हाल में ही इरशाद खान सिकंदर का नाटक आया है ‘जौन एलिया का जिन’। राजपाल एंड संज से प्रकाशित इस नाटक की विस्तृत समीक्षा लिखी है राजशेखर त्रिपाठी ने। आप भी पढ़िए-
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मैं जो हूं जॉन एलिया हूं जनाब
इसका बेहद लिहाज़ कीजिएगा
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मुझसे मिलने को आप आए हैं ?
बैठिए मैं बुलाकर लाता हूं
…ये दोनों अशआर क़रीब रखिए और तसव्वुर कीजिए, आप जॉन एलिया से मुलाक़ात के ख़्वाहिशमंद हैं और जॉन एलिया ही जॉन एलिया को आपसे मिलवाने बुलाकर लाते हैं। इरशाद ख़ान सिकंदर का ड्रामा ‘जॉन एलिया का जिन’ एक ऐसी ही तखलीक, ऐसा ही शाहकार है। सिकंदर इस ड्रामे में जॉन को उसकी कब्र से जगा लाते हैं। एलिया के सेंट्रल कैरेक्टर के बरअक्स एक काउंटर कैरेक्टर एलिया का जिन खड़ा करते हैं ; और ड्रामे में एलिया के पूरे किरदार को भीतर से बाहर तक नक़्श कर डालते हैं। मशहूर ड्रामासाज रंजीत कपूर की हिदायतकारी में इस ड्रामे को देखना और फिर पढ़ना – जॉन एलिया को समझने की उलझने सुलझती हैं। ड्रामे में जॉन के वो तमाम मक़बूल अशआर हैं जो मद्दाह की जबान पर हैं। गर्ज ये कि बाज़ दफा ये अशआर ही डायलॉग्स की शक़्ल अख़्तियार कर लेते हैं।
मुस्तक़िल बोलता ही रहता हूं
कितना खामोश हूं मैं अंदर से
जॉन एलिया हयात होते तो 92 साल के होते, मगर क्या ग़जब है कि फ़ौत होने के 21 साल बाद आज वो मिलेनियल्स के महबूब शायर हैं। जेन-ज़ेड की ज़बान पर चढ़े शायर हैं। सच तो ये है कि उनका वक़्त उनकी वफ़ात के दो दशक बाद आया है। जॉन इंसानियत में आस्था और अक़ीदे के अंत से बेचैन हैं। बेमौत मरते जज़बात और बढ़ती बेहिसी से बेचैन हैं। जॉन के अशआर इस बेचैनी को आसान ज़बान में बयान करते हैं। सबसे बड़ी बात जॉन भरे मुशायरे में भी सामयीन से वन टू वन गुफ़्तगू करते हैं। यूनिवर्सिटीज़ की नई पौध इतिहास और विचार के अंत की पौध है। वो केवल भेजे के शोर से नहीं दिल की ख़लबली के साथ भी अकेली है। जॉन उसके सोज़ को अपने खुरदुरे सुर से राहत देते हैं।
तुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझे
मेरी तन्हाई में ख़्वाबों के सिवा कुछ भी नहीं
मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें
मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं
जॉन अपने अशआर में बात करता शायर है। उसकी बातों का ग्लोब बहुत बड़ा नहीं है, उसके जज़बातों की गहराई बड़ी है। ज़ॉन इसी सिलसिले में बार-बार ख़ून थूकने का जुमला इस्तेमाल करते हैं। सोशल मीडिया और यू ट्यूब की मार्फ़त जॉन के शेरों से नौजवानों की वाक़फि़यत खूब बढ़ी, उसके बाद जो कसर थी उसे इरशाद सिकंदर ने अपने ड्रामे से पुर करने की बेहतरीन कोशिश की है। किसी रचनाकार की ज़िन्दगी का इससे बेहतरीन ड्रामा और क्या हो सकता है कि उसे, उसी की रचनाओं की मार्फ़त बयान किया जाए।
एक ही हादिसा तो है और वो यो कि आज तक
बात नहीं कही गयी बात नहीं सुनी गयी
उसकी उम्मीदे नाज़ का हमसे ये मान था कि आप
उम्र गुज़ार दीजिए उम्र गुज़ार दी गयी
इस डेढ़-पौने दो घंटे के ड्रामे में सिकंदर ने जॉन की ज़िन्दगी के तमाम नुमायां-गैरनुमायां पहलुओं की पड़ताल की है। इन्हीं पहलुओं से उनकी शेरी शख्स़ियत खड़ी होती है। इन्हीं से पता चलता है कि जॉन का शायर इस क़दर ख़ुरदुरा क्यों है, और हर वक्त ख़ून क्यों थूकता रहता है। इस क़दर चिड़चिड़ा और ख़फ़ा क्यों रहता है।
क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में
जो भी ख़ुश है हम उसी से जलते हैं
जॉन आज़ादी और विभाजन के 9 साल बाद यूपी का अमरोहा छोड़कर पाकिस्तान गए। मगर जाते- जाते अमरोहा की एक कलम अपने दिल के गमले में साथ ले गए। ताज़िंदगी उनसे न ये अमरोहा छूटा न वो अमरोहे से अलग हुए। अपना आबाई वतन छूटने की ये कसक उनके भीतर मरते दम तक मौजूद रही। मगर इसकी अभिव्यक्ति भी उनके यहां अकेलेपन और तनहा पड़ जाने के दर्द में होती है। वो इसको शायरी में आदमी और आदमी के बीच के रिश्ते की शक़्ल में ही बयान कर पाते हैं। आख़िर तो हिन्दुस्तान छोड़ने का फ़ैसला उनका अपना ही था।
अंजुमन की उदास आंखों से
आंसुओं का पयाम कह देना
मुझको पहुंचा के लौ़टने वालों
सबको मेरा सलाम कह देना
जज़बात ही जॉन के यहां दर्द भी हैं और दवा भी। इस दर्द और दवा के बीच से ही वो शक़ का स्थायी भाव पैदा हुआ, जिस नज़र से वो बाद में हर रिश्ते को परखने लगे। ड्रामे में इस्तेमाल किए गए उनके अशआर बार-बार इसका अहसास कराते हैं।
गर्मजोशी और इस कदर, क्या बात
क्या तुम्हें मुझसे कोई शिकायत है?
