Home / Featured / दुःख की विचित्र आभा का उपन्यास

दुःख की विचित्र आभा का उपन्यास

जयश्री रॉय के उपन्यास ‘थोड़ी-सी ज़मीन, थोड़ा आसमान’ के ऊपर यह टिप्पणी लिखी है युवा लेखक किंशुक गुप्ता ने। किंशुक मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं और हिंदी-अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में समान रूप से लिखते हैं। प्रमुखता से प्रकाशित होते हैं। फ़िलहाल यह समीक्षा पढ़िए-

========================

विस्थापन की समस्या को केंद्र में रखकर लिखे गए जयश्री रॉय के नए उपन्यास ‘थोड़ी-सी ज़मीन, थोड़ा आसमान’ की विशेषता उसकी भाषा है—भाषा जो पात्रों के संश्लिष्ट दुख को पाठकों तक संप्रेषित करने में सक्षम है, पर कहीं भी अतिशयोक्ति नहीं लगती। यानी पाठक की बाँह पकड़े रहती है, पर उसके किस रास्ते जाना है उसका निर्णय खुद नहीं करती।

हिमालय और सुज़ाना विदेशी ज़मीन पर अनायास ही मिल गए हैं। दुख की विचित्र आभा ने, यूनिवर्स कॉलिंग ने, जैसे उन दोनों को एक-दूसरे के सामने लाकर खड़ा कर दिया है। हिमालय कश्मीरी पंडित है, जेहादियों द्वारा अपने घर से खदेड़ा हुआ; सुज़ाना यहूदी, हिटलर की ‘एथिकल क्लींजिंग’ में अपने परिवार के खत्म होने का मंज़र अपने दिलों-दिमाग में कैद किए हुई। दोनों पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर के शिकार हैं, उदासी का एक ऐसा रंगीन चश्मा पहने हुए कि उनके सामने उमगता, चींसे मारता जीवन उन्हें निराशा के रंग में डूबा दिखता है। हिमालय जब सुज़ाना की कमर पर हाथ रख नाचने लगता है, तब उसे अपनी बहन का शरीर याद आ जाता है—दुष्कर्म के बाद लाल–नीले चकत्तों से भरा, बाज़ार के बीचोंबीच पड़ा सूजा हुआ शरीर—और वह अचानक घबराकर उससे दूर हट जाता है। कहता है—जब एक मनःस्थिति प्रबल रहती तब दूसरी इच्छाएँ शिथिल पड़ जाती हैं।

कहानी यही सिरा पकड़े आगे पढ़ती है, जब सुज़ाना की होलोकास्ट सर्वाइवर नानी की आकस्मिक मृत्यु का संदेश अचानक उस तक पहुँचता है। घनीभूत पीड़ा में डूबी सुजाना किसी तरह से दुख से उभरना चाहती है। रात बहुत ठंडी है, और एक वहशी डर की गिरफ्त से आज़ाद होने की चेष्ठा करती वह अचानक हिमालय को बेतहाशा चूमने लगती है। उसका शरीर चाहती है पर हिमालय साफ इंकार कर देता है। बिल्कुल उसी तरह जैसे नैनीताल में रेखा के आमंत्रण को भुवन ने अस्वीकार कर दिया था। उपन्यास के यह मानवीय पक्ष, पात्रों की यही वलनरेबिलिटी उपन्यास का मज़बूत पक्ष है।

इसके बाद अचानक उपन्यास बर्लिन की तरफ मुड़ जाता है। हालांकि शुरुआत से ही सुज़ाना अपने परिवार पर हुई यातनाओं की जड़ों तक पहुँचना चाहती है, पर हिमालय का उसके साथ हो लेना वो भी पिछली रात के प्रकरण के बाद थोड़ा अटपटा ज़रूर लगता है, लेकिन पाठक पात्रों के साथ तारतम्य स्थापित कर आगे बढ़ जाता है। उसे ज्यादा अखरते हैं वार मेमोरियल और सीक्रेट एनेक्स घूमने के दौरान सुज़ाना द्वारा हिमालय को दिए लंबे व्याख्यान। जिसमें तफ़सील से वहाँ पर घटे पूरे इतिहास का सिलसिलेवार ब्योरा है। शायद उतने इतिहास की बहुत ज़रूरत नहीं, और यदि दिया जाना आवश्यक ही है, तो टुकड़ों-टुकड़ों में देना बेहतर होता, जिससे पाठक ओवरवेल्म न होने पाए। आगे के भाग में बहुत-से पशु-पक्षियों और अन्य चीजों का मेटाफॉरिकल प्रयोग हुआ है, जो शुरुआत में अपनी विचित्रता और नएपन के लिए आकृष्ट करता है, पर वह भी अंत तक इतनी संख्या में हो जाते हैं कि बोझिल लगने लगते हैं।

उपन्यास में आगे जुड़ते हैं दूर्वा और मजाज़। फेमिनिज़्म का प्रतीक दूर्वा के पति कबीर ने उसके पीठ पीछे दूसरी शादी कर ली है। वह दूर्वा को तलाक भी नहीं देता, न ही उसे घर में रहने देता है। वृंदावन में विधवाओं के बीच भटकने के बाद वह भी विदेश चली जाती है जहाँ पर फोटो जर्नलिस्ट मजाज़ से उसकी मुलाकात होती है, जो दोस्ती बढ़ते-बढ़ते प्रेम में परिणत होती है। मजाज़ के चारों ओर भी त्रासदी के घनेरे बादल छाए हुए हैं, जैसे डोना के चारों-तरफ, जिसके गुर्रिला युद्ध में सक्रिय पिता अपनी पत्नी को केवल माँस का लोथड़ा समझते हैं, और यहाँ तक की शराब के लिए रुपए न होने पर उसे बेचने को आमदा भी हो जाते हैं।

अतीत की जकड़न ही सभी पात्रों को एक दूसरे से जोड़ती है,  गहरे तक समझने में मदद भी करती है। और सभी के एक जैसे भाव, उसी तरह की गलाज़त, उससे बाहर निकलने की एक-सी उत्कट जिजीविषा दुख की वैश्विकता की ओर इंगित करता है। उससे भी ज्यादा वैश्विक लगता है प्रताड़ित करने वाले इंसानी दिमाग की गतिकी जो बँटता नहीं सरहदों से, जाति-धर्म, देश- समाज के मापदंडों से। चाहे प्रताड़ना के हथकंडे बदल जाएँ, उसके मध्य में एक ही भाव की प्रचुरता मिलती है—कमजोरों की पीठों को घायल कर अपने आप को स्वयं ही सर्वश्रेष्ठ घोषित कर लेने की चेष्ठा।

लेकिन उपन्यास के अंत तक पहुँचते-पहुँचते इतना ट्रॉमा पाठक के लिए जमा हो जाता है कि वह थक जाता है, कथा के आंतरिक सच की विश्वसनीयता पर गंभीरता से विचार करने लगता है। हाँ, यह बात बिलकुल सही है कि अतीत की घटनाएँ बहुत हद तक जीवन के प्रति दृष्टिकोण को निर्धारित करती हैं, पर ज़रूरी नहीं कि सभी पात्रों का अतीत कालिख पुता ही हो, और यदि किसी के साथ कोई ट्रेजेडी घटी भी हो, तो सब का रिएक्शन केवल अवसाद ही हो। कुछ लोग हील कर सकते हैं, वे उन अंधकार भरे दिनों में रोशनी की लकीर अपनी मुट्ठी में थामे रह सकते हैं। खुश हो सकते हैं कि वे साबुत बच गए हैं, जबकि दूसरी तरह के लोग इतने नकारात्मक भी हो सकते हैं कि वे अपने आस-पास के लोगों को उसी तरह से प्रताड़ित करने लगें जैसा उन्होंने भोगा। इन दोनों अतियों के बीच बहुत सारे ग्रे ज़ोन होते हैं जिनके चित्रण से यादगार किरदार बुने जा सकते हैं।

सुज़ाना का बार-बार दोहराना कि सब यहूदी एक जैसे नहीं होते, उन्हें केवल एक स्टार से लेबल नहीं किया जा सकता, यह सोचने पर ज़रूर मज़बूर करता है कि एक्सोडस के दौरान सभी कश्मीरी मुसलमानों ने ‘रलिव गलिव चलिव’ नहीं चिल्लाया था, जैसे की ऑस्कर शिंडलर जैसे जर्मन ने अनेक यहूदियों को बचाया था। तब यह ज़रूरी है कि लेखक जब लिखे, तो किसी एक पक्ष की ओर झुकता न दिखाई पड़े।

किंशुक गुप्ता

 

 

 

 

 

======================

उपन्यास वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है। 

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

‘अंतस की खुरचन’ पर वंदना गुप्ता की टिप्पणी

चर्चित युवा कवि यतीश कुमार के कविता संग्रह ‘अंतस की खुरचन’ की समीक्षा पढ़िए। यह …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *