आज पढ़िए अनुपम ओझा की कहानी। अनुपम जी ने सिनेमा पर शोध किया है, सिनेमा बनाते हैं। यह जानकी पुल पर प्रकाशित होने वाली दूसरी कहानी है-
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रविवार की वजह से सड़कें खाली थीं और बस जैसे उड़ी जा रही थी।
एक पत्रिका में ब्यूरो चीफ के पद के लिए मैं इंटरव्यू देने जा रहा था। मैंने निश्चय किया था कि गुरु बनने की कोशिश नहीं करूँगा और यह नौकरी हासिल कर लूँगा। मैं एक पत्रकार और साहित्य प्रेमी हूँ। पिछले अखबार में मैं सम्पादक था। मुझपर कवर पेज पर विज्ञापन डालने का दबाव बनाया गया, जिससे मैं सहमत नहीं था।
लम्बी बेरोजगारी पत्रकार को दयनीय बना देती है, मैं वैसे हालातों से बचना चाहता था। फिलहाल एक सांध्य अखबार ‘सांध्यसूर्य’ के लिए मैं फिल्मी लोगों का साक्षात्कार लेता था। आज शाम भी एक मध्य वय की अभिनेत्री का साक्षात्कार लेना था।
‘किशोर’ नामक इस पाक्षिक पत्रिका का विज्ञापन टाइम्स ऑफ़ इंडिया अखबार में छपा था, जिससे खिंचा हुआ बम्बई से बाहर के औद्योगिक इलाके की यात्रा करने का मैंने मन बना लिया था। मेरे बैग में सीवी, कुछ किताबें, एक डायरी और चश्मे थे। रविवार का दिन था और लोकल ट्रेनें अनियमित चल रही थी। आज का दिन उनके लिए विश्राम और मरम्मत का भी होता है, इसलिए गिनती की स्वस्थ ट्रेनें ही चल रही थीं। कुछ रूट्स पर ट्रेन बिल्कुल नहीं चल रही थी। दादर से चेम्बूर के लिए कोई ट्रेन नहीं थी लेकिन स्टेशन के बाहर ही एसी बस मिल गयी।
बस में पीछे की तरफ सवारियाँ ज्यादा थीं। बीच की कुछ सीटें और आगे की खाली थी मैं एक खिड़की के पास टू सीटर पर बैठ गया। दूसरी खाली सीट पर बैग जमा दिया और खिड़की के बाहर देखने लगा। यों ही देखना अच्छा लग रहा था। बस बीच में एक दो जगह रुकी और कुछ सवारियाँ चढ़ीं लेकिन किसी ने मेरे बगल की खाली दूसरी सीट को महत्व नहीं दिया जहाँ मेरा बैग रखा हुआ था। वडाला के आसपास किसी बस स्टॉप से एक कद्दावर दिखती महिला लपक कर बस में चढ़ी और मेरे बगल की सीट पर आ बैठी। बाहर से ही जैसे उसने इसी सीट को या मेरे बगल में बैठने को लक्ष्य किया था। उस बस स्पॉट पर जब बस रुकी तो सीधे मेरी नजर इस महिला से टकराई थी। उसने नेवी ब्लू टीशर्ट और मटमैला जींस पहन रखा था।
कंडक्टर ने उसे हिकारत भरी नजर से देखा जैसे वह इस बात के लायक न थी कि एसी बस में सवारी के पास बैठकर यात्रा करें। उस महिला ने टिकट भी नहीं लिया और धम्म से मेरे पास आ बैठी। कंडक्टर घूर कर थक गया और अन्य सवारियों के टिकट काटने लगा।
मैंने अपना झोला अपनी गोद में रख लिया और खिड़की के बाहर देखने लगा। महिला मुझे घूरे जा रही थी। मुझे अजीब लग रहा था। उसके इस तरह ऊपर से नीचे मुझे देखने से ऐसा लगा कि वह पुलिस वाली ना हो। मैंने बैग से एक किताब ‘इनोसेंट अरेंदिरा एंड हर हार्टलेस ग्रैंड मदर’ निकाली और उसकी तरफ किताब का फ्लैप करके पढ़ने लगा। यह एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसकी गलती से दादी के घर में आग लग जाती है, जिसका कर्ज चुकाने के लिए उसे धंधा करना पड़ता है और अंत में एक लड़का आता है जो उसकी दादी का खून कर के अरेंदिरा को मुक्त करा लेता है। दोनों साथ भागने लगते हैं। अरेंदिरा आगे निकल जाती है। भागते-भागते अरेंदिरा समुद्र और क्षितिज में खो जाती है।
बगल में बैठी स्त्री की आँखें किताब में उभर आईं। एक जीवित इन्सान सामने था ऐसे में कथा के चरित्र मेरा मन नहीं बाँध सके। मैंने किताब रख दिया और सीधे उसे देखने लगा। वह मुझे पहचानने की कोशिश करती हुई लगी। मैंने मुम्बई के मिजाज के अनुकूल एटिकेट, मैनर का ध्यान रखते हुए उसे मुस्कुराकर ‘हेलो’ कहा।
“एकदम महेंदर!” यह उसका जवाब था।
“कौन महेंदर?” स्वाभाविक प्रश्न था।
“मेरा दोस्त।” उसने कहा। विस्मय विस्फारित नयनों को वह मेरे विचित्र चेहरे पर अड़ाए हुए थी।
अपने दोस्त महेंदर के लिए उसकी आँखों में इतनी लालसा थी कि मैं आगे भी प्रश्न कर बैठा। “क्या काम करता है आपका दोस्त?”
