आज पढ़िए चर्चित युवा कवयित्री अनामिका अनु के कविता संग्रह ‘इंजीकरी’ पर यतीश कुमार की यह टिप्पणी। और हां, इस बार अर्से बाद उन्होंने पद्य में नहीं गद्य में लिखा है-
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कुछ रचनाएँ ऐसी होती हैं जो विषय विविधता के साथ शब्दों की कोमलता व अर्थ का विराट और समुचित संतुलन बनाए रखते हैं। ‘इंजीकरी’ कविता संग्रह इसी कड़ी का एक बेहतरीन उदाहरण है। इस संग्रह के भीतर जीवन के हरेक रंग समाहित हैं। हरापन और लाल के साथ पीला भी बचा है। कवि पीले रंग को देखते हुए पत्तियों का तने को सहलाना निहारता है। ऐसे स्मृति स्पर्श कविता के लिए एक सेतु का काम करता है। कवि बहुत कुछ सुंदर सृजन करने की कोशिश करता है। यहाँ विस्मृतियाँ भी उतनी ही वास्तविक और सार्थक हैं जो भीतरी भटकन को उकसा देती हैं, स्वयं की तलाश के लिए उद्दीपन का काम करती है। अन्जाने क्षितिज में भी परिचय का बोध होने लगता है।
अनामिका अनु की कविताओं में दक्षिण का अपना एक खास तीक्ष्ण स्वाद है और उन शब्दों के बीच दालचीनी की ख़ुशबू बिखरी है। विलक्षण स्थानीयता के साथ प्रश्नाकुलता, समाज और आसपास को कविता में समेटने की कला को लिए यह कवि अपने आकाश के साथ आँगन भी तैयार कर रही है। ऐसा करते हुए बखूबी अपनी कविताओं के साथ न्याय करती नज़र आती हैं। विज्ञान की पृष्ठभूमि से जुड़ा होना रह-रह कर कविता में तार्किक उपयुक्तता के साथ उभरता है और भौतिकता के दर्शन को अध्यात्म के साथ आत्मसात करता है। ऐसा अक्सर पाया गया है जब दर्शन और विज्ञान साथ मिलकर काव्य रचते हैं तो जीवन की अनुभूतियों को नए आयाम देते हैं। । अपनी नई भाषा से और बेहतर सुसज्जित करते हैं। `आत्मा शरीर का नाभिक है’ कविता में नाभिकीय सिद्धांत की बात हो या ‘मेरे साँची स्तूप’ में लिखे ‘रेडियोएक्टिव हूँ मेरे केंद्र से निकलती हैं अल्फ़ा किरणें और भेदती हैं तुमको’ इन सारी पंक्तियों में विज्ञान प्रेम और दर्शन का समुचित मिश्रण है। मिट्टी होने का सलीका और विलीन होने का शऊर देती कविताएँ सच में रेडियो टेलीस्कोप पर सुपर मून उतरते देखती है। ऐसी भाषा ऐसा शिल्प बिना विज्ञान और दर्शन के सुंदर योग के संभव नहीं और यहाँ तो प्रेम भी मिश्रित है इन पंक्तियों में चार चाँद लगाने को !यह कविता पूरे संग्रह का केंद्र बिंदु है गद्य होकर काव्य के चरम पर अपनी अनुगूँज छोड़ना एक विरल कला है ।
