हिंदू कॉलेज में दशकों हिंदी पढ़ाने वाली डॉक्टर विजया सती जी शिक्षा-जगत से जुड़े अपने अनुभवों को संस्मरण के रूप में दर्ज कर रही हैं। आज उसकी तीसरी कड़ी पढ़िए-
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भूलचूक होती हैं – सुधार लें संवार ले .. क्या ही बात हो! पिछली बार मैं अपने गुरुजनों में डॉ तारकनाथ बाली और डॉ रामदरश मिश्र जी का उल्लेख करने से चूक गई. डॉ बाली इतनी महीन मुस्कान के साथ पन्त जी का रश्मिबंध पढ़ाते कि हम उन्हें सुनते अविचलित, निर्वाक बैठे रहते. रामदरश मिश्र जी ..नीर भरी दुःख की बदली और मधुर मधुर मेरे दीपक जल जैसी पंक्तियों के प्रतीकार्थ खोलते जब महादेवी को साकार करते, हम गीत को कम और सर के व्यक्तित्व को अधिक दत्तचित्त हो निरखते.
एम ए की एक नई सखी भी छूट गई थी अनायास – यह हाथरस से आई बागेश्वरी गर्ग थी, जो बाद में श्रीमति बागेश्री चक्रधर बनी. बागेश्री मिरांडा हाउस के पीछे बने पीजी विमेंस हॉस्टल में रहती थी, कला संकाय के गलियारों से टहलते हुए कभी-कभी वहां तक साथ-साथ आते उनकी बृजमिश्रित हिन्दी का आनंद लेते – अब ऐसो का है गयो ! वे ‘क्यों’ को हमेशा ‘चौं’ कहती. भोली थी, जब किसी दिन ‘शोफर ड्रिवन कार’ शब्द सुना तो बोली शोफर क्या? दरअसल यह हमारी दुनिया से अलग एक दूसरी ही दुनिया का शब्द था उन दिनों ! बहुत बाद तक जब हमारे बच्चे साथ-साथ बड़े हो रहे थे, हम आस-पास की कॉलोनियों में रहते एक-दूसरे से मिलते रहे.
अब आगे की कथा …
कुछ ऐसा हुआ कि एक समय के बाद अंग्रेज़ी एल्फाबेट H …हिन्दी ह वर्ण ने मेरे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान ले लिया – हिंदुस्तान के हिन्दू कॉलेज में मैं हिन्दी पढ़ा रही थी ! (थोड़ा विषयान्तर …हमारे पहले वाहन का नंबर जब आया तो वह भी DL3C H ही था. कालांतर में विवाह भी हुआ तो …उत्तराखंड का प्रवेश द्वार कहे जाने वाले हल्द्वानी शहर में हरीश चन्द्र सती से. यह कथा फिर कभी)
हिन्दू कॉलेज में तब एक छोटा कमरा स्टाफ रूम हुआ करता था. उसी के अंदर एक और छोटे कमरे में लॉकर और चायपान की व्यवस्था थी. उसी के अंदर एक शामिल वाश रूम ! आज यह छोटा कमरा प्रिंसिपल ऑफिस है.
कॉलेज में पहले दिन पीए टू प्रिंसिपल चोपड़ा साहब के पास हाजरी लगाई, कुछ औपचारिकताएं निभाई. विभाग या कॉलेज की ओर से नई उपस्थिति के परिचय का कोई प्रावधान नहीं था, अब हो चला है.
कुछ दिन बाद जब स्टाफ रूम में झिझक कर प्रवेश किया … दूर-दूर तक कोई परिचय सूत्र नहीं ! हाथ में रजिस्टर लिए मैं ठिठकी सी दरवाजे पर खड़ी थी. यू आर वेलकम यंग लेडी ! बाद में जाना कि यह अंग्रेज़ी विभाग से डॉ मित्रा का स्वर था. आने वाले दिनों में छोटे से कमरे में पास की कुर्सी पर बैठे साथियों से इस तरह बात चल निकलती – आप क्या पढ़ाते हैं? आप किस विभाग में आई हैं? कॉलेज और स्टाफरूम का पूरा माहौल एकदम मुक्त निर्मल स्वछंद था.. सब एक दूसरे से हिले-मिले, हंसी-मजाक से भरे.
