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श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की कविता


प्रसिद्ध लेखक-कवि श्यौराज सिंह बेचैन की कविताओं पर यह लम्बा लेख लिखा है युवा आलोचक सुरेश कुमार ने। आप भी पढ़ सकते हैं-

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प्रसिद्ध दलित साहित्यकार श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ के रचना संसार को पढ़ना मेरे लिए दलित सभ्यता के विविध पड़ाव और जीवन की संघन यात्रा करने जैसा है। वह समकालीन जुमलों और फार्मूलाबद्ध संघर्ष की चौखट से मुक्त होकर संघन अनुभूतियों की अतल गहराईयों की भाव भूमि पर दलित जीवन की सूक्ष्म और स्थूल सच्चाई को उद्घाटित करने वाले कवि हैं। साहित्य में जहां शब्दों के घटाटोप से जन समस्याओं को ढका जा रहा हो ऐसे में श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ अपनी कविताओं में भारतीय समाज के अलक्षित आयामों का अनुसंधान करते हैं। श्यौराज सिह ‘बेचैन’ का साहित्य विविध विधाओं से भरा हुआ है। यहां उन के कविता प़क्ष पर अपनी बात रखने का प्रयास करुंगा।
श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की काव्य प्रक्रिया निरतंर गतिशील रही है। सन् 1980 से अब तक लगभग चालीस साल की यात्रा में उन्होंने पांच कविता संग्रह हिन्दी और दलित साहित्य को दिए हैं। इनमें ‘सुन्दरी फूलन देवी’(1982),‘नई फसल’(1989) ‘क्रौंच हूं मैं’ (1996), ‘चमार की चाय’(2017) और ‘भोर के अंधेरे में’(2019)। यह कविता संग्रह अपने कथ्य और शिल्प में अप्रतिम हैं।
बीसवीं सदी का आठवाँ दशक हिन्दी साहित्य और राजनीति में परिवर्तन और गतिशीलता का सूचक माना जाता है। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ अस्सी के दशक से अपनी कविताओं के माध्यम से देश और काल की परिस्थिति पर सार्थक हस्तक्षेप करने लगते हैं। सन् 1982 में श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की एक छोटी सी काव्य पुस्तिका ‘सुन्दरी फूलन देवी’ चन्दौसी, मुरादाबाद से प्रकाशित हुई। इस काव्य पुस्तिका के लेखक और प्रकाशक खुद श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ थे। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ इस काव्य पुस्तिका में फूलन देवी के संघर्ष के बहाने सामन्ती व्यवस्था की सताई हुई स्त्रियों के दुख दर्द को बड़ी ही शिद्दत के साथ रखते हैं। इस संग्रह में श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ एक ओर जहां सामन्ती व्यवस्था का पर्दाफास करते हैं, वहीं दूसरी तरफ स्त्री जीवन का अलक्षित पक्ष सामने लाते हैं। यदि वास्तविकता के धरातल पर आकर देखा जाये तो स्पष्ट है कि सामन्ती क़िला में दलित और स्त्री विरोधी संहिताओं का निर्माण हुआ है। सामन्ती व्यवस्था का अमानवीय कारनामा था कि स्त्री को ‘वस्तु’ और दलितों को ‘अछूत’ रुप में बदल दिया । यह व्यवस्था स्त्री और दलित के लिए मरण-व्यवस्था जैसी थी। इसी सामन्ती व्यवस्था ने फूलन देवी के साथ जो क्रूरता की उससे सब भलीभांति परिचित हैं। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की कवि चेतना सामन्ती व्यवस्था का जालिम चेहरा उघाड कर रख देती है। वे जानते हैं कि सामन्ती और जाति व्यवस्था के रहते, स्त्री और दलितों को सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो सकती है। सन् 1982 में फूलन देवी पर कविता लिखना अपने आप में जोखिम था पर इस कवि ने जोखिम की परवाह किए बिना प्रतिबद्धता के साथ स्त्री हक में खड़े दिखाई देते हैं। जहां तक मेरी जानकारी है कि फूलन देवी के जीवन सघर्ष को नायकत्व प्रदान करने वाले ‘बेचैन’ जी पहले कवि हैं।