‘मेरे साँची स्तूप’, ‘तुम थोड़ा झुक जाओ न’ कविता को पढ़कर अभिभूत हुआ। बजने के स्पर्श की अनिवार्यता को अदृश्य हवा भी झुठला नहीं पाती, फिर भी निर्वात क्यों बजता है?’ और ऐसा पढ़ते हुए कवि मैं तुम्हारे जादू से बच नहीं पाता। ‘आत्मा शरीर का नाभिक है’ कविता अपना अलग आकाश लिए है जिसमें दुनिया भर के वैज्ञानिक सिद्धांत जीवन के पहलुओं से बतिया रहे हैं । बहुत बड़ा रिक्त और उसमें छोटी सी आत्मा को नाभिकीय सिद्धांत से जोड़ना आपको अचरज में डाल देगा तो वहीं क्रोध और ताप का प्रेम से टकराना और फिर न रुकना और सहज भाव से कहना जूल का नियम और जूली का एक ही तो है, अलग ही शिल्प में गढ़ी गई कविताई है। मनोबल के साथ संवेग की दर न्यूटन के दूसरे नियम की की याद दिलाती है और इन सबसे इतर शून्य तक पहुँचने के सफ़र में थर्मोडायनेमिक्स फिजिक्स ही नहीं मेटाफिजिक्स भी है । शून्य में क्या कॉस्मिक ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं इस कविता का कौतूहल मुझसे बातें करता है और मैं अपनी भाषा में आइंस्टाइन और खोये हुए एडविन और विल्सन से बातें करने निकल पड़ता हूँ ।
अनामिका अनु जब ‘शून्य कर दोगे’ लिखती हैं तो मुझे वहाँ शून्य मिटाया हुआ दिखता है। दिखती है तो केवल उसकी छाप । पेड़ प्रेम का द्योतक है और उसी पेड़ की छाया को पेड़ की कविता मानने वाली अनामिका लिखती हैं:
तुमने पाप मिट्टी की भाषा में किए
मैंने बीज के कणों में माफ़ी दी।
यहाँ कविता अपनी धार अलग कर लेती है और अंत में दुख के दौरान क्षमा और पाप दोनों को समाने की शक्ति को दर्शाती है।` माँ अकेली रह गयी’ बटन का रूपक लिए यह कविता कितनी मार्मिक है l इसे पढ़ते हुए मुझे अपनी कविता “माँ की सहेलियाँ” याद आ गयी । सोचता हूँ कवियों की संवेदनाओं के तार कैसे एक दूसरे से जुड़े होते हैं । माँ के एकाकीपन को शब्दों में समेटना कितना मुश्किल है जिसे अनामिका ने बटन के बहाने अद्भुत सरलता से रच डाला है।
प्रेम की स्मृतियाँ
कहानी होती हैं
पर जब वे आँखों से टपकती हैं
तो छंद हो जाती हैं ।
मेरे लिए यह कविता यहीं पर ख़त्म हो गई और मन किया कि यहीं पर थोड़ी देर ठहर जाऊँ । छंद होना किसे अच्छा नहीं लगता पर कविता सिर्फ़ अच्छा लगना नहीं होता ।इस कविता में आगे पढ़ते हुए हम तारीख़ें भूल जाते हैं समय को भुला देना दर्द को भुला देना भी होता है । कविता अगर दर्द भुला दे तो अपना जादू चला जाने में सफल हो जाती है । अनामिका अनु की ऐसी कोशिशें रह- रह कर अचंभित करती है, संभावना जगाती है ।
कविता में आप अपना आईना देख लेते हैं तो और जुड़ जाते हैं। `वे बच्चे’ कविता पढ़ते हुए मैं खुद को अधिक महसूस कर पा रहा रहा था जीवन की कई असफलताएं याद दिलाती हुई कविता ने उकेरा कि असफल होना विफलता नहीं होती । यह कविता हर उस चित्रकार, कवि , नाटककार , कलाकार, मार्क जुकरबर्ग या स्टीव की है जिसने दुनिया जीतने से पहले ख़ुद को खोया और दुनिया की नज़रों में पहले फेल हुए और फिर पूरा सूरज निगल गए।
