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रवित यादव की नई गद्य कविताएँ

आज पढ़िए युवा कवि रवित यादव की कविताएँ। रवित पेशे से वकील हैं और गद्य कविताओं में प्रयोग करते रहते हैं। आज उनकी कुछ नई गद्य कविताएँ पढ़िए-
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1- हम मिलेंगे दास्तानों के किसी दिलचस्प मोड़ पर।
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चार पेड़ों के बीच जैसे चार रस्सियाँ बंधी हों और बंधे हो उन रस्सियों से क्रमशः मेरे दोनों पैर और हाथ। जैसे हवाएँ तेज चलती हों, और फड़फड़ाता हूँ मैं उन रस्सियों से बंधा बंधा किसी धूप में सूखते कपड़े की तरह। ये रस्सियाँ प्रेम, परिवार, आकांक्षाओं और कमज़ोरियों की रस्सियाँ है। इन्हें आप काट नहीं सकते। इनसे मुक्ति के लिए आप ज्यादा जोर नहीं लगा सकते। इनमें बंधे बंधे ज्यादा फड़फड़ा नहीं सकते। बस आप लटके रह सकते हैं। धीरे धीरे इस तनाव से सामंजस्य बिठा सकते हैं। उस फड़फड़ाहट से स्थिरता प्राप्त करने में वक्त लगता है। और यही बीतता समय जैसे उसी आकाश में आपके सर पर मँडराती चील हो जैसे, भूखी चील। गवाएं समय का हिसाब माँगने पर तुली हुई। देह से टपकते खून का लालच अपनी आँखों मे लिए हुए। एक इन्तज़ार में। जान का शरीर छोड़ने के इन्तज़ार में। सिर्फ चील ही नहीं, ज़मीन के कौवे भी। कुछ नही छोड़ेंगे, सारा का सारा लील जाएंगे। इसी बीच एक रस्सी टूटती है। हवा और तेज बहने लगती है। सबसे पहले प्रेम जाता है। आपको इस बात का एहसास हो जाता है। प्रेम की रस्सी टूटती है। सूखते कपड़े की हालत और बिगड़ती है। हवा के साथ अब धूल भी चलती है। भीगी पलकें मेरी आँखें मलती हैं। मुझे प्रेम में पूरब जाना था, हवाएँ अब ये पश्चिम चलती हैं। सब चुपचाप घटा जाता है, जीवन है कि जोड़ जोड़ कर मरा जाता है। जैसे प्रेम कोई ईश्वर था। उस ईश्वर से एक आस थी। लगा था कि बचा लेगा। बचाने को आवाज़ भी लगाई। ईश्वर प्रकट हुआ भी लेकिन अपने मनुष्य रूप में आ गया। कहने लगा कि माफ़ी। हमारा इतना साथ ही था काफ़ी। इतने शोर में जब कोई भी ध्वनि सुनाई सुनाई नहीं पड़ती, उसके जाने की पगध्वनि घंटो तक कानों पर पड़ती। एक एक कदम की आहट हृदयतल तक। सब कुछ इतना शांत की जाते वक्त उसके चलने से पैरों से उछलते मेरे अरमानों के कंकड़ भी अपनी आवाज़ करते हैं। बस इन आवाज़ों के अपने शब्द नहीं होते। इनसे आप अपना अंत भी नहीं गढ़ सकते। अलविदा के गीत नहीं पढ़ सकते। हवा में यूँ लटके लटके आपके बस घाव ही सड़ सकते। खैर, हवा अब थोड़ी धीमी होती है, दर्द की चादर झीनी होती है, आँखें भीनी भीनी होती है। हम फिर मिलेंगे साथी दास्तानों के किसी दिलचस्प मोड़ पर, साँसे जो लेनी होती हैं।
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2- गलतियों का भूत (2)
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कोई चला गया,अपने साथ कुछ लिए बिना। सबको इस बात का पता चला, मुझको भी ये कुछ खला। रात भर अब दिल मनचला। मुझको एकांत तो मिल गया पर मन का अंतरतम हिल गया। अकेलेपन की अब लंबी कीचड़ भरी एक पगडंडी है, सांसारिकता छोड़कर मुझको भी चलने को कहती है। मैं जाना तो चाहता हूँ पर हाँ नहीं कह पाता हूँ। मुझको मेरी माँ की आँखें भी तो दिखती हैं। और भी दिखता है कुछ, कह नहीं सकता, न कहूँ तो कहे बिना रह भी नहीं सकता। अजब कशमकश है, सुबह के यथार्थ के आगे, रात के ये सपने बेबस हैं।