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विनोद शाही की ग्यारह कविताएं

आज पढ़िए जाने माने कवि-आलोचक विनोद शाही की कविताएँ। समकालीन संद्र्भों में प्रासंगिक कविताएँ-
=======================
 
 
1
प्रगति के अंडे
 
एक फूल खिला
वनस्पति की एक तितली उग आई।
 
एक प्रेमी ने कहा, सुंदर है
चलो इसका नाम रति रख देते हैं।
 
उसे देख, आकाश में उड़ान भरती
सचमुच की एक तितली ने
जैसे दर्पण में खुद को देखा।
विस्मय से भर गया फूल भी
ये मैं हवा में कैसे उड़ा?
 
कौन हूं मैं
पूछने लगीं मन ही मन
दोनों तितलियां
एक दूसरी को देख कर
 
फिर जैसे ही बैठी तितली वह
फूल पर जाकर अकस्मात
कहा प्रेमिका ने प्रेमी को बांह से घसीटते हुए
एक से दो होना, कहते हैं इसे
ये है रति और ये है गति
आओ, इनके ब्याह में शामिल हो जाएं
और इनकी तरह
हवा में झूलते हुए
हम भी कुछ पल के लिये
आकाश में उड़ जाएं
 
इतना मत उड़ो
चेताया एक तीसरी तितली ने गुर्रा कर
क्षितिज के किनारे को दो हिस्सों में चीरती वह
आ गयी इस्पाती तितली तेज़ी से उनकी ओर
 
तितलियों के जोड़े का
मंथर नृत्य
ठिठक कर हवा में ठहर गया
 
अंतरिक्ष में इतनी ऊपर पहुंचने की कूवत
धरती की किसी तितली में कहां?
 
उन्हें उनकी औकात बताने के लिये
अंतरिक्ष की तितली ने
हवा में ही दे दिया अंडा
देखा उन्होंने छपा था उस पर
प्रगति का झंडा
 
गिरा नीचे तो फट गया अंडा
आग का फव्वारा
तितली के पंखों सा फैल गया
 
युद्ध क्षेत्र में पीछे
कटी फटी तितली सा
एक गड्ढा भर बच गया
 
उपग्रह से खींचे गये इसके चित्र का
शीर्षक था
कभी यहां तितली सा फड़फड़ाता
शहर हुआ करता था।
 
 
2
महामारी के दौर में
 
पूरी दुनिया में फैल रहा
वू हान
फैल रही
भूमंडलीकरण के बीमार होने की खबर
कोरोना की तरह
 
एक भी आणविक अस्त्र नहीं चला
शहर के शहर तबाह हो गये
 
जीत ही लेता दीमाग
दुनिया भर को
अपनी ही देह से मगर
हार गया
 
वैज्ञानिक प्रयोग शालाओं ने
जारी किये शोध के नये ब्यौरे
आदमी के
मनुष्य होने की बात
झूठ निकली है
सभ्यता की देह में
रूहें चमगादड़ की निकली हैं
 
मृतक लौटते हैं जब जब
आकाश में दिखाई देते हैं चमगादड़
जीवित लोगों का रक्त पीते हैं
वायरस के खात्मे के लिये
 
सभ्यता को
वैक्सीन की डोज़ की तरह
अर्थतंत्र के अस्पताल से
गरीबों में मुफ्त बांटा जा रहा है
 
सभ्यता को बचाने की
आखिरी कोशिश की तरह
 
 
3
कश्मीर के कैंप
 
स्वर्ग पृथ्वी का यही है
और ये ही नरक भी है
कश्मीर है ये
 
नरक जैसे कैंप भी हैं
स्वर्ग अपने कोजते हैं
वे कहीं के भी नहीं हैं
 
संभावनाएं आदमी की
मुल्क अपना खोजती
विस्थापित हुई हैं
हर जगह से
 
देवता हैं, दर असल हैं
पीर हैं, पैगंबर बड़े हैं
वे सभी हैं, बेशक सभी हैं
क्योंकि अभी तक आदमी
आया नहीं है
 
