Home / Featured / नामवर सिंह की एक पुरानी बातचीत

नामवर सिंह की एक पुरानी बातचीत

 

डा॰ नामवर सिंह हिंदी साहित्य के शीर्षस्थ आलोचक माने जाते हैं। हिंदी ही नहीं, संपूर्ण भारतवर्ष में लोग इनके असाधारण ज्ञान, विलक्षण तर्कशक्ति और अद्भुत वाक्पटुता का लोहा मानते रहे हैं। डा॰ सिंह ही वो आलोचक हैं, जिन्होंने आलोचना जैसी विधा को एक लोकप्रिय विधा का दर्जा दिलाया। आलोचना की उनकी भाषा, शब्दाडंबरों से रहित एक आमजन की भाषा है। उन्होंने कई प्रमुख आलोचनात्मक कृतियों की रचना की है – ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां’, ‘छायावाद’, ‘इतिहास और आलोचना’, ‘कहानीः नई कहानी’, ‘कविता के नये प्रतिमान’, ‘दूसरी परंपरा की खोज’ और ‘वाद–विवाद संवाद’ । ‘कविता के नए प्रतिमान’ पर उन्हें 1971 का साहित्य अकादेमी का पुरस्कार प्रदान किया गया। ‘दूसरी परंपरा की खोज’ हिंदी में आलोचना की सबसे महत्त्वपूर्ण रचनाओं में शुमार की जाती है।

हिंदी के ख्यातिलब्ध आलोचक नामवर सिंह ने धर्म, साहित्य और राजनीति के अतर्संबंधों पर संगीता के साथ बातचीत में में कई उलझे हुए सूत्रों को सुलझाने की कोशिश की थी। यह बातचीत उनके पचहत्तरवें जन्मदिन के अवसर पर लिटरेट वर्ल्ड में प्रकाशित हुई थी। इंटरनेट पर प्रकाशित यह उनकी पहली बातचीत थी-

==================================

एक दबाव समूह के रूप में साहित्यकार की बातों को भारत में उतना महत्त्व नहीं मिल पाता है। इसका एक उदाहरण तो सामने है – गुजरात के मामले में कि प्रायः सभी साहित्यकारों ने एक जुट होकर दंगों का विरोध किया परंतु सरकार के कान पर जूँ तक न रेंगी। दबाव समूह के रूप में यह विफलता क्यों आती है जबकि यह समाज का एक विशिष्ट बुद्धिजीवी वर्ग है?

यह सही है कि साहित्यकारों का प्रतिरोध उतना असरदार नहीं हो सका , खासतौर से इस सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। लेकिन साहित्यकार प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया के द्वारा आम जनता तक पहुंच सका और उसका असर अभी तक कोई माप नहीं सका है। लेकिन एक हवा तो बनी है। भले ही सरकार यह स्वीकार न करे लेकिन यह प्रसंग दुखद है, दर्दनाक है, शर्मनाक है, भारत के माथे पर कलंक है। सरकार की ओर से भी ये बातें कही गई हैं और उसमें निश्चय ही बहुत सी ताकतों का हाथ है और एक हाथ लेखकों–कलाकारों और पत्रकारों का मानना चाहिए।

अगर लेखक अखिल भारतीय स्तर पर संगठित होते और उनका अगर कोई सगंठन होता तो यह और असरदार होता। इस क्रम में यह भी मालूम हुआ। हमारे एक मित्र गए थे गुजरात। बड़ौदा में लेखकों–कलाकारों और बुद्धिजीवियों की एक सभा हुई थी। इससे एक भ्रम तो यह टूट ही गया कि स्वयं गुजरात के साहित्यकार–लेखक की आवाज, जो खुलकर के सामने नहीं आ रही थी और लगता था कि या तो वे खामोश हैं या शामिल है उन लोगों में, यह भ्रम टूट गया। खुलकर वे सामने आये। और एक योजना है जिसे अमली रूप देगें हम या तो 15 अगस्त के आसपास या दो अक्टूबर को गांधी जी के जन्मदिन पर। अखिल भारतीय स्तर पर एक बड़ा सम्मेलन होगा जिसमें लेखक और कलाकार भी शामिल होंगे। संभवतः बहुतेरे पत्रकार भी शामिल होंगे और इससे अंदाजा लगेगा कि लेखकों की आवाज क्या है और कितनी दूर तक पहुंच सकती है।

एक साहित्यकार का धर्म से कैसा संबंध होना चाहिए और साथ ही यह भी बतायें कि एक साहित्यकार का राजनीति से क्या संबंध होना चाहिए?

अगर हम अपने साहित्य की लंबी परंपरा को ध्यान दें तो भारतीय भाषाओं का आरंभ ही संतो–भक्तों और सूफियों के द्वारा हुआ है और वह बड़ा ही गौरवशाली काल है। यहां भारत का सनातन धर्म इस्लाम के संपर्क में आया। और दोनों ने मिलकर, खासकर संतों–भक्तों और सूफियों ने देखा कि इतनी समान चीजें हैं कि भले ही बाहर समाज में कुछ विद्वेष हो, राजनीति या सामाजिक रूप में, लेकिन इसने प्रेम की, भाई-चारे की, भावना तो साहित्य में जगाई थी। आगे चलकर के 19 वीं सदी में भी, जिसको कुछ लोग नवजागरण कहते हैं, कुछ लोग सुधार आंदोलन कहते हैं , के दौरान, 1857 के बाद से 19 वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी के शुरू में ऐसा बहुत साहित्य लिखा गया जहां धर्म पर गहराई से विचार किया गया है, धर्म तत्वविचार किया है और ये हिन्दू धर्म में और इस्लाम के अंदर, दोनों बड़े धर्म में हुआ है, और ये तब हुआ जब उपनिवेशवाद इसाई धर्म को लेकर यहां आया था और इसाई धर्म में धर्मांतरण भी हो रहा था। उस समय गहरी छानबीन हुई है, संवाद हुए हैं, बहसें हुई हैं। इस क्रम में हर धर्म ने अपने अंदर की कमजोरियों पर भी दृष्टिपात किया है, आलोचनाएं की है और कहा है कि हमारे यहां सब कुछ अच्छा ही नहीं है।