पेरियार को इंगित करते हुए लिखी कविता `तथाकथित प्रेम’ अपने शिल्प से अचंभित कर गया। कविता का उद्देश्य सिर्फ़ स्पार्क पैदा करना नहीं बल्कि स्पार्क से शमा जलाना है जिसकी रोशनी उजियारा फैला दे और कविता याद रह जाए । यह कविता मुझे याद रह गई और याद रह गया प्रेम का जलता लौ जिसे बुझाने के लिए समाज की दूषित आँधी उम्र के अंतर के दरम्यान को अपना ढाल बनाती है और सारी ताक़त उस लौ को बुझाने में लगा देती है पर जादू देखिए कि प्रेम का लौ बुझाए न बुझ रहा कविता की बाती से निरंतर आज भी जल रहा है। यहाँ आँखें चिड़िया हो जाना चाहती हैं और कविता का जादू है कि वीणा के तार से राग मल्हार का सुर मिला रही है ।
कविता का एक सूत्र और है जो मुझे बरबस चौंकाता है। वह बहुत धीरे- धीरे अपने विराट स्वरूप लिए पाठक के सामने खुलती है । झटके से खुले तो मटके सा टूट जाए। `टिकुला’ ऐसी ही कविता है बिल्कुल किसी फूल की तरह जिसे खिलते हुए महसूस किया जा सकता है पर देखा नहीं जा सकता और फिर कविता अंत में अपने काँटे दिखाती हैं । समाज के कड़वा सच का दरद जो कि जोड़े टिकुली के जमीन में गाड़ देने से बिफर पड़ता है। इस कविता के कवित्व में यह और मार्मिक दिखता है । इस कविता में कवि ने बात हौले से ज़रूर कही है पर सच को उजागर करते हुए अंत में पूरी चादर को तान दिया है। वो जो राख से चिंगारी बन जन्म लेती है, वो जिसे फिसलन नहीं भाता जिसके लिए रास्ते ख़ुद खुरदरे हो जाते हैं, जिसे परम्परा के ऊपर से निकल जाना है और जो लिखतीं हैं –
पुण्य! कमाने से नहीं
ख़ुद को सही जगह पर खर्च करने से होता है
वे रेत के स्तूप नहीं बनातीं
क्यूँकि ये स्वयं दुर्ग होती हैं।
‘इंजीकरी’ का अर्थ हुआ अदरक की करी, पर इस काव्य संग्रह में अवियल का गंध भी है । वह बनाना चाहती है सोयाबीन बड़ी पर उसे मिलता है थुकपा पहक चटनी के साथ। कभी वो अथिरापल्ली वाली हंसी तो कभी रसम से नख़रे की बात करती हैं।कहती हैं भात से अधिक कुछ भी नहीं चाहिए पेट भरने के लिए, बाक़ी सब चीजें आडम्बर हैं।
साधारण शब्दों से असाधारण बात की जाए तो कविता का आस्वाद दोगुना हो जाता है । लड़की कलेक्टर बनने के बाद भी अपनी ज़रूरतों को परे रख संतोष का दीपक जलाना सीखा रही है और संतोष शिक्षा का दीप जला रहा है। ईश्वर करे यह सिलसिला चलता रहे। इतना ही नहीं गाँव-देस फिर देश और फिर विश्व इतिहास के विभिन्न प्रसंगों के एक सूत्र में गूँथती अनु एक कोलाज बनाने में सफल दिखती हैं जो की उनकी दृष्टि संपन्नता और परकाया प्रवेश करने के समर्थ का द्योतक साबित हो रहा है।कुछ कविताओं में वह प्रश्न उठाती हैं और कुछ में उनके उत्तर देती हैं । इसी के साथ अनामिका को चौंकाने की आदत है । जब आप एक समतल पर दौड़ रहे होते हैं और अचानक एक ज़ंजीर आपके पैरों से लिपट जाए आप गिरते-गिरते बचते हैं । उन पंक्तियों में आपके लिप्त मन को सचेत करने की शक्ति है । यथार्थ की दहाड़ है जिसे अनसुना करने का किसी का मन नहीं करेगा । लिखा है –
‘उसके धँसे गाल
बता रहे हैं
वह असमय पका है
सब्र सिर्फ़ जुड़ने नहीं बिछड़ने का भी नाम है।’