कश्मीर के सब देवता
पैगंबरों को साथ लेकर
उजड़ जायें और कैंपों में रहें
तो ही मुलक में आदमी के
बसने की बारी आयेगी
 
आदमी होगे जहां
वे ही असल में स्वर्ग होंगे
 
 
 
4
कश्मीर में ईद : अगस्त 2019
 
घाटी में ईद के बकरे
कुर्बानी से पहले
नमाज़ पढ़ते हैं
 
धरती के स्वर्ग के वासी
दहशत भरे नर्क के बीच
सजदे में हैं
 
अल्लाह को पुकारते हैं
ज़ोर से धड़कते दिल बस
‘हो हो’ ‘हो हो’ करते हैं
 
पंद्रह अगस्त भी दूर नहीं है
आज़ाद होने के लिये
घाटी के लोग
बकरों की तरह
सज संवर कर आये हैं
 
बकरों की आंखों में विस्मय है
वैसा ही जैसा कभी
मरने से पहले किसी
पंडित की आंखों में उतरा था
 
वैसे ही घाटी में उतरे हैं
अब की दफा फौज के लोग
जैसे इस ईद के मौसम में
असली सैलानी हों वे ही अमरनाथ के
 
यह ईद
मुसलमान के लिये मुहर्रम है
हिन्दू के लिये विस्थापन का अभिशाप
 
बाकी बचे थोड़े से लोग
जो सिर्फ आदमी हैं
उनकी इंतज़ार में है
ईद
ईद की तरह
 
5
खतरनाक तरीके से बीमार आदमी
 
एक कोढ़ी सेवाग्राम में आता है
ठीक होकर घर चला जाता है
बीमारी लेकिन
किसी और शक्ल में
फैलती रहती है
 
पहले से भी ज़्यादा बीमार आदमी
ईलाज करने वाले पर शक करता है
 
शक इस कदर बढ़ता है कि
खतरनाक तरीके से
बीमार आदमी
ईलाज करने वाले को मार गिराता है
 
खतरनाक तरीके से
बीमार आदमी
सब स्वस्थ लोगों को
अपना दुश्मन मानता है
 
खतरनाक तरीके से
बीमार आदमी के आतंक से
बचने के लिये लोग
नये सेवाग्राम बनाते हैं
और वहां
एक स्वस्थ आदमी का बुत लगाते हैं
 
खतरनाक तरीके से
बीमार आदमी
उस बुत पर भी गोलियां दागने लगता है
 
सन्न हुए लोग
अवाक होकर
उसे देखते रहते हैं
बुत हो गये से लगते हैं
 
बुत की तरह वे भी
स्वस्थ हो गये से लगते हैं
 
खतरनाक तरीके से
बीमार आदमी को लगता है
दुश्मनों की तादाद बढ़ती जाती है
 
सेवाग्राम से छुटकारा पाने के लिये अब
खतरनाक तरीके से
बीमार आदमी
देश के इन तमाम दुश्मनों को
देशनिकाला देने की योजना बनाता है
 
बस उसे इतनी ही चिंता है
देशवासियों के संग
कैसे वह अपने प्यारे देश को
देश के बाहर जाने से
रोके रख सकता है?
 
6
उन्होंने धर्म खड़े किये
 
 
उन्होंने धर्म खड़े किये
वे प्रेम को टालते रहना चाहते थे
 
मैं जिस जिस के प्रेम में था
उसे उन्होंने माया कहा
मैं उनके प्रति बैरागी हो गया।
 
उन्होंने दिये कुछ शब्द
और उनकी प्रतिमाएं
कहा, इनसे प्रेम करो
मैंने अपनी बांहें खोली ही थीं कि
रोक दिया गया
और उनके पैरों में पड़े रहने को कहा
इस तरह एक प्रेमी में
एक भक्त का जन्म हो गया
 