मेरे हाथ में एक सिगरेट बचती है, तुम पियोगे ये आख़िरी कश है? नहीं यह सब झूठ नही यही मेरा सच है। रहता हूँ रात भर अपने कमरे के अहाते, मेरे साथ होते हो तुम, पर नजर नहीं आते। किस बात से घबराते? या बस मुझसे खुद को बचाते। अकेला हूँ धधकती अपनी धड़कनों के सामने, चाहो तो आ जाओ, सेंक लो अपने ठंडे पाँव आमने-सामने। कुछ बात भी इस बहाने हो जाएगी, आग बुझती है अब सीने की, कह दो कुछ वरना ये भी बुझ जाएगी। मुझे याद है मेरी कविताएँ कैसे तुम्हें ऊबा कर सुला दिया करती थी, बहुत देर से तुम कुछ बोली नहीं, मन घबरा रहा है, सब ठीक तो है? वह  बोली नहीं। मैंने उसको अब लिटा दिया है, चादर उसको उढ़ा दिया है, सर पैर बाहर निकलते हैं उसके, यादों का ये कफ़न छोटा पड़ता है। अर्थी की लकड़ियाँ गीली भले हो, जल ही जाती हैं जब घी पड़ता है। लकड़ियाँ अब जलकर ढहने लगी हैं, मेरे अंदर के जीव की काया राख बनकर हवा में बहने लगी हैं। जी ज़रा सा घुटता है, थूक गटकने में दिक्कत आती है, आकांक्षा की स्निग्धता जब उन्माद की पीड़ा बन जाती है। कौतूहल और संयोग के वो पहले कदम याद आते हैं, उस तरफ मुड़-मुड़ कर बार बार मत देखो, चुड़ैल के पैर उल्टे नज़र आते हैं। छोटे छोटे सुखों के ‘वे दिन’ लद गए अब, लाल टीन की छत पर तेहरवीं के दिन बिट्टी के ग़म के कपड़े सूखते नज़र आते हैं। हर रात एक दृष्टि खुलती है, मेरी चेतना मुझको पागल करती है, आंसू की हिचकी आती है, पानी के रास्ते कहीं खो जाती है। कोई तो है उस बरगद के नीचे मेरे, मुझे हर रात पुकारता है, एक हूक उठी थी मेरे सीने में, मेरी गलतियों का भूत मुझे मारता है। मेरी गलतियों का भूत मुझे मारता है।
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3- जब तक नहीं डूबता है, तैर रहे हैं। तैर रहे हैं जब तक पैर रहें है।
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लिखने के लिए जगह तालाश रहा हूँ। कोई भी जगह ठीक नहीं लगती। मन-सा भरने लगता है। लगता है कि बस हो गया। अब और नहीं। फिर कुछ पढ़ने वालों के लिए रुक भी जाना चाहता हूँ। खैर, बजती साँसों के बीच लेटा हूँ। पहले सोचा दूसरे कमरे में लेट जाऊँ फिर तसल्ली से लेटा रहा। धीरे धीरे आवाज़ सुनाई देना बंद हो गयी। कमरे की दीवारें जैसे जाग रही हों, हल्का-हल्का सा शोर करती हों, मुझसे बात करती हों, ऐसा कुछ। दूर वहीं रात के शोर में बजती सीटियाँ की जागते रहो आल इज़ वेल। कल रोग फ़िल्म देखने लगा। पहले एक रील में सीन आया सोचा अरे ये तो अपनी सी बात है। फ़िल्म देखी निराश हुआ। पूरी कहानियाँ वैसे भी कहाँ अच्छी हो पाती हैं। हमें तो बस अपना-अपना हिस्सा अच्छा लगता है। उसी के लिए देखते हैं। उतना देखने के लिए पूरे से होकर गुजरना पड़ता है वो अलग बात है। शब्द नही बन रहे। ऐसे एकदम गाढ़े की कह दूं तो बस सब रुक जाएँ। सोचने को मजबूर हो जाएं। एक सी बातें है, वही अकुलाहटें हैं। बातूनी दिमाग है, ज़बान की घबराहटें हैं। ऊब है, उदासी है, नींद को फाँसी है।
