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पीटी ऊषा उर्फ मैडम बहुत सख्त हैं!

यौन शोषण के विरुद्ध जंतर मंतर पर प्रदर्शन कर रही महिला पहलवानों के संदर्भ में पीटी उषा के बयान के बहाने यह गम्भीर टिप्पणी लेखिका योगिता यादव ने की है। आप भी पढ़ सकते हैं-

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सब स्त्रियां एक सी नहीं होतीं, पुरुष भी सब एक से नहीं होते। इसके बावजूद ये रूढ़ि बन चुकी है कि स्त्रियां संवेदनशील होती हैं और पुरुष कठोर। घर में पिता के सख्त अनुशासन से लेकर कॉरपोरेट और सत्ता के हेड तक इसी रूढ़ि को प्रचारित और प्रसारित किया गया है। जबकि यह पितृसत्ता का सबसे मारक उपकरण है और इसी में पितृसत्ता का दोहरा फायदा है।

पहला और पुरातन फायदा यह कि सौम्यता के नाम पर स्त्रियों को सत्ता और फैसले लेने वाले पदों से दूर रखा जा सकता है। मीटिंग में वे मेन्यू डिसाइड करेंगी, मीडिया में कला और संस्कृति कवर करेंगी, राजनीति में वे महिला और समाज कल्याण मंत्रालय संभालेंगी। टीवी सीरियल और फिल्मों में नायक को नायकत्व प्रदान करने वाले उपक्रम करेंगी। ऐसा पढ़ने के बाद यकीनन आपके दिमाग में कुछ महिलाएं आ रही होंगी। हां वे भी हैं, पर उनमें से भी अधिकांश पितृसत्ता के महायज्ञ की दूसरी समिधाएँ हैं।

दूसरी संविधा यानी दूसरा और नवीन फायदा यह कि, जिन स्त्रियों को इन पदों तक पहुंचना है उन्हें कठोर होना ही होगा। आप या ताे कठोर हो जाइए, या कठोर होने का अभिनय कीजिए। मनोविज्ञान में अगर थोड़ी सी भी दिलचस्पी है तो यूनिविर्सिटी ऑफ ओटावा, यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास, जर्नल ऑफ एप्लाइड साइकोलॉजी सरीखे संस्थानों के मनोविज्ञान और मानव व्यवहार पर आधारित शोध आपको पढ़ने चाहिए। जिनमें बार-बार यह समझने का प्रयास किया गया है कि क्यों उच्च पदों पर पहुंचने वाली महिलाएं ज्यादा क्रूर होती जाती हैं।

उच्च पदों पर पहुंचने वाली बहुत सारी स्त्रियां खुद को साबित करने की जुगत में लगातार यह साबित करने की कोशिश करती रहती हैं कि कोई ये न समझें कि वे स्त्री हैं तो सख्त नहीं हो सकती हैं। पुरुष हॉर्मोन टेस्टोस्टेराॅन जिसे पौरुष से जोड़कर देखा जाता है, उसका स्राव काफी हद तक किसी व्यक्ति के व्यवहार की कठोरता भी निर्धारित करता है। ये पौरुष, कठोरता, सत्ता और अधिकार का ऐसा अलिखित नियम है कि ज्यादातर स्त्रियां इसे बोर्ड रूम की यूनिफॉर्म की तरह धारण करने लगती हैं।