प्रेम की सीढ़ी में पाँच सीढ़ियाँ हैं, हम एक एक कर चढ़ते हैं और लगता है कोई प्रेमिका को लोरी सुना रहा है और हम उसे सुनते हुए उनींदे हुए जा रहे हैं । लिखती हैं जब लिख रहे होते हो मुझे ख़ुदा लगते हो और प्रेम प्रसंगों से आगे हटते ही भूख बीनतीं लड़कियों की कविता है जो आपको सिहरा जाती है । एक भयानक सच जिसे कोई स्त्री ही लिख सकती है उसी का यथार्थ है यह और इसे चाहकर भी पूरा नहीं निगला जा सकता। यह यथार्थ कितना कड़वा है । लिखती हैं ‘ मैं देह पर खौलते बुलबुले देखती हूँ । मुझे लगता है देह नहीं रूह लिख रही हो, होश नहीं रहा लिखते समय ऐसी नहीं कि देह के दर्द पर ही रुक गई, लिखती हैं चमड़ी को उतार कर हैंगर में टाँगना और एक सकपकायी आग को बूँदों की उँगलियाँ पकड़ाना, एक रेंगती हवा को कलेजे से लगाकर छाती से दूध पिलाना।’ इस कविता को पढ़ते वक़्त मुझे उदय प्रकाश की किताब तिरीछ की याद आ गई “दर्द है कि किसी सीमा में बंध नहीं रहा कम ही नहीं हो रहा बस असीम होता जा रहा है।” ऐसी कविता संग्रह की आत्मा होती है।
आगे एक कविता को पढ़ते हुए दिमाग़ ठनका कि ‘ कोण को चाँद से क्यों मापते हैं पेड़ को मिट्टी बनने के लिए गलना पड़ता है या मिट्टी में पेड़ होते हैं पेड़ पर मिट्टी नहीं होता।’ ऐसी खूबसूरत पंक्तियाँ पढ़ते हुए लगता है पेड़ और मिट्टी के बीच का संबंध पानी से ही तो है और दोनों एक दूसरे को सींच रहे होते हैं। प्रेम का ऐसा उदाहरण विरल है जिसमें दोनों सींच रहे हैं एक दूसरे को अपनी आँख का पानी बचाते हुए। कविता आपको नया सोचने पर मजबूर कर दे तो पढ़ने का आनंद बढ़ता चला जाता है और इन कविताओं के साथ यही होता है।
इन सुंदर पंक्तियों से भला कौन बचेगा जो आपको सूफियाना बना दे मौला के पास बिलकुल पास पहुँचा दे। –
कि मज़ार पर चादर हरी सजी है
मरियम के बुर्के में सलमा सितारा है
अल्लाह के मुकुट में मोर बंधे हैं
नानक के सिर पर नमाज़ी निशान है
लोग कहते हैं
मैं भूल जाती हूँ
कौन सी रेखाएँ कहाँ खींचनी हैं!
इस संग्रह को पढ़ते हुए एक चक्र में घूम रहा हूँ । जैसे पढ़ते -पढ़ते एक व्योम रचा जा रहा हो समानांतर और पाठक उस व्योम में ख़ुद को भूल गया हो। कविता के प्रति मोह ऐसी कविताएँ ही बढ़ा देती हैं। एक के बाद एक कविता बेहतर कविता, किसे बेहतरीन कहूँ । इस झंझट से खुद को मुक्त करते हुए मैं सिर्फ़ कविता से प्रेम करता हूं और प्रेम में भूलना लाज़िमी है। रुकता हूँ भूलते-भूलते फिर पढ़ता हूँ –
`मैं ख़ुद से गिन नहीं पाती तारीख़ें
हर तारीख़ एक-दूसरे पर लदी हैं।’
‘मेरे गर्भ में रहना कविता’ एक माँ की अपने शिशु से बातचीत भर नहीं एक लंबी सीख भी है और उसके साथ ही इंक़लाब का परिदृश्य भी है। यह दृश्य एक विरल व्योम रच रहा है जहां आकाश में भविष्य की तैयारी के साथ देशभक्ति का शिशु पनाह ले रहा है !