खिड़की के बाहर पेड़ है, लगता है मेरे सीने में उग रहा है, हर रात इंच-इंच बढ़ रहा है। कोई तो है जो कुछ गढ़ रहा है, जिसे कहीं कागज कम पड़ रहा है। एक दिन ये इस पेड़ की जड़ें मेरा सीना फाड़ के निकलेगी, और मैं उस जड़ से उसके उखड़ने के दर्द के बारे में पूछ-ताछ करूँगा। इस पेड़ के लिए मिट्टी हो जाऊँगा। मिट्टी होकर अपने पानी से मिल पाऊँगा, फिर से तब कहीं जाकर खिल पाऊँगा। इतनी संभावनाओं के बोझ तले फिर पत्तियाँ गिराऊँगा, फिर किसी डाल पर लटका लटका सूख जाऊंगा। यही होता रहेगा, इस दुनिया के खत्म होने तक। मैं खुद को बचाऊँगा। आख़िरी अलविदा से पहले कुछ गीत मिलन के गाऊँगा। मैं तेरा हो जाऊँगा। लेकिन उसके हो जाने भर से क्या सब ठीक हो जाएगा? क्या वापसी अब संभव है? मुश्किल लगता है। एक लंबे अवकाश के बाद आप ऑफिस जाने से कतराते है तो ये तो किसी की वापसी है। किसकी वापसी? वो जो कभी गया ही नही? कहाँ है वो? मेरे बस्ते में। किसी किताब के बीच। नहीं वो कोई फूल नहीं। तो फिर? उसको छुपाने की जगह कम हैं। इसलिए किताबों में। जानने वाले उन्हें नहीं पढ़ते। किताबों को। बस उन्हें साथ लेकर चलते हैं। मेरी किताब का एक पन्ना है, कुछ महीने पहले खुला था। बंद नहीं होता अब। जब भी पढ़ने बैठो वही से सब। अतीत में खुद को एक खास तरह से देखने की आदत के बाद, बदलते परिदृश्यों में उससे सामंजस्य न बिठा पाना इसी सब को कहते है। अभी कल रात उठा नींद में, पानी पीकर गैलरी से गुजरा तो शीशा दिखा तो चौंक गया। कौन है ये जिसका प्रतिबिम्ब बनता है इस दर्पण में अब, जब भी मैं इसके सामने जाता हूँ। जब भी अब इसके सामने जाता हूँ, खुद को पहचान नही पाता हूँ। ये मैं कैसा होता जाता हूँ। चेहरा बिगड़ता है, आवाज़ें शोर मचाती हैं, कान में कुछ फटता सा है। शीशे से कोई निकलता है। बात करता है पर बात नहीं हो पाती।
“अलगाव के बाद वो हर बार जब बात करने आई
अगली बार उतनी ही दूर होती गयी।
अगर आप अपने बिछड़े हुए को
अपने पास रखना चाहते हैं तो आप उससे दूर ही हो जायें।”
कुछ ऐसा समझ आता है। इस समझ से न जाने क्यों जी घबराता है। मन करता है शहर के उसी कोने में बस एक बार बैठ पाऊँ। वही जहाँ हम दोनों एक दूसरे का हाथ तब तक पकड़े रह गए थे जब तक कि हमारे हाथों का तापमान एक नहीं हो गया था।
शहर के उसी कोने में जहाँ बैठकर मैंने पहली बार तुम्हारे हाथों को अपने हाथ में लिया था, अब अपने हाथ मे अपना ही हाथ लेकर बैठता हूँ। नहीं मैं समय को दोष नही दे सकता, अपना दोषी मैं खुद हूँ, इस बात को मैं कबूलता हूँ। मैं कबूलता हूँ उस हर झूठ को, जो मैंने तुमसे बोले भले ही उनकी संख्या सिर्फ एक हो, लेकिन कबूलने से क्या होता है,अदालतें माफी के लिए नहीं, सज़ा के लिए बनी होती हैं, सो अब भुगतता हूँ, अपने हिस्से की कैद मैं, चुपचाप सश्रम, नहीं अब और नहीं होता मुझसे, ये कठोर परिश्रम।
ऐसे ही होता है, लिखना एक आवेग की तरह आता है। जैसे मैं भाग रहा हूँ। रुकते ही रेस खत्म हो जाएगी। बढ़ी हुई धड़कने सीने में होती हैं। धीरे धीरे धीरे सांस वापस आती है। ऐसा हमेशा नहीं होता बस आज ही हुआ। शायद एकदम डूब गया। अपने समुद्र के सबसे नीचे हिस्से में। जहाँ दाब ज्यादा और उजाला कम। खुशकिस्मती से इस जहाज का हिस्सा पानी मे नहीं डूबता है। जब तक नहीं डूबता है, तैर रहे हैं। तैर रहे है जब तक पैर रहें है। एक दिन थक जाएंगे और कमर से बंदूक निकालकर हवा में चला देंगे, तुम आसमान में रहने वालों अगर किसी को कोई धुँआ दिखे तो समझ जाना यहाँ पानी में है किसी को बचाना। निर्मल कहते हैं कि उदास शब्द उदासी की जगह नहीं ले सकता। मैं खुद को उस जगह में रख रहा हूँ जहाँ उस शब्द की जगह नहीं। नहीं मैं शब्द नही हूँ। देह हूँ पूरी की पूरी आत्मा सहित।
 
      

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One comment

  1. Aparna Bhatnagar

    अच्छी कविताएँ, रवित जी

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