स्टाफ रूम में पुरुषों का बोलबाला था – गिनी-चुनी महिला अध्यापिकाएं ! उस समय सीनियर-मोस्ट डॉ सत्या राय थी – शांत, सौम्य, सहज सुन्दर. वे राजनीति शास्त्र पढ़ाती थी. उनके पति लाजपत राय जी हंसराज कॉलेज में पढ़ाते थे. (उनकी खूबसूरत बेटी शिरीन फिर कॉलेज में पढ़ने आई और आजकल ब्रिटेन की एक प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी में पढ़ाती है.) सत्या जी का सभी सहकर्मियों से अच्छा दोस्ताना था – यदाकदा हमसे भी बातचीत हो जाती. इतिहास विभाग में युवा डॉ तृप्ता वाही और सुचित्रा गुप्ता जी थी – तृप्ता जी धाँसू वक्ता, सुचित्रा जी कलाकार ! उन्होंने कई नाटकों में काम किया, आकाशवाणी में और महत्वपूर्ण अवसरों पर वे उद्घोषिका भी होती. लम्बे समय तक उन्हें विश्वविद्यालय की कल्चरल काउंसिल का दायित्व भी सौंपा गया. ईदगाह कहानी के नाट्य रूपांतर में दादी अमीना की भूमिका में वे लाजवाब हैं. (यू ट्यूब पर उपलब्ध)
मेरे मन में डॉ अमृत श्रीनिवासन की स्मृति कभी धुंधली नहीं हुई. वे समाजशास्त्र विभाग में थी – सौंदर्य का अनूठा प्रतिमान, कलात्मक सूती साड़ियों में लिपटी सुन्दरतम आकृति ! पहले अमृत कौर रही – भाषा में परिवेश से शब्द ऐसे आते हैं …एक बार किसी बात पर उन्होंने कहा – हम वहां पहुंचे तो ढड्ढू (मेंढक के लिए पंजाबी पर्याय) बोल रहे थे यानी एक दम सन्नाटा था. इसी विभाग में डॉ मोहिनी अंजुम भी थी ..मधुर कोमल स्वर की मालकिन. बाद में वे जामिया मिलिया चली गई.
गणित विभाग में डॉ सरोज बाला मलिक थी, जो कुछ समय में पीएचडी करने अमेरिका चली गई. फिर इतिहास विभाग में एक नई नियुक्ति हुई – युवा रेनू सिंघल. उनसे संवाद होने लगा, उनकी कही एक बात आज तक याद है – its a rat race you know ..there is no end to it ..पहले तुम पढ़ो, फिर नौकरी पर लग जाओ, फिर शादी की बातें होने लगेगी. कोई अंत नहीं है इस सबका … मुझे नहीं पड़ना इस सबमें !
दरअसल उस समय जब युवा लडकियां कॉलेज की यह ‘प्रेस्टीजियस’ नौकरी पा जाती तो कुछ लोगों की सक्रियता बढ़ जाती थी … प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रपोज़ल देने का सिलसिला शुरू हो जाता. इस अनुभव से कमोबेश सभी लड़कियां गुज़री होंगी. मैं भी !
मेरा विभाग ….हिन्दी विभाग डॉ भरत सिंह उपाध्याय, डॉ मांधाता ओझा, डॉ कृष्णदत्त पालीवाल, डॉ राम सिंह रावत, डॉ सुरेश ऋतुपर्ण जैसे व्यक्तित्वों से संपन्न था.
पालि साहित्य के इतिहास, बौद्ध और भारतीय दर्शन पर महत्वपूर्ण पुस्तकों के रचयिता डॉ उपाध्याय शीघ्र सेवा निवृत्त होने वाले थे. वे बहुत कम बोलते थे. उनका घर कॉलेज से काफी दूर था, उनकी कक्षाएं कुछ देर से शुरू होती थी. जब भी उनसे भेंट होती वह – सर आप कैसे हैं ? जैसे औपचारिक प्रश्नों में ही खत्म हो जाती. मैं भी अपने संकोच में कुछ अधिक न बोल पाती और वे भी मौन बने रहते.
डॉ रावत सारे कॉलेज के वर्क लोड और टाइम टेबल के जानकार एकदम चुस्त दुरुस्त प्राणी थे. तत्कालीन प्रधानाचार्य डॉ बी एम भाटिया को वे हमेशा बम (शिवजी वाला बम-बम) भाटिया कहते.
डॉ ओझा उदारमना, वरिष्ठ प्राध्यापक तीखी आवाज के मालिक थे. एक समय वे कॉलेज के कार्यकारी प्रधानाचार्य भी रहे. गंभीर बहुत रहते थे, लेकिन उनके wit और humour का पता स्टाफरूम में उनकी बातों पर लगे ठहाके देते रहते थे. हिन्दी के अतिरिक्त भी सभी विभागों के वरिष्ठ प्राध्यापक उनके मित्र थे. ओझा जी कॉलेज परिसर में रहते थे, जहां उनके आस-पास सभी सीनियर फैकल्टी मेंबर ही थे.
डॉ ओझा ने हिन्दी नाटक पर महत्वपूर्ण काम किया था. वे कबीर पर कक्षाएं लेते थे और एक हद तक वैसे ही फक्कड़ मस्तमौला भी थे. विभाग में रोटेशन से प्रभारी होते थे, सो मेरा नंबर भी आ ही गया. मैं ओझा जी की छत्र-छाया में काम करना अच्छा मानती थी. हर बात उनसे पूछती. एक बार ऐसा हुआ कि जब टाइम टेबल बना तो संस्कृत विभाग के पास कम कमरे थे. ऑनर्स की कक्षाएं तीन और कमरा एक ! हिंदी विभाग की भी कक्षाएं तीन थी, कमरे दो और अब एक नया कमरा मिलने को था. यह बात मैंने ओझा जी को बताई. ओझा जी बोले – ‘बेटा, एक कमरा संस्कृत विभाग के पास जाने दे. हमारा क्या है, हम तो उस परम्परा से हैं, एक पेड़ के नीचे भी पढ़ा लेंगे !’ ( हिन्दू कॉलेज परिसर में घने-घने पेड़ बहुत थे, तब भी और अब भी हैं.)
बाद में विभाग में सब इस बात पर मन मसोसते कि हमने अपना कक्ष गंवा दिया. यह परेशानी बहुत बाद में जाकर खत्म हो सकी. सेवा निवृत्ति के समय डॉ ओझा ने कबीर पर अपनी पोथी सहर्ष मुझे दे दी, यह कहते हुए – ले बेटा, अब तू इसे पढ़ाना. वह पोथी मेरे लिए प्रिय कबीर का अटूट सानिध्य बन कर रहती है.
डॉ कृष्ण दत्त पालीवाल जी एकसाथ गंभीर और मस्त अध्यापक थे – चेहरे पर हर समय मुस्कान ! उनके पास भी हम सबके लिए बेटा संबोधन था. वे बहुत अकादमिक स्वर में अपनी कोई भी बात सम्मुख रखते. उनकी आवाज़ उनकी पहचान रही हमेशा. मुझे डॉ ओझा और डॉ पालीवाल का भरपूर प्यार और मार्गदर्शन मिला. डॉ पालीवाल के हाथ की वे चुटकियाँ कानों में आज भी बज जाती हैं… एक दिन वे किसी जरूरी विभागीय काम से छात्र को स्टाफ रूम से एक फ़ाइल लाने को भेजते हुए, चुटकी बजाते हुए बोले – ‘जइयो बेटा जइयो, भाग के जइयो और दौड़ के अइयो.’