दुर्भाग्य से वह प्रक्रिया आगे उतने संगठित और व्यवस्थित रूप में नहीं चल सकी और मुख्य मुद्दा हुआ देश की स्वाधीनता। लेकिन स्वाधीनता के अग्रदूत, जो स्वयं गांधी जी थे, वे धर्म में गहरी रुचि रखते थे, उन्होंने विचार किया है और उसका प्रभाव 1930 के दशक में हुआ था।उस समय का लिखा हुआ बहुत सारा साहित्य है, जो राष्ट्र की भावना से लिखा गया है। इसमें भी धार्मिक चेतना काफी है, कई लोगों में है, स्वयं प्रेमचंद में। स्वाधीनता के बाद वैज्ञानिक दृष्टिकोण के जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में देश के नवनिर्माण के समय भी सेकुलर तत्व निहित था कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा। समाज में धर्म रहेगा और उसमें हर धर्म के लिए जगह होगी। उसके प्रति उचित सम्मान होगा जिसे ‘सर्वधर्म समभाव’ रूप में कहा जाता है। किसी भी धर्म में कोई भी छोटा–बड़ा नहीं माना जायेगा। ऐसा नहीं है कि मानने वालों की संख्या ज्यादा है तो बड़ा धर्म होगा, कम संख्या वालों का छोटा होगा। लेकिन मैं यह अनुभव करता हूँ कि राज्य इतना धर्मनिरपेक्ष नहीं रह सका है। आगे चलकर जो दिखाई दिया, गुजरात में जो नरसंहार हुआ, इसमें स्वयं सरकार का हाथ था। इसके पहले कभी ऐसा हुआ न था। दंगे समाज में होते थे, परंतु सरकार की ओर से उसको प्रोत्साहन नहीं दिया जाता था। तो ऐसी स्थिति में मैं अब भी समझता हूँ कि गहराई से धर्म पर विचार किया जाना चाहिए। केवल इसे उपेक्षा करके नहीं छोड़ना चाहिए।

नब्बे के बाद जो धार्मिक उभार भारत में दिखाई दे रहा है, क्या इसके बीज निश्चित रूप से हिंदी नवजागरण में निहित थे, जिसे भारत में उन्नीसवीं सदी में अनुभव किया गया था?

आमतौर से जब वर्तमान में कोई समस्या होती है तो हम पढ़े–लिखे लोग, खासतौर से इतिहासकार, उसकी जड़ों की तलाश करते हैं और सोचते हैं कि अतीत में ज़रूर इसकी जड़ें होंगी। इस नाते ऐसा कुछ लोग सोच सकते हैं कि नब्बे के दशक के आसपास, खासतौर से इसको हिंदुत्व का उभार कहते हैं, हिंदुत्व का उभार भले ही हुआ हो लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना तो आजादी की लड़ाई के दौरान हो गई थी। सावरकर ने ‘हिंदुत्व’ नाम की किताब तो 1923 में लिखी थी और 1925 में हेडगेवार ने इसकी स्थापना की। उस समय हिंदू महासभा नाम की एक संस्था होती थी। सनातन धर्म महामंडल हुआ करता था। कई संगठन तो पहले से थे लेकिन उस समय तो ब्रह्म समाज भी था, उस समय आर्य समाज भी , और देखें तो आर्य समाज, हिंदू समाज की बहुत सी बुराइयों के विरूद्ध था, जात–पात के खिलाफ था, बाल–विवाह के खिलाफ था, विधवाओं के विवाह का आग्रही था। ये भी धारा थी। लेकिन जैसा अभी मैंने कहा कि उन्नीसवीं सदी में जो धर्मतत्व विचार शुरू हुआ, वह अधूरा रह गया। नवजागरण की प्रक्रिया जिस सुसंगत ढंग से चलनी चाहिए थी, बुद्धिजीवियों के बीच न चल सकी। उस समय जितने लोग थे, वे परंपरा से निकले थे, राममोहन राय वेदांत को भी उतना ही जानते थे और इस्लाम को भी उतना ही। स्वयं दयानंद भी। हिंदी के लेखकों में मुझे दो नाम याद आते हैं – रामावतार शर्मा, जिनके निबंध और कई पुस्तकें छपी हुई हैं और चन्द्रधर शर्मा गुलेरी। दो ही नहीं ,बल्कि राहुल सांकृत्यायन भी। तो ये लोग थे जो अपनी परंपरा के अंदर से निकले थे। इसकी आलोचना करते हुए उसमें सुधार की आवश्यकता को रेखांकित करते थे। आगे चलकर के इस समय के बुद्धिजीवी कुछ कम हो गए।