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बहुत नजदीक आते जा रहे हो
बिछड़ने का इरादा कर लिया क्या ?
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इरशाद खान सिकंदर के ड्रामे के तीन पहलू हैं जिन्हें वो ख़ानदानी जिन जालिमीन के हवाले से टटोलते हैं। पहली तो शख्स़ियत की वो उपरी सतह है। जो बहुत नुमायां है।
मैं भी बहुत अजीब हूँ इतना अजीब हूँ कि बस
ख़ुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं
फिर उसके बाद बारी आती है ग़ालिब और मीर जैसे क्लासिक शायरों से जॉन के एनकाउंटर की, जिसमें मंटो भी शामिल हो जाते हैं। बीच-बीच में जिन की तंज़ो-मिज़ाह का तड़का भी लगता है। इसी मंज़र में उस तनक़ीदी फ़िक़रे का भी ज़िक्र आता है जिसमें जॉन ने ग़ालिब को महज 25 शेरों का शायर कहा था। ग़ालिब के सामने ही धर लिए गए जॉन झल्ला कर मंटो और जिन से कहते हैं- “कहने को तो मैं खुद को यूनानी शाहज़ादा भी बताता आया हूं, तो क्या मैं हो गया ? ” हालांकि इसी ड्रामे की शुरुआत में जॉन ये भी कहते हैं कि “ग़ालिब है तो 25 शेरों का ही शायर मगर वो 25 शेर बाक़माल हैं…बेमिसाल हैं”। इस चैप्टर से शायर जॉन एलिया के ‘पोएटिक कनफ्लिक्ट’ को भी समझने में मदद मिलती है। मगर इस चैप्टर में मंटों अपने बागी तेवर के साथ सब पर भारी है। क्या ही अच्छा होता कि अदीबों का ये एनकाउंटर सिर्फ जॉन और मंटो के बीच होता। दोनों में बहुत कुछ कॉमन है- मसलन पाकिस्तान में अपनी जड़ों से उखड़े, दोनों ही अपने वक़्त की बेवफ़ाई से ख़फ़ा, ज़माने की रुसवाई से ख़फ़ा। हालांकि मंटो ने अपने अफ़सानों में उस ज़माने को बयान किया जो नाक़ाबिले बर्दाश्त था, जबकि जॉन अपनी शायरी में उस ज़माने का दिया दर्द बयान कर रहे थे, जो उन्हें बर्दाश्त करने को तैयार नहीं था। ये दोनों के कैरेक्टर का कंट्रास्ट है जो ‘मंटो बरक्स जॉन’ और तीख़ा हो सकता था।
शरीक़े हयात ज़ाहिदा हिना से जॉन के अलगाव का ज़िक्र निकलता है तो ख़ुद कलामी के साथ यहां आके टिकता है –
तेरा फिराक़ जाने जां ऐश था क्या मेरे लिए ?
यानी तेरे फिराक़ में खूब शराब पी गयी…
और छाती पीट-पीट कर रोते हैं-
ये मुझे चैन क्यों नहीं पड़ता/ एक ही शख़्स था जहान में क्या ?
मंटो की फर्माइश पर नींद और नशे की हालत में जॉन रूमान की गहराइयों से ये अशआर भी पढ़ते हैं।
शर्म, दहशत, झिझक, परेशानी
नाज से काम क्यों नहीं लेती
आप, तुम, मगर, जी ये सब क्या है
तुम मेरा नाम क्यों नहीं लेती
जॉन की निजी ज़िन्दगी भी ड्रामे का एक बड़ा डायमेंशन है। मां, भाई, भाभी और भतीजी। औरतें जॉन के यहां बहुत बड़ी जगह घेरती हैं, चाहे वो जिस दर्ज़े में हों, जिस रिश्ते में हों। ड्रामे से पता चलता है कि वो औरतों के गुम नाम से अफ़साने भी लिखा करते थे।
बहरहाल औरत का दर्द, दहशत, झिझक, परेशानी जॉन की शायराना ज़िल्द का ‘इनर लेवल’ है। ड्रामे में उनके क़ातिलों की गिनती भी रक़्कासा करती है-
“जॉन के क़ातिल हैं तनहाई और बेवफ़ाई…जॉन के क़ातिल हैं इल्मी बौने। जॉन एलिया की क़ातिल है तहज़ीब…रिवायत। जॉन एलिया के क़ातिल हैं उनके अपने ख़ून के रिश्ते। जॉन एलिया के क़ातिल हैं ख़ुद जॉन एलिया…”

पंजाबी के क्लासिक कवि शिव बटालवी ने एक इंटरव्यू में कहा था- “हम स्लो सुसाइड करते….पल-पल मरते हुए लोग हैं”। जॉन भी उसी हताश काफिले के शायर हैं मगर रूमानियत का दामन नहीं छोड़ते।
कितनी दिलकश हो तुम/ कितना दिल-जू हूं मैं
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे
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