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प्रवीण कुमार झा की कहानी ‘अहुना मटन’

 प्रवीण कुमार झा की यह कहानी पढ़िए। चंपारण के अहुना मटन के बहाने एक ग्लोबल कहानी- ===================================  ‘ग म धss…ग म धsss’  भोर के घुप्प अंधकार में धैवत को आंदोलित करते भैरव गा रहा हूँ कि शायद कोई करिश्मा हो जाए। छत पर तिरछी खिड़की के शीशे को ताक रहा …

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मुझे दस जूते मार लीजिए लेकिन घर से मत निकालिए

बनारस का नाम आने पर लेखक शिव प्रसाद सिंह का नाम ज़रूर आएगा। उनके ऊपर एक बहुत अलग तरह का गद्य लिखा है बीएचयू की शोध छात्रा रही प्रियंका नारायण ने। आप भी पढ़िए- ==================== मुझे दस जूते मार लीजिए लेकिन घर से मत निकालिए दो पथिक (पहला- आगंतुक, दूसरा …

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मेरी कवयित्री चाची ‘शैलप्रिया’ – अविनाश

कवयित्री शैलप्रिया जी को याद करते हुए यह संस्मरण लिखा है अविनाश दास ने। वे जाने माने फ़िल्म निर्देशक हैं, लेकिन उससे पहले बहुत अच्छे कवि और गद्यकार हैं। आइए शैलप्रिया जी को याद करते हैं- ======================================= 91-92 की बात है। मैं स्कूल के अपने अंतिम सालों में था। मोरहाबादी …

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मंगलेश डबराल की कविताएँ

एक कवि हमेशा अपनी कविताओं के जरिए हम सबकी स्मृतियों में रहता है। जानकी पुल का उपक्रम ‘कविता शुक्रवार’ मंगलेश डबराल की इन कुछ कविताओं से उन्हें नमन करता है। उनकी कविताएँ सदा हमारे साथ रहेंगी- =======================     स्मृति : एक ————– खिड़की की सलाख़ों से बाहर आती हुई …

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कलिंगा लिटेरेरी फ़ेस्टिवल का भाव संवाद: आगामी चर्चाएँ

कलिंगा लिटेरेरी फ़ेस्टिवल का भाव संवाद इस लॉकडाउन के दौरान बहुत सक्रिय रहा और उसने ऑनलाइन बौद्धिक चर्चाओं का एक अलग ही स्तम्भ खड़ा किया है। आगामी चर्चाओं के बारे में पढ़िए- =================== केएलएफ भाव संवाद बनेगा रेबेलियस लॉर्ड, ‘महाभारत सीरीज, बिकाउज इंडिया कम्स फर्स्ट, ‘द अवस्थीस ऑफ अम्नागिरी, रेबेल्स …

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सुरेंद्र मोहन पाठक की आत्मकथा ‘निंदक नियरे राखिए’ का एक अंश