‘मेरी मिट्टी बचाए रखना’ जैसी कविताएँ, कविताओं की भीड़ में एक प्रार्थना है । इस हम्द को पंक्ति दर पंक्ति गुनगुनाने का मन करेगा । अपनी मिट्टी बचाए रखना कौन नहीं चाहेगा जिसके अंतस में कुछ खुरचन जमा अभी भी बचा हो वह उस नमी की प्रार्थना क्यों नहीं करेगा जो उसे भीतर से मुलायम बनाए रखे।
‘लीची शहर की सूनी छत‘ कविता में स्मृतियों का शहर अपने बचपन को बचाए उस मकान को देख रहा है जहाँ दूर चले गये बच्चों को तलाशती माँ की आँखें खिड़कियाँ और तन मकान हो गया है। कविता बस स्मृतियों की आँखें बनी हुई हैं जिसमें नमी बची है और जमी बर्फ की तरह टप-टप गिर रही है। माँ को शब्दों में समेटते-समेटते अनामिका पिता के पदचाप और गंध की बात करती हैं जिसमें वात्सल्य की ख़ुशबू और मेहनत की झाँस है। एक पूरी व्यवस्था है। पिता नहीं लिखा वहाँ पर पढ़ते हुए मैंने पिता ही पढ़ा जहाँ लिखा है `मेरा जो है मैं देकर जाऊँगा’ और माँ नहीं लिखा है जहाँ वहाँ पढ़ा मैंने माँ जहाँ लिखा है ‘मैं घर-घर जाऊँगी’। मैंने प्रेम पढ़ा जहाँ लिखा था ‘मैं कभी घटा नहीं।’
दो पत्र- जो गंतव्य तक नहीं पहुँचे उसे यूँ रचा है कि बार-बार पढ़ने का जी करे । जब भी उसके शब्द सूख रहे होंगे मन करेगा कि प्रेम के फाहे से उसे गीला करूँ। मिश्री और नमकीन आँसू जब मिलते हैं तो एक दिया जलता है जिसकी तेज में प्रेम घनत्व पाता है । ये आन्ना और अस्त की नहीं प्रेम की अनकही दास्तान है जिसकी दो पंक्ति इसके मज़मून को समेटे है, लिखा है ‘वे हरूफ़ दर हरूफ़ मरते रहते हैं। एक दिन काग़ज़ उन्हें खा जाता है । हमारा चेहरा भी एक पत्र है जो न पढ़ा गया तो लकीर दर लकीर मरता जाता है’ यह पत्र जो गंतव्य तक नहीं पहुँचा परंतु हम सब को गंतव्य के इशारे ज़रूर दे रहा है।
मेरे विचार से किताब में जिन व्यक्तित्व,पात्रों या दक्षिण की सब्ज़ियों, मसालों का ज़िक्र है उनके रेफरेंस रहने से पाठक को कविता डीकोड करने में और आसानी होती ! इस संग्रह में जो कविताएं सरल शब्दों में गुंथी हुई हैं वह क्लिष्ट रचनाओं से अधिक विरल है । यह अंतर इस संग्रह में बहुत साफ़ है जो किसी नये के सीखने के लिए भी काम आने वाला है और जो अच्छे और बहुत अच्छे के फ़र्क़ को समझाने की तबियत रखता है।
पहला संग्रह सूचक होता है कि कवि के आगे का वितान ,यात्रा और शिखर की संभावना का । एक अत्यंत पठनीय काव्य संग्रह जो कि संग्रहणीय भी है पढ़कर आश्वस्ति भाव के साथ कहा जा सकता है कि अभी अनामिका अनु ने एक पेड़ बोया, अलग-अलग संवेदनाओं के पानी से उस पेड़ को सींचा और अब उसमें तरह- तरह के फल उग रहे हैं। आगे भी यह क्रम जारी रहे इसकी असीम शुभकामनाएँ ।
अनामिका अनु जी की कविताएं अलहदा और रुचिकर प्रतीत हो रही हैं । बेहतरीन समीक्षा के लिए यतीश जी को और अनामिका जी को बहुत बधाई!
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