Home / Featured / घूमते आईने का हिंदी पर ठहराव

घूमते आईने का हिंदी पर ठहराव

सत्यानन्द निरुपम का यह लेख इंटरनेशनल बुकर प्राइज़ की घोषणा के बाद लिखा गया था। पहले अंग्रेज़ी में आउटलुक में प्रकाशित हुआ। बाद में ‘आलोचना’ में। लेकिन आपके लिए ऑनलाइन जानकी पुल लेकर आ रहा है। अनुवाद को लेकर, हिंदी के बनते वैश्विक परिदृश्य पर सम्यक् सोच के साथ लिखा गया एक जरूरी लेख है। इस लेख पर आपकी प्रतिक्रियाओं का स्वागत है-

=======================

उपेन्द्र नाथ अश्क का एक उपन्यास है—शहर में घूमता आईना. 2022 के इंटरनेशनल बुकर प्राइज की घोषणा के बाद से मुझे उस शीर्षक की याद आ रही है. किताबों की दुनिया में हिंदी का आईना लगभग डेढ़ सौ साल से घूम रहा है. वह देशी-विदेशी हिंदीतर भाषाओँ के श्रेष्ठ और जरूरी साहित्य से हिंदी पाठक समाज की पहचान करा रहा है. अगर दोटूक शब्दों में कहूँ तो हिंदी को उसकी महत्ती भूमिका का प्रतिदान अब, लगभग डेढ़ सौ साल बाद मिला है. दुनिया का आईना हिंदी की तरफ घूमकर पहले भी आया है, लेकिन ठहरा पहली बार है. यह ठहराव सम्वाद और सम्बन्ध के एक नए युग की शुरुआत करेगा, यह कहने में कोई संकोच नहीं.

रिश्ते दोतरफा ही निभते हैं. लेकिन हिंदी अनथक भाव से, बिना किसी शिकायत के देश-दुनिया की तमाम भाषाओँ की किताबों को अपने समाज की बौद्धिक जरूरत, साहित्यिक आस्वाद से जोड़ रही थी. लेकिन ठीक यही काम और भाषाएँ हिंदी किताबों के साथ उसी उत्साह या तत्परता से नहीं कर रही थीं. यह केवल हिंदी प्रकाशन उद्योग की अपनी तैयारी और पहुँच में कमी का मसला नहीं रहा है, हिंदी लेखन में किसी कमी की बात नहीं रही है, यह कुछ हद तक स्वस्थ दोतरफा सम्वाद की कमी और कुछ अनदेखा करते रहने के भी जाने-अनजाने भाव का मामला रहा है. हिंदी समाज स्वभाव से कुछ संकोची और कई मामलों में रूखा है. यह दोनों बातें उसके आगे बढ़ने में आड़े आती हैं. अनुवाद, और अच्छा अनुवाद, पारस्परिकता से सम्भव होता है. लेखक-अनुवादक-सम्पादक-प्रकाशक—सभी पक्षों में परस्पर सम्वाद जितना अच्छा होगा, अच्छे अनुवाद का रास्ता सुगम होगा.

हिंदी अपने को बढ़-चढ़कर आगे पेश करने के मामले में संकोच बरतती रही है. चाहे जिन कारणों से. हिंदी मीडिया अनुदित किताबों की समीक्षा नहीं करने से लेकर, अनुवादकों की अनदेखी करने की हद तक जाता है. हिंदी में अनुवाद बहुत होते हैं, अनुवादक बहुत हैं, अनुवाद पर पुरस्कार भी हैं, लेकिन अच्छे अनुवादकों और अच्छे अनुवाद पर चर्चा सबसे कम है. यह एक व्यवसायिक या तकनीकी काम की तरह देखने की मानसिकता हो सकती है. हम इसके सर्जनात्मक पक्ष को अनदेखा करके अनुवादकों के महत्व को समझने से वंचित रह जाते हैं.

हिंदी में बहुत अच्छे-अच्छे लेखकों ने दूसरी भाषाओं के साहित्य का अनुवाद अपनी भाषा में किया है और तत्परता ऐसी कि एक मिसाल देखिए. शंकर का उपन्यास ‘चौरंगी’ बांग्ला में 1962 में छपा. इसी उपन्यास से शंकर एक लेखक के रूप में स्थापित और बहुचर्चित हुए. बांग्ला में अब तक इसके शायद 145 से अधिक संस्करण निकल चुके हैं. हिंदी में इसका अनुवाद 1964 में छपा. अनुवादक थे राजकमल चौधरी और प्रकाशन किया राजकमल ने. राजकमल चौधरी तब अपनी भाषा के जानेमाने कथाकार थे. हिंदी पाठक समाज में शंकर को इस किताब के कारण अच्छी तरह से जाना जाता है. लेकिन दुनिया में शंकर के लेखन का डंका तब बजा, जब अरुणावा सिन्हा के अनुवाद में यह उपन्यास अंग्रेजी में 2007 में छपा, मूल भाषा के 45 और हिंदी अनुवाद के 43 साल बाद. भारतीय भाषाओँ के ऐसे कई लेखक हैं जिनके साहित्य अकादेमी पुरस्कार या ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने से पहले ही हिंदी में उनकी किताबें अनुदित हो चुकी होती हैं. यू आर अनंतमूर्ति, गिरीश कर्नाड, भालचंद्र नेमाड़े से लेकर दामोदर माउजो तक कई बड़े नाम हैं. मारियो वार्गास ल्योसा हों या ओल्गा तोकार्चुक, नोबल पुरस्कार मिलने से पहले इनकी किताब हिंदी में प्रकाशित थी. ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे कि हिंदी ने दुनिया की तमाम ज़ुबानों से अच्छी किताबों को अपने समय से पहले या लेखक की वैश्विक प्रसिद्धि से पहले जोड़ा है.

ठीक ऐसा ही काम हिंदी किताबों के साथ दूसरी भाषाएँ ‘नहीं के बराबर’ करती रही हैं. हालाँकि इधर कुछ बदलाव आया है और अब दोतरफा अनुवाद-सम्वाद की प्रक्रिया को गति मिलने के आसार बनते दिख रहे थे. ‘रेत समाधि को इंटरनेशनल बुकर प्राइज मिलने से अब तेजी आएगी, ऐसा हम सोच सकते हैं.

लेकिन इसके लिए हमारी बुनियादी तैयारी क्या है और क्या हो, अब इस पर गम्भीरता से बात करने का समय है. क्योंकि हम दुनिया की निगाह में हैं और अब हाइलाइट हो चुके हैं. सब हमसे जुड़ना और बेहतर ढंग से सम्वाद की अपेक्षा रखेंगे. हमें अपने साहित्य को व्यवस्थित ढंग से शोकेस करना होगा. दूसरी भाषाओं के अनुवादकों और प्रकाशकों से बातचीत के बहुतरफा रास्ते खोलने होंगे. संकोच और उतावलेपन से बचते हुए आगे बढ़ना होगा.

गीतांजलि श्री का उपन्यास ‘रेत समाधि’ 7 वर्षों की लम्बी अवधि में लिखा गया है, यह मैराथन लेखन प्रक्रिया अथाह धैर्य की मांग करती है. मुझे याद है, उस उपन्यास के छपने के दौरान गीतांजलि जी हर शब्द, हर वाक्य को लेकर किस हद तक सचेत थीं. कॉमा, सेमी कॉलन, एलिप्सिस, फुल स्टॉप के लगने-नहीं लगने तक को लेकर स-तर्क, सावधान. उपन्यास में एक शब्द का भी वाक्य है और तीन शब्दों के एक वाक्य का भी पूरा-का-पूरा एक प्रसंग, जो एक उप-खंड की तरह छपा है. हर खंड कैसे शुरू होगा, कैसे थमेगा, किस खंड में कौन-सा मोटिफ जाएगा, सब पर गम्भीर मन्त्रणा, उसके बाद एक अंतिम निर्णय. गुलाम मोहम्मद शेख के बनाए चित्र से तैयार हुआ पहला आवरण और फिर डेजी रॉकवेल की बनाई पेंटिंग से तैयार हुआ बाद के संस्करण का आवरण—यह यात्रा बहुत विचार-विमर्श और बदलावों से भरी हुई है. गीतांजलि जी अपने लेखन में जिस बेचैनी में लीक तोड़ती हैं, बहुत धैर्यपूर्वक; उसी तरह विकल भाव से अपनी किताब के प्रोडक्शन को भी धैर्यपूर्वक लेकिन तेजी से होते देखने की अपेक्षा रखती हैं. उनकी निगाह जितने ठहराव से हर वस्तु, हर गतिविधि, हर बात को ऑब्जर्व करती है, उनका रचनाकार मष्तिष्क लगातार उतना ही अधिक सक्रिय रहता है. किसी भी प्रतिभाशाली सर्जक व्यक्तित्व की इस जटिल व्यवहार-संरचना को समझना और उसके अनुकूल पेश आना भी एक प्रकाशकीय जरूरत है. तब श्रेष्ठ रचनाएँ अपने सुन्दरतम रूप में दुनिया के सामने आ पाती हैं.