सुरेंद्र मोहन पाठक की आत्मकथा का तीसरा खंड ‘निंदक नियरे राखिए’ हाल में ही प्रकाशित हुआ है। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक के एक अंश का आनंद लीजिए- ====================== यहाँ मैं पिछले साठ साल से चले आ रहे पुरानी दिल्ली के अनोखे संडे बुक बाजार का जिक्र करना चाहता हूँ जो भारत में तो अनोखा, बाकमाल है ही, मुमकिन है एशिया में—या दुनिया में भी—ऐसे बुक बाजार की कोई मिसाल न हो। शुरुआत में ये बुक बाजार जामा मस्जिद के करीब के—अब बन्द हो चुके—जगत सिनेमा से लेकर एडवर्ड पार्क—अब सुभाष पार्क—की नुक्कड़ तक, यानी दरियागंज, नेताजी सुभाष मार्ग के उस ओर के क्रॉसिंग के सिग्नल तक, सड़क की दोनों ओर लगता था, फिर फैलता, पसरता दाएँ घूमकर दिल्ली गेट तक, फिर और दाएँ घूमकर आसफ अली रोड पर डिलाइट सिनेमा तक पहुँच गया था। जब ऐसा हुआ था तो जगत सिनेमा वाला शुरुआती सेगमेंट बन्द हो गया था और बाजार की हदूद डिलाइट सिनेमा से लेकर सुभाष पार्क के चौराहे तक सड़क की एक ही तरफ—गोलचा सिनेमा की तरफ—कायम हो गई थीं। पुस्तक प्रेमियों में वो बाजार इतना पॉपुलर था—अब भी है—कि हर इतवार को, कोई भी मौसम हो, वहाँ मेले जैसा माहौल होता था। बरसात के मौसम में भी कितने ही ग्राहक और पटड़ी वाले बरसात बन्द होने का इन्तजार करते पाए जाते थे। केवल दो मर्तबा, छब्बीस जनवरी और पन्द्रह अगस्त को, वो बाजार बन्द होता था भले ही वो दोनों सरकारी त्योहार इतवार को न हों। छब्बीस जनवरी को उस रूट से परेड ने गुजरता होता था और पन्द्रह अगस्त को उधर से ही गुजरकर प्रधानमंत्री लाल किला पहुँचते थे, ध्वजारोहन की रस्म पूरी करते थे और किले की प्राचीर से कौम से मुखातिब होते थे। लिहाजा पहले ही बुक बाजार की हाकर्स यूनियन को खबर कर दी जाती थी कि उन दोनों सरकारी त्योहारों के पहले इतवार को बाजार नहीं लगेगा। चौदह अगस्त और पच्चीस जनवरी की शाम को तो सुभाष मार्ग की दुकानें, शोरूम्स जबरन बन्द करा दिए जाते थे और दुकानों के तालों को सील लगा दी जाती थी जो त्योहार गुजर जाने के बाद भी अगर उस रोज टूटी पाई जाती थी तो दुकान के मालिक के लिए वो सिक्योरिटी ब्रीच का गम्भीर मसला बन जाता था। उस बुक बाजार की मशहूरी से मुब्तला कई ऐसे हॉकर जिनका किताबों से कोई लेना-देना नहीं था, खासतौर से सर्दियों में गर्म कपड़ों की, जींस, टी-शर्ट्स वगैरह की रेहड़ियाँ लगाने लगे थे, लेकिन उनका वो हंगामा बावजूद पुलिस की शह के सुभाष पार्क के चौक और गोलचा सिनेमा तक भी सीमित रहता था। किताबों वाले उन रेहड़ियों से असुविधा तो महसूस करते थे लेकिन संडे बुक बाजार में रेहड़ी वालों की घुसपैठ पर उनकी पेश नहीं चलती थी। फिर ग्राहक भी ऐसे कमिटिड थे कि हर हाल में पहुँचते थे, दूर-दूर से आते थे, कारों पर आते थे पर पहुँचते थे। कई बार उस बुक बाजार पर क्लोजर का संकट आया—दो-तीन बार बन्द भी हुआ—क्योंकि कभी लोकल लीडर को वो चुभने लगा, कभी दरियागंज थाने का थानाध्यक्ष नाराज हो गया तो कभी वैसे ही उस बाजार को इलाके की हफ्तावरी जनरल न्यूसेंस करार दिया गया। जब पहली बार वो नौबत आई तो हाॅकरों ने उसका इतना तीव्र विरोध किया कि वो मीडिया की निगाह का भी मरकज बना और दिल्ली से प्रकाशित होने वाले तमाम अखबारों ने उस सिलसिले में लीड स्टोरीज़ छापीं। यहाँ तक कि खुशवन्त सिंह और अनिल धारकर जैसे नामचीन लेखकों और पत्रकारों ने उस बन्दी का प्रबल विरोध किया, बाकायदा उस बुक बाजार को आइकॉनिक बुक बाजार बताया जिसको बन्द किया जाना प्रशासन की नादानी थी और पुस्तक प्रेमियों का बड़ा नुकसान था। नतीजतन बाजार फिर चालू हो गया। लेकिन गौरतलब बात है कि वो संडे बाजार तब भी बन्द न हुआ जबकि ऐन सुभाष मार्ग पर प्रस्तावित मेट्रो रूट का महीनों टनल वर्क चालू रहा। तीन बार यूँ बाजार बन्द हुआ, बन्दी की कोई साफ वजह किसी की समझ में न आई लेकिन खुसर-पुसर यही रही कि किसी को—क्या पता किसको, जबकि सबको पता था—खटक रहा था। एक बार तो खुद उस निर्वाचन क्षेत्र का संसद सदस्य दखलअन्दाज हुआ तो वो बाजार खुला। आखिरी बार—हाल ही में सन् 2019 के उत्तरार्ध में ही सुप्रीम कोर्ट के हुक्म से बन्द हुआ तो किसी की पेश न चली। हाॅकरों की यूनियन ने भी तीव्र विरोध किया तो उन्हें कोई वैकल्पिक जगह दी जाने का आश्वासन मिला। वैकल्पिक जगह रामलीला मैदान था, जिसे हॉकरों की यूनियन ने रिजैक्ट कर दिया। अब वो बाजार आसफ अली रोड पर डिलाइट सिनेमा के सामने के महिला पार्क में लगता है और हॉकर्स उस नयी जगह से खुश हैं। उस बुक बाजार का मैं नियमित पैट्रन था, हर इतवार को मैं वहाँ जाता था और ढेर पुरानी, दुर्लभ, अनुपलब्ध पुस्तकें खरीदकर लाता था। एक बार को करतब हुआ। बल्कि चमत्कार हुआ। मुझे वहाँ पटड़ी पर से स्ट्रेंट मैगजीन के सौ साल—रिपीट, सौ साल—पुराने अंक मिले। और ये वो अंक थे जिनमें से हर एक में सर आर्थर कॉनन डायल के फिक्शन हीरो शरलॉक होम्ज की मूल कथा छपी थी। खुद बेचने वाले दुकानदार को उनके दुर्लभ होने की न कोई समझ थी न कद्र थी। सीरियल वाइज छब्बीस इशू मुझे पाँच-पाँच रुपये में मिले। यहाँ ये बात भी काबिलेजिक्र है कि उस बाजार के सारे ही हॉकर अल्पशिक्षा प्राप्त कबाड़िए नहीं हैं। पिछले दस-बारह सालों में मैंने देखा था कि कुछ हॉकर किताब की अहमियत को समझने लग गए थे और अपनी समझ को किसी खास किताब को रेयर बताकर बाकायदा कैश करते थे। मैंने एक बार खुद एडगर वॉलेस का एक नावल—ओरिजिनल कीमत 25 सैंट। तब के डॉलर रेट के मुताबिक दो रुपये—खरीदने की कोशिश की तो उसने अस्सी रुपये माँगे। वजह पूछी तो बोला, रेयर बुक थी। मैंने कहा, मेरे पास एडगर वालेस के ऐसे पन्द्रह नावल थे, वो चालीस-चालीस रुपये में ले ले। …

