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ट्विंकल रक्षिता की आठ कविताएँ

आज पढ़िए ट्विंकल रक्षिता की कविताएँ। ट्विंकल गया के पास एक गाँव में रहती हैं। उनकी कविताएँ हंस, मंतव्य जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। आप भी पढ़िए-
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1.
 
मैन फोर्स कॉन्डम
 
लड़की बिगड़ गई…
कॉन्डम की बात करती है,
वो भी मैन फोर्स…
तो क्या करूं?
अजी अपनी सुरक्षा अपने हाथ में है।
शर्मा जी की दुकान पर चार डब्बे थे
स्ट्राबेरी, लीची, पाइनएप्पल…
और एक जिसका जिक्र उपर है,
और वह अभी मेरे पर्स में हैं।
शर्मा जी घूर रहे थे मुझे…
अब उन्हें क्या बताऊं, बड़े बुद्धू हैं,
उन्हें दिखता नहीं…
लड़की जवान हो गई है।
ज़्यादा सोचिए मत आप…
भाषण नहीं सुना कभी आपने?
अजी वही, महिला सशक्तिकरण वाला …
मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ा उसका…
अच्छा सुनिए न, अजी और पास आइए…
हद करते हैं, चीख के बताऊं??
आइए कान में बोलती हूँ,
जरा उस मैन फोर्स वाले मैन को समझाइए…
जरा उसको भी सशक्त कीजिए,
इस मामले में…
ताकि आगे से दुकान पर वह जाए,
पैसे मैं दे दूंगी…
पर आप उसकी जाति के लगते हैं…
जरा समझाइए उसको…
और ढंग से पहनना सिखाइए…
अजी वही….
मैन फोर्स कॉन्डम,
बड़ी कृपा होगी आपकी।
 
2.
 
 
आखिरी पत्थर
 
पहाड़ के ऊपरी सिरे पर…
एक बड़ा सा पत्थर
एक बड़ी उम्मीद की तरह…
बारिश, गर्मी, जाड़े सब झेलता हुआ…
कुछ प्रेमियों के छिपने की ओट….
पर जिसका कोई ओट नहीं,
कई बार मैंने धक्का दिया…
जोर से
हिलने का नाम नहीं लेता…
मुझे चिढ़ होती है उसे यूं देख के
उस निर्जीव का अविचलित होना…
मुझे विचलित करता है…
नेताओं की तरह मैं सच नहीं मानती…
सफेद कुर्ते पर….
कई रंगों के मजे लेना सीख रही हूं…
और पत्थरों को तोड़ने के तरीके भी…
राजनीति के बीच पत्थरों से पेंच लड़ाना
और सच के माथे पर दे मारना
अपने आप में बड़ी कला है…
पर ये पत्थर हिलता ही नहीं
शायद ये दुनिया का आखिरी पत्थर है…
हमारी राजनीति में….
 
 
3.
 
 
फर्स्ट टाइम
 
सच सुनना सीखिए…
और खुद पर काबू भी रखना….
बात बात पर रोमांटिक होना ठीक नहीं,
अजी आप इंसान हैं…
नेताओं की कोई प्रजाति नहीं।
आज एक नई माल मंगवाए हैं…
अपने आवास पर,
कलेक्टर की गाड़ी से…
बोले, जिसका फर्स्ट टाइम हो,
उसी को लाना …
दरअसल, नॉमिनेशन से लेकर परिणाम तक,
बड़ी थकावट हुई…
गौर करें…. थकते दोनों हैं
हारने वाले भी और जीतने वाले भी…
पर जीतने वाले की ख्वाहिश…
नई होती है।
कुछ ऐसा करने का जुनून होता है
जो पहले कभी न हुआ…
और इसकी शुरुआत,
बीस बाई सोलह की…
लंबाई चौड़ाई वाले कमरे से होती है।
गोरी बाहें और लाल होंठो के बीच…
भारत के सुखद भविष्य की कल्पना
कुछ नई नीतियां लिख रहे हैं वे…
कमर पर फिसलते हाथों से…
ये सब हो रहा है…
फर्स्ट टाइम।
 
 
4.
मैं लेखिका…???
 
मैं लेखिका बन गई क्या?
पता नहीं…
पर शब्दों को जोड़ना सीख रही हूँ।
कुछ टूटता है अंदर…
पर शब्द जुड़ जाते हैं।
मैं मीनारों से बातें करने लगी हूँ…
उसके ऊपरी गुम्बद
जो किसी की तानाशाही का हवाला देती हैं।
मैंने पूछा मैं कुछ लिखूं,
तुम्हारे बारे में…
उसने भी पूछा
लेखिका बन गई तुम?
मैंने अकड़ के कहा… हां तो,
ठहाका लगा के बोला…
अंधी भी हो??
मैं चौंक गई,
सोचा बड़ा बदतमीज है…
लेखिका से बोलने की तमीज नहीं…
पर वो ठहाके लगाता रहा
थक के बोला…
अभी और ऊंची मीनारें बनेगी
तानाशाहों की फौज यहीं रह गई
पर लेखक छोटे पड़ते जाएँगे
और मीनारें ऊंची…
तुम न देख पाओगी
न लिख पाओगी…
मीनार के ऊपरी हिस्से पर हूँ अभी…
झरोखे से देख रही हूँ…
पर तानाशाहों की फौज नहीं दिख रही,
मतलब… मैं लेखिका नहीं..??
 