इस समय जितने बुद्धिजीवी हैं, नब्बे के दशक में, अधिकांश का आधार, कुछ विद्वान होंगे अपनी प्राचीन भारतीय परंपरा को जानने वाले, इतिहासकार भी हैं, समाजशास्त्री भी हैं, लेकिन अधिकांश ऐसे हैं जो यूरोपीय आधुनिक परंपरा से, उनके विचारों से जुड़े हैं। ज्यादातर, जिनको हम इंटेलेक्चुअल कहते हैं, बौद्धिक कहते हैं, ये बौद्धिक पश्चिमी चिंतन परंपरा को अधिक जानते हैं, स्वयं अपनी परंपरा के बारे उतने, अंग्रेजी में जिसे कहते हैं, रूटेड नहीं हैं, वो इनसाइडर नहीं हैं जैसे कि 19वीं सदी में थे। इसके कारण हुआ यह है कि हम प्रायः उन्नीसवीं शताब्दी नवजागरण के बारे में समझते हैं कि हिंदुत्व के बीज वहीं थे। स्वाधीनता संग्राम और कांग्रेस में ऐसे कई लोग थे ,जैसे– लाला लाजपत राय। लेकिन आज का जो एक संकीर्ण और कट्टर हिदुंत्व है वो उनलोगों में नहीं था। एक उदारता, सहिष्णुता और अपने शास्त्रों का वह रूप ,जिसके सर्वोंत्तम रूप हमारे गांधी जी थे। बाबा साहब अंबेडकर स्वयं, जिन्होंने दलित आंदोलन चलाया, कानून के विधार्थी होते हुए भी बौद्ध धर्म और दर्शन का गहरा अध्ययन उन्होंने किया था। उन्होंने पुस्तक भी लिखी है और बौद्ध धर्म को उन्होंने अंत में स्वीकार भी किया। गांधी जी स्वयं वैष्णव परंपरा से परिचित थे। ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ गाते थे, कबीर को गाते थे, तुलसीदास के ‘रामचरित मानस’ से परिचित थे। कम हैं आज के बुद्धिजीवी। इसका नतीजा यह हुआ है कि हमारे बुद्धिजीवियों में कुछ तो यूरोप के प्रभाव से खास तरह का, वहां के ज्ञानोदय, इनलाइटेनमेंट से प्रेरणा लेकर के एक सेकुलर मूल्यों के प्रति आग्रह रखने वाले हुये। उसी के विरूद्ध दूसरे बुद्धिजीवी हैं जो अपने को आधुनिकतावादी कहते हैं, माडर्निस्ट।

और इस बीच, नब्बे के दशक की बात कर रही हो तो कुछ इससे और पहले यूरोप में अधिकांश जगह आधुनिकता के विरूद्ध आंदोलन शुरू हुआ है। उत्तर–आधुनिकतावादी कहते हैं कि आधुनिकता, जो बुद्धि विवेक पर बल देती है, वह संकीर्ण है और इसमें एक तरह की तानाशाही पैदा होती है। आधुनिकता विरोधी कई विद्वान हैं, आशीष नंदी उनमें से प्रमुख हैं, और भी लोग हैं, कई लोग अपने को गांधीवादी कहते हैं, नव–गांधीवादी भी हैं। ये लोग सेकुलर बुद्धिजीवियों के विरूद्ध एंटी सेकुलर और धर्म के अधिक अनुकूल दिखाई पड़ते ही परोक्ष रूप से वे हिंदुत्व विचारधारा के समर्थक दिखाई पड़ते हैं। ऐसी स्थिति में मामला पेचीदा हो जाता है। दोनों यूरोप से प्रेरणा लेकर चले हैं और दोनों एक दूसरे के विरूद्ध। एक अपने को सेकुलर कहता है और दूसरा, दूसरे की नजर में उतना आधुनिक नहीं है। इस आधुनिकतावाद की आलोचना हुई। इस पूरी प्रक्रिया में मेरा ख्याल है कि जरूरत इस बात की है कि ‘सेकुलर’ और ‘नान सेकुलर’ पर गहराई से विचार करना चाहिए। क्यों ऐसा हुआ कि स्वाधीनता मिलने के साथ ही जो संगठन राजनीतिक दृष्टि से इतना कमजोर था कि संसद में उसके दो आदमी मुश्किल थे और आज उन्हीं के हाथ में राजसत्ता है। यह क्यों संभव हुआ, इसकी जिम्मेदारी भारत के कुछ बुद्धिजीवियों पर तो जाती ही है। उनलोगों पर जो खासतौर से एक सेकुलर और लोकतांत्रिक देश का निर्माण करना चाहते थे। कहां चूक हुई है, इस पर गहराई से उनको तो विचार करना ही चाहिए।

ऐसा प्रायः कहा जाता है कि साहित्य में एक लोकतंत्रात्मक परिसर का निर्माण अभी भी नहीं हो पाया है। बहुतेरे वर्गों की आवाजें अभी भी साहित्य में शामिल नहीं हो पायी है। इसके क्या कारण है? क्या एक कारण यह भी है कि साहित्य का अभिजन संप्रदाय उनकी आवाजों को दबाने की कोशिश कर रहा है?

