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गुमनाम लेखक की डायरी: 5: विमलेश त्रिपाठी

युवा कवि विमलेश त्रिपाठी का यह स्तम्भ एक लम्बे अंतराल के बाद फिर से शुरु हो रहा है। लेखक की स्मृतियों में उसका जीवन कैसा होता है, विमलेश त्रिपाठी ने बड़ी सहजता से लिखा है-

छूट गए समय की पहिलौंठी स्मृतियाँ – एक

पहली घटना जो जेहन में है वह बहनों के साथ है। वे गीत गाती थीं और उस गीत में मेरी बदमाशियों का जिक्र करती थीं – मैं चिढ़ता था और मुक्के से उनकी पीठ पर वार करता था – वे हर मुक्का सहकर भी मुझे चिढ़ाती थीं – घर में जलती ढिबरी की रोशनी में सोने के पहले का यह लगभग रोज का खेल था जो लागातार चलता रहा होगा और इस कारण मेरे जेहन में भी सदा के लिए ठहर गया है। दूसरी घटना जो याद आती है वह बहनों के साथ साग खोंटने की है। मुझसे बड़ी एक बहन तो ससुराल चली गई थी लेकिन दूसरी बहन का गौना रखा गया था – मुझे एक झलक उसकी शादी की भी याद आती है – असवारी में दुल्हा बैठा हुआ आया था – गाँव के सारे बच्चे दौड़कर उसे देखने गए थे, उनमें मैं भी शामिल था और मुझे यह देखकर बड़ा अजीब लगा कि मेरी छोटी दिखती बहन के लिए इतनी बड़ी उम्र का दुल्हा! उस समय मुझे यही समझ में आया – हालांकि गाँव के रिवाज के हिसाब से लड़कियाँ कम उम्र की होकर भी अपने से बड़े उम्र के लड़कों से ब्याही जाती थीं।

दूसरी स्मृति सामियाने में नाच देखने की है –  मैं अपनी बहन की शादी में आए नाच पार्टी में लौंडों का नाच देख रहा था – नाच देखते हुए मैं कब सो गया, मुझे पता ही न चला। शादी में दुल्हे का तिलक मैंने ही किया था इस नाते लावा मेराने के लिए मंडप में मेरी खोज शुरू हुई और बड़ी मशक्कत के बाद मुझे सामियाने से भरत भइया उठाकर लाए – मुझे याद है कि मैं धान का लावा अधनिंदी अवस्था में  दुल्हा-दुल्हन पर छींट रहा था उसके बाद की एक समृति यह है कि मेरे हाथ में लोटा था – लोटे से पानी शंख में गिरता था और वहाँ से होते हुए दुल्हा और दुल्हन के जुड़े हाथों पर गिरता था। मुझे उस समय इन रश्मों के बारे में कुछ न पता था। उसके बाद की कोई घटना मेरे जेहन में नहीं है। उसके बाद की एक समृति में बहन की माँग का सिंदुर है जो हमेशा के लिए उसके व्यक्तित्व के साथ जुड़ गया था। फिर भी बहन साग खोंटने जाती थी और उसके साथ मैं भी जरूर जाता था। उसके साथ गाँव की कुछ और लड़कियाँ होती थीं – जब मैं थक जाता था तो बहन मुझे गोद में उठा लेती थी – लड़कियाँ आपस में हँसी-मजाक करती थीं – अजीब-अजीब नजरों से एक दूसरे को घूरती थीं – एक दूसरे को गुदगुदी करती थीं और मैं मासूम की तरह बहन की गोद में होता या उनके साथ मैं भी साग खोंट रहा होता।

किसी दूसरे के खेत में जब साग खोंटने जाना होता तो बहन मुझे अपने साथ नहीं ले जाती थी क्योंकि खेत का रखवार अगर देख लेता था तो भागना होता था और मैं इतना बच्चा था कि भाग न सकता था और बहन मुझे अपनी गोद में उठाकर बहुत तेज न दौड़ सकती थी।

हमारे पास खरीदी हुई गेंद न थी। मुझे याद आता है कि हम कपड़े का एक गोला बनाकर उसे पतली रस्सियों से बाँधकर गेंद बनाते थे। वह उतनी गोल न हो पाती थी लेकिन गोल होने का भ्रम देती थी – हम बच्चे मिलकर उसी गेंद से खेलते। कई बार खेल के बीच में ही रस्सियाँ खुल जातीं और हम उसे फिर से बाँधकर खेलना शुरू करते। बाद के दिनों में आजी ने गेंद सी कर दिया – एक मोटे कपड़े में रूई भर कर उसे गोल बनाया और उसे सुई से सी दिया। वह गेंद थोड़ी मजेदार लगी लेकिन एक दिन से ज्यादा न टिकी। खेल के बीच में ही वह फटने लगी और उसकी रूई बाहर आने लगी। मुझे याद है कि एक मजबूत गेंद सीकर बहन ने मुझे दी थी – वह कपड़े की गेंद थी और उसमें डोरे से चित्रकारी भी की गई थी – वह गेंद एकदम नई लगती थी जैसे दुकान से खरीद कर लाई गई हो। उस गेंद से हमने बहुत कम खेला – उसे सम्हाल कर रखा। वह गेंद बहुत समय तक हमारे पास रही।

हमने माँ को उस समय बहुत कम जाना। माँ का मतलब हमारे लिए उस समय इतना था कि जब कभी पैसे की जरूरत होती हम उसके पास जाते। वह बिस्तर पर अक्सर लेटी रहती – उसके बाल में ढेर सारे तेल लगे होते। हमसे कहा जाता कि माँ बहुत बिमार है और हम उसे ज्यादा तंग न करें। जब भी हम माँ के पास जाते वह पाँच या दस पैसे निकालकर हमें दे देती – और मुस्कुराने की भरसक कोशिश करती – हम फिर लौट आते। माँ के दिए हुए पैसे से हम सत्यनारायण की दुकान से गोलिया मिठाई खरीदते। कभी मलाई बरफ वाला फेरी लगाने आता या गाटा बेचने वाला आता या सोनपापड़ी बेचने के लिए आता तो हम माँ से पैसे माँगते। माँ अक्सर ही पैसे दे देती। जब वह सोयी रहती या झिड़ककर हमें भगा देती तो हम आजी के पास जाते – आजी डाली में भरकर हमें अनाज दे देती। उस अनाज को देकर हम मलाई बरफ खरीदते, गाटा खरीदते या फिर तिलकूट या सोनपापड़ी खरीदते। हमारे साथ बहन भी होती जो हमारा नेतृत्व करती। हम दो भाई और वह जिसे हम मझली दीदी कहते।

एक अजीब बात मेरे साथ यह थी कि मुझे हर चीज ज्यादा चहिए होता। बहन यह जानती थी और मुझे कोई भी खाने की चीज ज्यादा ही देती थी – अगर बड़े भाई कुछ भी ज्यादा लेने की जिद करते तो मैं उन्हें मारने की धमकी देता। एकबार बहन ने बिना मुझे बताए अनाज लेकर सनपापड़ी खरीद ली – वह चोरी-चोरी खा ही रही थी कि मैंने देख लिया और मैंने उसे पकड़कर मुक्के से खूब मारा। बहन को चोट लगी थी – वह रो रही थी। रोती हुई बहन का वह चेहरा बार-बार और कई-कई अवसरों पर मेरे जेहन में कौंध जाता है। हर बार मैंने देखा कि बहन मार खा लेती थी – रो लेती थी लेकिन कभी बहन ने मुझे मारा हो – इसकी याद मेरे जेहन में नहीं है। मारखाकर जब वह चुप हो जाती थी तो मेरे पास आती थी और मुझे मनाती थी – मैं जल्दी मानता न था लेकिन हर बार वह मुझे मनाकर अपने साथ ले जाती।

बहन की  उम्र  अधिक न थी लेकिन मैं देखता कि बर्तन माँजने से लेकर घर-चौका लिपने और खाना बनाने तक का काम वही करती थी। पता नहीं ऐसा क्या है कि जब भी मुझे जोर की भूख लगती है और खाने को कुछ नहीं होता है तो बहन का चूल्हे के पास बैठे हुए होने का दृश्य याद आता है – याद आता है कि बहन दुपट्टे से अपनी आँख पोंछ रही है और मिट्टी के चूल्हे पर रोटियाँ बन रही हैं और हम अपने-अपने हाथ में थाली लिए खड़े हैं। वह आग, गर्मी और दुएँ की परवाह किए बिना उमगती हुई हमारे छीपे में रोटियाँ परोसती थी। मुझे बार-बार उसकी वह दुलार से भरी पनियायी आँखें याद आ जाती हैं।

मैं रात में बहन के साथ ही सोता था – बहन कथा सुनाती थी। बुझौल बुझाती थी और पैर में तेल लगाती थी। जिस दिन मैं जल्दी सो जाता उस दिन बहन सोई हुई अवस्था में ही मेरे पैर में तेल लगाती थी – यह बात मुझे सुबह में पता चलती।

एक दिन  कुछ लोग आए। घर में पूड़ियाँ बनीं। जिलेबियाँ बनी। गैस बरा। आंगन में पूजा हुई जिसमें बहन के साथ उसका दुल्हा भी शामिल हुआ। सुबह चार बजे ही मुझे उठाया गया – चलो बाबू दीदी जा रही है। मैंने देखा कि दीदी अपादमस्तक सजी हुई है और डकर-डकर कर रो रही है – मुझे नहीं जाना। मुझे नहीं जाना – बाबा को कोई समझाओ। मुझे नहीं जाना कहीं। मैं यह सब देखकर हतप्रभ। एक कोने में सिमट गया – शून्य। मैंने देखा कि बहन को घर की औरतों ने नाईन के साथ मिलकर असवारी में चढ़ा दिया और पूरी असवारी को परदे से ढक दिया – बहन लागातार गला फाड़-फाड़ कर रो रही थी। मुझे किसी ने तैयार किया और असवारी के पीछे-पीछे जाने के लिए कहा। बहन की गलाफाड़ आवाज धीमें-धीमें एक महीन सूर में ढलती गई – असवारी को कँहार ले जा रहे थे और मैं पीछे-पीछे चला जा रहा था – बहन के रोने की आवाज मैं मेरे मौन आँसू शामिल हो रहे थे और मुझे समझ में न आ रहा था कि आखिर यह सब क्यों हो रहा है – इसकी इतनी जरूरत क्यों है?

 
      

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