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उम्र भर जिनको अक़ीदों ने लड़ाए रक्खा

आज ईद के मौक़े पर पढ़िए जनाब सुहैब अहमद फ़ारूक़ी का यह लेख। सभी को ईद मुबारक-

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वस्बिर फ़इन्नल्लाह ला युदीउ ‘अज्र अलमुहसिनीन।

हज़रात! उपरोक्त क़ुर’सानी आयत का हिन्दुस्तानी में तर्जुमा इस प्रकार है:-

‘….और धीरज रखो! क्यूंकि ईश्वर भलाई करने वालों का इनआम बेकार नहीं होने देता।’

इस आयत में दो शब्द आये हैं जिन्हें आपके साथ डिस्कस करना चाहता हूँ।

‘सब्र’ और ‘मुहसिनीन’।

सब्र का अर्थ समझने-समझाने की ज़रुरत नहीं है। हम मीडियम क्लास के लोग पैदा होने के बाद ही से सब्र करने और करवाने के साथ ही बड़े होते हैं।

मुहसिनीन मूल शब्द मुहसिन, जिसका मतलब परोपकारी हुआ, का बहुवचन है।

व्याख्या: पहले, सब्र की करते हैं। सब्र से मुराद (अपने को) बाँधना है, पिन-डाउन करना है। शरारती मानवीय स्वभाव को परीक्षा की घड़ी में अच्छे और बुरे की तमीज़ करते हुए ख़ुद को स्थिर और अटूट रखने की कोशिश करना और साथ ही बुरे कामों में शामिल होने से रोकने और उनसे बचने की कोशिश करना ही सब्र है।

मुहसिनीन या’नी भले/परोपकारी बन्दे, से मुराद वे लोग हैं, जो ‘धर्म’ द्वारा निर्धारित गई मर्यादाओं का पालन करते हैं। ईश्वर की पाबन्दी के साथ स्तुति करते हैं। साथ ही ‘धर्म’ ने जिन बुराइयों को करने से रोका हुआ है उनसे अडिग रहते हुए ख़ुद को दूर रखते हैं।

विवेचना: धर्म को मैंने इन्वर्टेड कॉमाज़ में यूं रखा है कि मेरे विचार से ‘धर्म’ सार्वभौमिक व सर्वकालिक एंटिटी है। कह सकते हैं कि धर्म व्यक्तिगत आचरण को नियंत्रित करने वाला वह नैतिक कानून है जो मानव-जीवन को पैदा होने से लेकर मरने तक के तरीक़े बताता है। स्थान/काल/क्षेत्र के अनुसार इस ‘धर्म’ को अलग-अलग नाम दे दिया जाता है। मूल एक ही है , ईश्वर एक ही है। आदि से पहले भी एक ही ख़ुदा के बन्दे और मरने के बाद भी उसी एक रब्ब के। बस इस आदि से उस अंत तक पहुँचने का झगड़ा ही अधर्म है जो एक ही खुदा के बन्दों को अलग-अलग रखता है।

राजेश रेड्डी साहब फ़रमाते हैं :-

उम्र भर जिनको अक़ीदों ने लड़ाए रक्खा
बाद मरने के वो सब एक ही रब के निकले।

ईद के इस पवित्र त्यौहार की आप सब लोगों को बहुत बहुत मुबारकबाद। मगर, इस मुबारकबाद के मुसतहिक़ वो ‘ साबिर’ लोग हैं जिन्होंने, ग्यारह महीनों के इंतज़ार के बाद पूरा एक महीना रोज़ा रखकर, इबादतें कर, सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़ुदा को राज़ी करने के लिए मुजाहिदे में गुज़ारा है। इन सब्र करने वाले लोगों ने, हर प्रकार के भौतिक-विलास साधन संपन्न होने के बावजूद भी सर्व शक्तिमान ईश्वर की इच्छा मानते हुए उन साधनों के भोग से परहेज़ करते हुए और उन साधनों से वंचित उसी ईश्वर के अन्य प्राणियों की वंचना का दर्द ‘फ़ील’ करते हुए उनके लिए ‘कुछ’ करने के उद्देश्य से रमज़ान का पूरा महीना गुज़ारा है। ‘कुछ’ से मेरा तात्पर्य ज़कात, सदक़ा, ख़ैरात और फ़ित्रा से है।

हज़रात! मैंने पहले भी कहा था, मतलब लिखा था कि पैदा होना आपके अख्तियार में नहीं होता। आपके पैदा होते ही आप पर किसी एक उत्पादक जाति और धर्म विशेष का कॉपीराईट हो जाता है और जीवन भर आप उस जाति और धर्म विशेष की रोयल्टी चुकाते रहते हैं। यदि आपकी जाति और आपका धर्म आपके निवास करने वाले देश-काल में सुदृढ़ हैसियत में है तो आप अपने जाति और धर्म को एन्जॉय करते हैं अन्यथा विरोध के लिए विरोध करना आपकी नियति हो जाता है। लेकिन, चलो पैदा होना तो आपके अख्तियार में नहीं था मगर पैदा होने के बाद पलना और बढ़ना आपके नियंतरण में हैं। मेरा संकेत बच्चों के लालन-पालन से है कि आप अपने उत्पाद को दूसरों के संस्तुत नफ़रत और वैमनस्य के खाद-पानी से क्यूँ सिंचित करें मतलब अपने आप विवेक शील होने का परिचय देते हुए प्रेम से उन्हें पोषित करें। कहने का मतलब यह है कि अपने बच्चों को दूसरों के जाति और धर्म के बारे में प्रेम न भी करना मत बतलाओं मगर कम से कम नफ़रत करना भी तो मत सिखलाओ। प्रेम और नफ़रत दोनों आपके अंदर से उपजती हैं व ये दोनों ही आपकी उपज के चेहरों पर दूर से दिखलाई पड़ती हैं। फिर भी नफ़रत करना अगर क़तई ज़रूरी हो जाए तो कम से कम उसे निजी तौर पे ही निभाएं। मतलब किसी ने आपका निजी तौर पे ही कुछ बिगाड़ा हो तो आप उसका निजी तौर पे ही कुछ बिगाड़ें। किसी के बहकावे में आकर नफ़रत को सामान्य करना आपकी असामान्य परवरिश का द्योतक है। आपको डायलासिस की तुरंत ज़रुरत है। आप अनजाने में किसी दूसरे का काम फ़्री में कर रहे हैं। हाँ पैसे मिल रहे हों तो अलग बात है।

उपसंहार: इस लम्बी विवेचना का उद्देश्य ‘सब्र’ और परोपकारियों का बखान करना था जो कि भली भाँति हो चुका है। भलाई करने वाले लोग प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सब्र का दामन नहीं छोड़ते क्यूंकि सर्वशक्तिमान ईश्वर का वादा है कि उनकी भलाइयों का प्रतिफल उन्हें ज़रूर मिलेगा। अतएव भाइयों और बहनों! आइये सभी लोग खुशियों का यह त्यौहार मिल-जुल कर मनाएं क्यूंकि बक़ौल सरशार सैलानी-

चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है
हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम्ही तुम हो तो क्या तुम हो

दुआओं में रखिएगा !

 
      

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2 comments

  1. Güzel aydınlatıcı makale için teşekkürler daha iyisi samda kayısı umarım faydalı çalışmalarınızın devamı gelir.

  2. बेहतरीन, शुक्रिया

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