यह सही है, क्योंकि हमारा लोकतंत्र स्वाधीनता के बाद जो बना तो आरंभ में सवर्ण, शिक्षित सवर्ण का वर्चस्व रहा। यदि विधान सभाओं और संसद के सदस्यों की सूची देखी जाए तो इस सूची में एक जमाने में संसद में तो अंग्रेजी में ही बहस होती थी। कोई भारतीय भाषाओं का प्रयोग करने वाला नहीं था, विधान सभाओं में भी लगभग यही स्थिति थी, मिला जुला रूप था, स्थानीय भाषा लोग बोलते थे लेकिन अंग्रेजी साथ–साथ चलती थी। उस लोकतंत्र में लगभग हाशिए पर पड़े हुए लोग, जैसे पिछड़ी हुई जातियां नहीं थी उनमें, दलित लोग नहीं थे, स्त्रियां नहीं थीं। इसलिए बहुत से हिस्से उस समय उपेक्षित थे।आरक्षण के जरिए दलितों को ले आने की कोशिश की गई, लेकिन इतने दिनों के बाद भी, अंबेडकर ने तो कहा था कि वे आरक्षण के पक्ष में भी नहीं थे लेकिन उन्होंने कहा कि आरक्षण कुछ समय तक रहेगा। उसके बाद खत्म कर दिया जायेगा। ऐसा लोकतंत्र हो कि लोग अपने आप राजसत्ता में हिस्सा ले सकें, लाभ उठा सकें। लोकतंत्र ही हमारा इतने दिनों के बाद आनुपातिक हो पा रहा है कि पिछड़ी जातियों को, स्त्रियों को, जिस लोकतंत्र में पंचायती राज का सपना देखा गया था उसमें पंचायतें ही न बन सकी थी, अब जाकर के पंचायतीराज कायम हुआ है। तो लोकतंत्र का जैसे जैसे विस्तार होगा उसी क्रम में उसके समानान्तर ही साहित्य और संस्कृति का भी विस्तार होगा। बावजूद इसके राजनीति में, समाज के बड़े हिस्से में प्रवेश न पा सके हों या सीमित रूप में मिला हो ,लेकिन अगर लेखकों की सूची देखी जाए तो स्त्री लेखिकाएं पहले भी थीं, अब ज्यादा हो गई हैं। दलित बहुत कम थे, दलितों के बारे में तो लिखा जाता था। लेकिन दलितों से आने वाले साहित्यकार कम थे। भक्ति आंदोलन को अगर याद करो तो बिना किसी लोकतंत्र के उस जमाने में ,साहित्य में, उन जातियों के लोग नाई, धोबी, धुनिया, चमार, जुलाहे एक से एक बड़े कवि और साहित्यकार हुए थे। तो साहित्य के विषय तो थे ये लोग, लेकिन स्वयं कर्ता नहीं थे। अब असर हुआ है कि दलित लेखकों का एक संगठन भी है और दलित साहित्यकार हिंदी में बहुत से आए हैं। पिछड़े वर्गों से थोड़े बहुत पहले भी आते थे अब बड़े पैमाने पर आए हैं। अगर कहानियां या उपन्यास लिखने वालों की संख्या देखो, एक परंपरा पहले से हिंदी में रही है, लोग समझते थे कि उर्दू तो मुसलमानों की जबान रही है लेकिन अनेक लेखक जो मुसलमान परिवार मे पैदा हुए, हिंदी में लिखने वाले भी हुए। प्रेमचंद के जमाने में भी थे – मौलवी जहूर बख्श, उस जमाने के बहुत अच्छे कथाकार थे। इधर देखो तो राही मासूम रजा, गुलशेर खां शानी, असगर वजाहत, अब्दुल बिस्मिल्लाह, मंजूर एहतेशाम, मेहरून्निसा परवेज के अलावे दर्जनों नाम और गिनाए जा सकते हैं जो मुसलमान परिवार में पैदा होने के बावजूद हिंदी में लिखे। राही मासूस रजा ने ‘महाभारत’ की पटकथा लिखी थी, वह बहुत लोकप्रिय हुआ। इसलिए साहित्य में ऐसा तो नहीं हैं कि सवर्णों का वर्चस्व रहा। दुर्भाग्य से हिंदी प्रदेश में साक्षरता मुश्किल से अभी पचास फीसदी पहुंची है। मलयालम, बंगाल में बहुत ज्यादा है। तो साक्षरता और शिक्षा का जैसे जैसे प्रसार होगा, मैं समझता हूँ कि साहित्य से हिंदी साहित्य में लिखने वाले वे लोग जो अब तक बेजुवान थे, वो बोलने लगेंगे, लिखने लगेंगे और यह सही दिशा में विकास हो रहा है। और तेजी से यह बढ़े इसकी कोशिश साहित्य की ओर से भी की जा रही है क्योंकि साहित्य में कोई छूआछूत, जात–पात तो मानता नहीं है। हाशिए के लोग अब केंद्र में आ रहे हैं। इसी रूप में उसका स्वागत और सम्मान हो रहा है। तो क्या यह सही है कि दलित अगर खुद अपने बारे मे लिखने लगे, तो वह ज्यादा मौलिक होगा? यह तो सही है। बहुत पहले 1908–09 के आसपास ‘सरस्वती’ में महावीर प्रसाद द्विवेदी को बिहार के एक हीरा डोम ने एक कविता भेजी थी, भोजपुरी बोली में । उसे प्रकाशित किया था उन्होंने। बहुत संवदेनशील पत्रकार संपादक थे महावीर प्रसाद द्विवेदी। तो उन्होंने देखा कि यह जिस तरह से अपनी वेदना को कह रहा है कोई सवर्ण इस वेदना को नहीं कह सकता। तो यह सही है। क्योंकि साहित्य की पूंजी तो अनुभव है और जो दुखिया है, दुखियारा है, अपने दुख को जितना वो जानता है, उससे सहानुभूति रखने वाले लोग ठीक– ठीक उस दुख का अनुभव उतनी तीव्रता से नहीं कर सकते हैं। उदाहरण के लिए ओमप्रकाश वाल्मीकि कवि भी हैं, कहानीकार भी हैं। अपनी आत्मकथा भी ‘जूठन’ नाम से लिखी है, ‘सलाम’ नाम का उनका एक कहानी संग्रह आया है। इसमें कुछ ऐसे अनुभव हैं जो कि एक भंगी को हुआ करते हैं, दूसरा आदमी उसको लिख नहीं सकता था। अब ये कि उसमें कलात्मकता का , भाषा का, कला का, वैसा निखार न मिले जैसा हिंदी के कुछ समर्थ लेखकों में मिले लेकिन उसके उस कचास में भी इतनी ताकत है , अंतर्वस्तु की ताकत इतनी है कि वो जादू सर चढ़कर बोलता है। इस बीच हमारे यहां हिंदी क्षेत्र के कई आदिवासी लेखक आए हैं, कवि आए हैं। आदिवासियों के जीवन पर दूसरों ने जो लिखा है, उससे बेहतर स्वयं आदिवासियों का लिखा सामने आ रहा है। यह तो सच है। यह बात स्त्री लेखन के बारे में भी है। कुछ अनुभव समाज में, परिवार में, जो स्त्री को होते हैं, एक पत्नी जैसा अनुभव करती है, वैसा स्वयं पति जो स्वयं चौबीस घंटे उसके साथ रहता है, वह अनुभव नहीं कर सकता। उस अनुभव में जो स्त्री धर्म के कारण उसको होते हैं, वह उनकी कहानियों में मिलता है। बहुत अच्छी कहानियां लिखी गई हैं। उदाहरण के लिए ‘ए लड़की’ नाम की कहानी कृष्णा सोबती ने लिखी है, ‘मित्रो मरजानी’ नाम की उनकी कहानी है, वह कोई पुरूष नहीं लिख सकता है। मन्नू भंडारी की कहानी पर ‘रजनीगंधा’ फिल्म बनी थी ‘यही सच है’ पर, तो स्वयं राजेंद्र नहीं लिख सकते हैं वह कहानी। साहित्य तो अनुभव का व्यापार है और अनुभूति व्यक्ति को होती है। जो भोगता है वह लिखे, जरूरी नहीं कि भोगने वाला हमेशा लिख ही दे, लेकिन कच्चा–पक्का भी लिखेगा तो उसकी जो ताप होगी एक बाहर का आदमी, दूसरा आदमी वो व्यक्त नहीं कर सकता ।