5.
 
उलझी हुई चिड़िया
 
पूरा आसमां खाली
लंबाई चौड़ाई का कोई पता नहीं…
सवाल ये कि… नापे कौन?
ध्यान रखना था कि उसका वजन भी कम हो…
कहीं वजन अधिक हुआ तो टैक्स…
क्या पता… कहीं कोई कैमरा लगा हो,
जो सिर्फ़ आसमां नापने वालों की ख़बर
सरकार तक पहुंचाए
और फिर सरकार का दायित्व है
नागरिकों की रक्षा करना
उन छोटी चिड़ियों से
जो उनकी मर्ज़ी के खिलाफ…
आसमां नापे।
चिड़ियां भी ज़िद्दी…
पर ज़िद… प्यार की
और हिम्मत उस चिड़े की…
जो उसके साथ उड़ेगा…
पीठ पर दाना पानी लिए
अंधेरा होते ही उड़ने का सिलसिला शुरू हुआ…
पर ये क्या…?
आसमां में इतने कंटीले जाले किसने लगाए?
चिड़िया उलझ रही है…
चिड़ा भी खो गया
नहीं उसकी गर्दन फंस गई…
जालों के बीच, एक कांटा चुभा
गर्दन के बीचोबीच…
खून के फव्वारे शुरू
जो झरने की शक्ल में गिर रहे थे..
चिड़िया के आंगन में
तुलसी के चौरे पर…
चिड़िया भी उलझ गई
जालों के बीच…
अब वो सब आयेंगे
जो चिड़िया को मारेंगे नहीं…
बल्कि दूसरे घोंसले में भेजने की तैयारी करेंगे
जहां वो और उलझ जायेगी।
 
 
6.
 
धुंधले बादल
 
मुझे पसंद हैं ये धुंधले बादल..
और आपको??
मैं अपने साथ लिए घूमती हूँ इन्हें…
उनके वादों के तरह।
मैंने उनकी भक्ति की…
तब मेरा पेट भरा हुआ था।
सामने प्लेट में वही धुंधले बादल थे..
पर बादलों से पेट कहां भरता है…
पर जैसा की मैंने कहा…
तब मेरा पेट भरा हुआ था।
मैं प्लेट अपने साथ ले आई…
उसपर धुंधले बादल बड़े अच्छे लग रहे थे।
मैंने सोचा घर में स्वर्ग के नजारे होंगे…
मैंने सीरियलों में स्वर्ग देखा था,
और इंद्रलोक भी…
जहां बादलों के घेरे में,
अप्सराएं नाचती थी…
मैंने सोचा मुझे छला गया,
सिर्फ़ बादलों से स्वर्ग के नज़ारे कैसे होंगे?
मैंने सवाल किया,
जागरूक नागरिक होने के नाते…
मैंने कहा अप्सराएं कहाँ हैं…
उन्होंने बगल वाली कुर्सी की ओर इशारा किया,
पर वो सबकी मालकिन लग रही थीं…
मैं उल्टे पांव लौट आई…
स्वर्ग सीरियलों की ही खूबसूरत होती है..
 
 
7.
 
बादलों के पीछे
 
कुछ पक रहा है क्या…
उन बादलों के पीछे
कहीं कोई पुरानी रंजिश..
सत्ताधारियों की बादलों से।
या कोई उम्मीद उन ऊंचे पहाड़ों की,
जो उन्हें अकसर ढक लेती हैं…
उनकी ढिठई के बावजूद।
मैंने देखा आज…
बादलों के पीछे एक और बादल।
खामोश…
किसी के कत्ल का इल्ज़ाम लगा था उसपर…
सत्ताधारियों ने नाप ले ली है उसके पैरों की,
जंजीरे बनवाने के लिए।
हां, उन बादलों के पीछे…
 
 
8.
 
मेरी पहली कविता
 
मेरी पहली कविता, मेरे भीतर उठे सिहरनों को लेकर…
जिसे मैंने साफ महसूस किया
मैंने हर चीज में कविता ढूंढीं
पर शायद तुमने कहीं छिपा दी थी
हाँ, उन बादलों के पीछे
जहाँ वो अकेले उड़ी जा रही थी
मैंने सोचा रोक लूँ
उछल कर लपक लूँ
ऊंचाई अधिक थी, पर मैंने कोशिश की
मैंने लोक भी लिया, लेकिन मेरी पकड़ ढीली पड़ गई
और वो पुनः उड़ पड़ी
इस तरह वो मेरी पहली कविता बनते-बनते रह गई
मैंने कहा आसमान से, थोड़ा तुम ही झुक जाओ
थोड़ी मैं ऊपर आ जाती हूँ
हम दोनों मिल जाएंगे, तुम कविता लौटा देना
उसने मंजूर भी किया
पर इस बार मेरा कद छोटा पड़ गया
शायद उम्र भी…
मैं दोनों हाथ ऊपर किये खड़ी रही
पर आसमान का उससे अधिक
झुकना संभव नहीं था…
वो भी हार गया बोला अपना कद बढ़ाओ…
फिर मिलेंगे
और इस कदर मेरी पहली कविता अपने भीतर छुपाए
वो और ऊँचा हो गया
और मेरा कद और छोटा पड़ गया…
 
 
 
      

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