मराठी के प्रतिष्ठित और बहुचर्चित उपन्यासकार विश्वास पाटिल का नया उपन्यास दुड़िया हाल में राजकमल प्रकाशन से आया है। उपन्यास की पृष्ठभूमि छत्तीसगढ़ का नक्सल संकट है। वहां के ग्रामीणों का जीवन और उनके बीच की एक युवती दुड़िया की कहानी। ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखक दामोदर मावजो ने इस उपन्यास के बारे में लिखा हैः ‘नियति के पंजों में जकड़ी गरीब जनता के मानवीय संघर्ष को दिखाती इस कहानी को महान उपन्यासकार विश्वास पाटील की समर्थ लेखनी ने बहुत सुंदर ढंग से चित्रित किया है। पाठक को यह विस्मित किए बिना नहीं रहती।’ उपन्यास का यह अंश मावजो की इसी बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
उपन्यास का मराठी से हिन्दी में अनुवाद हिन्दी के जाने-माने लेखक रवि बुले ने किया है। जानकीपुल के पाठकों के लिए विशेष…
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हमारा ठाकेराम दादा!
हमारे एक तरफ पुलिस और दूसरी तरफ नक्सली थे। हम आदिवासियों की जिंदगी जर्मन के उस बर्तन जैसी चपटी हो गई थी, जिसे कोई इधर से तो कोई उधर से ठोकर मारता। उस पर हमारे सिर पर भविष्य की अनिश्चितता के बादल मंडराते रहते थे।
धीरे-धीरे हमारे पहाड़ों में एक नई मुसीबत पैदा हो गई। नक्सली और पुलिस तो पहले से थे, अब यह एक और फंदा गले में पड़ गया। जब हम बच्चे थे तो हमारा बाप कई ज्ञान की बातें बताया करता था। कहता था कि मनुष्य का जीवन मतलब कदंब के पेड़ पर ऊंचे लटके हुए सोने के पिंजरे में बंद तोता। जो हवा के साथ हिलता रहता है। हम अपने जंगलों में खुश थे। पंछियों की तरह गाते। लेकिन जब ये नदी किनारों के शहरों में रहने वाले लोग बदन पर भारी-भारी कपड़े पहन कर हमारे जंगलों में आए तो हमें पहली बार कॉलरा का पता चला और फिर उसके पीछे-पीछे बहुत सारी दूसरी बीमारियां आ गई। ये नहीं होता तो हम आदिवासियों को ये गणतंत्र और नक्सलियों जैसी बीमारियों का क्या पता था!
नक्सली हर गांव पर, हर घर पर बारीक नजर रखा करते थे। पीछे के पहाड़ से या सामने की नदी पार करके कौन दिन या रात में किस गांव, किस घर में आया और क्यों आया! इन बातों की वह बराबर खबर लिया करते।
जैसे-जैसे नक्सलियों का जोर बढ़ रहा था, गांव-गांव में लाल झंड़ों के साथ ‘जनता की सरकार’ जैसे नारों वाली तख्तियां भी नजर आने लगी थीं। पुलिस दादा सक्रिय हो गए थे और हमारे बच्चों को पुलिस में भर्ती किया जाने लगा। इस बात ने नक्सलियों को नाराज कर दिया। उन्होंने खुलेआम घोषणा की कि अगर कोई भी पुलिस में भर्ती हुआ तो उसको ढूंढ कर, पकड़ कर मौत की नींद सुला दिया जाएगा। वे सिर्फ धमकियों पर ही नहीं रुके, जिन घरों के लड़के पुलिस में भर्ती हुए उन्हें ब्लैक लिस्ट करके गांव वालों से उनका बहिष्कार करने को कहा गया। ऐसे लोगों के यहां आने-जाने से लेकर रोटी-बेटी के सारे व्यवहार बंद करने को कहा गया।
बचपन में मेरा बड़ा भाई आग में जल कर मर चुका था, इसलिए घर में सबको ठाकेराम दादा की खास चिंता थी। उससे ही वंश-बेल आगे बढ़नी थी। जब उसने तहसील स्कूल जाना शुरू किया तो जंगल में इस बात की खबर नक्सली दादाओं को मिल गई। एक दिन इन दादाओं का झुंड बंदूकें अपने कंधों पर रखे, हमारे घर के सामने आकर खड़ा हो गया। उनको देख कर मेरा बाप कंपकंपाने लगा लेकिन फिर उसने थोड़ी हिम्मत बटोरी। उन्हें ठंडा पानी पिलाया और गुड़ उनके हाथों पर रखा। उनका स्वागत किया। लेकिन उन बंदूक वालों की नजर सिर्फ ठाकेराम दादा पर टिकी थी। ‘कौन से स्कूल में जाता है रे तू?’
‘तहसील की स्कूल में।’
‘उन पूंजीपतियों के स्कूल में तू क्या सीखेगा रे? चल हमारे साथ जंगल में।’
‘ले… लेकिन स्कूल?’
‘चल हमारे साथ उस लाल सितारे के पास, क्रांति को बुला रही हवाओं में।’
‘मुझे नहीं आना।’
‘हमारे साथ आएगा तो तुझे कंप्यूटर की पढ़ाई कराएंगे। तू पार्टी में शामिल हो जा और वहां तू कमांडर भी बन सकता है।’
‘नहीं, मैं पढ़ाई करना चाहता हूं,’ ऐसा कहते हुए ठाकेराम दादा ने उनका प्रस्ताव नकार दिया। वह किसी भी तरह से अपने प्राण बचाने को छटपटा रहा था।
इस सीधे इंकार से नक्सली बुरी तरह चिढ़ गए। कमांडर ने उसे साफ शब्दों में चेतावनी दी, ‘देख बेटाऽ तुझे हमारे साथ नहीं आना है तो मत आ, लेकिन कल को अगर तू पुलिस में भर्ती हुआ तो उसी रात तेरे मां-बाप की मुंडी काट कर उनकी डेडबॉडी गांव की सड़कों पर फेंक देंगे। याद रखना। भूलना मत कि तू हमसे पंगा ले रहा है।’
इस धमकी से डर कर ठाकेराम दादा जैसे सहमा हुआ खरगोश बन गया। नक्सलियों से डर के मारे उसने गांव में आना ही बंद कर दिया। गर्मियों की छुट्टियों में भी वह तहसील के हॉस्टल में ही रहता।
जैसे ही नक्सलियों को पता चला कि ठाकेराम दादा दसवीं में पहुंच गया है। उन्होंने हमारे घर के चक्कर लगाने शुरू कर दिए और मेरे बाप को धमकाया। तेरे ठाकेराम को अभी के अभी दल में भेज।
घबराए हुए ठाकेराम दादा को उसके शिक्षकों ने ढाढस बंधाया। और हमारा बेचारा बाप! जंगल में कड़ी मेहनत कर-कर के वह पचास की उम्र में सत्तर साल का बूढ़ा दिखने लगा था। एक सुबह वह स्कूल हॉस्टल में ठाकेराम दादा की खोली पर जा पहुंचा, ‘बेटा, तू सपने में दिखा था। मेरा दिल धक से बैठ गया और मेरी आंख खुल गई। इसलिए भागा-भागा यहां आया, देख।’
‘क्या करूं ददा? कैसे जिंदा रहूं?’ ठाठेराम ने जैसे चिल्ला कर कहा
‘डरे मत बेटा…’
‘रात को हॉस्टल की इमारत में उनके बूटों की आवाजें आती रहती है। दिन में आकर वे स्कूल के बाहर खड़े हो जाते हैं। वे डराने वाले अंदाज में लगातार मुझे घूर कर देखते हैं… कि जैसे बस अभी मेरा शिकार कर लेंगे…’
‘क्या कहते हैं तुझसे?’
‘जल्दी आ और पार्टी जॉइन कर… नहीं तो बेमौत मरेगा। तेरे मां-बाप को तेरा मुर्दा भी हाथ नहीं लगेगा।’
उस रात हॉस्टल के बाहर पेड़ के नीचे खड़े होकर बाप खूब रोया। वहां से चलते हुए उसने ठाकेदादा को कस कर अपने से लगाया और बोलो, ‘बेटा! अगर मौत घर में आकर मेरा गला पकड़ेगी तब भी चलेगा, लेकिन किसी हालत में ये स्कूल और पढ़ाई मत छोड़ना।’
नक्सलियों के मन में लगातार एक ही डर पैदा हो रहा था, ‘यहां के लड़के अगर पढ़-लिख गए तो शहर में जाकर शहरी बन जाएंगे। वो पुलिस में नक्सलियों के खिलाफ बने नए सी-60 में भर्ती होंगे और अपनी बंदूकों से हमारे सिर को निशाना बनाने आएंगे। लेकिन ऐसा होने से पहले ही हमें उनका दिमाग ठिकाने लगाना होगा नहीं तो उनके सिर कुल्हाड़ियों से काटने होंगे।’ इसलिए नक्सलियों की गांव के विद्यालय पर पैनी नजर थी। उन्होंने तय कर लिया था कि किसी भी हाल में तेज दिमाग बच्चों को चुन कर उन्हें अपने दल में भर्ती करना ही होगा।
नक्सलियों के गुप्तचर पुलिस के खबरियों के मुकाबले दस गुना तेज थे। ठाकेराम की दसवीं की परीक्षा शुरू हो गई है और वह खत्म होते ही वह तहसील से जिले में चला जाएगा। तेज अफवाह फैली कि वह पुलिस में भर्ती होने के लिए जिला मुख्यालय जा रहा है। दादा के करीब आधे पेपर हो चुके थे। उस रात वह पढ़ने के लिए हॉस्टल के कमरे में जागा। लालटेन जलाई। तभी उसके तेज कानों में हॉस्टल के मुख्य दरवाजे से पीछे की तरफ होते हुए उसके कमरे की तरफ बढ़ते बूटों की आवाज पड़ी। वह तत्काल समझ गया कि ये लोग मुझे यहां से उठा कर अपने साथ जंगल ले जाने आए हैं। उसे आंखों के आगे अपनी जिंदगी डूबती दिखने लगी। उसने अपने सीने में साहस बटोरा। वह कमरे से निकला और हॉस्टल की छत पर से पीछे के खुले आंगन में पसरे अंधेरे में उसने आंखें मूंद कर छलांग मार दी। इसके बाद वह झाड़ियों में खो गया।
सौभाग्य से दादा को रायपुर में हमारे बाप की पहचान के एक कोयला व्यापारी का पता मालूम था। दादा वहीं नौकरी करने लगा। कोयले की मजूरी करते-करते उसने फिर से दसवीं की परीक्षा दी। पास हुआ और वहीं पुलिस में भर्ती हो गया। उस रात बाप ने गले तक तर होकर मटका भर महुए की दारू पी। बुढ़ापे में जैसे उसका नया ब्याह हुआ, नशे में ऐसे खुश होकर वह नाचा। टूटी हड्डियों का ढांचा होकर रह गई मेरी मां के चेहरे पर भी उस दिन खुशी की चमक आई। उसके चेहरे पर ऐसी चमक मैंने पहली बार देखी थी।
बस, एक बात बुरी हुई। ठाकेराम दादा से गांव हमेशा के लिए छूट गया। यह किस्मत का खेल था कि वह हमारा होकर भी अब हमसे हमेशा के लिए दूर और पराया हो चुका था।
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