आज केन्द्र की सत्ता पर काबिज राजनीति इतिहास के पुनरीक्षण की बात कर रही है। क्या यह राजनीति साहित्येतिहास के भी पुनरीक्षण की सोच सकती है? अगर ऐसा होता है तो उसके क्या परिणाम होंगे?

एनसीईआरटी द्वारा छपी हुई इतिहास की पुस्तकों पर जो लंबी बहस हुई हैं उससे अंदाजा लगाया जा सकता है। पुराने जमाने में भी राजा लोग अपने वंश का इतिहास लिखाया करते थे, पैसा देकर लिखाते थे और इस तरह के बहुत से ग्रंथ मिलते हैं। तुर्कों के आक्रमण के पहले के हिन्दू राजाओं ने भी लिखाया है। कविता में भी लिखवाते थे, गद्य में भी लिखवाते थे। तो हर राजा अपना इतिहास लिखवाता है। और अपना इतिहास लिखने के साथ वो अपने देश का भी इतिहास भी लिखवाता है। अपने हितों के अनुकूल जिससे वो ताकत में बना रहे और जिससे उसे बल मिले। कह सकते हैं कि स्वयं इंदिरा गांधी ने अपने जमाने में इमरजेंसी में इतिहास लिखवाकर, कहीं लाल किले के आसपास रखा था, जब जनता सरकार बाद में आई तो खुदवाया उन्होंने कि क्या इतिहास लिखवाया है। तो बहुत से लोग चाहते हैं कि अमर हो जाएं इतिहास में और लोग उनके अनुसार देखे इतिहास को लिखे और समझे। ये लोग भी कर रहे हैं। इतिहास तो एक कहानी है, वो कहानी कई तरह से कही जा सकती है, उन घटनाओं को तरह–तरह से देखा जा सकता है, इसलिए बार–बार इतिहास लिखा जाता है और इस समय आजकल एक सबल्टर्न स्कूल है इतिहास लिखने वालों का। उनका कहना है कि ये वर्ग जो समाज के सबसे निचले तल में थे, ऊपर वाले तबकों ने तो अपना इतिहास लिखा परंतु इसके खिलाफ जो प्रतिरोध हुए थे, आंदोलन किए गए थे, उदाहरण के लिए स्वतंत्रता आंदोलन में कांग्रेस का नाम तो लिया जाता है, परंतु किसानों के बड़े–बड़े विद्रोह की कहानी किसी ने लिखी ही नहीं। बिरसा मुंडा की इतनी बड़ी लड़ाई थी। ऐसे लोगों का भी इतिहास में हिस्सा रहा है। इतिहास एक विद्या है, ज्ञान का क्षेत्र है और इस ज्ञान के क्षेत्र को लोकतांत्रिक होना चाहिए, बौद्धिक स्वतंत्रता होनी चाहिए, इतिहास के कई रूप प्रारूप आएं और आम जनता या समझदार लोग निर्णय करेंगे कि इसमें किसकी बात सही है, किसकी बात गलत है। इतिहास में खुलापन होना चाहिए। जैसे विज्ञान में अंतिम सत्य कुछ भी नहीं होता उसी तरह इतिहास की अंतिम रूपरेखा कोई नहीं होती। बार–बार वही इतिहास लिखा जायेगा। यह एक फासिस्ट मनोवृत्ति है कि एक ढंग का इतिहास ही रहेगा, बाकी चीजे नहीं रहेगी।

लोकतंत्र के तीन बुनियादी आधार हैं – समानता, स्वतंत्रता और भाईचारा। भारत ही क्या वैश्विक परिदृश्य पर भी जाएं तो लोकतंत्र इन तीन बुनियादी सिद्धांतो को क्यों नहीं पूरा कर पा रही है?