सुरेश ऋतुपर्ण विभाग में युवा कवि की छवि वाले लोकप्रिय अध्यापक थे. वे बहुत लय में कविताओं का सुंदर पाठ करते थे. वे बेहतरीन फोटोग्राफर भी थे, कॉलेज का आइरिस फोटोग्राफी क्लब उन्हीं की देखरेख में समृद्ध हुआ, जहाँ डार्क रूम में वे फोटो फिल्म भी डेवलप करते थे. हमारे छात्र और ऋतुपर्ण जी के फोटोग्राफी क्लब के दो सदस्य शानदार फोटोग्राफर हुए, जिनमें से एक सैय्यद हामिद अली तो आज जाने-माने सक्रिय फोटोग्राफर हैं, आए दिन बड़े बड़े आयोजनों में जिनके खींचे चित्र देखने को मिल जाते हैं. कॉलेज में ऋतुपर्ण जी से पढ़ा कौन छात्र ऐसा होगा जिसके पास उनके हाथों खींची सुंदर तस्वीर न हो, मेरे पास अनेक हैं.
कॉलेज में खूब सक्रिय, विभाग में प्रिय ऋतुपर्ण जी हिन्दी की मशाल लिए त्रिनिदाद, मॉरिशस देशों को गए. अंतत: तोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरन स्टडीज़ में उन्होंने एक लंबा अरसा बिताया. तब वे साल में एक बार जापानी विद्यार्थियों के समूह के साथ भारत आते – विश्वविद्यालय के विभिन्न कॉलेजों के विद्यार्थियों से उनका परिचय करवाते और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते. हिन्दू कॉलेज के हिन्दी विभाग के पास भी उनके द्वारा आयोजित इस यात्रा की सुखद स्मृतियाँ हैं. आज ऋतुपर्ण जी के के बिरला फाउंडेशन के निदेशक रूप में हिन्दी से बहुविध जुड़े हैं – उनकी सक्रियता चमत्कृत करती है.
आने वाले समय में हिन्दी विभाग बढ़ा और फिर बढ़ता रहा. डॉ हरीश नवल आए, और डॉ दीपक सिन्हा भी. डॉ नवल को आज कौन नहीं जानता? उनके व्यक्तित्व की अनेक छवियाँ हैं – व्यंग्यकार, सधे हुए वक्ता, गायक, अभिनेता भी !
डॉ दीपक सिन्हा धीर गंभीर व्यक्तित्व के स्वामी थे. वे बहुत कम बोलते और कम ही हंसते थे. एक समर्पित अध्यापक के रूप में दीपक अपने विद्यार्थियों और सहकर्मियों के ह्रदय में हमेशा रहेंगे …स्मृति शेष दीपक की स्मृति में हिन्दी विभाग का एक महत्वपूर्ण आयोजन – ‘डॉ दीपक सिन्हा स्मृति व्याख्यान’ हरवर्ष सितम्बर माह में होता है.
इस छोटे–से हिन्दी विभाग का समग्र व्यक्तित्व अत्यंत शालीन था. विभागीय गोष्ठियों, विदाई और स्वागत समारोहों में एक गरिमा रहती. विदाई समारोह के अवसर पर विद्यार्थी अध्यापकों से भी आग्रह करते – रावत जी रागिनी सुनाते, नवल जी डेस्क पर अच्छी बीट देते हुए इंग्लिश सॉंग पेश करते तो ऋतुपर्ण जी यह गाते हुए सबको लोट-पोट कर देते –
मेरा भूल भुलैया हाल सुनो री !
