नेटफलिक्स पर एक फिल्म है ‘कोबाल्ट ब्लू’, इसकी बहुत अच्छी समीक्षा लिखी है किंशुक गुप्ता ने। किंशुक गुप्ता मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई के साथ-साथ लेखन से कई वर्षों से जुड़े हुए हैं। अंग्रेज़ी की अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में कविताएँ और कहानियाँ प्रकाशित। द हिंदू, द हिंदुस्तान टाइम्स, द डेक्कन हेराल्ड, टाइम्स ऑफ इंडिया, द क्विंट के लिए स्वतंत्र लेखन। द अनामिका पोएट्री प्राइज़ (2022) से सम्मानित। ऑल इंडिया पोएट्री प्राइज़ (2018); श्रीनिवास रायपरोल पोएट्री प्राइज़ (2021) आदि पुरस्कारों के लिए शॉर्टलिस्टेड। हिंदी कहानियाँ हंस, वागर्थ और समालोचन में प्रकाशित। ‘मिथिला रिव्यू’, ‘जैगरी लिट’, ‘उसावा लिटरेरी रिव्यू’ के संपादक मंडल के सदस्य हैं-
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अगर मुझसे पूछा जाए कि मुझे कोबाल्ट ब्लू में सबसे अच्छा क्या लगा तो मैं कहूँगा कि कहानी का किसी भी तरह की लेबलिंग से पूरी तरह गुरेज़। लेबल्स मार्केटिंग की जरूरत है, प्रेम या कला की नहीं। लेबल्स से डिस्ट्रीब्यूटर्स का काम आसान हो जाता है। दर्शकों को भी सुविधा होती है जो एक क्लिक पर एक थीम की सभी फिल्में देख सकते हैं।
लेकिन लेबलिंग की मुख्य समस्या यही है कि लेबलिंग के मानक बहुत ही सतही होते हैं जिससे अक्सर फिल्मों और दूसरी कलाओं का सही आकलन नहीं हो पाता। एक प्रेम कहानी केवल समलैंगिक या विषमलैंगिक ही हो सकती है जबकि मेरी समझ में एक प्रेम कहानी अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि का बहुत जरूरी दस्तावेज़ भी होती हैं।
फेसबुक पर एक मित्र ने लिखा—तनय क्यों नहीं समझ पाया कि पेइंग गेस्ट बायसेक्सुअल है? अगर विक्रय की चीजों से आगे बढ़ें, सेक्सुअल प्रेफरेंस के आधार पर भी बहुत से लेबल्स मिलते हैं। एक स्तर पर यह लेबल्स जरूरी हैं क्योंकि लेबल्स के सहारे अपने आप को समाज में प्रस्तुत करना आसान हो जाता है। समाज में अलग होने पर जिस अकेलेपन और संत्रास का सामना करना पड़ता है, लेबल्स एक सेंस ऑफ कम्युनिटी देकर बहुत सारे लोगों को एक साथ ले आते हैं जहाँ वो गहरी मित्रता कर सकते हैं।
लेकिन दूसरे स्तर पर लेबल्स एक व्यक्ति को एक खाँचे में डाल देते हैं। ये खाँचे बहुत बार एक व्यक्ति के गझिन व्यक्तित्व की व्याख्या केवल एक शब्द में कर देते हैं। मेरी एक लेस्बियन फ्रेंड बताती है कि कमिंग आउट की प्रक्रिया उसके लिए बहुत कष्टदायक इसलिए रही क्योंकि अकसर लेस्बियन शब्द सुनते ही उसके पुरुष साथी उसे और उसकी प्रेमिका की सेक्स की मुद्रा में लिप्त वॉयरिस्टिक नज़र से देखने लगते थे। उसका पूरा अस्तित्व केवल सेक्स पॉजिशन बन कर रह जाता है।
पेइंग गेस्ट को अनाम रखना भी इसी बात को पुख़्ता करता है कि फिल्म के केंद्र में इच्छाओं का मकड़जाल है न प्रेम का कटा-फटा रूप जो समाज के वर्जनाओं के आधार पर तय किए जाता है।
केवल समलैंगिक खाँचे में डालना फिल्म के साथ अन्याय
एक मराठी ब्राह्मण परिवार के बेटा तनय को पुरुषों का स्पर्श अच्छा लगता है। शुरुआत के एक घंटे में तनय के संवादों में एक बेखबर बच्चा सुनाई पड़ता है। समाज द्वारा समलैंगिकों को हाशिए पर धकेल देने की बात से बेखबर वह अपने मन में उपजती इच्छाओं की विशिष्टता को समझने को कोशिश करता है। वो डायरी में कविताएँ लिखता है, किताबें पढ़ता है, भूपेन खक्खर के चित्र देखता है, तालाब के पाब्लो नेरुदा कछुए से बात करता है लेकिन उसे कुछ समझ नहीं आता। वह परेशान है जब अचानक वह घर के ऊपर रह रहे पेइंग गेस्ट के प्रेम में पड़ जाता है।