लोकतंत्र के ये तीन जो सिद्धांत हैं वे आदर्श हैं और फ्रांस की जिस राज्यक्रांति से ये तीनों निकले थे, स्वयं फ्रांस में भी ये पूरे व्यवहार में नहीं आ सके हैं। लेकिन ये वो सपना है जिसे मरना नहीं चाहिए, जीवित रखना चाहिए। ये लक्ष्य जब पूरा होगा, तब होगा लेकिन उस दिशा में बढ़ते रहें हम, इसके लिए लोकतंत्र की इस भावना को जिलाए रखना है। आर्थिक दृष्टि से जबतक समानता नहीं होगी तबतक केवल संविधान में सबको समान अधिकार मिलने से नहीं होगा।उसके साथ ही राजनीतिक समानता है। इसमें क्षेत्रीय समानता भी है। बहुत दिनों तक हम लोग समझते थे कि क्षेत्रीय असंतुलन है। भारत में हमारे दक्षिण अधिक विकसित है उत्तर की अपेक्षा और हिंदी भाषी प्रदेश तो सबसे पिछड़ा है जिसमें एक भी उद्योग धंधा नहीं है। सारी आईटी कहां जा रही है? बंगलोर में ,मद्रास में और हैदराबाद में आ रही है। उत्तर में कहीं आईटी का पता नहीं है । साफ्टवेयर बनाने वाले सब दक्षिण के हैं, उत्तर में नहीं है कोई? इसलिए भारत के अंदर लोकतंत्र का मतलब है कि सभी क्षेत्र समान रूप से विकसित हों और समाज का हर अंग यदि बराबर न हो सके तो उसके बीच कम से कम फासला रहे। सबसे महत्वपूर्ण है इसमें समानता और ये समानता तभी आयेगी जब पूरे समाज में भाईचारा होगा। गुजरात में जो हुआ वह भाईचारा का कोई नमूना है? जो लोग कुछ समय पहले तक साथ–साथ रहते थे व्यवसाय में, वाणिज्य में, बाजार में, उद्योग धंधे में, वही लोग एक–दूसरे के खून के प्यासे हो गये हैं। तो यह तीनों जुड़ा हुआ है। स्वतंत्रता में सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। अंग्रेजों के जमाने से इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी गई थी और स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिए लोगों को जेल जाना पड़ा था और सजा भुगतनी पड़ी थी। इसलिए लोकतंत्र की ये तीनों चीजें हैं।

लोकतंत्र की विफलता बार बार उजागर होती है। फिर भी लोकतंत्र फलता–फूलता जा रहा है। इसके क्या कारण हैं?

लोकतंत्र संस्थाओं से बनता है। इन संस्थाओं का स्वरूप लोकतांत्रिक होना चाहिये। उदाहरण के लिए वोट देने का अधिकार सबको है। ये बड़ा क्रांतिकारी कदम था जब बालिग मताधिकार लगाए गए। कई लोगों ने कहा था कि यह असंभव काम है, भारत में कई लोग इसे संदेह की दृष्टि से देख रहे थे। बालिग मताधिकार है लेकिन बाहुबल और धनबल पर लोग जीतकर चले आते हैं। वोट डालने ही नहीं दिया जाता है कुछ लोगों को, तो कुछ लोगों के नाम पर वोटिंग होती है। इसका मतलब है कि अभी तक चुनाव को हमने संस्थागत रूप से मजबूत नहीं किया है। हमारे लोकतंत्र की संस्थाएं कमजोर हैं, जैसे नौकरशाही है, हमारी पुलिस है। गुजरात में पाया गया कि स्वयं पुलिस ही तमाशा देखती थी। इसका मतलब है कि प्रशासन ,पुलिस की संस्था मजबूत नहीं है। कहते हैं कि न्यायालय भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए हैं। लोकतंत्र मजबूत बनते हैं संस्थाओं से और पिछले पचास वर्षों में उन संस्थाओं में गिरावट आयी है। यह राजनीतिक संस्थाओं का काम है कि वह इन संस्थाओं की स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए उसे मजबूत करे, इसे खोखला न होने दे वरना राजनीतिक लोकतंत्र कभी भी इन आदर्शों को पूरा नहीं कर पायेगा जिसे हम स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा कहते हैं।
ज्यादातर भाषाओं के आरंभिक लेखन के पीछे केन्द्रीय प्रेरणा धर्म की रही है। शायद यह भी एक वजह रही है ऐसी रचनाओं की लोकप्रियता का। आज के पंथनिरपेक्ष जमाने में, जब धर्म का सामाजिक महत्त्व कमतर होता जा रहा है लेकिन अभी भी यह व्यक्तिगत चेतना का अभिन्न अंग है, क्या धर्म से प्रेरित ऐसा साहित्य रचा जा सकता है जैसा कभी तुलसी, सूर और मीरा जैसे लोगों ने किया।

ऐसा है कि जिसे हम संतों और भक्तों का साहित्य कहते हैं वह साहित्य धार्मिक संस्थाओं के, मठों–मंदिरों के विरूद्ध था। इसलिए धार्मिक संस्थान का कोई महंत कविता के लिए प्रेरणा नहीं दे सकता है। स्वयं सूर को निकाल दिया गया था जिस श्रीनाथ मंदिर से वे भजन गाया करते थे वहां। लेकिन उन्होंने उस महंत की कोई वंदना नहीं की थी। कबीर तो हर तरह के मुल्ला–मौलवी के खिलाफ थे। जायसी किसी सूफी मठ में तो रहते नहीं थे। लेकिन इन लोगों ने धर्म के सार को लिया, दूसरे शब्दों में उच्च मानवीय मूल्यों और आदर्शों को लिया। तुलसी ने राम का नाम लिया लेकिन सार निकाला कि ‘सुरसर सम सब कहैं हित होई’ और पर हित में समान कोई धर्म नहीं है और ‘परपीरा सम नाहि अधमाई’ और दूसरे का भला करने से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और दूसरे को पीड़ा पहुंचाने के बढ़कर कोई अधर्म नहीं है। अब ये ऐसा आदर्श है जिसको हम मानवीय मूल्य कहेंगे। एक ऊंचा आदर्श था, जिससे वो महान साहित्य लिखा गया।

आगे चलकर के देखें तो प्रेमचंद का, निराला का, जयशंकार प्रसाद का युग है। उस युग को देखें तो धर्म उसकी मूल प्रेरणा नहीं थी लेकिन राष्ट्र की स्वाधीनता ही सबसे बड़ा धर्म था, एक विचार था यह राष्ट्रमुक्ति स्वाधीनता। उस स्वाधीनता से जुड़े जो मानव मूल्य थे ,जो सामाजिक मूल्य थे, उससे प्रेमचंद के उपन्यास भरे हैं, निराला की कविता भरी है, जयशंकर प्रसाद के नाटक हैं, कविताएं हैं। इसलिए एक जमाने में धर्म से निकले हुए जो मानव मूल्य थे उससे श्रेष्ठ साहित्य रचा गया। आज के जमाने में जरूरी नहीं कि धर्म उतनी ही ताकतवर चीज रह गया हो।आज धर्म से ज्यादा ताकतवर तो राजनीति हो गई है। और दूसरी विचारधाराएं आ गयी हैं। समानता अपने आप में एक मूल्य है। स्वतंत्रता भी एक मूल्य है। जरूरी नहीं कि समानता और स्वतंत्रता धार्मिक मूल्य हों। इसलिए जब से मानववाद का जोर बढ़ा और विश्व ईश्वर केंद्रित न होकर मनुष्य केंद्रित हो गया। मनुष्य केंद्रित होने के साथ साहित्य में भी मूल्य बदले।

क्या अब कोई धार्मिक नेता या धार्मिक संस्था साहित्य का प्रेरणा स्रोत हो सकता है?

अब, आज के जमाने में कोई धार्मिक संस्थाए, धार्मिक नेता साहित्य का प्रेरणा श्रोत नहीं बन सकता है। बल्कि साहित्य का प्रेरणाश्रोत मनुष्य और मानव मूल्य ही हो सकता है। स्वयं वाल्मीकि का धर्म क्या था। वाल्मीकि ने तो ब्रह्मा से यही पूछा था न कि मैं कविता लिखना चाहता हूं और कविता लिखने के लिए एक नायक चाहिए तो नायक ऐसा कौन सा मनुष्य है इस धरती पर। राम तब भगवान नहीं बने थे। वाल्मीकि के राम भगवान नहीं थे।

उन्होंने ब्रह्मा से कहा कि जिसमें शौर्य , वीरता, पराक्रम, करुणा, ममता, प्रेम हो, तो ब्रह्मा बोले कि ‘ऐसे तो एक राम ही हैं।’ तो धार्मिक मूल्य तो नहीं था ‘रामायण’ जो आज का महाकाव्य कहलाता है हमारे भारत का। तो जरूरी नहीं है कि धर्म ही काव्य का एकमात्र स्रोत हो। धर्म भी हो सकता है। विशेष स्थिति में अगर धर्म इस योग्य हो जाए तो धर्म के उस रूप से भी प्रेरणा ले सकते हैं। कई लोग धर्म से आध्यात्म की प्रेरणा लेते हैं। धार्मिकता एक चीज है, आध्यात्मिकता बिल्कुल दूसरी चीज है। कुछ लोगों ने काव्य लिखे हैं, अरविंदो का ‘सावित्री’ आध्यात्मिक काव्य कहा जाता है। लेकिन आध्यत्मिकता के साथ ही शुद्ध लौकिकता भी काव्यों का, उपन्यासों का आधार बन सकती है। आज यह है कि किसी साहित्यकार के कुछ सचमुच ऊँचे आदर्श यदि हैं उसके लिए, जिसके लिए वह लिख रहा है तो वह साहित्य बड़ा होगा। अगर किसी के पास वैसा आदर्श नहीं है, वैसा काव्य नहीं है, वो प्रतिबद्धता नहीं है, तो बड़े साहित्य की रचना संभव नहीं है।कुछ लेखक समाज को केवल बदलने के लिए लिखते हैं और ये बदलने की भावना जो क्रांतिकारी कहलाती है, यहां क्रांति कोई धार्मिक मूल्य नहीं है, मानवीय मूल्य है, सामाजिक मूल्य है। मैं समझता हूँ कि हिंदी साहित्य में जो कुछ अच्छा लिखा जा रहा है उसके पीछे कोई न कोई तो मूल्य है।

अलग–अलग काल में ‘राम’ शब्द ने तेजी से अर्थ बदला है। वाल्मीकि, तुलसी, कबीर, गांधी और आज के भारत – सभी के ‘राम’ थोड़े अलग हैं ? ‘राम’ के इस अर्थ परिवर्तन को आप कैसे देखते हैं?