“कैमरामैन है। देखने में बिल्कुल आपके ही जैसा है।” उसने कहा।
“अब कहाँ है?” मैंने पूछना जरूरी समझा। मैं उलझ रहा था, यह भी अहसास था।
“पता नहीं। दो साल से उसे देखा नहीं।” उसने उदास स्वर में कहा।
उसकी उदासी मुझे छू गयी या एटिकेट, मैनर में मैंने भाव दिखाया और उसकी पकड़ में थोड़ा और आ गया।
“क्या हम दोस्त हो सकते हैं?” उसने दबी जुबान प्रस्ताव रक्खा। दोस्ती के इस भयानक आग्रह को एकदम अस्वीकार नहीं किया जा सकता था। दरअसल मुझे हर पत्थर में एक हीरे की उम्मीद दिखती है, ऐसा मैंने मुक्तिबोध से सीखा है।
“हम भी दोस्त हो सकते हैं।” मेरी जुबान से फिसल गया।
वह मुस्कुराई।
“अपना नम्बर दीजिए।” उसने फुसफुसाकर कहा।
मैंने अपना मोबाइल नम्बर उतने ही धीरे से बताया जैसे उसने पूछा। मैंने कभी किसी पुलिस में काम करने वाली महिला से दोस्ती नहीं की थी; एक रोमांचक अनुभव का निमंत्रण अस्वीकार करना सम्भव नहीं था। यह उसका शिकार करने का सबसे सफल तरीका भी हो सकता है, ये मुझे अहसास हो चला था।
कंडक्टर उसे तीखी नजर से देख रहा था, जिसकी वह बिल्कुल परवाह नहीं कर रही थी। वह मुझे हिदायत और सवाल की निगाहों से देख रहा था, जिसकी मैंने कोई खबर नहीं ली।
चेम्बूर में वह हाय-बाय करके उतर गयी। मुझे नहीं लगा था कि वह दोबारा मुझसे सम्पर्क करेगी। बातचीत से पता चला कि वह पुलिस में नहीं, म्हाडा में फोर्थ ग्रेड कर्मचारी थी। हालाँकि और बाद में यह भी झूठ साबित होता सा लगा।
चेम्बूर से भी तीस किलोमीटर आगे एक औद्योगिक इलाके में पत्रिका वालों ने साक्षात्कार क्यों रखा था- यह मेरी समझ के बाहर था। जबकि वे मुम्बई में ब्यूरो खोलना चाहते हैं। वहाँ जाकर सबकुछ समझ के भीतर आ गया। पिट न जाएँ इस डर से इतनी दूर बुलाया था।
वहाँ पुरानी फिल्मों में दिखने वाले अपराधीनुमा चार लोग साक्षात्कार लेने बैठे थे। वे न तो पत्रकार थे न अनुभवी प्रकाशक। वे अवसरवादी थे। वे विज्ञापन के बल पर अखबार निकालने वाले किसी सट्टेबाज पत्रकार के लिए जाल बिछाए बैठे थे। एक की बिल्लौरी आँखें और दाढ़ी मुझे आज भी याद हैं। निराशा ही हाथ लगी। यह एक आम रैकेट था जो कोटा के कागज, पैसा और सरकारी ग्रांट लूटने के लिए किशोर पत्रिका को जाल बनाने के फेर में था। पत्रिका का नाम बड़ा आकर्षक रखा था ‘किशोर’। पत्रिका का एक लुभावना अंक निकाल रखा था जिसकी प्रति तक नहीं दी। पत्रिका की कवर स्टोरी दादा साहेब फालके पर थी और मैं उसे लेना चाहता था। हो सकता है कि एक ही प्रति प्रिंट किया हो। उस पत्रिका के कहीं और मिलने के बारे में भी नकारात्मक जवाब ही मिला। वे यह जानना चाहते थे कि मैं कितना विज्ञापन ला सकता हूँ? मेरा जवाब था, एक भी नहीं। चाय तक नहीं पूछा।
ऑफिस के नीचे ‘झुणका भाकर’ में जाकर मैंने एक प्लेट पुलाव खाया। सिगरेट के कश लगाए और इस यात्रा को एक यों ही सा अनुभव मानकर मैंने लौटने के लिए बस स्टॉप की तरफ कदम बढ़ाए। बस में चढ़ने से पहले एक अजनबी नम्बर से मिस कॉल दिखा। मैंने ध्यान नहीं दिया। बस मंथर गति से चल रही थी। फिर से कॉल आई।
“हाँ जी।” मैंने फोन उठा लिया।
“मैं अनीता बोल रही हूँ। अभी बस में आपसे मुलाकात हुई थी। अच्छा बोलिए अभी आज ही आपसे मिल सकती हूँ क्या?” उसने कहा।
“हाँ क्यों नहीं।” मैंने कहा।
“चेम्बूर में पैंटालून के सामने मैं आपका इंतजार करूँगी।” फोन कट गया।
यह क्या बात हुई? मिल लिया जाए। पैंटालून के सामने से घूमते हुए मैं अकबर अली तक गया। एक भी तम्बाकू-सिगरेट की दुकान नहीं दिखी।
मैं वापस लौटा तब तक उसका फोन आया-”आप पहुँच गए हैं क्या? मैं दस मिनट में पहुँच जाऊँगी।”
“क्यों?” मैंने पूछा।
“पैदल आ रही हूँ।” उसने सहज कहा।
जिस रास्ते से उसे जाते हुए देखा था, मैंने उस रास्ते की तरफ देखा जिधर से उसके आने की सम्भावना थी, वह एक झोपड़पट्टी की तरफ जाता था। झोपड़पट्टी में पड़ोसी देश के श्रमिक भी रहते थे। ज्यादातर महिलाएँ। बम्बई में हाउस हेल्प का काम कर के ये लोग लोकल श्रमिकों को पीछे धकेल रहे थे। यहाँ का रुपया वहाँ बड़ी रकम में बदल जाता है। कितना अच्छा होता कि पड़ोसी देशों के बीच सैनिक सीमाएँ नहीं होतीं तो मैं अपनी गाड़ी से ढाका जा सकता था। माचिस की डिब्बी में आ जाने वाली पूरे पाँच मीटर की साड़ी को देख पाता। उस मुलायम शब्द से भी मुलायम मलमल को बनाने वालों से मिल पाता। उनकी अंगुलियों को स्पर्श कर पाता। अच्छा होता कि पड़ोसी देशों की सीमाएँ मजदूरों के लिए हल्की होतीं तो वे सीमा पर भारी घूस देकर भी चोर की तरह नहीं आते, सम्मानजनक तरीके से रोजी कमा सकते थे। कश्मीर और कोलकाता की तरफ से ज्यादा रिफ्यूजी आते हैं। महिलाओं के साथ बच्चे भी आते हैं जो भीख माँगते नजर आते हैं। देह व्यापार का भी नया रास्ता खुल गया है।
“अच्छा, आपको मैं कैसी लगी?” उसने मुझे उलझाए रखने के लिए फोन पर पूछा।
“अच्छी लगी।”
“मुझे तो आप बहुत सुन्दर लगे। क्या पिलाएँगे आप मुझे?
