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स्मृतिलोप का दौर: भविष्य की कविता: सुधांशु फ़िरदौस

सबसे अंत में कवि बचता है, कविता बचती है। 28 फ़रवरी को आयोजित राजकमल स्थापना दिवस के आयोजन ‘भविष्य के स्वर’ में एक युवा कवि का वक्तव्य था, सुधांशु फ़िरदौस का। हम उनकी कविताओं में ऐसा खो जाते हैं कि यह भूल जाते हैं कि वे गणितज्ञ हैं, तकनीक के …

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सिनेमा की बदलती ज़मीन : भविष्य का सिनेमा:मिहिर पंड्या

मिहिर पांड्या सिनेमा पर जो लिखते बोलते हैं उससे उनकी उम्र की तरफ़ ध्यान नहीं जाता। हिंदी में इस विधा का उन्होंने पुनराविष्कार किया है। यह बात अलग से रेखांकित करनी पड़ती है कि वे 40 साल से कम उम्र के युवा हैं। 28 फ़रवरी को राजकमल प्रकाशन स्थापना दिवस …

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भविष्य का समाज: सहजीविता के आयाम: जसिंता केरकेट्टा

  जसिंता केरकेट्टा कवयित्री हैं, आदिवासी समाज की मुखर आवाज़ हैं। राजकमल स्थापना दिवस के आयोजन में 28 फ़रवरी को ‘भविष्य के स्वर’ के अंतर्गत उनका वक्तव्य सहजीविता के आयामों को लेकर था- मॉडरेटर ======================== क्यों महुए तोड़े नहीं जाते पेड़ से? ………………………………. माँ तुम सारी रात क्यों महुए के …

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‘फैन कल्चर’ का दौर : भविष्य का आलोचक:मृत्युंजय

मृत्युंजय कवि हैं और कविता के हर रूप में सिद्धहस्त हैं। सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों तरह की आलोचना में समान महारत रखते हैं। बस कम लिखते हैं लेकिन ठोस लिखते हैं। जैसे राजकमल प्रकाशन स्थापना दिवस पर आयोजित ‘भविष्य के स्वर’ में पढ़ा गया उनका यह पर्चा समकालीन लेखन के …

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कला ही ऐसा माध्यम है जो हमें अपने अंतःकरण की प्रस्तुति करने में समर्थ बनाता है: जिज्ञासा लाबरू

राजकमल स्थापना दिवस पर आयोजित ‘भविष्य के स्वर’ आयोजन में पहली बार जिज्ञासा लाबरू को सुना। हम हिंदी वाले बाहर की दुनिया के बारे में कितना कम जानते हैं। अगर उस दिन जिज्ञासा को नहीं देखा, सुना होता तो यह कहाँ पता चलता कि जिज्ञासा बहुत कम उम्र से बच्चों …

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किस्सागोई : वाचिक परंपरा का नया दौर:हिमांशु बाजपेयी

राजकमल स्थापना दिवस पर आयोजित ‘भविष्य के स्वर’ में एक वक्तव्य प्रसिद्ध दास्तानगो हिमांशु बाजपेयी का भी था। हिंदुस्तानी की वाचिक परम्परा के वे चुनिंदा मिसालों में एक हैं। उनको सुनते हुए लुप्त होती लखनवी ज़ुबान की बारीकी को समझा जा सकता है। एक बार उनके दास्तान को सुनकर मनोहर …

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पॉपुलर बनाम पॉपुलिस्ट: आख्यान की वापसी: चंदन पाण्डेय

कल राजकमल प्रकाशन का 73 वाँ स्थापना दिवस समारोह था। इस अवसर पर भविष्य के स्वर के अंतर्गत अलग अलग पृष्ठभूमियों, अलग अलग विधाओं के सात वक्ताओं को बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था। किसी के वक्तव्य की किसी अन्य वक्ता के वक्तव्य से तुलना नहीं की जानी चाहिए …

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इस वसंत को शरद से मानो गहरा प्रेम हो गया है

कृष्ण बलदेव वैद को पढ़ा सबने समझा किसने? शायद उन्होंने भी नहीं जो उनको समझने का सबसे अधिक दावा करते रहे। मुझे लगता है सबसे अधिक उनको उस युवा पीढ़ी ने अपने क़रीब पाया जो उनके अस्सी पार होने के आसपास उनका पाठक बना। युवा लेखिका सुदीप्ति के इस लिखे …

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एक ही पृथ्वी पर कितने बनारस

आज सुबह सुबह आलोचक-प्रोफ़ेसर पंकज पराशर का यह लेख पढ़ा। पढ़ते ही साझा करने का ऐसा मन हुआ कि एयरपोर्ट पर बैठे बैठे आज पहली बार फ़ोन से पोस्ट कर रहा हूँ। मैं यात्रा में हूँ, आप इस लेख के साथ परतदार बनारस की यात्रा कीजिए- प्रभात रंजन ——————————————————————- संतों-असंतों …

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प्रेम नश्वर को अनश्वर में बदल देता है

‘कादम्बिनी’ का फ़रवरी अंक प्रेम अंक है। इसमें मेरा भी एक लेख प्रकाशित हुआ है। ‘कादम्बिनी’ से साभार पढ़िए- प्रभात रंजन  =================== प्रेम: मौन से मुखर तक प्रभात रंजन कथा साहित्य में प्रेम हमेशा एक रूपक की तरह आया है। विश्व की श्रेष्ठ मानी जाने वाली प्रेम कहानियों में रोमियो …

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