यह तय बात है कि बड़े पुरस्कार किसी भी भाषा में जल्दी-जल्दी नहीं आते. लेकिन साहित्य-लेखन और प्रकाशन सिर्फ पुरस्कार के लिए नहीं होता. देश-दुनिया की दूसरी भाषाओँ का साहित्य हम अपनी भाषा के जरिये क्यों पढ़ना चाहते हैं? औरों के दुःख-संघर्ष-प्रेम और संवेदना में शामिल होकर अपने जीवन के उलझे हुए धागों को सुलझाने के लिए. या कि दूसरे समाज को समझने के लिए. या कि अपने कमजोर समय में कहीं से कोई सुकून या शक्ति हासिल करने के लिए. वजह चाहे जो हो, लेकिन साहित्य जीवन के सार्वभौमिक सत्य के जरिये अलग-अलग नस्ल और पहचान के लोगों को एक धरातल पर लाता है. अभी दुनिया भर के लगभग सभी देश कमोबेश रेस्टलेसनेस के दौर से गुजर रहे हैं. लगभग सभी समाजों में आक्रामकता और हिंसा बढ़ रही है. इतिहास के उत्खनन के जरिये प्रतिहिंसक विचारों को बल रहा है. ऐसे में मनुष्यता की पुकार सार्वभौमिक मांग है. भारत में हिंदी प्रदेश अभी सर्वाधिक बेचैनी के दौर से गुजर रहे हैं. सरकार चाहे कोई आए-जाए, लेकिन यह तय बात है कि अगले 25 साल तक कम से कम समाज उग्र बना रह सकता है. जब तक कि दो पीढ़ियाँ थक न जाएँ, तीसरी पीढ़ी नतीजों से सबक लेकर रास्ता न बदल ले. यही पैटर्न है. ऐसा हो सकता है. काश, इस बार ऐसा न हो!

ऐसे में यह कहना कुछ अजीब लग सकता है, लेकिन गैर मुनासिब नहीं है कि नए तरह के लेखन की आबोहवा हिंदी प्रदेश में बन चुकी है. जाहिर है, दुनिया इस समाज के स्थिरीकरण की तरफ बढ़ने में दिलचस्पी लेगी. शांति-प्रयासों और सामाजिक बदलाव के पैटर्न को जानना चाहेगी. ऐसे में सर्जनात्मक अनुवाद की मांग बढ़ेगी.

पिछली सदी हिंदी का दुनिया की भाषाओँ से सम्वाद के नाम रही है. यह सदी दुनिया की भाषाओँ का हिंदी से सम्वाद की हो सकती है, ऐसा मेरा आकलन है. इसमें भी भारत के स्त्री-लेखन में दुनिया की दिलचस्पी अधिक हो सकती है. क्योंकि स्त्रियों का लेखन इस सदी का मुख्य स्वर होगा. उनके पास यथार्थ का अकथ कच्चा माल है. संवेदना की गहनता और तीव्रता है. वैचारिक तीक्ष्णता और साहस है. उनकी जातीय और धार्मिक अस्मिता कुछ भी हो, वे अब अपने को अभिव्यक्त करना चाहती हैं.

अनुवाद के लिए साहित्य नहीं लिखा जाता, लेकिन साहित्य के लिए अनुवाद की अनिवार्यता और प्रासंगिकता हमेशा रही है, रहेगी. अगर हम सबकी तरफ बढ़ने को तैयार हैं तो हर तरफ हमारा स्वागत है. वरना हिंदी दूसरी भाषाओँ के अच्छे-अधकचरे लेखन के कच्चे-पक्के अनुवाद का गोदाम भी बन सकती है.

================

 

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

पुतिन की नफ़रत, एलेना का देशप्रेम

इस साल डाक्यूमेंट्री ‘20 डेज़ इन मारियुपोल’ को ऑस्कर दिया गया है। इसी बहाने रूसी …

8 comments

  1. A. Charumati Ramdas

    बहुत सार गर्भित लेख है….

  2. Thank you for any other informative website.
    The place else may I get that type of information written in such a perfect way?
    I’ve a project that I am just now working on, and I have been at the look out for such info.

  3. Undeniably believe that that you said. Your favorite
    reason seemed to be on the web the simplest
    factor to keep in mind of. I say to you, I certainly get
    irked at the same time as folks think about issues that they just do not understand about.

    You controlled to hit the nail upon the top as neatly as outlined out the whole thing with no need side effect , other people can take a signal.

    Will likely be again to get more. Thanks

  4. Hi there, just became alert to your blog through Google, and found that it is truly informative.
    I’m gonna watch out for brussels. I will appreciate if you continue this in future.
    Lots of people will be benefited from your writing. Cheers!

  5. Have you ever thought about adding a little bit
    more than just your articles? I mean, what
    you say is important and all. However imagine if you
    added some great graphics or videos to give your posts more,
    “pop”! Your content is excellent but with pics and video clips, this
    site could certainly be one of the greatest in its field.
    Fantastic blog!

  6. At the beginning, I was still puzzled. Since I read your article, I have been very impressed. It has provided a lot of innovative ideas for my thesis related to gate.io. Thank u. But I still have some doubts, can you help me? Thanks.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *