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कोई हयात ज़माने को है अज़ीज़ बहुत: फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की जीवनी

पंकज पराशर को पढ़ना हर बार कुछ सीखना होता है। इस बार उन्होंने बीसवीं सदी के संभवतः सबसे बड़े शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पर लिखा है। कुछ समय पहले उनकी जीवनी का हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुआ था। उसी बहाने यह सहेजने लायक लेख पढ़िए-

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“इससे पहले कि इस आलेख को आप पढ़ें, मेरा यह ‘डिस्क्लेमर’ पहले पढ़ लें. दरअसल हुआ यह कि यह आलेखनुमा समीक्षा लिख चुकने के बाद मैंने इसे संपादित किया और एक जगह कंप्यूटर में सेव कर दिया. ग़लती यह हुई कि पक्षधर पत्रिका के संपादक प्रो विनोद तिवारी को मेल करते समय मैंने मेल के साथ असंपादित फाइल अटैच कर दी और संपादित फाइल जाने से रह गई. अंक छप जाने के बाद यह ग़लती पकड़ में आयी तो बहुत अफ़सोस हुआ. पर छप जाने के बाद अब किया ही क्या जा सकता था. ख़ैर, आप इसका आलेख का सही और अविकल रूप यहाँ पढ़िए.”- पंकज पराशर

यह एक अज़ीब इत्तफ़ाक है कि जिन दिनों उर्दू के तरक्कीपसंद शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की ‘सवानिहे हयात’ यानी जीवनी का अँगरेज़ी से हिंदी में अनुवाद हो रहा था, तकरीबन उन्हीं दिनों निहायत ग़लत वज़हों से उनका नाम हिंदुस्तान की ख़बरों में था! इंतकाल के पूरे सैंतीस बरस बाद फ़ैज़ की नज़्म ‘हम देखेंगे’ की चर्चा निहायत जहालत और ग़लाजत भरी ज़बान में की जा रही थी! ख़बरों के नाम पर ‘ज़िंगोइज़्म’ फैलाने के लती सहाफियों और सियासतदानों ने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की लानत-मलामत जिस फूहड़ और नफ़रत-भरी ज़बान में की, वह नाक़ाबिले-क़ुबूल थी! दरअसल नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान फैज़ की उर्दू नज़्म (नज़्म के साथ ‘उर्दू’ इसलिए लगाने की जरूरत आन पड़ी कि फ़ैज़ ने उर्दू के मुकाबले थोड़ा कम ही सही, पर लिखा पंजाबी में भी है) ‘हम देखेंगे’ पढ़े जाने पर विवाद खड़ा किया गया. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई.आई.टी.), कानपुर के एक शिक्षक ने इस नज़्म की कुछ पंक्तियों मसलन, जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से/ सब बुत उठवाए जाएँगे/ हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम/ मसनद पे बिठाए जाएँगे/ सब ताज उछाले जाएँगे/ सब तख़्त गिराए जाएँगे/ बस नाम रहेगा अल्लाह का/ जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी.’ की मनमानी व्याख्या करते हुए इस नज़्म को कथित तौर पर हिंदू विरोधी बता दिया. जिस पर हफ़्तों तक बहसें चली, जाँच के लिए आई.आई.टी. ने कमिटी बना दी और उसके बाद खबरिया चैनलों के अखाड़े में जावेद अख़्तर, गुलज़ार और फ़ैज साहब की बेटियों सलीमा हाशमी-मोनीज़ा हाशमी से लेकर अनेक ‘चिंतकों’ और ‘विचारकों’ को उतारा गया, लेकिन जब सारे फसाने में ऐसी किसी बात का कोई ज़िक्र ही नहीं था, तो फिर नागवार गुजरते रहने की मियाद ज़्यादा लंबी थोड़े खिंच सकती थी! सो, यह कथित बहस भी जल्दी ही ख़त्म हुई, मगर इस वज़ह से जो तल्ख़ी-ए-हालात पैदा हुए, उसके असरात से बचा नहीं जा सका. फ़ैज़ साहब की छोटी बेटी मोनीज़ा हाशमी को दिल्ली में आयोजित पंद्रहवें एशिया मीडिया सम्मेलन में ख़ास तौर पर बुलवाया गया था, लेकिन जब वे सम्मेलन में शिरकत करने के लिए पहुँचीं, तो उन्हें उसमें शिरकत करने से रोक दिया गया. फिर वे अपने स्तर पर किसी और होटल में रुकीं और उदास मन से अपने वालिद की इस पंक्ति को याद किया, ‘लंबी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है.

जिन दिनों ‘हिंदी प्रदेश’ में यह ‘नवजागरण’ चल रहा था और कथित ‘हिंदी जाति’ बकौल क्रिस्टोफर किंग ‘एक भाषा और दो लिपि’ के एक मितभाषी शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म को इतने बरस बाद ‘हिंदू धर्म’ के विरोध में बता रही थी, उस जाति के वीर बालक अगर सन् 2016 में छपी अली मदीह हाशमी द्वारा लिखी गई फ़ैज़ साहब की जीवनी लव एंड रिवोल्यूशनः फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ः द ऑथराइज्ड बॉयोग्राफी पढ़ लेते, तो शायद इतने बड़े पैमाने पर ‘हिंदुस्थान’ में उन्हें ‘नवजागरण’ की जरूरत शायद न पड़ती. गहमागहमी के इसी दौर में जनकवि नागार्जुन की जीवनी छपकर आई थी और हिंदी के महत्वपूर्ण आलोचक आचार्य नामवर सिंह की जीवनी भी, जिसके मुताल्लिक पता चला कि जीवनीकार ने ‘ख़ून फूँककर’ वह जीवनी लिखी थी. बहरहाल, इन जीवनियों के संपूर्ण पारायण के बाद यह अफसोस और बढ़ गया कि हिंदी लेखकों की ज़मात में बांग्ला के कथा-शिल्पी शरच्चंद्र चट्टोपाध्याय की जीवनी के लेखक विष्णु प्रभाकर का नाम-जाप करना एक बात है और उनके स्तर का काम कर पाना बिल्कुल दूसरी बात. कहना न होगा कि जीवनी लेखक को अपने नायक के संपूर्ण जीवन अथवा उसके यथेष्ट भाग की चर्चा जीवनी में करनी चाहिए. जीवनी असल में इतिहास, साहित्य और व्यक्ति के सम्मिश्रण से लिखी जाती है, लेकिन इसमें इतिहास की तरह घटनाओं का आकलन नहीं होता, बल्कि इसमें मनुष्य के जीवन की व्याख्या एवं उसके व्यक्तिगत जीवन का अध्ययन प्रत्यक्ष और वास्तविक रुप से मिलता है. जबकि उपन्यास और कहानी में जीवन की व्याख्या तो होती है, लेकिन परोक्ष और कल्पना मिश्रित होती है. वास्तविक जीवनी वही है, जिसमें जीवन प्रामाणिक और सम्यक जानकारी पर आधारित हो.

इसी साल 2021 में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की छोटी बेटी मोनीज़ा हाशमी के बेटे अली मदीह हाशमी द्वारा सन् 2016 में लिखी गई जीवनी लव एंड रिवोल्यूशनः फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ः द ऑथराइज्ड बॉयोग्राफी का हिंदी तर्जुमा छपकर आया. इसका हिंदी अनुवाद लंबे समय तक ‘इंडिया टुडे’ (हिंदी) और ‘शुक्रवार’ में काम कर चुके सुप्रसिद्ध पत्रकार अशोक कुमार ने प्रेम और क्रांतिः फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (अधिकृत जीवनी)  के नाम से किया, जिसे छापा है सेतु प्रकाशन ने. मेरी नज़र इस लफ़्ज में उलझ गई कि इस जीवनी को अली ने ख़ास तौर पर फ़ैज़ की ‘अधिकृत जीवनी’ अगर कहा है, तो इसके पीछे वाकई कुछ ठोस वजहें हैं. असल में फ़ैज़ की कविता और उनके जीवन को लेकर अलग-अलग लोगों ने बहुत कुछ लिखा है और वे सारी चीज़ें इधर-उधर बिखरी हुई थीं. उन तमाम चीज़ों को एक जगह करने पर ही फ़ैज़ की कोई मुकम्मल तस्वीर बन सकती थी. अली ने उन सारी सामग्रियों को इकट्ठा किया और फिर उसमें से निकाल-निकालकर एक-एक तथ्य और एक-एक ब्यौरे को मिलाकर क्रॉस चेक किया. उसके बाद फ़ैज़ की लिखी चिट्ठियों, उनके भाषणों, उनके दोस्तों और जानने वालों से मिलकर काफी शोध करने के बाद ही यह जीवनी लिखी. जिनमें से बहुत सारे वाकयों की चश्मदीद गवाह उनकी ख़ाला और उनकी अम्मी भी रही हैं. लिहाजा उनकी लिखी जीवनी को ‘अधिकृत जीवनी’ कहना और मानना न सिर्फ मुनासिब है, बल्कि बेहद वाज़िब भी है.

मज़े की बात यह है कि अली उर्दू या अँगरेज़ी के कोई पूरावक़्ती लेखक नहीं हैं. वे लाहौर शहर में प्रैक्टिस करने वाले एक पेशेवर मनोचिकित्सक हैं, बावज़ूद इसके अली हाशमी ने इस जीवनी को फ़ैज़ साहब की अधिकृत जीवनी कहा है और इस आत्मविश्वास की वाज़िब वज़हें भी हैं. बेहतरीन ज़बान और दिलकश अंदाज़ में दास्तान-ए-फ़ैज़ सुनाने वाले अली ने सावधानी से ख़ुद को नाना और नवासे के रिश्ते से दूर रखा और बहुत तटस्थ होकर उनको एक शायर की तरह देखने की कोशिश की है. चूँकि अली मानव मन की गुत्थियों को सुलझाने वाले एक पेशेवर मनोचिकित्सक हैं, इसलिए बहुत ‘कन्विंसिंग’ तरीके से वे फ़ैज़ की ज़िंदगी और उनकी रचना-प्रक्रिया की जटिल स्थितियों को समझने का प्रयास करते हैं. इतना ही नहीं, अली ने शहीद माहली द्वारा संपादित पत्रिका ‘मयार’ के ‘फ़ैज़ अंक’, सहबा लखनवी और कशिश सिद्दीकी द्वारा संपादित संकलन ‘अफ़कार’ के फ़ैज़ विशेषांक, वज़ीर आग़ा के संपादन में प्रकाशित ‘मयार’ के ‘फ़ैज़ और उनकी शायरी’ अंक का गहन अवगाहन के करने अलावा लुडमिला वासिलिएवा द्वारा लिखित ‘परवरिश-ए-लौह-ओ-कलामः फ़ैज़ हयात और तख़्लीकात’ को बारीकी से देखा-पढ़ा है. फिर अपनी माँ मोनीज़ा और ख़ाला सलीमा हाशमी के किस्सों को मिलाकर बहुत निरपेक्ष होकर लिखने की कोशिश की है.

लाहौर के मॉडल एफ ब्लॉक में मकान नंबर 126 के बाहर एक तख़्ती पर अँगरेज़ी और उर्दू में दर्ज़ है, ‘फ़ैज़ घर’. यह मकान फ़ैज़ साहब ने अपनी माली तंगदस्ती के दौर में शायद बेच दिया था, लेकिन बाद में जिस शख़्स ने उनसे उनका मकान ख़रीदा था, उसी शख्स ने यह मकान ‘फ़ैज़ फाउंडेशन’ को महज एक रुपए की लीज पर दे दिया. फ़ैज़ की दोनों बेटियों ने 2009 में ‘फ़ैज़ फाउंडेशन ट्रस्ट’ के बैनर तले उसे औपचारिक रूप से शुरू किया. वैसे इस घर का नाम शुरू से ही ‘फ़ैज़ घर’ रहा है, जिसके अंदर दाख़िल होने के लिए जूते उतारने पड़ते हैं. चूँकि यह घर फ़ैज़ का घर है, इसलिए वहाँ तकरीबन रोज़ शायरी, मौसीकी, पेंटिंग और ‘योगा’ पर चर्चा होती है. इस घर में एक बड़ा-सा हॉल भी है, जो शायद पहले ‘फ़ैज़ ड्राइंग रूम’ हुआ करता था. एक तरफ फ़ैज़ की ‘लाइब्रेरी’ है, जिसके रख-रखाव के लिए पाकिस्तानी पंजाब की सूबाई सरकार माली मदद भी देती है. फ़ैज़ और उनकी बेगम एलिस की कुछ पुरानी चीजें भी एक ‘म्यूजियम’ की मानिंद वहाँ सजा कर रखी गई हैं. जहाँ अब ‘ध्यान योग’ के सेशन चलते हैं और पिछले दो सालों से वहां ‘फ़ैज़ इंटरनेशनल फेस्टीवल’ भी आयोजित किये जाते हैं. यह उस बंगले के करीब ही है, जहां फ़ैज़ अपने अंतिम दिनों में रहे थे. यह उस बंगले के करीब ही है, जहाँ फ़ैज़ साहब अपने आख़िरी दौर में रहे थे. ‘फ़ैज़ घर’ अभी ज़रा तंगहाली का शिकार है. उनकी बेटी मोनीज़ा हाशमी चाहती हैं कि पाकिस्तान के हर छोटे-बड़े शहर में ‘फ़ैज़ घर’ की तामीर हो फ़ैज़ के ख़यालों और उनकी सोच से जुड़े लेखकों की रचनाएं ‘फ़ैज़ फाऊंडेशन ट्रस्ट पब्लिशिंग हाउस’ के बैनर तले छापी जाएं. इसी कड़ी में इस ट्रस्ट ने हाल के दिनों में कुछ सक्रियता दिखाई है, ताकि मुसलसल कुछ प्रोग्राम्स होते रहें और इस नेक काम के लिए कुछ पैसा इकट्ठा किया जा सके. फ़ैज़ की ज़िंदगी और उनकी लिखी हुई किताबों से जुड़े ये कुछ ऐसे किस्से हैं, जो आपको जानना चाहिए.

उर्दू की अदबी दुनिया ही नहीं, हिंदी में भी फ़ैज़-जैसे महान् और अंतरराष्ट्रीय ख्याति के शायर के बारे में जानने की उत्सुकता लोगों में स्वाभाविक है. यह ठीक-ठीक कह पाना आसान नहीं कि फ़ैज़ के चाहने वाले पाकिस्तान में ज़्यादा हैं कि हिंदुस्तान में, पर फ़ैज़ साहब जब-जब हिंदुस्तान तशरीफ लाए, उन्हें खूब इज्ज़त और शोहरत मिली. पाकिस्तान, जो तकसीम के बाद उनका अपना मुल्क हो गया, वहाँ उन्हें अलावा शोहरत के ख़ूब तकलीफ़ें मिली. अपने देश पाकिस्तान में कभी वे वहाँ के सांप्रदायिक, कट्टरपंथी और सैनिक तानाशाहों के हामी नहीं रहे और अपनी अपनी खुली और उदारवादी सोच के लिए उन्हें आज़ाद पाकिस्तान में भी एक लंबा अरसा जेल में रहना पड़ा. उनकी ज़िंदगी बेहद दिलचस्प मोड़ों से होकर गुजरी थी. यह बात दीगर है कि फैज़ अहमद फ़ैज़ को नोबेल पुरस्कार नहीं मिल पाया, लेकिन वे भारतीय उपमहाद्वीप के संभवतः ऐसे दूसरे शायर थे, जिनका नाम नोबेल के लिए नामित हुआ था. रूमानियत और बग़ावत के शायर फ़ैज़ को अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण अपनी उम्र का एक लंबा अरसा पाकिस्तान की जेलों में बिताना पड़ा. नाइंसाफी, शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ बहुत मुखरता से लिखने वाले फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पर चौधरी लियाक़त अली ख़ान का तख़्ता पलटने की साज़िश करने के आरोप लगाकर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और वे करीब पाँच साल जेल में रहे. जेल में रहने के दौरान ही उन्होंने दो किताबें लिखी थीं, ज़िंदानामा’ और ‘दस्ते-सबा’ . सन् 1977 में जब फिर तख़्तापलट हुआ, तो उन्हें कई बरसों के लिए मुल्क़ से निर्वासित कर दिया गया. 1978 से लेकर 1982 तक का दौर उन्होंने निर्वासन में गुज़ारा. हालांकि, फ़ैज़ ने अपने तेवर और विचारों से कभी समझौता न करते हुए कविता के इतिहास को बदल कर रख दिया.

पाकिस्तान को एक इंसाफपसंद समाज बनाने के लिए अपने कलम को हथियार बनाकर वे वहाँ के किसानों, मजदूरों, डाककर्मियों और महिलाओं के लिए ता-उम्र लड़ते रहे. पाकिस्तान में जब तानाशाही के लंबे दौर की शुरुआत हुई, तभी से वामपंथी रुझान के लोगों को फ़ौजी हुकूमत ढूँढ ढूँढ कर यातनाएँ दे रही थी. अगर पाकिस्तान के वामपंथी आंदोलन की बात करें, तो फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का मसला बिलकुल दूसरी तरह का था. तक़सीम के बाद वे सारे वामपंथी नेता जो वहाँ के मज़दूरों और किसानों के बीच काम कर रहे थे, वे सभी इलाके नये बने मुल्क पाकिस्तान के हिस्से में आ गए. जिन नेताओं के पास पार्टी चलाने का तज़ुर्बा और काबिलियत थी, उनमें से ज़्यादातर नेता हिंदू थे और बँटवारे के बाद उन्होंने भारत जाना बेहतर समझा. फ़ैज़ को किसानों और मज़दूरों से चूँकि सच्ची सहानुभूति थी, इसलिए नारे लगाने और जुलूस वगैरह निकालने के लिए जिस तरह के नेतृत्व की आवश्यकता थी, वह सलाहियत फ़ैज़ में न थी. बावज़ूद इसके कि छात्रों, किसानों और मज़दूरों के बीच उन्हें भाषण देना अच्छा लगता था. सन् 47 में मिली आज़ादी और अचानक वज़ूद में आए नये मुल्क पाकिस्तान के सियासी लोगों ने जिस अंदाज़ में शासन चलाया, उसने जल्दी ही फौज़ी हुकूमत के लिए रास्ता साफ कर दिया. ‘पाकिस्तान टाइम्स’ के संपादक बनने के कुछ ही समय बाद सन् 1951 में उन पर ‘रावलपिंडी-षड्यंत्र केस’ बनाया गया और उसके बाद उन्होंने चार साल जेल में बिताए. 1955 में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री हुसैन शहीद सुहरावर्दी ने हालाँकि उनकी सज़ा माफ़ की, लेकिन उस वक़्त भी उन्हें मुल्क छोड़ने का हुक्म दिया गया. लिहाजा पाकिस्तान छोड़कर उन्हें ब्रिटेन जाना पड़ा और कुछ साल लंदन में बिताने के बाद वे जब वापस लौटे, तो उनके रचनाओं को वामपंथी नजरिये से लिखी गई रचना बता कर फिर उसे उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. जनरल जियाउल हक के दौर में उनके ऊपर बहुत जुल्म ढाए गए. यूँ तो जनरल जिया से पहले जनरल अयूब खाँ और जनरल याह्या खाँ के शासन काल को पाकिस्तान के लोग देख चुके थे, लेकिन जियाउल हक ने पूरे पाकिस्तान की बनावट को ही जैसे बदल डालने की जुनून से भरा हुआ था. सियासी दुनिया के दोस्त जुल्फिकार अली भुट्टो ने जब फ़ैज़ साहब के मामले में दख़ल दिया तो आख़िरकार सन् 1958 में उन्हें रिहा कर दिया गया. रिहा होने के बाद कुछ बरस ब्रिटेन और तत्कालीन सोवियत संघ में गुजारने के बाद सन् 1964 में फ़ैज़ पाकिस्तान लौटे और कराची जाकर बसे. जिन दिनों वज़ीरे-आज़म जुल्फीकार अली भुट्टो थे उन्हें पाकिस्तान के संस्कृति मंत्रालय में बतौर सलाहकार नियुक्त किया गया था, लेकिन तख़्तापलट करने के बाद वहाँ की सत्ता में जब जनरल जियाउल हक आए, तो फ़ैज़ ने चुपचाप मुल्क छोड़ देना ही बेहतर समझा. पनाह मिली बेरुत (लेबनान) में. लेकिन परायी धरती पर जी न लगा, तो सन् 1982 में फिर लौटे और इस बार बाकी ज़िंदगी लाहौर में गुजारी.

उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि और उनके बचपन की परवरिश को देखें, तो हैरत होती है कि उन्हें कितना आत्मसंघर्ष करना पड़ा होगा. क्योंकि फ़ैज़ के घर में इस्लाम को लेकर कट्टरपंथी रुझान था. बावज़ूद इसके उनकी परवरिश एक खुले माहौल में हुई थी. काला कादर में उन दिनों रवायत यह थी कि बच्चे को शुरुआती तालीम के लिए मौलवी के पास भेजा जाता था, सो फ़ैज़ को भी भेजा गया. फ़ैज़ को अरबी, फारसी, उर्दू और विशेष रूप से कुरआन के अध्ययन के लिए मौलवी मोहम्मद इब्राहीम मीर ‘सियालकोटी’ के पास भेजा गया. बाद में एक इस्लामिक स्कूल में भी भेजा गया. कुछ वक्त ‘स्कॉच मिशन स्कूल’ में भी उन्हें भर्ती करवाया गया. मैट्रिक करने के बाद उन्हें मरी कॉलेज, सियालकोट में दाखिला मिला और फिर इंटर करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए वे गवर्नमेंट यूनिवर्सिटी कॉलेज, लाहौर गए. सन् 1926 में बी.ए. करने के बाद वहीं से अँगरेज़ी साहित्य में एम.ए. किया और फिर 1932 में वहीं से अरबी में भी मास्टर किया. यही वह दौर है जब फ़ैज़ वामपंथी विचारक एमएन राय के संपर्क में आए और फिर उनकी ज़िंदगी और सोच की दिशा ही बदल गई. वामपंथी झुकावों के बावजूद सन् 1942 में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान वे बरतानवी फौज में कैप्टन के तौर पर भर्ती हो गए. सन् 1943 में उन्हें दिल्ली में ‘पोस्टिंग’ मिली. रैंक बढ़ता गया और 1943-44 में वे ‘मेजर’ और फिर उसके बाद लेफ्टीनेंट कर्नल हो गए. चूँकि फ़ैज़ पंजाब के जिला नैरोवाल के कस्बा काला कादर में पैदा हुए थे और इसके आसपास ही उनके सारे रिश्तेदार वगैरह भी रहते थे. लिहाजा हिंदुस्तान के बँटवारे के बाद फ़ैज़ ने रहने-बसने के लिए मुल्क के तौर पर पाकिस्तान को चुना. सन् 1947 में अपने वतन पाकिस्तान जाने से पहले सेना की नौकरी से इस्तीफा दे दिया. लोगों ने उन्हें इतना मान दिया कि काला कादर कस्बे को अब फ़ैज़ नगर के नाम से जाना जाता है.

फ़ैज़ की शादी का क़िस्सा भी बड़ा अज़ीब है. जब फ़ैज़ अमृतसर के एंग्लो ओरियेंटल कॉलेज पढ़ा रहे थे, उन्हीं दिनों उनकी मुलाकात एलिस से हुई. पहली मुलाकात में ही दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगे और सन् 1941 में एलिस उनकी शरीक़-ए-हयात बन गईं. एलिस अमृतसर के एम.ओ कॉलेज के प्रिसिंपल डॉ तासीर की साली थी और अपनी बहन से मिलने के लिए उन दिनों हिंदुस्तान आई हुई थीं, जहाँ आकर वे फैज़ के इश्क में गिरफ़्तार हो गईं. बकौल बीबी गुल, जो फ़ैज़ साहब की बहन थीं, ‘फ़ैज़ के लिए बहुत से रिश्ते आए थे, मगर जहाँ वालिदा और बहनें चाहती थीं, वहां फ़ैज़ ने शादी नहीं की और एलिस का इंतख़ाब किया. वालिदा ने मशरिकी रवायत के मुताबिक़ उन्हें दुल्हन बनाया, चीनी ब्रोकेड का ग़रारा था, गोटे किनारी वाला दुपट्टा, जोड़ा सुर्ख़. उनकी तबीअत बहुत सादा थी. वे बहुत ख़लीक़ और मोहब्बत करने वाली साबित हुईं और उन्होंने ससुराल में क़दम रखते ही सबका दिल जीत लिया. ख़ानदान में इस तरह घुल-मिल गईं, जैसे इसी घर की लड़की हैं. वही लिबास इख्तियार किए जो हम सब पहनते थे. हाँ, सास और बहू का रिश्ता प्यार और आदर वाला रहा. सास ने बहू को मोहब्बत दी और बहू ने सास की इज्ज़त की.’ मज़ेदार बात यह है कि फ़ैज़ के निकाह की ज़्यादातर रस्में शेख़ अब्दुल्ला ने निभाई थी. एलिस लंदन के एक बुकसेलर की बेटी थीं और वे लंदन में भी ज्यादातर हिंदुस्तानी बुद्धिजीवियों के संपर्क में रहा करती थीं. उन दिनों एलिस वहाँ इंडिया हाउस में कृष्णा मेनन की सेक्रेटरी के रूप में काम करती थीं. फ़ैज़ जब ‘पाकिस्तान टाइम्स’ के संपादक बने, तो एलिस उस अखबार में बच्चों और महिलाओं के फीचर पेज के लिए काम करने लगीं. एलिस ने फ़ैज़ की बीवी बनने के बाद बहुत दुःख उठाए. घर चलाने के लिए बहुत संघर्ष किया और संघर्ष के दिनों में कभी कमज़ोर नहीं पड़ीं. निर्वासन के दौर में फ़ैज़ जहाँ-जहाँ गए, वहाँ-वहाँ एलिस भी साथ रहीं और हर एक कदम पर एक ईमानदार हमकदम की तरह उनका साथ निभाया.

फ़ैज़ यूं तो ता-उम्र सफर में रहे और कई देशों के कई शहरों में रहे. जब वे बेरूत में थे, तो एक बम हमले में वे बाल-बाल बचे. दरअसल फिलिस्तीनी नेता अबू अम्मार उर्फ यासिर अराफ़ात से दोस्ती की वज़ह से बेरूत में उनकी जान पर भी ख़तरा बना रहता था. आए दिन वहाँ गोलीबारी और बमबारी होती रहती थी, जिसे देखते-सुनते हुए एलिस और फ़ैज़ उसके आदी हो चुके थे. बेरूत, सीरिया, ईरान, इराक़, पाकिस्तान और कुवैत के लोगों के लिए एक पनाहगाह बन चुका था, जहाँ अपने-अपने मुल्कों से निष्काषित किये गये बहुत सारे लेखक-पत्रकार इकट्ठे हो गए थे. शरण्यगाह था और वहाँ सारे निष्कासित लेखक और पत्रकार इकट्ठे हो गये थे. आये दिन होने वाली इन बमबारियों को देख-सुनकर जल्दी यह समझ में नहीं आता था कि कौन किस पर हमला कर रहा है. एक बार एक बम ठीक उसी अपार्टमेंट पर गिरा, जिसमें फ़ैज़-एलिस रहते थे. बम के धमाके से वो सोफ़ा ज़मींदोज़ हो गया जिस पर एलिस अक्सर आराम करती थीं. बाहरी कमरे के बर्बाद होने पर फ़ैज़ पत्नी के साथ बेडरूम में चले गये और थोड़ी ही देर में ही खर्राटे भरने लगे. ‘लोटस’ के संपादन के अलावा फ़ैज़ के लिए यह अपने देश की आज़ादी के बाद किसी राजनीतिक संघर्ष में सीधे भागीदारी का मौक़ा था, जिसे वह गंवाना नहीं चाहते थे. बेरूत में फ़ैज़ को महमूद दरवेश, मू’ईन सीसो और अदनोइस सरीखे बुद्धिजीवियों के क़रीब जाकर सुकून मिलता था, लेकिन बदक़िस्मती से फ़ैज़ जल्दी ही इज़राइल के निशाने पर आ गए. हालाँकि फ़ैज़ बेरूत छोड़कर कहीं और नहीं जाना चाहते थे, लेकिन आख़िरकार अपने दोस्तों और चाहने वालों के मश्वरे पर उन्हें बेरूत छोड़ना पड़ा. यह आकस्मिक नहीं है कि अपने मुल्क पाकिस्तान में न रह पाने की बेबसी की वज़ह से ही उनकी शायरी में ‘जलावतनी’ का ज़िक्र बार-बार आता है.

अख़ीर में कुछ बातें इस हिंदी अनुवाद की भाषा को लेकर. पृष्ठ संख्या 45 पर छपा यह प्रसंग देखें, सुबह में अब्बा के साथ फजीर की नमाज़ अता करने मस्जिद जाता.मुसलमानों पर नमाज़ फ़र्ज है और फ़र्ज हमेशा अदा किया जाता है, अता नहीं. इसी तरह फजीर नहीं फ़ज्र. हिंदी के अख़बारों में उर्दू के शब्दों का अक्सर ग़लत प्रयोग किया जाता है. मसलन जब कभी ईद, बक़रीद, जुमा अलविदा या नमाज़े जनाज़ा के बारे में ख़बर दी जाती है, तो ज़्यादातर अख़बार नमाज़ अदा करने के स्थान पर, ‘नमाज़ अता करना’ लिखते हैं. वे भोले बाश्शा शायद ये नहीं जानते कि नमाज़ हर मुसलमान पर फर्ज़ है. इसी तरह उर्दू का एक और शब्द ‘ख़िलाफ़त’ है, जिसका प्रयोग अक्सर विरोध के संदर्भ में कर दिया जाता है. जबकि ख़िलाफ़त का रिश्ता ख़लीफा की रवायत है, न कि मुख़ालफत से. ऐसी ग़लतियाँ इस वज़ह से भी होती हैं, क्योंकि इस्लाम के बारे में ज़्यादातर लोगों की जानकारी बहुत सीमित है और लोग जानने की कोई कोशिश भी नहीं करते. जब आप कोशिश करते हैं, तो ऐसी ग़लतियाँ कम होती हैं. इस पुस्तक की भाषा के संदर्भ में एक और बात यह कि जब कुछ शब्दों में नुक़्ते का इस्तेमाल किया गया है, तो फिर बाकी शब्दों में क्यों नहीं? जहाँ तक नुक़्ते के प्रयोग का सवाल है, तो भाषिक एकरूपता को बनाये रखने के लिए जरूरी कि इसका इस्तेमाल अगर किया जाए, तो फिर उन तमाम शब्दों के साथ किया जाए, जिनमें नुक़्ता लगता है. और अगर आप इसको लेकर मुतमइन नहीं है कि किस शब्द में कहाँ नुक़्ता लगेगा और कहाँ नहीं, तो फिर ऐसी सूरत में इसकी ग़लती से बचने के लिए बकौल वैयाकरण किशोरीदास वाजपेयी, नुक़्ते का प्रयोग न किया जाए. इन छोटी-मोटी चूकों को अगर नज़रअंदाज़ करके देखने की कोशिश करें, तो अनुवाद भाषा में बेहद रवानी है और इससे गुज़रते हुए यह एहसास भी लगातार बना रहता है कि आप उर्दू के शायर के बारे में पढ़ रहे हैं-क्योंकि अनुवादक ने जहाँ-जहाँ इसकी जरूरत थी, वहाँ-वहाँ उर्दू के अंदाज़े-बयाँ का भी ख़ूबसूरत इस्तेमाल किया है.

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