उनके बीच प्रेम के भावात्मक आवेश को पर्दे पर एक सपनीला पुट देने में दो चीजों की अहम भूमिका है—एक, केरल की लहलहाती हरियाली, कमल से भरे तालाब, धूप में सूखती लाल मिर्चें, मसालों के गोदाम। लगता है जैसे निर्देशक ने ‘कॉल मी बाय यॉर नेम’ के सेंसरी डिटेलिंग से प्रेरणा ली है। दूसरा, नीला रंग। नीला तालाब, तनय की नीली कमीज़, कमरे की नीली आभा, सीढ़ियों से रिसता नीला पानी। नीला जहाँ शांति और ठहराव का प्रतीक है, वहीं नीला रंग आकाश जैसी असीमित संभावनाओं की ओर भी इंगित करता है। नीला ही नहीं, फिल्म में रंग पात्रों की तरह दिखाई पड़ते हैं। पहली बार मिलने पर तनय की पीली कमीज़ उम्मीद का प्रतीक है, वहीं पेइंग गेस्ट की लाल कमीज़ प्रेम के उन्माद को दर्शाती है।
लेकिन जैसा तनय अपनी एक कविता मैं लिखता है—नेवर मेक प्लांस विद योर लवर—एक दिन अचानक पेइंग गेस्ट उसकी बहन अनुजा के साथ भाग जाता है। तनय और अनुजा न केवल एक दूसरे के विपरीत हैं बल्कि सामाजिक स्टीरियोटाइप के उलट भी। जहाँ तनय सब्मिसिव है, वहीं अनुजा आक्रामक है। उसके बाल छोटे हैं, और वह हॉकी में राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता के लिए तैयारी कर रही है। अनुजा के पेइंग गेस्ट से प्रेम का पूर्वाभास दर्शकों को तब हो जाता है जब वह तनय से उसकी कोल्ड क्रीम और डिओड्रेंट माँगती है। तनय विश्वास करना चाहता है कि उसकी बहन अकेली ही भागी है, लेकिन हकीकत का सामना उसे तब करना पड़ता है जब बहन वापिस लौट आती है। तनय और अनुजा दोनों ही दुख में डूबे हैं लेकिन इस समय तक फिल्म में इतना कुछ घट रहा होते है कि हम उनके दुख या आपस में बदलते समीकरण को लगभग भूल ही जाते हैं।
डगमगाता फोकस
इसके बाद के चालीस मिनटों में फिल्म रफ्तार पकड़ती है। इतनी घटनाएँ एक साथ हो रही हैं कि किसी एक पर ध्यान केंद्रित करना कठिन है—असीम की शादी। अनुजा को जूनियर हॉकी टीम के कोच की पोजिशन मिलना। तनय का राइटिंग कॉन्फ्रेंस में चयन। जबकि तनय और पेइंग गेस्ट का प्रेम बड़े धीरे-धीरे अपने अंतिम छोर तक पहुँचता है, अनुजा और पेइंग गेस्ट के बीच की नजदीकियों को सिर्फ एक दृश्य और अनुजा द्वारा एक डायलॉग में समेट दिया गया है—उसने मुझे मेरे शरीर की पहचान करवा दी।
हालांकि उपन्यास केवल तनय और अनुजा पर केंद्रित है, फिल्म में निर्माता ने कई सामाजिक समस्याओं को उठाने की कोशिश की है जिसके कारण फिल्म बोझिल लगने लगी है। तनय और अनुजा पर केंद्रित होने की बजाय बिखराव महसूस होता है।
उदाहरण के लिए नन का किरदार। या फातिमा, नन और अनुजा के बीच मित्रता। ऐसा लगता है कि दर्शकों को बहुत कुछ महसूस करवाने का प्रयत्न करते निर्माता भूल गए हैं कि कैमरे को किस पात्र पर केंद्रित करना है।
इंग्लिश प्रोफेसर द्वारा निभाया गया क्लोसीटेड गे का किरदार
इंग्लिश प्रोफेसर के किरदार ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया। नब्बे के दशक के क्लॉसिटेड गे का किरदार निभाते प्रोफेसर की नज़र में तनय के लिए चाहना, उनकी आवाज़ में कसमसाहट, उनका साँय-साँय करता अकेलापन, डायलॉग कि औरतें उस हर आदमी को छीन लेती हैं जिससे तुम प्रेम करते हो—गिनती भर सीन्स के बावजूद भी वह किरदार इतना सजीव हो उठता है कि हम उस किरदार से (तनय से भी ज्यादा) सहानुभूति महसूस कर पाते हैं। मेरे हिसाब से सबसे सुखद दृश्य वह है जिसमें तनय उन्हें गले लगाकर कहता है कि ये जो लोग कंप्यूटर जैसी मशीनें बना रहे हैं वो एक दिन ऐसी भी मशीन बनाएँगे जिससे लाइक एक जैसे लोग एक दूसरे से जुड़ पाएँगे।
बेहतरीन समीक्षा फिल्म की। लेबलिंग से परे व्यक्तित्व की पहचान अगले लोकतांत्रिक आंदोलनों का मुद्दा बनना चाहिए ।
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