यह बात स्पष्ट है कि श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की कविता अलग-थलग पड़ गए दलितों और वंचितों को नायकत्व प्रदान करती है। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की कविताओं का रेंज विस्तृत और मारक है। वे कविता के क्षेत्र में प्रचलित प्रतिमानों का भी अतिक्रमण और उत्क्रण करते दिखाई देते हैं। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ अपनी काव्य प्रक्रिया में कला की अपेक्षा जीवन पर अधिक बल देते हैं। इस कवि की कविताओं का रुप अनुभूति और आपबीती की जमीन पर निखरता है। अनुभव और अनुभूतियों की यह कवायद श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ को अपने समवर्ती कवियों से अलग पंक्ति में खड़ा करती है। यह कवि जीवन और जगत की मानीखेज अनुभूतियों को शब्दों का जामा पहनाकर जीवन के विराट खटरागों को कविता की शक्ल में ढालता है। ‘बेचैन’ जी के कवि मन की एक यह भी विशेषता है कि वे कल्पना के पलोथन से कविता न के बराबर पाथते हैं। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधो पर’ (2009) जिन लोगों ने पढ़ी है, वे इस कवि के जीवन अनुभव और संघर्ष की विराटता से भलीभांति परचित होंगे।जीवन संग्राम का यह योद्धा जाति-व्यवस्था और गरीबी के उस दानव से लड़ता दिखाई देता है जिसने दलित जीवन को पंगु बना कर छोड़ दिया है। यह सही बात है कि जाति और वर्ण को अभिजन अपनी प्रतिष्ठा का प्रतीक भी बताते रहे हैं। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ अपनी कविताओं में जाति-व्यवस्था पर बड़ा ही मारक प्रहार करते हैं। इस सम्बन्ध में ‘इकतारा’ कविता की पंक्ति देखिए ‘मँह फैलाए खड़ी देश की, जलती हुई समस्याएं। जातिवाद का ताण्डव करती, सामन्ती प्रवृतियाँ ।’ दरअसल, जाति और वर्ण मनुष्यों द्वारा निर्मित व्यवस्था है। इस व्यवस्था ने तथाकथित को भूदेव और अभिजन बना दिया है वहीं दलितों को सेवक और अछूत बनाकर उनको मानवीय अधिकारों से भी वंचित करने का काम किया है। दलित कविता अपने जन्मकाल से ही इस अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध का रुख अख्तियार करके इसे उखाड़ फेंकने पर बल देती रही है।
श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ अपनी काव्य प्रक्रिया में लगातार इस बात को उठाते हैं कि जन्म के आधार पर व्यक्ति के साथ भेदभाव का व्यवहार क्यों किया जाता है ? यदि कोई व्यक्ति जाति और वर्ण के दंभ में किसी को कमतर आंकता है तो इस प्रकार की भावना हमारे संविधान और मानव गरिमा के भी अनुकूल नहीं है।
यह पहले बताया जा चुका है कि श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ के पांच कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं और अभी उनकी यात्रा जारी है। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की कविताओं के केन्द्र में ‘बहिष्कृत भारत’ की दृष्यवलियाँ है। अब तक जितनी कविताएं श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ द्वारा लिखी गईं है, उनमें उपेक्षित दलित समुदाय के अधिकारों का सवाल बार-बार उठाया गया है। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की कविताएं गरीबी, शिक्षा, भागीदारी और जातिगत भेदभाव के सवाल को बड़ी शिद्दत के साथ उठाती हैं। इस कवि की कविताओं के निष्कर्ष से यह बात स्पष्ट है कि जाति और गरीबी को मिटाए बिना दलित समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। श्यौराज ‘बेचैन’ सिंह बताते हैं कि सवर्णों के स्वराज में दलितों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति ऊपर नहीं उठ सकी। स्वराज की अवधारणा तब तक फलीभूत नहीं हो सकती है जब तक दलितों और स्त्रियों की भागीदारी सुनिश्चित नहीं की जाती है। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ ‘विश्व की मानवता का न्याय’ कविता में ‘स्वराज’ को लेकर सवाल उठाते हैं। यह कविता उनके काव्य संग्रह ‘भोर के अंधेरे में’ संकलित है। स्वराज के सम्बन्ध में कविता की आखिरी पंक्तियां देखिए-‘क्या उस गरीब/के बच्चे पढ़ सकेंगे?/क्या इसी व्यवस्था को आप/सबका स्वराज/सबकी स्वतन्त्रता कह सकेंगे?’ आजादी के बाद लिखी गई यह कविता आजादी के सवाल को उठाती है। अन्दाजा लगाने वाले लगा सकते हैं कि यह सवाल दलितों और स्त्रियों की स्वतन्त्रता को लेकर सामाजिक नियंताओं से पूछा गया है।
‘चमार की चाय’(2017) काव्य संग्रह में श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ भारत की वास्तविक तस्वीर के साथ हाजिर होते हैं। अभिजन समाज अपने स्वभाव में कितना जड़ और दुराग्रहों से भरा हुआ है इसके निशान काव्य संग्रह की प्रत्येक कविता में मिल जाएंगे । ताज्जुब की बात यह है कि भद्रवर्ग सविधान को ताक पर रखकर प्रगतिशील होने का दावा करता है। दलितों और पिछड़ों की भागीदारी सुनिश्चित किए बिना ही प्रतिनिधित्व का मुद्दा उठाता है और स्त्रियों को स्वतत्रंता दिए बिना ही आधुनिकता का ढोल पीटता है। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ एक कवि और भारत के नागरिक के तौर पर प्रगतिशीलता का तत्व संविधान से ग्रहण करते हैं, उनकी पक्षधरता दलितों और स्त्रियों के साथ है, वे चितंन के बीज कबीर रैदास, स्वामी अछूतानंद और बाबा साहेब आम्बेडकर से आत्मसात करते हैं। इनकी रचनाशीलता बहुत हद तक यथार्थ परक है। जबकि हिन्दी साहित्य में यथार्थ से परहेज किया जाता रहा है। इसके पीछे आलोचकों का तर्क यह था कि रचना को यथार्थ का जामा पहनाने से रस और कला खत्म हो जाती है। इसीलिए रचना को सामान्य जनजीवन से इतना ऊपर उठा दिया कि उसमे जीवन का तत्व ही नहीं बचा। साहित्य के भीतर कला का पक्ष जितना अधिक होगा उस रचना से जीवन और समाज का लोप उतना ही अधिक होता जायेगा।
श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ ने हिन्दी कविता के जो प्रतिमान थे उससे असहमति दिखाते हुए हिन्दी कविता की पुरानी जमीन को तोड़ने का साहस तो दिखाया ही है बल्कि इस मिथक को भी तोड़ा कि ‘कला और कल्पना’ के बिना कविता नहीं लिखी जा सकती है। आज दलित साहित्य के केन्द्र में भले ही आत्मकथाओं का बोलबाला है पर यह बात सिद्ध है कि जाति-व्यवस्था के खिलाफ़ मारक प्रतिरोध दलित कविताओं में देखने को मिलता है। दलित कविता ने भारतीय समाज की अलक्षित दुनिया से भी हमें परिचित कराने का काम किया है। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की कविताओं का बीज शब्द दलित जीवन की मुक्ति और बेचैनी है। यह मुक्ति जाति और गरीबी के बाड़े से बाहर निकलने की है। इस कवि की कविताओं में डुबकी लगाने पर यह बात पता चलती है कि इनकी कविता भारतीय समाज के सर्वाधिक उपेक्षित, वंचित और बहिष्कृत जन के पक्ष में खड़ी है। इनकी दृष्टि और सृष्टि मनुष्यता के पक्ष पर सर्वाधिक बल देती है। इनके जीवन दर्शन के मूल में मनुष्य की गरिमा है।
श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की कविताएं भारतीय समाज का पुर्जा-पुर्जा खोल कर सवर्ण मानसिकता का विद्रूप और दंभी चेहरा सामने लाने का काम करती हैं। कविताएं इस बात की तसदीक़ करती हैं कि ब्राह्मणवादी मानसिकता ने दलितों को उपेक्षित और समाज से तिरस्कृत करने का उपक्रम किया है। इस कवि के यहाँ मनुष्य की गरिमा को खंड़ित करने वाले तत्वों की शिनाख्त होती है। ‘चमार की चाय’ संग्रह की ‘सहनशीलता’ कविता की ये पंक्तियां देखिए-‘दलितों को ठगने में,/छलने में माहिर जो/सपनों को दफनाकर/आका, नियन्ता बन/राज भोग करता है।/आपस में फूट लिए/दलित रोज मरता है। चोरों-लुटेरों से/शाह बहुत डरता है।/जात और पाँत लिए/भीतर से घात लिए/शब्द भर शराफत में/बेशुमार कटुता है।’ श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ अंतिम छोर तक मनुष्यता का दामन थामें रहते है। इस कवि की कविताओं का मापदंड मनुष्यता और एक बेहतर मानव स्वभाव है। कवि की यह दृष्टि दलित कविता की संजीवनी है जिसके ओट में मनुष्यता फलीभूत होती है।
श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ के जीवन और काव्य संसार का मूल स्वर प्रतिरोध और चेतना है। इस कवि की कविताओं में जो चेतना है वह अन्याय के खिलाफ खड़े होने पर बल देती है। चेतना विकसित होने पर ही व्यक्ति के भीतर प्रतिरोध का भाव पैदा होता है। दरअसल, चेतना ही प्रतिरोध की जननी है। चेतना और प्रतिरोध के औजार से अमानवीय व्यवस्था की जड़ को खोदा जा सकता है। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ का काव्य जन-संघर्ष का हथियार हैं। कवि अपनी कविताओं के भीतर इस बात को बार-बार कहता हैं कि ‘अवसरों और हकों के लिए, लड़ते झगड़ते हुए-दुख-दारिद्रय का अंत करो।’ कविता कहती है कि ‘यदि सघर्ष नहीं करोगे’ तो ‘सब समाप्त हो जायगे’
अब तक क्रौंच की पीड़ा से द्रवित होकर कविता लिखी जा रही थी। यह पहली बार हुआ कि वर्ण-व्यवस्था के रक्षकों के तीर से घायल खुद ‘क्रौंच’ ने अपनी वेदना और पीड़ा को साहित्य के जरिए बताया। श्यौराज सिंह का जीवन सघर्ष वेदना और अनुभूति के रसायन में तैयार हुआ है। इस बात को इस तरह से भी कहा जा सकता है कि ‘बेचैन’ जी समग्र जीवन के कवि है। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ का कविता संग्रह ‘क्रौंच हूँ मैं’(1995) का शीर्षक ही बताता है कि दलित समाज उस क्रौंच पंछी की भंति है जिसे वर्णवादी तीर से लहुलूहान कर दिया गया है।
श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ जिस काल और परिस्थिति में सृजनरत हैं। वहां जातिवाद चारों तरफ पसरा है। ऐसे में श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की कविताएं बताती हैं कि मानवीय संवेदनाओं की तरफ यदि नहीं लौटा गया तो समाज विंखड़ित हो जायगा। ‘बेचैन’ जी की कविता हमारे जीवन के गहरे द्वंद और संशय की पहचान करती हुई अन्र्तविरोधों से बाहर आने का आग्रह करती है। यह बात नई नहीं है फिर भी कहना पड़ रहा है कि साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है लेकिन दर्पण के पीछे क्या है ? इस पर हिन्दी साहित्य चुप और मौन है। जाहिर है कि इस समाज दर्पण के पीछे वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद के वृतांत को हिन्दी के कवि अक्सर छुपा लेते हैं पर श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की कविताएं दर्पण के पीछे की हकीकत को हमारे सामने लाने का काम करती है। इनकी कविताएं हाशियाकृत समाज की बुनियादी हकों का सवाल उठाकर सामाजिक नियंताओं और विद्वानों को मंथन करने के लिए बाध्य करती हैं।
‘भोर के अँधेरे में’ संग्रह में श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ दलित जीवन की गहन अनुभूतियों की यात्रा कराते हुए बताते हैं कि आजादी के बाद भी दलित समाज की सामाजिक-आर्थिक स्थिति उठने के बजाय बदतर होती जा रही है। दलित समाज को पीछे घकेलने वाले तत्वों का आंकलन प्रस्तुत करते हुए बताया गया है कि वर्ण-व्यवस्था के तहत जाति का ताना-बाना दलितों की नारकीय स्थिति के लिए जिम्मेदार है।
श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ अपनी कविताओं में शिक्षा का सवाल बड़ी शिद्दत के साथ उठाते हैं। इस कवि की कविताओं में जाति-व्यवस्था के खात्में का सवाल जितना महत्वपूर्ण है,उतना ही शिक्षा में भागीदारी का सवाल महत्वपूर्ण है। कटु विड़बना यह है कि वर्णवादी मानसिकता ने कितनी दलित प्रतिभाओं को पनपने का मौका ही नहीं दिया। इस से हाशियाकृत समाज का सपना तो चकनाचूर हुआ और देश की भी बड़ी क्षति हुई। ‘भोर के अंधेरें में’ संग्रह में संकलित कवि की ‘अचम्भ’ कविता इस सन्दर्भ पर खुलकर रोशनी डालती है। यह कविता में सबसे पहले उस धारणा को तोड़ती है जिसमें यह दावा किया जाता है कि बौद्धिकता केवल भद्रवर्ग के पास होती है! श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ का मानना है कि ‘बौद्धिकता किसी जाति विशेष की बपौती नहीं है-‘प्रतिभा-गुण/जन्मना नहीं/किसी धन्ना सेठ/या किसी जाति विशेष की-/बपौती तो बिल्कुल नहीं।’ इसके बाद ‘बेचैन’ जी हाशियाकृत समाज की व्यथा को व्यक्त करते हुए लिखा है-जन्म लेने से पहले ही/व्यवस्था की भेंट चढ़ जाते हैं/जन्म भेद से होने वाली/देश की क्षति का/आकलन करते हैं,/हिसाब लगाते हैं?’
श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ का काव्य-संसार दलित,वंचित और व्याकुलित मनुष्य की मुक्ति के स्वर को बुलंद करता है। इस कवि की कविताएं भारतीय समाज के ‘ताना-बाना’ को समझने की दृष्टि प्रदान करती हैं और हमें सरोकारों के प्रति सचेत भी करती है। यदि किसी व्यक्ति को हाशियाकृत लोगों के जीवन की वास्तविक सच्चाई को जानना है तो उन्हें श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ के साहित्य सृजन की यात्रा करनी चाहिए। दलित चेतना, प्रतिरोध और संघर्ष के वास्तविक मायने क्या हैं, इस कवि के काव्य-संसार में धसने पर ही पता चलता है। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की कविताओं में चेतना के स्तर पर कोई घालमेल नहीं है, प्रतिरोध का स्वर भी धुधला नहीं है। कवि के ‘इकतारा’ से निकला हुआ स्वर कहता है- ‘ऐसा शोषक तत्व कौन है-जिसे काल न खाएगा।’

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[लेखक- युवा आलोचक और नवजागरणकालीन साहित्य के अध्येता हैं। संपर्क-8009824098]

 
      

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4 comments

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