सही कहा कि हर दौर का अपना एक राम होता है। और यह बदलता रहा है। कबीर के लिए निर्गुण–निराकार राम था, तुलसी के लिए अवतार का राम था, गांधी ने रामराज्य की कल्पना की थी परंतु गांधी का रामराज्य अलग था, तुलसी का अलग। इस दौर में मैथिलीशरण गुप्त ने सवाल भी उठाया था कि ‘राम तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है।’ मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा, उनका भी नाम लेना चाहिए। ‘साकेत’ में ऐसा नहीं लगता कि वो किसी अवतारी का काव्य लिख रहे हैं। अपने ढंग से देखा उन्होंने। जिसमें आपका मन रमे और जो आप में रमा हुआ हो, वही राम है। राम का अर्थ यही है जो रम जाए। वो भाव और वो आदर्श वो चरित्र और वो घटना राम हो सकती है। इसलिए ऐसा बराबर हुआ है कि एक ही चरित्र पर विदेशों में भी,जैसे फ्राउस्ट बहुत महत्वपूर्ण ग्रीक मिथोलोजिकल फिगर थे, अंग्रेज नाटककार मार्लो ने एक नाटक लिखा उनपर, सर टामस मान ने लिखा, उसके पहले गेटे ने भी फ्राउस्ट पर लिखा, एक फ्राउस्ट पर इतने लोगों ने लिखा है। हर संस्कृति और सभ्यता में कुछ ऐसे चरित्र होते हैं जो उसके अंग बन जाते हैं। विचित्र बात है, राम पर जिन लोगों का नाम लिया, राम पर तो अब रामचरित जैनों और बौद्धों ने भी लिखा है। इसलिए जैन, बौद्ध, ब्राह्मण परंपरा और इससे अलग वैश्यों ने भी लिखा है। इसका मतलब है हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग हैं राम। राम पर तो इकबाल ने कविता लिखी है। तो उन चरित्रों में हमारे यहां राम , कृष्ण और शिव, ये ऐतिहासिक हैं या अनैतिहासिक, इसकी बहस नहीं है, लेकिन ये संस्कृति पुरूष हैं हमारे। इनके बारे में बराबर लिखा जायेगा। नये–नये ढंग से लोग लिखेंगे।

साहित्य, साहित्य, साहित्य।आपने अपना सारा जीवन साहित्य में लगा दिया। साहित्य में आपके नाम का डंका बजता है। आपके तर्कों के सामने कोई ठठ नहीं पाता है। लेकिन आप खुद अपने कार्यों से कितने संतुष्ट है? क्या कुछ बचा है जिसपर अभी आप काम करना चाहेंगे?

मैं बहुत असंतुष्ट हूँ। जितना लिखना चाहिए उतना मैं नहीं लिख सका हूँ, और उसके कारण हैं लेकिन कारणों का जिक्र करके मैं उसका औचित्य नहीं साबित करना चाहता हूं। लेकिन एक बात मैं जानता हूँ कि ‘असंतुष्टा द्विजानष्टाः’ यह कहा गया है। लेकिन यह भी कहा गया है कि जो आदमी संतुष्ट हो जाए वो मृत के तुल्य है। अभी मुझमें असंतोष शायद बचा हुआ है, तो लगता है शायद मैं लिख पाऊँगा।

हमारे इंटरनेट के पाठकों को , जिसमें बहुतेरे पाठक अनिवासी भारतीय हैं, उन्हें आप क्या संदेश देना चाहेंगे?

विदेश के रहने वाले लोग अपने देश के छूटने के दर्द को बराबर महसूस करते रहें। ऐसा न हो कि परदेश ही उनका देश बन जाए और वे संतुष्ट हो जाएं। आएं न आएं, पर वापस आने की जो पीड़ा है, वह अगर बची रहती है तब वे इस देश के काम आ पायेंगे और यही उनके जीवन को भी सार्थक कर सकता है। इसलिए मैं यह संदेश दूंगा कि घर वापस होने की जो एक पीड़ा है, दर्द है, वह जिंदा रहे, वह मर न जाए। जर्मन लोगों के यहां एक अच्छा शब्द है ‘हाइमाट’ heimat,. ये ‘ॐ’ और ‘हाइमाट’ और हमारा जो अपना शब्द है ‘घर’–ये महज एक शब्द नहीं है जिसका अर्थ किसी कोष से मालूम हो सकता है। यह एक पूरी संस्कृति है । ‘घर’ जब हम कहते हैं तो घर केवल मकान नहीं होता है। घर एक कल्पना है, एक भावना है। इस घर की कल्पना और भावना जबतक उनमें बनी रहेगी तबतक भारत की सभ्यता और संस्कृति, अपनी भाषा और अपने साहित्य , जो हम लिख रहे हैं , इस साहित्य के अंग कभी न कभी जरूर बनते रहेंगे और शायद लिखना पसंद करेंगे अपनी भाषा में, कोई कहानी, कोई कविता – यही कामना है हमारी।

 
      

About Amrut Ranjan

कूपरटीनो हाई स्कूल, कैलिफ़ोर्निया में पढ़ रहे अमृत कविता और लघु निबंध लिखते हैं। इनकी ज़्यादातर रचनाएँ जानकीपुल पर छपी हैं।

Check Also

ज़ेरी पिंटो के उपन्यास ‘माहिम में कत्ल’ का एक अंश

हाल में ही राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उपन्यास ‘माहिम में क़त्ल’ का मुंबई में लोकार्पण …

3 comments

  1. The other day, while I was at work, my sister stole my iPad and
    tested to see if it can survive a 30 foot drop, just so she can be a youtube sensation. My iPad is
    now destroyed and she has 83 views. I know this is entirely off topic but I had
    to share it with someone!

  2. This is a good tip particularly to those fresh to the blogosphere.
    Simple but very precise information… Thank you for sharing this one.

    A must read post!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *