला रख देता है
और
जीवन पल में चहक उठता है
जी लेने के बाद
मैं कविता लिखने की फ़िराक़ में होता हूँ
‘छोटे शहरों में अब भी बची हुई हैं छतें’
कविता में इस पंक्ति को लिख पाने की ख़ुशी है!
(7)
चेहरे
कुछ चेहरे होते हैं
जिन्हें एक उम्र में हर रोज़ देखते हैं हम
रोज़ नहीं तो किन्हीं ख़ास मौक़ों पर
तो देख पाते ही हैं
कि
मोहल्ले में फलाँ के यहाँ आता है यह शख़्स
या शाम ढले यहीं शर्मा जी के यहाँ
होने वाली बैठक में
उकड़ूँ हो कर बैठता है
पान बीड़ी की लत है इन बुज़ुर्ग को
या
‘बहुत पहले ही इसकी माँ मर गयी थी, तब से
काम कर रहा है बेचारा’ पापा ने बताया था
और भी कई
जो बाज़ार में दिख जाते थे अक्सर
या वो जो हमारे रिश्तेदार नहीं
शहर के रईस
बस स्टैंड की होटल का अक्खड़ सेठ
सिनेमा चौक का बूढ़ा चाट वाला
नीम के नीचे साइकल के टायर में हवा भरने वाला
(जो पापा की पहचान के कारण
आठ आने की हवा फ्री में भर देता था)
पिंटू के देवास वाले ताऊ
मेघा की मुंबई वाली मौसी
सुमित के दिल्ली वाले चाचा
स्वाति के अमेरिका वाले मामा
कई बार तो वो सिर्फ़ नाम होते हैं ताउम्र
(स्मृति में टँके, वक़्त के पेड़ का फल बने)
जो गुज़रो याद की गली से, अपने चेहरे के साथ याद आते हैं
हाँ, वो ही कुछ जाने-अनजाने चेहरे
जो अब पता नहीं कहाँ हैं?
और ज़ोर डाल कर सोचो तो लगे
पता नही, थे भी या नहीं ?
(8)
हारा हुआ प्रेमी
कोई फ़र्क नहीं होता है युद्ध में हारे हुए राजा में
और एक हारे हुए प्रेमी में
शिकस्त के अपमान से ज़्यादा
झुकी होती हैं नज़रें इसलिए
कि संधि की कोई कोशिश काम न आ सकी
घुटनों के बल बैठे हुए
अभयदान की याचना
दरअसल प्रेम की याचना है
कुछ पा लेने की सनक पूरी होने के बाद
अट्टहास से गूँजती आवाज़ें
दरअसल भ्रम ही तो हैं आधिपत्य का
(हर जीत के साथ इंसान खोता ही है, कुछ न कुछ अपने भीतर)
क्या सच
जीत के अपने गर्वोन्मत्त क्षण होते हैं?
होते होंगे, शायद
इतिहास भी, हारे राजाओं की गिनती का कम ही हिसाब रखता है
पर सच ये भी है
कि महत्त्वाकांक्षा और सब कुछ पा लेने की ज़िद के नीचे
तबाह तो हुए हैं कई वंश
हाँ, हुआ होगा ऐसा
सुनी है कई कहानियाँ हम सब ने
“एक था राजा, एक थी रानी
दोनों मर गए, ख़तम कहानी “
जीत की याद में सजते हैं ढेरों
प्रतीक चिन्ह, स्तम्भ और इतिहास के पन्ने
– सुनाते हुए गुज़रा हुआ वैभव
पर अबकी जब देखो इन्हें
ध्यान से सुनने की कोशिश करना
– किसी जीत में, किसी की हार का दर्द भी लिपटा है
इतिहास के काग़ज़ों में दर्ज हैं
सैकड़ों गाथाएँ विजयश्री की
और उसी के साथ चिपके हुए हैं कुछ पीले पन्ने
जिन पर अटी पड़ी है धूल
उस एक कराह की
जो आक्रमण से पहले किसी राजा ने ली होगी
सुना था कहीं
प्रेम करना गुलामी है और किया जाना बादशाहत
हारा हुआ प्रेमी, एक हारा हुआ राजा ही तो होता है
(9)
मुलाक़ात
(नवीन सागर के लिए)
नवीन सागर
यह नाम मैंने कितनी बार पुकारा होगा
और हर बार इस नाम ने ज़हन में एक तस्वीर बनाई
जब-जब भी किसी ने ज़िक्र किया तुम्हारा
मैंने महसूस किया कि
रोशनपुरा के चौराहे पर जहाँ उतार से बाणगंगा की तरफ़ को जाते हैं
उस ढलान पर
एक स्कूटर पर बैठे तुम उतर रहे हो
और
तुम्हारे बाल उड़ रहे हवा में
मेरी दोस्त समता और तुम्हारी गुड़िया ने
मुझे जितने भी क़िस्से सुनाये तुम्हारे
मुझे लगा
हमारे साथ बैठे तुम भी उन्हें सुन रहे, मुस्कुरा रहे पर बोल न रहे
वो जब कहती
कि कई दिनों तक तुम किसी उदासी से अकेले लड़ते
तो किसी गवर्नमेंट क्वाटर के किसी कमरे में
तुम्हें देख लेने की ललक में परेशान हो
मैं उन सब गवर्नमेंट क्वाटर के कमरे देख आता जो मेरी स्मृति में हैं
कोई जब कहता
कि सालों पहले की बात है हम सब खड़े थे और हमारे बगल से नवीन गुजरे
तो हर बार मैंने तुम्हारे बगल से गुज़र जाने पर तवज्जो दी
लगा तुम गुज़र न रहे, वहीं खड़े हो
मैं जानना नहीं चाहता
कि किन षडयंत्रों के शिकार हुए तुम या तुम्हारी क्या कमज़ोरियाँ रहीं
मगर हर बार तुम्हारी कविता ने
मुझे तुम्हारे होने के अहसास से भर दिया
शब्द पर मेरा भरोसा हमेशा रहा है
तुम्हारी मृत्यु के लगभग 15 वर्षों बाद मैंने जाना
कि कविताओं में तुम कह गए थे
जिसने मुझे मारा उसे सब देना, मृत्यु न देना
तुम इस कविता को कैसे लिख सके
यह मेरे लिए हर बार अचरज भरा रहता है
बहुत अच्छी लगीं सुदीप सोहनी की कविताएँ कि मैं खुद को कमेंट करने से रोक नहीं पा रही. मेरे पास नम्बर होता तो मैं बात करती. अपनी भाषा , अपने मोहल्ले के भूले बिसरे लोग, जिन्हें हम कभी भुला नहीं पाते और वे तमाम उमर हमारे भीतर रहे आते हैं, उसमें खबर ही नहीं होती. नवीन सागर, जिनकी खुद मैंने कितनी ही बातें सुनी हैं. जिनसे कभी वैसे मिलना नहीं होता, कविता में हो जाता है और क्या ख़ूब होता है. हमारा मन भी तो एक बड़ा मोहल्ला है, घर बदल कर चले गए लोग अब भी वहीं रहते हैं. उसी पुराने कुएँ से पानी पीते हैं. कभी किसी रात को उठकर चले आते हैं मिलने तो हम हैरानी से उन्हें देखते रह जाते हैं …, अच्छा तुम अब भी यहीं हो.
बहुत साधुवाद. आमतौर पर मैं इस तरह लिखती नहीं पर अब क्या कीजे. कविताओं का असर ठहरा.
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