1970-1980 के दशक में आलमशाह खान की कहानियों की धूम थी। उस समय की लोकप्रिय पत्रिका ‘सारिका’ में उनकी एक कहानी छपी थी ‘किराए की कोख’ जिसको लेकर बहुत हंगामा हुआ था। 17 मई को उनकी स्मृति में उदयपुर में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। उसी की एक रपट पढ़िए-
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उदयपुर 17 मई। ‘अपने लोगों की स्मृतियों को बचाना आवश्यक कार्य है क्योंकि इससे न केवल हम अपनी परंपरा को सुरक्षित रख पाते हैं बल्कि हमें आगे सही रास्ता खोजने में भी मदद मिलती है। राजनेता जहां जनता से शक्ति लेते हैं वहीं लेखक जनता को शक्ति प्रदान करते हैं।’ हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार प्रो असग़र वजाहत ने आलमशाह खान की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम में कहा कि खान की कहानियां खुले अंत वाली होती हैं जो पाठकों को मजबूत बनाती हैं। उन्होंने खान की प्रतिनिधि कहानियों की चर्चा करते हुए बताया कि अपने खास अंदाज के कारण वे अविस्मरणीय हैं। वजाहत ने इस अवसर पर आलमशाह खान पर केंद्रित एक वेबसाइट का लोकार्पण भी किया।
सूचना केंद्र सभागार में यह कार्यक्रम राजस्थान साहित्य अकादमी तथा आलम शाह खान यादगार समिति के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित हुआ। उद्घाटन सत्र में व्यंग्यकार फारुक आफरीदी ने कहा कि डॉ आलम शाह खान समाज के गरीब, पिछड़े, मजदूर और महिला वर्ग की चिंताओं और तकलीफों के चितेरे कथाकार थे। डॉ खान ने मानव अधिकारों के हनन को लेकर अपनी कहानियाँ लिखी और मजलूम, बेजूबान और हाशिये के समाज के पक्ष में खड़े होने का साहस दिखाया।
लेखक प्रबोध कुमार गोविल ने कहा कि डॉ आलम शाह खान का नाम उनके लिए आकर्षण था, शाह साहब की कई कहानियाँ पढ़ी, उनकी कहानियों पर मजबूत पकड़ थ, उनके साहित्य पर लमबे समय पर चर्चा होती रहेगी। गोविल ने कहा कि अभी उनका उजाला और घना करने की जरूरत है, आंचलिक-जीवन पर उनकी गहरी पकड़ एक धरोहर है, उन्हें अपने जीवन में विभिन्न स्तरों पर लड़ाई लड़नी पड़ी, उनके अद्भुत लेखन के प्रति वे नतमस्तक हैं।
मंच से वरिष्ठ साहित्यकार गोविंद माथुर ने कहा कि राजस्थान के लेखकों में शाह की चर्चा अधिक नहीं हुई, डॉ आलम शाह खान सर्वहारा वर्ग की कहानियाँ लिखते थे, उनकी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए हमें कोशिश करनी चाहिए एवं साहित्य अकादमी और अन्य संस्थाओं को भी आगे आना चाहिए। जाने माने लेखक डॉ सत्यनारायण व्यास ने कहा कि फासीवादी लोग पाखंड के बाल पर सत्ता में या जाते हैं, डॉ आलम शाह खान की आज भी जरूरत है, उनका कबीराना अंदाज गजब का था, वे स्पष्टवादी एवं निर्भीकता के प्रतीक थे। उनके चरित्र में दोहरापन नहीं था, वे विद्रोही प्रवृति के लेखक थे, कबीर की तरह विद्रोही प्रवृति के थे, उनकी कहानियाँ मनोरंजन के लिए नहीं थी, जीवन के अस्तित्व का संघर्ष उनकी कहानियों में झलकता था।
ऊर्दू अफसानानिगार डॉ सरवत खान ने कहा कि शाह की कहानियाँ आने वाली पीढ़ियाँ पढ़ेंगी और हमेशा प्रासांगिक रहेंगी, हम सभी को मिल कर शाह पर और अधिक काम करना है। किशन दाधिच ने कहा कि शाह पर संस्मरणों की किताब आनी चाहिए, वे खुद्दारी के सिपाहसलार थे, उनकी भाषा अपने समय और परिवेश की भाषा है, समय के दुख को निकटता से देखते थे, उनकी कहानियों में समाज का दुख झलकता था।
दूसरे सत्र में खान के शिष्य और वरिष्ठ आलोचक प्रो माधव हाड़ा ने वंश भास्कर और वचनिकाओं पर लिखी उनकी शोध -आलोचना की चर्चा की। प्रो हाड़ा ने कहा कि पुराने साहित्य में खान साहब की रुचि गति अद्भुत और अनुकरणीय थी। इस सत्र में दिल्ली से आए युवा आलोचक पल्लव ने समांतर कहानी आंदोलन की चर्चा करते हुए उसमें खान की कहानियों की विशिष्टता को रेखांकित किया।
तृतीय सत्र की अध्यक्षता राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डॉ दुलाराम सहारण ने की। उन्होंने कहा कि अकादमी राजस्थान के पुरोधाओं के सम्मान में कार्यक्रम आयोजित करेगी। उन्होंने घोषणा की कि राजस्थान साहित्य अकादमी अगले वर्ष प्रोफेसर आलम शाह खान के सम्मान में दो दिवसीय आयोजन करेगी। सत्र के मुख्य वक्ता भारतीय लोक कला मंडल के निदेशक डॉक्टर लईक हुसैन ने डा. आलमशाह ख़ान की चर्चित कहानी मौत का मज़हब की प्रस्तुति के विविध पक्षों की चर्चा की तथा कहा कि डा. ख़ान की चर्चित कहानियों में जिन मानवीय मूल्यो का चित्रण है उन्हें जन जन तक पहुंचाना आवश्यक है। इस सत्र में युवा रंगकर्मी सुनील टाक में प्रोफेसर आलम शाह खान की कहानियों के नाट्य रूपांतरण एवं लघु फिल्म निर्माण की संभावनाओं की चर्चा की। इस सत्र का संचालन प्रोफेसर हेमेंद्र चंडालिया ने किया। सत्र के अंत में डाक्टर तबस्सुम खान एवं समिति अध्यक्ष आबिद अदीब ने धन्यवाद ज्ञापित किया। भारतीय लोक कला मंडल में कविराज लाइक हुसैन के निर्देशन में आलम शाह खान की कहानी ‘मौत का मजहब’ का मंचन लोक कला मंडल के खुले प्रांगण में हुआ।
तराना परवीन
आलमशाह खान यादगार समिति
उदयपुर
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