सासू हमारी कह गई, बहू बछिया को खूंटे पे बाँध दियो री !
और मैं अलबेली भूल गई, मैंने देवर को खूंटे पे बांध दियो री !
साल दर साल हिन्दी विभाग की दाखिला सूची में कट ऑफ़ प्रतिशत बढ़ता गया और हिन्दी विभाग 92 प्रतिशत से भी अधिक पर, अनवरत प्रबुद्ध बच्चों का चयन करने लगा. कक्षाओं में पढ़ाने में एक चुनौती सदैव बनी रहती. यह हमें अपने आप को बेहतर करने का अवसर देती. कॉलेज में अवसर देखकर मैं ओझाजी, पालीवाल जी, सुरेश जी, नवल जी से अपनी कठिनाईयां पूछती रहती.
फिर भी जो बात रह जाती, उसे भली-भाँति समझने मैं झट, कॉलेज के पिछले हिस्से की संकरी गली से निकल किरोड़ीमल कॉलेज चली जाती – हर समस्या का समाधान देने वाले गुरुवर अजित कुमार के पास !
Bahut badhiya.nokri ke dino ko jaise jivant kar diya hai
Univercity samne dikhne lagi. Itna swabhvik chitran
Badhai itne uttam lekh ke liye.bhavishya ke liye shubhkamnaye. Dr.Mnaju bhatt
आभार
बहुत दृश्यात्मक आलेख।किसी स्मृति में एसिड नहीं। विजयासती का अपना माधुर्य इसका कारण है।आनंद आ गया अपने हिंदू कॉलेज का
क्या बात ममता जी !
आपने तो नव जीवन डाल दिया मुझमें !
सदैव आभारी !
मैम आपकी यादें मुझे हिंदू कॉलेज से और गहरे जोड़ती है। हालांकि इस संस्मरण में आए बहुत कम नामों से मैं परिचित हूं, फिर भी आपके संस्मरण से हमें हिंदू कॉलेज के हिंदी विभाग का इतिहास जानने को मिलता है। अगली कड़ी का इंतजार रहेगा। बहुत बहुत शुभकामनाएं मैम ☺️🙏
बहुत आभार काजल !
विजया दी,संस्मरण पढ़कर मज़ा आ गया..कितना माधुर्य है,आपकी लेखनी में..!!! निसंकोच मैदानी नद सी अविरल धीमे धीमे उतरती है… ज़हन में सभी दृश्य चित्रपट से बहने लगते हैं…!!!
हिंदू परिसर हर विद्यार्थी का आकर्षण होता है,हमारा भी था..!!!
बहुत बढ़िया ….गतिमयता…अब (मेरे )अजित जी पर क्या कहोगी, जानने को उत्सुक हूं…!!
शुक्रिया शुक्रिया !
बहुत कहूंगी उन पर!
बहुत समृद्ध संस्मरण।पर तारकनाथ बाली जी संभवत: आपके समय में बहुत जीवंत रहे होंगे।हमारा बैच जब उनसे पढ़ा तो कामायनी को उन्होंने शताब्दी एक्सप्रेस की रफ्तार से पढ़ाया।कुछ समझ नहीं आया। ज्यों ज्ञान की लहर दूर और दूर चली जाती हो।संवेदना को स्पर्श करने का अवसर ही नहीं आया।धीरे धीरे कक्षा में हमारे साथियों की उपस्थिति कम होती गई।लेकिन इसके ठीक उलट कृष्ण दत्त पालीवाल सर की कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या बढ़ती गई।मांधाता ओझा जी ने अपने उत्तरार्ध के दिनों में हमे पढ़ाया पर वह तरीका इतना बोझिल था कि कबीर के पद कभी खुल ना सके।बाद में कबीर का अर्थ खुला प्रो नित्यानंद तिवारी के सान्निध्य में।आपका बहुत आभार।
आभार गरिमा !