बांटते रहे वे
एक दूसरे का चढ़ाया प्रसाद
एक दूसरे में अदल बदल कर
और कहते रहे उसे
ईश्वर की करुणा की बरसात
 
फिर हुआ यह कि उनकी आंख बचा कर
मेरे भीतर ही मौजूद किसी देवता
या हो सकता है किसी असुर की करुणा
बरस गयी मुझ पर
और मुझे लगा
मैं फिर से सचमुच के प्रेम में था
 
मैंने पाया मेरा प्रेम में होना
ईश्वर की
बेरहम आलोचना की तरह आया था
 
यह देख उन्होंने पहले कामदेव को
फिर संत वेलेंतीन को
और फिर रांझे जोगी को गाली दी
और अपने धर्म बचा कर चले गये
 
उनके जाते ही पूरी बात साफ हो गयी
मैंने पाया मेरे होने से पहले तक
ईश्वर अधूरा था
तभी तो मैं हुआ था
 
और मेरे प्रेम में होने के बाद
न मैं हुआ था
न ईश्वर रहा था
 
 
 
7
वन नहीं रहे
 
कुंजों में लुकछिप कौन चले, वन नहीं रहे
सरस्वती खुद जल में डूबे, वन नहीं रहे
 
घसियारिन किस को प्रेम से छीले, वन नहीं रहे
चरवाहेन किस को हांक हंसे, वन नहीं रहे
 
पनहारिन खोजे अपना पनघट, वन नहीं रहे
पत्थर पूछें कहां अहिल्या, वन नहीं रहे
 
लक्ष्मण की मूर्छा कैसे टूटे, वन नहीं रहे
बांस फूल बरसों में आएं, वन नहीं रहे
 
 
8
बाबा से सवाल
 
बाबा ने कहा : देखो
जितने भी पशु पक्षी पेड़ सरिसर्प या कीड़ मकौड़े तक
बनाए हैं कुदरत ने इस धरती पर
रहते हैं स्वस्थ
आप अपने वैद खुद हो कर
 
मानवेतर प्राणी सारे
पाते हैं जन्म पृथ्वी पर
योग की प्राकृतिक शिक्षा पा कर
देते हैं दिखाई
किसी न किसी आसन की मुद्रा में हरदम
 
लेकिन आया तभी एक मोर
बाबा के पास
एकदम सही मयूरासन में खड़ा
पूछने लगा सवाल
पुरखों की पुश्तों तक से साधता रहा हूं यह आसन
पर अब थक गया हूं मैं भी आखिरकार
क्यों नही हुआ समाधि का अनुभव
नहीं हुई मुक्ति क्यों एक भी मोर की आज तक
ले लिए हम सै आसन तो उधार
खा कर डकार गये ज्ञान तक का ब्याज ?
खुद को कहते हो मयूरासन-सिद्ध योगीराज
पर थोड़ा तो अपने मोर होने का दो हिसाब
नहीं हो कृतघ्न
तो जो है सच में हकदार
ऐसे हम जैसे किसी मोर को दो
अपना गुरू होने का अधिकार
 
9
बाग में बगावत
 
 
डायर का हुक्म है
बाग सैर के लिए हैं मैदान खेलने के लिए
जलसे जूलूस के लिये आ सकते हैं लोग सड़क पर
शर्त यह है कि ट्रैफिक ना रुके
शर्त यह है कि वहां सिर्फ औरतें ना दिखें
और शर्त यह भी है कि गुंडे, नकाबपोश या पुलिस वाले
उनकी आड़ में हिंसा करें
तो इल्जाम वे खुद अपने सिर ले लें
ज़ख्म खाएं तो करा लें ईलाज, देशभक्त कहलाएं
हो जाए लिंचिंग तो कुर्बानी समझें
खुद ही अपनी राम राम बोलें, शहीद हो जाएं
 
हुकुम पर तामील कराने
जलियां वाले बाग से लेकर शाहीन बाग तक
पुलिस ने गश्त लगाई
लौट कर रपट लिखाई
लोग नहीं, सपने निकल आए हैं सड़कों पर
जलसे करते हैं निकालते हैं जुलूस
बोलते हैं सपने आजादी आज़ादी आजादी
बस आज़ादी
 
हो गया फरमान जारी
पकड़ कर ले आओ
जो भी लगे हाथ सपने या आजादी
पहनाओ हथकड़ियां, डाल दो जेल में
 
ट्रेनिंग नहीं थी सपनों का पीछा करने की
फिर भी सिपाही खोजते खोजते
पहुंच गए समय के चक्रव्यूह के मुहाने पर
पहली पांत में खड़े थे इतिहास के कुछ नायक
दूसरी पंक्ति में कुछ विचार
तीसरी में प्रेम
चौथी पांत में कुछ कविताएं
मज़बूत था दुर्ग
अंदर ही अंदर निकलते आते थे
व्यूह के परम गुप्त द्वारों के रक्षपाल
 
मिलते ही रपट बनाई गई रणनीति
खोजे गए नए अस्त्र-शस्त्र आयुध ब्रह्मास्त्र
जारी हुआ फरमान
इतिहास के सबसे बड़े नायक को मार दी जाए गोली
पहले से ही तीन गोलियां खाकर छलनी था इतिहास पुरुष
लेकिन हुक्म तो हुक्म था, उसे फिर से मारा गया
उसकी जगह लाया गया दूसरा इतिहास नायक
वह जेल से छूटकर अभी-अभी आया था
कराई गई उससे तकरीर
मेरी तरह सरकार की करो मिन्नत
काले पानी से निजात पाओ
सच में देशभक्त हो जाओ
 
देखते-देखते छिन्न-भिन्न हो गई
सपनों की पहली सुरक्षा पंक्ति
फिर आई विचार की बारी
बेअसर करने के लिए उसे
अलहदा किया गया उसे भाषा से उसकी
अकेली रह गई भाषा तो उसे मारे गए डंडे
तोड़ दी गई हड्डी पसली
फोड़ दी गई खोपड़ी, जिसके भीतर पनपते थे विचार
पीछे छोड़कर फिर वे चले गए अपने
टूटी फूटी भाषा के टुकड़े
मिल गया सुबूत हाकिम को कि वे वाकई थे
पढ़ लिख गए टुकड़े टुकड़े गैंग के सरकार द्रोही सिरफिरे
सपनों के व्यूह की
इस तरह टूट गई, दूसरी भी किलाबंदी
 
तीसरी जो पांत थी उसमें था लेकिन
प्रेम का बस बोलबाला
नफरत ने टुकड़े हिंदवी के उर्दू जुबान के जो किए थे
प्रेम ने वे सब उठाए और उन पर लिख दिए
टुकड़खोरो डंडानशीनों ट्रिगर हैप्पी हिंसकों
डायरों से देश की
मुकम्मल आजादी के ही नारे
पीछे खड़ी कविताओं ने भी
टीस को उन में मिलाया
पीर को लयबद्ध कर के, रामधुन में बदल डाला
सूफियों संतों की वाणी, जुगलबंदी कर उठी
सपनों की पीछे हो रही थी अनवरत जो कदमताल
लग रही थी हो ज्यों कोई, फौजी कवायद मार्च पास्ट
डायर को पहली बार चिंता सी हुई
फौजियों को कबसे सपने देखने की लत लगी
अच्छे दिनों में बुरी घटना क्यों घटी
‘अंग्रेज़’ शासक ने पुनः सोचा यही
क्यों न विभाजित करके भारत को चलूं फिर से कहीं ?
 
 
10
रिफ्यूजी का घर
 
रोम में रह कर रोमन सा दिखने से क्या होगा
रिफ्यूजी रिफ्यूजी रहता है
 
मुसलमान मुसलमान हो कर भी
मुजाहिर कहलाता है पाकिस्तान में
रोहिंग्या म्यांमार में
 
कितना ही गोरा हो
इमीग्रेंट हमारा
पश्चिम में काला
या ज़्यादा से ज़्यादा भूरा होता है
 
हमारे वक्त की सब से बड़ी बदकिस्मती है
ग्लोबल हो कर
सब की तरह सब कहीं हो कर
कहीं का न होना
 
जो अपनी तरह नहीं होता
किसी और की तरह कैसे हो सकता है ?
 
दूसरों से प्यार करने का मतलब ये नहीं होता
कि दूसरे भी हम से प्यार करते हों
 
दूसरों को जाने बिना
उन पर यकीन किया जिसने
गुलाम हो गया
जो नहीं हुआ गुलाम
रिफ्यूजी हो गया
 
अपनी जड़ों को काट कर जो
कहीं भी घूम घाम आने को आज़ाद हुआ
सीमाओं के पार उतरा
अगर दूसरों को नहीं बना सका गुलाम
तो खुद रिफ्यूजी हो गया
 
जो नहीं गये कहीं
उनकी मुसीबत भी कुछ कम नहीं रही
विकास को वे
अपनी लिप्साओं की गुलामी कहते रहे
लताड़ते रहे खुद को
अपनी इच्छाओं के पूरी न हो सकने की खिसियाहट को
कीचड़ में कमल होने का नाम देकर छिपाते रहे
भुखमरी के हालात से जूझने की बजाय
सिकुड़ी देह को तप
सुन्न दिमाग को समाधि बताते रहे
मर मिट जाने में ब्रह्म को देखते दिखाते रहे
ढोंग को लफ्फाज़ी से छिपाते रहे
पीछे छिप गये अंधेरों की तरह
रौशनी में होने के भरम को बचाते रहे
उलझते रहे खुद को बांधने वाली रस्सियों के साथ
जिन के दूसरे सिरे अज्ञात हाथों में थे
 
दो तिहाई से ज़्यादा ही दुनियां है जो
खुद अपनी या दूसरों की वजह से
अपनी ज़मीन से
और अपने आप से
जलावतन है
सनातन रिफ्यूजी की तरह है, बस जी रही है
 
दुपियां ये कुछ तो अपने ही देश में प्रवासी हैं
कुछ दूसरी बाकी की दुनियां में
दूसरी तरह से टपरीवासी हैं वणज़ारन हैं
कुछ हाशिये पर, वन में कुछ
तो कुछ अवैध भी हैं
यों ही कहीं भी घुसे चले आये हैं
 
रिफ्यूजी हैं कि पृथ्वी की
सब खाली जगहों को भर रहे हैं
 
वे यहूदी
पाले बदलते ही रहे हैं
दीवार ईश्वर की खड़ी है बीच में योरोसलम की
उस तरफ के लोग कैंपों में पड़े हैं
कुछ मुहाजिर , कश्मीरी पंडित
मूल वासी भी हैं कुछ जो
रिफ्यूजी गोरों के लिये हैं
दूसरे देशों में कुछ भेजे गये हैं
बंधक श्रमिक हैं
गिरमिटिये बड़े ही काम के हैं
तेल से लथपथ
भरे दुर्गंध से हैं
भुखे हैं उजड़े सूडान से हैं
आप खुद को मारते हैं
फिदायीन भी कितनी किस्म के हैं
कुछ विभाजित मुल्क के हैं
न इधर के न उधर के लोग हैं
कुछ मजहबी जुनून में हैं
पैरों तले हैं
तहज़ीब के वे स्वप्न में है
सत्ता से बाहर फेंके गये हैं
रिफ्यूजी सियासी भी बड़े हैं
अपने ही घर में कैद हैं
बेसमेंटों में छिपे हैं
वक्त के मुजरिम नहीं जो
पाक ग्रंथों से छिटक बाहर पड़े हैं
रिफ्यूजी आदिम, जन्नत से धरती पे गिरे हैं
वैकुण्ठ जिनका असल घर है
इस जगत में लीज़ पर हैं
ज़िंदगी पूरी रिफ्यूजी की बिता कर
मर के ही घर को लौटते हैं
 
 
11
मजहब के खंडहर
 
आदिम देह ने
देखते देखते उतार दिये कपड़े
रेशम मार्ग पर
 
खैरात में पशु से मिली थी
आदमी को देह आदिम
मजहब ने उसे ढक कर कहा
ले, आज से तू सभ्य है
 
सभ्यता को आदमी ने
वस्त्र सा पहना छिपाया स्वयं को
ताकि ज़रूरत जब पड़े
उसको उतारे
धोये, बदले, पहन ले
 
पैगंबरों का
दूत बन कर
घूमती है देह आदिम
बुतशिकन है बामियानी
 
मस्जिद गिराने
गुंबद पे चढ़ी मिल जायेगी फिर
वही आदिम देह करती
बुतपरस्ती अवध में
पाक है दरगाहे अज़ल
मंदिर सनातन मंत्र पूजित
पूत पावन
दुग्ध घृत सेवित शिलाएं शीर्ष की
बिखरी पड़ी हैं
पद दलित हैं
धर्म के खंडहर बचे हैं
प्रतिशोध में केवल उसी की हंसी सुनती
देह आदिम नृत्य करतीं
आद्य देवी केवला है
सभ्यता से पूर्व भी
वह ही यहां थी
उससे सनातन कुछ नहीं
 
पत्थरों में
ज्ञान के
अमृत जलों सी
अभिषिक्त स्मृतियां तोड़ती दम
रेत होकर झर रही हैं।
 
इतिहास को ढो कर थकी सी देव प्रतिमा
बेहाल भू लुंठित पड़ी है
शाश्वत सनातन देव का
कंकाल ही बस शेष है
 
पृष्ठ अंतिम सत्य के
फट बिखर गिरते जा रहे
उड़ते फिरते से हवा में
विक्षिप्त भटके प्रेत लगते।
 
अब तक खड़ी दीवार आधी
पहले मसीहा की निशानी आखिरी सी
इज़रायली येरुसलम में
ईश्वर कभी आकर रहा था जिस जगह
पीठ उसके गेह की
आख्यान बेघरबार होने का बनी है
फिलिस्तीन लोगों की तरह ही अधमरी है।
 
काले गुलाबी श्वेत पत्थर मरमरी
खुरदरे हो झर रहे
ज्यों अर्थ खोकर
वाक् से ध्वनियां छिटक कर घरघराएं।
 
योरोसलम अब हर जगह मौजूद है
जैसे मगहर और काशी
जैसे मदीना, बामियान
जैसे अयोध्या बाबरी
दरगाह ज्यों शहबाज़ की।
 
उजड़ काशी से गये देखो कबीर
मगहर से देखो मौन है!
 
फारस में पीछे छोड़ कर
बेघर चिश्ती को खुदाई
अजमेर ही में मिल गयी है
 
अजमेर भी तो सब कहीं
मुमकिन सदा है
 
दुनिया की छत्त तिब्बत से उतरा, क्या हुआ
धर्मशाला को दलाई
और ऊंचा कर रहा
 
योरोसलम में
तख्तों मठों में
रब्ब इतने भर गये कि
आदमी का
बसना वहां दुश्वार है।
 
लेकिन जहां होंगे कबीर
हर किसी में
छोटे बड़े नाटे कबीर
अक्खड़ निडर खुल बोलते हंसते कबीर
प्रतिवाद से संवाद तक सुलझे कबीर
गांव कोई भी भला हो
मगहर सरीखे धाम वे
कहलाएंगे, बस जायेंगे
और आदिम देह की
फिर से बीनेंगे चदरिया
आदमी की जात को ओढाएंगे
 
संपर्क: ए 563 पालम विहार, गुरूग्राम-122017 मो 9814658098
 
 
      

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