“मतलब?”
“ठण्डा या गर्म?” उसने चारा डाला।
“जो भी पीना चाहो।” कह देने के बाद सवाल का मर्म समझ में आया। तबतक कथन की व्यंजना व्यंजित हो गयी।
उसने कहा, “मैं दोनों पीऊँगी।”
“ओके! आ जाओ।” मैंने फोन काट दिया। मेरे कान गरम हो गए थे।
अनीता ग्राहक खोज रही है। मैं एक प्रतिष्ठित पत्रकार हूँ। इसका ग्राहक बन जाऊं? वैसे भी पत्रकारिता पर हावी होते विज्ञापन से लड़कर मैं थक चुका हूँ। थोड़ा मजे मार लूँ। कामशास्त्र भी नैतिक अनुमति देता है कि पण्य चुकाकर वारांगना या दासी के साथ सहवास किया जा सकता है। सहवास शुद्ध रूप से देह की भाषा है, इसका चरित्र और चेतना से क्या लेना-देना? लेकिन प्रतिष्ठा! अब इस प्रतिष्ठा का मैं अकेले क्या करूँ?
मेरा दिमाग तेजी से दौड़ने लगा। क्या करूँ? बस या ऑटोरिक्शा लेकर निकल लूँ या मिल लूँ? मैंने मिलने का निर्णय लिया। एक पत्रकार होने के नाते किसी भी इन्सान को मिलने भर का सम्मान देना मेरी ड्यूटी है। मैंने रुकने का फैसला किया।
सड़क के उस पार एक पान की साफ-सुथरी गुमटी थी जिसपर मेरा ध्यान नहीं गया था। मैंने सड़क पार किया। वहाँ से अपना फेवरेट नेवी कट खरीदा और वहीं खड़े होकर कश लगाने लगा। पान वाले ने कुछ कहा लेकिन मैं समझ नहीं पाया। मुझसे कुछ कदम दूर सादी वर्दी में एक पुलिस वाला खड़ा था। पान वाले ने फिर से मुझे कुछ इशारे किए। वह सिगरेट का टुकड़ा डस्टबिन में डालने का निर्देश दे रहा था। आदतन मैं भी ऐसा ही करने वाला था। पनवाड़ी को इत्मीनान नहीं हुआ। वह मेरे बगल में आकर खड़ा हुआ और बोला साहब सिगरेट डस्टबिन में ही डालना वरना सामने खड़ा पांडू पैसा माँगेगा। मैंने भी बिना उसकी तरफ देखे जवाब दे दिया। सिगरेट को बुझाने के लिए मैंने उसे जमीन पर अच्छी तरह से रगड़ा। पांडू हिला। मैंने बुझी सिगरेट को डस्टबिन में डाल दिया। पनवाड़ी खुलकर मुस्कुराया।
अनीता सड़क के उस पार पैंटालून के सामने मुझे खोजती हुई दिखी। उसने सलवार सूट पहन रखा था। मैं सड़क पार करके उसके पास पहुँचा और उसे सरेआम गले लगाया।
“कहाँ चलें?” उसने पूछा।
“जहाँ कहो।” जवाब में कह गया।
उसने साथ चलना शुरू किया।
“तुम्हें बीयर पीना है?” मैंने पूछा।
“और आपको?” वह जानना चाहती थी।
“मैं दिन में नहीं पीता हूँ।” मैंने बहाना बनाया।
“तो मैं भी नहीं पीऊँगी।” उसने सच कहा।
“तुम पी लो और कुछ खा भी लो। मैं साथ में बैठूँगा।” मैंने कहा।
उस वक्त मेरा मन मेरे प्रिय कवि विलियम ब्लेक के एक अनुभव को जीने का हो चला था। एक वेश्या ग्राहक खोज रही थी, वह ब्लेक से टकरा गयी। ब्लेक ने सामने बैठाकर उसे खिलाया, बीयर पिलाया और विदा कर दिया। ब्लेक ने एक धंधेवाली को बहुत अच्छा ट्रीट दिया था जो नजीर बन गया। ऐसी एक नजीर मेरे नाम भी हो जाए, मैं सोच रहा था।
“नहीं पीना, आइए।” उसने कहा और दौड़कर एक चलती बस में सवार हो गयी। मैं भी बस में सवार हो गया। बस में पीछे की तरफ सीटें खाली थीं। हम बैठ गए। कंडक्टर ने टिकट के लिए पूछा तो मैंने उसकी तरफ देखा।
“बीस का टिकट ले लो।” उसने सलाह दी, “पूरे दिन के लिए फ्री”, आगे जोड़ा।
मेरे पास उसके लिए पूरा दिन तो नहीं था लेकिन मैंने टिकट ले लिया।
इत्मीनान होते ही उसने अपने पत्ते फेंके यानी मुँह खोला- “देखिए साहब मैं म्हाडा में काम करती हूँ लेकिन लोग मुझे पुलिसवाला समझ लेते हैं। सिर्फ साढ़े तीन हजार की सैलरी में पूरा परिवार खींचना भारी है। मेरे तीन-चार क्लाइंट्स हैं जिनसे दो-दो हजार महीने मिल जाते हैं। मैं सबके पास नहीं जाती। आप मुझे अच्छे लगे इसलिए और आपने जब कहा कि हम भी दोस्त हो सकते हैं तो… आपको मैं कैसी लगी?” अंत में उसने पूछा।
“हूँ!” मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया।
“सर मैं दिल की साफ हूँ। अपना सच मैंने आपको बता दिया। आप भी कुछ कहिए। आप बहुत सुन्दर हैं।”
“धन्यवाद।” मैंने अभ्यस्त अंदाज में कहा।
वह मुस्कुराई।
बस की पिछली सीट पर हम बीच में बैठे थे। खड़े और बैठे यात्रियों की आँखें हमें घूर रही थी। मैंने अपनी बात जारी रखी- “मुझे अच्छा लगा कि तुमने अपने बारे में सब कुछ बता दिया मैं भी अपने बारे में बता दूँ?”
उसने सहमति सूचक सिर हिलाया।
“मैं विवाहित हूँ और सिर्फ अपनी पत्नी के साथ सोता हूँ। किसी और के साथ सोने की इच्छा ही नहीं हुई और अगर हुई तो मैं अपने आप को रोकूँगा नहीं।”
वह हैरानी से मुझे देख रही थी।
“मुझे तुमसे दोस्ती करने में कोई परेशानी नहीं।” मैंने आगे जोड़ा।
“तब तो आपकी पत्नी बहुत भाग्यशाली औरत है।” उसने विस्मय से कहा।
“मालूम नहीं।” मैं मुस्कुराया।
“मुझे आज तक आप जैसा आदमी नहीं मिला।” उसने आगे कहा।
“आज तक तुमने मेरे जैसा आदमी खोजा ही नहीं था वरना कबका मिल गया होता।” मैंने ज्ञान बघारा।
“शायद!” उसने कहा और मेरा हाथ पकड़ कर उठ खड़ी हुई।
“यहीं उतर जाते हैं।” उसने मुझे खींचते हुए कहा।
हम सायण स्टेशन के आसपास कहीं उतर गए। सड़क के किनारे बीयर बार और कल-पुर्जों की दुकानें थीं।
“तुम्हें बीयर पीना है ना अनीता?” मैंने पूछा।
नहीं। उसने दृढ़ता से कहा।
मेरा हाथ छोड़कर वह सड़क के किनारे गयी और थूकने लगी। जैसे गले में कोई गंद फंस गई हो। या इस तरह के किसी आदमी को पचाने में समस्या आ रही हो।
मैंने पानी की बोतल निकाल कर उसे दिया। उसने मुँह-हाथ धोया।
अब चलिए उसने कहा और मेरा हाथ पकड़ कर एक तरफ चल पड़ी।
कहाँ? मैंने पूछा।
चलिए तो। वह मुस्कुराई।
मैं उसके साथ हो लिया।
यह झोपड़पट्टी थी और लोग जिस निगाह से उसे देख रहे थे तो मुझे लगा कि उसे अच्छी तरह से जानते हैं। पैदल चलते हुए हम लोग स्टेशन पर आ गए। एक खम्भे से लगे सीमेंट के चबूतरे पर वह बैठ गयी और मुझे भी पास में बैठने के लिए कहा। मैं उससे सम्भव दूरी बना कर बैठ गया। “तो अनीता अपने बारे में बताओ?” मेरा पत्रकार जागने लगा था।
“पहली बात तो यह कि आप बहुत सुन्दर हैं।” उसने ठिठोली करते हुए कहा।
“थैंक्यू।” मैं मुस्कुराया।
“आपकी मुस्कुराहट कितनी खूबसूरत है। आय हाय!” उसने खुश होकर कहा।
“तुम भी सुन्दर हो।” मैंने औपचारिक उत्तर दिया।
“लम्बे समय बाद किसी आदमी से मुलाकात हुई।” उसने गहरी नजर से देखते हुए कहा।
“तुमने पुकारा और हम चले आए।” मैं खुलने लगा था।
वह खिल गयी।
“पता है कुछ दिनों से मैं सोच रही थी कि किसी आदमी से भेंट हो जिससे बात हो।” उसने खुद में डूब कर कहा।
“इन्सान जो शिद्दत से माँगता है वह उसे मिल जाता है।” मैं सत्य श्री साईं बाबा की भूमिका में आ गया।
मेरे हाथ मेरी गोद में थे,यूँ ही झोला पकड़े जैसे कोई छीन ले जाएगा। मैंने अभय मुद्रा में हाथ तो नहीं उठाया था लेकिन मेरे कंधों के पीछे से दो अदृश्य हाथ हवा में निकल आए थे। एक अभय मुद्रा में खुला हुआ था और दूसरे में कमल का फूल था। कहीं वह स्त्री देख ना ले। मैंने उन्हें छुपा लिया। वह इधर-उधर देख रही थी। स्टेशन से आते-जाते लोकल लोगों को वह दिखा रही थी कि वह कितने ऊँचे आदमी के साथ बैठी है। मेरा पत्रकार बेचैन होने लगा।
“क्या नाम बताया था आपने?” मैंने पूछा।
“अनीता।”
“मुम्बई कहाँ से आई?”
“हरियाणा से।”
“कहाँ के रहने वाले हो?” मैंने सवाल को घुमाया।
“हरियाणा।” उसने रटा हुआ जवाब दिया।
“इस धंधे में कैसे आई?” मैंने उससे नजरें चुराते हुए पूछ लिया।
“लम्बी कहानी है, लेकिन आपको सुनाऊँगी।” उसने मेरा कंधा पकड़ कर मेरा चेहरा अपनी तरफ घुमा लिया।
“अच्छा।” मैंने ध्यान केंद्रित किया। कुछ पल सोचते रहने के बाद उसने बोलना शुरू किया।
“मेरे माँ-बाप दो छोटे भाई और मैं जब मुम्बई आए तो हमारे पास घर नहीं था। चेम्बूर चौराहे पर सड़क के किनारे पूरा परिवार पड़ा रहता था।…”
“हाँ तो परिवार को पालने के लिए तुम?” जल्दी से मुझे कहानी का अंत चाहिए था।
“नहीं सुनिए तो…” वह अतीत में खो गयी। अब वह सोलह साल की मासूम लड़की दिख रही थी। उसकी असाधारण प्रसन्नता और बिंदासपन से मैं विस्मित था।
“चेम्बूर नाके से गुजरने वालों से मिली भीख से हमारा जीवन चलता था। मेरा पूरा परिवार भीख माँगता था। वहां से आती जाती गाड़ियाँ और पैदल लोग हमारे दानदाता थे। कुछ रोजाना दान करने वाले भी थे। उसी में एक डॉक्टर था जो रोज रुक कर कुछ पैसे देता था। एक दिन उसने मेरे बाप को बुलाकर दस हजार रुपए दिए और कहा कि डिपॉजिट जमा कर एक घर किराए पर ले लो। और चला गया। हमने म्हाडा में एक घर किराए पर ले लिया। बाप मजदूरी करने लगा। माँ घरों में हाउस हेल्प का काम करने लगी और कुछ रोज बाद मैं डॉक्टर के घर में काम करने लगी।” कह कर वह रुकी।
“तो क्या उसी ने?” मैंने आतुरता से पूछा।
“अरे नहीं! उसने मेरे परिवार के लिए इतना कुछ किया कि उसे तो मैंने अपनी मर्जी से अपने आपको दिया था।” उसने सहजता से कहा तो मेरी जिज्ञासा और बढ़ गयी।
“फिर उसने शादी कर ली और तुम्हें छोड़ दिया…” मैंने पूछा।
“नहीं, वह मुझसे शादी करना चाहता था। एक दिन अपनी बीवी के साथ कार से जा रहा था तो मुझे बुलाकर मिलवाया था। मेरे सामने उससे कहा था, ‘यही है, इसी के साथ मै शादी करना चाहता था’ और चला गया था।
“तुमने उससे शादी क्यों नहीं की?” मैंने पूछा।
“मैं अपना परिवार नहीं छोड़ सकती थी।” उसने कहा।
“अरे, शादी करके लड़कियाँ यही करती हैं!” मैंने हैरत जाहिर की।
“वह मेरी देखभाल कर सकता था लेकिन मेरा परिवार पीछे छूट जाता वहीं चेम्बूर नाके पर भीख माँगता हुआ… साथ में चाचा का परिवार भी।” उसने आगे जोड़ा।
उसकी सारी बातें गोल-गोल थी। अब यह चाचा भी पिक्चर में आ गए थे। हरियाणा से कोई मुम्बई में भीख माँगने आएगा यह पच नहीं रहा था।
“हरियाणा में तुम लोग कहाँ से आए?” मैंने फिर सवाल को घुमाया।
वह असमंजस में दिखी।
“तुम हिंदू हो या मुसलमान?” मेरा अगला कठोर प्रश्न था।
“मैं औरत हूँ।” उसने कहा और उसके चेहरे की रंगत बदल गयी।
“तुम बहुत अच्छी हो।” मैंने मुस्कुराने की कोशिश की।
वह मुस्कुराई- “आप बहुत अच्छे हैं।”
“तुम बहुत अच्छी लड़की हो अनीता। तुममें गुण है। तुम कुछ भी कर सकती हो।” मैंने उसे सराहा। सराहना से वह और खुश हो गयी।
“पता है, मेरे तीन क्लाइंट में से दो बुजुर्ग हैं। वे कहते हैं तुम बहुत वो हो..गरम…नरम वो क्या बोलते हैं , ब्लाइंड …हो।” वह शब्द खोज रही थी।
“नरम, छूना, टच?” मैंने पूछा।
“नहीं वे कहते हैं कि तुम बहुत वह हो… ऐसे बताती हूँ”, वह थोड़ा करीब खिसक आई।
मेरी बाईं जाँघ को चुटकियों में दबाकर बोली- “वे बोलते हैं कि हम लोग जोर से भी पकड़ते हैं तो तुम बुरा नहीं मानती हो।” वह अपनी बात समझा गयी थी।
“अच्छा काइंड, करुण…”
“हाँ, हाँ यही कहते हैं कि तुम बहुत काइंड हो।” उसने एक बार और मेरी जाँघ में चुटकी भरी।
मैंने ध्यान से देखा तो उसने हाथ खींच लिया।
मैंने गम्भीर और बनावटी आवाज में कहा- “अनीता!”
उसने सिर हिलाया।
“तुमने मुझे दोबारा छुआ?” मैंने पूछा।
“हाँ, तो?” वह हैरान थी।
“तो पैसे देने होंगे।” मैंने नकली गम्भीरता के साथ कहा। जोक समझ में आते ही वह ठठा कर हँस पड़ी। ‘ओहो ओहो’ के सम पर लौट-लौट कर उसकी हँसी आ रही थी।
उसे खाँसी आ गयी। वह रेलवे लाइन के पास गयी और उल्टी करने लगी। पानी की बोतल लेकर उसके पास खड़ा हुआ और फिर से उसका मुँह-हाथ धुलवाया।
दुप्पटे से मुँह पोंछकर वह उसी जगह पर आ बैठी। अब वह फ्रेश लग रही थी।
“तुम सचमुच सुन्दर हो।” मैंने सच्चे मन से कहा।
“धन्यवाद!” वह शरमा गई।
“कितने दिनों से तुमने आईना नहीं देखा है?” मेरा अगला सवाल था।
“दो साल या शायद चार साल।” उसने सोचते हुए कहा।
“खुद से प्यार करती हो?” मैंने पूछा।
“नहीं।” संक्षिप्त उत्तर था।
“तुम्हें कोई और प्यार करता है?” मैंने जानना चाहा।
“हाँ, डॉक्टर।”
“वह तो करता था और करता रहेगा भी तो उससे तुम्हें क्या?” मैंने पूछा।
उसने असमंजस के भाव प्रदर्शित किए।
“क्या तुम खुद को प्यार करना सीखना चाहती हो?” मैंने पूछा।
“हाँ। क्या तुम्हें आता है, सॉरी आपको आता है?” उसने सुधारकर कहा।
“नहीं, मैं अभी सीख रहा हूँ। खुद से प्यार नहीं करने के लाखों कारण हो सकते हैं लेकिन खुद से प्यार करने का एक ही कारण है खुद तुम्हारा होना। तुम्हारा तुम्हारे लिए होना। यह शरीर, मन और आत्मा यह सब कुछ तुम्हें तुम्हारे लिए, तुम्हारे उपभोग के लिए दिया गया है। अगर तुम इन्हें प्यार नहीं करोगी तो दूसरा कोई क्यों करेगा? कोई और प्यार नहीं करता इसका मतलब यह तो नहीं होता कि हम भी खुद को प्यार ना करें।” वह ध्यान से मेरी बातें सुन रही थी। समझ कितनी रही थी, अलग शोध का विषय था।
“तो कैसे प्यार करें खुद को?” वह मुस्कुराई।
“बहुत आसान है। गले पर हाथ रखो और कहो- आई लव एंड अप्रूव ऑफ माईसेल्फ। आई एम लविंग। आई लव एंड आई हैव बीन लव्ड। लाइफ इज वंडरफुल।”
वह मेरा चेहरा देख रही थी।
मैंने कहा कि मेरे साथ बोलो। उसने कहा कि हाँ, मैंने सुन लिया।
“चलो अपनी आँखें बंद करो।” मैंने आदेश दिया। “अपने गले पर प्यार से हाथ रखो और बोलो कि मैं खुद से प्यार करती हूँ।”
उसने आँखें खोल कर कहा, हाँ करती हूँ।
“नहीं, आँखें बंद कर के बोलो, मैं खुद से प्यार करती हूँ। मैं खुद का समर्थन करती हूँ। मैंने प्यार किया है और मुझे प्यार मिला है। दुनिया सुन्दर है। मैं बहुत अच्छी हूँ। मैं नए बदलाव के लिए तैयार हूँ। मैं शान्त हूँ। इन बातों को दिल से कहो। दिल से महसूस करते हुए कहो।“ उसके लिए मैंने लुइस एल हे की सूक्तियों का हिंदी अनुवाद किया, जिसे उसने दोहराया।
वह थोड़ी देर तक आँखें बंद किए बैठी रही।
“बहुत अच्छा लगा!” उसने गहरे भाव के साथ कहा।
आतंरिक शान्ति की रंगत चहरे पर उतर आई थी। बस में जो चालाक और परेशान लड़की मिली थी, उसके चेहरे से धूल की परत धुल गयी थी। वह सुन्दर लग रही थी।
“तुम्हारे भीतर प्रकाश है, उसे बाहर आने का मौका दो।” मेरे भीतर फिर से बाबा अवतरित होने लगे थे।
“क्या है मेरे भीतर?” उसने हैरानी से पूछा।
मैं अपने आप में वापस लौट आया।
“तुम कोई और काम क्यों नहीं करती हो? जैसे फिल्मों में एक्स्ट्रा वगैरह।” मैंने बिन माँगी सलाह दे डाली।
“किया था, वहाँ तो पैसे भी कम मिलते थे और काम तो यही करना पड़ता था।” वह मेरा मुँह देख रही थी।
मैं लाजवाब था। मुझे टेलीविजन में चलने वाले सुनियोजित धंधेबाजी की खबर थी लेकिन कोई भी अखबार इसे खबर नहीं बनाना चाहता था। दोगी तो मेन रोल, नहीं तो साइड रोल।
“आपको एक बात बताऊँ सर, साठ साल से ऊपर की एक मैडम थीं जो एक्टिंग करती थीं दादी-वादी का रोल, उन्होंने एक बार कहा कि लोग उनकी भी ले लेते हैं।” उसने निस्पृह भाव से कहा। मेरा भेजा घूम गया।
“ठीक है, और भी काम हो सकते हैं?” मैंने जोर देकर कहा।
“कौन से?” बड़ा सादा सवाल था। जिसका जवाब नहीं था।
“जबतक कोई सम्मानजनक काम नहीं मिलता है, तुम एक आसान काम करो। अगले तीस दिन तक आईने में अपने आप से रोज एक बार कहो कि मैं अपने आप को प्यार करती हूँ, नया काम मेरे पास आ रहा है, मैं परिवर्तन के लिए तैयार हूँ।” मैंने कहा। उसने सहमति दिखाई।
“जो सोचो वही होता है। विश्वास करो। तुमने सोचा कि एक आदमी से मुलाकात हो तो मुझसे हो गयी। हुई ना?” मैंने पूछा।
“हाँ!” वह खुश हो गयी।
“मैं भी सोच रहा था कि कोई जिंदा कहानी मिले, तुम मिल गयी।” मैंने कहा तो वह और खुश हो गयी।
अगले ही क्षण इस कथन की व्यावसायिक क्रूरता को भाँप कर उसने पूछा-”क्या मैं जिंदा कहानी हूँ?”
“हाँ, मेरे धंधे के लिए। तुम्हारे धंधे के लिए मैं टाइम पास हूँ।” मैंने शुष्क स्वर में कहा।
बेरुखी को दरकिनार कर उसने आदेश दिया- “जरा मुस्कुराओ तो।”
“मतलब?” जानते हुए भी मैंने सवाल किया।
“जरा मुस्कुराओ।” वह बत्तीसी दिखाती हुई आग्रह कर रही थी।
वह एक कद्दावर स्त्री थी और देह रूप से हरियाणवी लग रही थी। लेकिन इतनी साफ हिन्दी उसके हरियाणवी नहीं होने की चुगली कर रही थी।
मुस्कान फूट पड़ी।
उसने बात बदला – “आपको पता है, एक-दूसरे को बिना टच किए दूर से भी सेक्स किया जा सकता है?”
“नहीं पता।” मैंने कहा।
“मैं जानती हूँ।” उसने किंचित गर्व से कहा।
मैंने इस विद्या के बारे में जानने की कोई उत्सुकता नहीं दिखाई। जिसका अब मुझे अफसोस होता है। अहंकार विद्या का हनन कर देता है। लज्जा, घृणा, भय ये तीन ज्ञान के शत्रु है, यह मुझे पता था लेकिन वक्त पर ये ज्ञान काम नहीं आता था।
स्टेशन के आसपास की गरीब बस्तियों के बुजुर्ग भी वक्त काटने के लिए इसी स्टेशन पर आते हैं और आती-जाती ट्रेनों के यात्री आसपास से गुजरते रहते हैं। दस मिनट के लिए पूरा स्टेशन शून्य हो जाता था। और इसी बीच हमारी बात होती थी।
“डॉक्टर क्यों शादी करना चाहता था?” मैंने कहानी के सूत्र को सामने रखा।
“डॉक्टर ने मेरे साथ कोई जबरदस्ती नहीं की। वह मेरे परिवार के लिए इतना अधिक करता था, इतना ध्यान रखता था कि मैंने खुद अपनी खुशी से उससे सम्बन्ध बनाया।” उसके चेहरे पर गजब की चमक थी।
“तो तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए थी।” मैंने कहा।
वह कुछ नहीं बोली।
“प्रेम का क्या मतलब है तुम्हारे लिए? वह तुम्हें प्रेम करता था। तुम्हारे साथ देहसुख सहभागी था। शादी करने में क्या समस्या थी?” मेरे भीतर बाबा फड़फड़ा उठे थे।
“प्रेम खत्म हो जाता!” उसने शान्त सुर में कहा, “वह मुझसे इसलिए शादी करना चाहता था क्योंकि वह मेरे साथ सोया था, इसलिए नहीं कि मुझ से प्रेम करता था।”
“नहीं वह तुमसे सच्चा प्रेम करता था।” सिर्फ पुरुष ओहने के नाते एक अनजान आदमी की मैं तरफदारी कर रहा था।
“हाँ करता है, आज भी।”
“तुम्हारे वर्तमान व्यवसाय से वह खुश तो नहीं ही होगा?”
“नहीं, वह अब भी मुझे पैसे देना चाहता है।”
“तो इस तरह तुम उसे दुःख पहुँचाती हो, उसके ऑफिस के रास्ते में धंधा करते हुए? चलो तुम तो उसे प्रेम करती हो तो कुछ ऐसा करो जिससे उसे सुख मिले।” भीतर बाबा के नागफनी जैसे केश झकोरा लेने लगे थे। वह चुप रही।
“जिसे प्रेम करती हो उसे क्या देना चाहोगी?”
“मतलब?”
“चलो सीधे पूछते हैं, तुम्हारे लिए देह क्या है?” मैंने सवाल दाग दिया।
“कुछ भी नहीं।” उसने तुरंत जवाब दिया।
“जिसको कुछ नहीं देना चाहोगी, उसे क्या दोगी?”
“देह।” उसने बेखटके जवाब दिया।
“जिसे कुछ देना चाहोगी उसे क्या देना क्या दोगी?”
“मन।” उसने कहा।
“जिसे सब देना चाहोगी?”
“प्रेम।” उसने भरे गले से कहा। उसका हर जवाब मुझे चकित कर रहा था। कमाल की सुलझी हुई स्त्री है।
“मुझे क्या दोगी?” मैं मुस्कुराया। भीतर बाबा प्रसादी मुद्रा में आ गए थे।
“प्रेम।” उसने कहा तो जी धक से रह गया। मुस्कान गायब हो गयी। अंतरमन के बाबा विलुप्त हो गए।
ट्रेन की चित्कार की आवाज के साथ यात्री प्लेटफार्म पर उतर गए। कुछ मिनट तक यात्रियों के जाने का हमें इंतजार करना पड़ा। ट्रेन चली गयी। मेरा ध्यान गया कि इस स्टेशन पर इसका नाम मराठी, हिंदी और अंग्रेजी में लिखा हुआ है सायण, शिव और सायन।
ईस्ट और वेस्ट में एक-एक पटरी और बीच में पतला प्लेटफार्म जिसके पहले खम्भे के गोल चबूतरे पर हम दोनों अगल-बगल बैठे थे। वह प्रसन्न दिख रही थी। यूँ ही मौन, प्रसन्न हम देर तक बैठे रहे। मैंने उठने की मुद्रा बनाई। उसने हाथ पकड़ लिया।
“बैठो अभी।” उसने साधिकार कहा।
मैं बैठ गया।
“मुझे याद रखोगे?” उसने नेहभरे सुर में पूछा।
“नहीं पता?” मेरा स्वर उदास था।
“क्यों?” उसने अगला सवाल किया।
“क्योंकि किसी को याद नहीं रख पाता। कोई किसी को हमेशा याद में नहीं रख सकता है। लेकिन तुम्हें कहूँगा खुद को याद करो। आईने में अपनी शक्ल से आँखें मिलाओ। खुद को प्यार करो। बोल कर कहो मैं खुद को प्यार करती हूँ और नई हो रही हूँ। चलो आँखें बंद करो, गले पर हाथ रखो और दिल से महसूस करते हुए बोलो मैं खुद को, अनीता को, प्यार करती हूँ।” उसने दोहराया।
“तीन बार दोहराओ।” मैंने कहा।
उसने अनेक बार दोहराया और रोने लगी।
मैंने पानी की बोतल का ढक्कन खोलकर बोतल उसकी तरफ बढ़ा दिया। वह रोती आँखों से मुस्कुराने लगी। मैंने जेब से रुमाल निकाला और उसके आँसू पोंछ दिए। उसने दो घूँट पानी पिया और स्टेशन की शेड के किनारों से झाँकते आसमान में देखने लगी।
कौन है उधर ऊपर आसमान में जो ऐसे आँसुओं से भी नहीं पिघलता है? कोई है भी कि नहीं? मैंने अपनी आँखों के कोनों पर आ गए आँसुओं को छुपा लिया।
“ईश्वर है?” उसने पूछा।
“मालूम नहीं। ईश्वर हो या नहीं हो लेकिन हैवान तो है। और इन्सान भी हैं। हैं न?” मैंने पूछा।
उसने सहमतीसूचक सर हिलाया।
“ईश्वर नहीं है और हैवान है तब तो इन्सानों को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी।” फिर मेरे भीतर बाबागिरी के कीड़े रेंगने लगे थे।
“इन्सान और शैतान के अलावा एक तीसरा जीव है स्त्री।” मैंने सोचते हुए कहा।
“क्यों, स्त्री इन्सान नहीं है?” उसने पूछा।
“नहीं, इन्सान से कुछ ज्यादा है। वह इन्सान और ईश्वर के बीच की एक कड़ी है। इन्सान, शैतान और स्त्री के त्रिकोण का चौथा कोण ईश्वर है जो अदृश्य है, संदिग्ध है। स्त्री, ईश्वर के होने की उम्मीद है।” अब मैंने अनेक बाबाओं को अपनी नसों में नशे की तरह दौड़ने के लिए स्वतंत्र कर दिया था।
सोच की दूसरी रेखा भी दिमाग में रेंग रही थी कि गुरु बनने के चक्कर में मैं हर मिलते अवसर को गवाँ देता हूँ, वह काम हो या कामिनी।
“कितना अच्छा बोलते हो।” उसने भरपूर प्रसन्नता के साथ कहा लेकिन मेरे चेहरे पर मुर्दनी छाई रही तो उसने मुस्कुराने का आग्रह किया। उसकी प्रशंसा से मैं सकुचाने लगा था।
“मुस्कुराओ न, कितने सुन्दर हो आप। हमेशा मुस्कुराते रहो।” उसने नेह से मेरा माथा सँवार दिया। मैंने कनखियों से मुस्कुराकर देखा तो वह हँसने लगी।
“तुमने तीसरी बार मुझे छुआ है अनीता। मैं काइंड नहीं हूँ। पूरे पैसे लूँगा।“ मैंने मजाक किया।
हँसते हुए उसने जींस की जेब से बीस रुपए का एक मुड़ा-तुड़ा नोट और बस का टिकट निकाला और मेरी तरफ बढ़ा दिया।
“लो यही है मेरे पास।” उसने दाता बनकर कहा।
इस वक्त उसकी भूमिका में एक आदमी था और वह ग्राहक की भूमिका में थी। इस एक्ट को पूरा करने के लिए मैंने पैसा और टिकट लेकर ऊपर की जेब में रख लिया।
“थैंक यू लेडी।” मैंने झुककर अदा से कहा।
वह खिल उठी।
इस बीच ट्रेनों का आना-जाना जारी था। जब कोई लोकल ट्रेन आती तो हम चुप हो जाते और यात्रियों के बाहर निकलने का इन्तजार करने लगते। दो से तीन मिनट में यह सब हो जाता और सायण स्टेशन पर फिर से एकांत बन जाता। एक लोकल आई और गयी। इस बीच हम शान्त रहे।
शाम होने वाली थी और मुझे लौटना भी था। हरियाणा की अनीता बम्बई में धंधा, बात पचने लायक नहीं थी। मैं जानना चाहता था कि वह हरियाणा में कहाँ से आई? मेरा अनुमान था कि वह बांग्ला देश की रहने वाली है। इस तरह के सवाल उसके अच्छे मूड को बिगाड़ सकते थे। मैंने इसी अच्छे मूड में इस अप्रत्याशित मिलन को समापन की तरफ ले जाने का मन बनाया।
“अनीता अब हमें चलना चाहिए। मुझे शाम के समय कुछ लोगों से मिलना है और अखबार के दफ्तर भी जाना है।” मैंने कहा।
“क्या मैं आगे भी आपसे मुलाक़ात हो सकेगी?” उसने पूछा।
देह के धंधे की सीढियाँ अपराध जगत तक जाती ही जाती हैं। उससे मैं आगे भी सम्बन्ध जारी नहीं रख सकता था। मेरे साहस और स्वतंत्रता की एक निश्चित सीमा थी।
“बताऊँगा, पहले ये बताओ कि तुम्हें पैसा कितना दूँ?” मैंने सवाल को टालते हुए पूछा।
“पैसे किस बात के? आपने तो कुछ किया नहीं।” उसने कहा।
“तुम्हारा वक्त बर्बाद किया। इस समय में तुम कुछ कमा सकती थी।” मैंने कहा।
“नहीं। मैंने आपका वक्त लिया।” उसने मजबूती से कहा।
वहाँ से हमलोग बांद्रा तक ऑटोरिक्शा में आए।
“मुझे मालूम है कि तुम्हारे पास महज बीस रुपए हैं, दोस्ती के नाते कुछ पैसे ले लो।” मैंने कहा
उसके ना-नुकर करने के बावजूद मैंने उसे कुछ रुपए दिए जो उस समय की मेरी माली हालत के हिसाब से बहुत थे। साथ ही उसका बस का टिकट और बीस का नोट भी लौटा दिया।
बांद्रा के रेलवे पुल पर मैंने उसे गले लगाया और कहा कि तुम्हें ग्राहक बहुत मिलेंगे अनीता, एक दोस्त मिला है, इस दोस्ती को सम्हालना।
उसने पूछा- “आपको फोन कर सकती हूँ, अब जबकि आप मुझे दोस्त मान रहे हैं?”
“कर सकती हो।” मैंने कहा और तेज कदम बांद्रा वेस्ट की तरफ बढ़ चला जहाँ से टैक्सी पकड़कर एक अभिनेत्री का इंटरव्यू लेने जाना था।
एक महीने बाद जब अनीता का फोन नहीं आया तो मैं उसे भूल गया।
……..
सर्व सेवा संघ परिसर,
राजघाट, वाराणसी,
पिन: 221001
मो. न.: 9936078029
कहानी पढ़ी…. कहानी में गति है…चौंकाती भी है… स्त्री का बिंदास पन आकर्षित करता है। जल्दबाजी है , कहानी में, लेकिन जायज़ जल्दबाजी है।
पढ़कर सोचता हूं क्या ये कहानी याद रहेगी??
शायद नहीं।
क्यों?
अब ये तो नहीं पता क्यों…
लिखने वाला, शायद बताए..