सोशल मीडिया पर वायरल होने वाले वीडियो और रील्स अगर सचमुच उनके मन से निकली बातें हैं, तो सुधा मूर्ति, इंदिरा नूई जैसी कई महिलाएं बड़े पद पर पहुंचकर इसी भाषा में बात करने लगती हैं। जिसका अर्थ होता है कि औरत को अपनी औकात नहीं भूलनी चाहिए। पीटी ऊषा इस कड़ी में एक नया नाम है। नया इसलिए कि अभी हाल ही में उन्होंने भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष और राज्यसभा की मनोनीत सदस्य के रूप में सत्ता तक पहुंच बनाई है। चोटिल होने और संन्यास के बाद से ही पीटी उषा फील्ड पर नहीं हैं। पर अपनी अकादमी में वे बच्चियों को प्रशिक्षण दे रहीं हैं, यानी ऐसा नहीं है कि वे खेलों में होने वाले संघर्ष और राजनीति को नहीं समझतीं। बात बहुत पुरानी नहीं हैं। अभी 2009 में ही भोपाल में हुई एथलेटिक्स मीट में एक घटिया जगह पर ठहराने के लिए उन्होंने खुद को अपमानित महसूस किया था। एक वो समय था जब ढंग के होटल की मांग के लिए उन्हें प्रेस कॉन्फ्रेंस करनी पड़ी थी, एक ये वक्त है जब वे राज्यसभा तक पहुंच गईं हैं। गुरूर आना तो स्वभाविक है।

ये जो दूसरा उपकरण है, इसने बहुत बारीक मगर बहुत गहनता से स्त्री अधिकारों और सामाजिक न्याय की लड़ाई को कुंद किया है। घर से लेकर बाहर तक ये प्रशिक्षित स्त्रियां पितृसत्ता की सिपहसालार की तरह उपस्थित हैं। शुरूआत घर से करते हैं – कि यह न समझ लिया जाए कि सास स्त्री है, तो वह बहू के अधिकारों का झंडा उठाए रखेगी, मां स्त्री है, तो परिवार की सुख-सुविधाओं की बजाए बेटी की आजादी की पैरवी करेगी, कोई पुलिस अधिकारी स्त्री है, तो पुरुष की बात नहीं समझेगी, स्त्री वकील है, तो आंख मूंदकर अपनी स्त्री मुवक्किल पर भरोसा कर लेगी और कोई स्त्री लेखिका है, तो वह सिर्फ स्त्रियों का ही राग-अनुराग नहीं लिखती रहेगी। अब उसके चिंतन में संपूर्ण सृष्टि है।

यौन शोषण के विरुद्ध जंतर मंतर पर प्रदर्शन कर रही महिला पहलवानों के संदर्भ में यही पीटी उषा का अनुशासन भी है। कोई ये न समझे कि वे खिलाड़ी हैं, तो खिलाड़ियों का समर्थन करेंगी और न ही ये कि वे स्त्री हैं तो स्त्रियों का समर्थन करेंगी। मैडम अध्यक्ष पद तक पहुंच गईं हैं। मैडम अब बहुत सख्त हैं। पितृसत्ता की प्रशिक्षित स्त्रियां अगर ऐसा प्रदर्शन न करें, तो सत्ता में, बोर्ड रूम में उनका सर्वाइवल मुश्किल हाे जाए। उनकी लड़ाई एक वृहत्त लड़ाई में तब्दील हो चुकी है, जहां वे किसी भी उपेक्षित समुदाय की प्रतिनिधि होने की बजाए अब केवल अपनी जमीन बचा रही हैं।

हालांकि मैं इन स्त्रियों के प्रति भी करुणा रखना चाहती हूं। मगर इससे कठोरता के सत्ताधारी स्त्रियों का स्थायी स्वर बन जाने का जोखिम है। इसलिए यह जरूरी है कि इस कठोरता और ओढ़ी हुई निष्पक्षता यानी पितृसत्ता के नए उपकरण का पुरजोर विरोध किया जाए। रासो से लेकर इतिहास तक लिखत पढ़त की निष्पक्षता सदैव संदिग्ध रही है। पर मन में वही नायक बसते हैं जो सौम्य रहे, संवेदनशील रहे। टेस्टोस्टेरोन से ज्यादा एक समाज को बचाने में ऑक्सिटॉसिन की जरूरत है। प्यार, परवरिश, संरक्षण और आकर्षण का यह हाॅर्मोन बांह की मछलियों से ज्यादा आकर्षित करता है।

 
      

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One comment

  1. I didn’t connect the indira nui point. Someone enlighten me. Wht have i missed.and sudha murthy also. What was the reference any tweet or video posted.

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