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बापू और बाबा साहेब- कितने दूर,कितने पास

विवेक शुक्ला जाने माने पत्रकार हैं। आज उनका यह लेख पढ़िए जो गांधी और बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर के आपसी संबंधों को लेकर है। आज बाबा साहेब की जयंती पर विशेष- ============== महात्मा गांधी और बाबा साहेब अंबेडकर के बीच 1932 के ‘कम्यूनल अवार्ड’ में दलितों को पृथक निर्वाचन का स्वतन्त्र राजनीतिक अधिकार …

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राकेश श्रीमाल की कविताएँ

जानकी पुल के उपक्रम ‘कविता शुक्रवार’ के संपादक राकेश श्रीमाल का आज जन्मदिन (5 दिसम्बर) है। जानकी पुल की तरफ से बधाई देने के लिए उनके पहले कविता संग्रह ‘अन्य’ (वाणी प्रकाशन, 2001) में प्रकाशित उनकी कुछ प्रेम कविताओं को पाठकों के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है। इन कविताओं …

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तेलुगु उपन्यासकार केशव रेड्डी के उपन्यास ‘भू-देवता’ का अंश

केशव रेड्डी की  गिनती तेलुगु के प्रतिष्ठित उपन्यासकारों में होती है। 2019 में किसान के जीवन पर आधारित उपन्यास भू-देवता काफी चर्चित रहा था। संयोग से इस समय पूरे देश में किसान एक बार फिर चर्चा में हैं। देशभर में चल केंद्र सरकार के नए बिल पर किसान आन्दोलन अपने चरम पर है। भू-देवता  में केशव रेड्डी ने 70 साल पहले …

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रवि रंजन की कविताएँ

रवि रंजन दिल्ली विश्वविद्यालय के ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज में राजनीति शास्त्र पढ़ाते हैं। उनकी कुछ कविताएँ पढ़िए =================   जीवन की कविता में अलंकरण ज़िंदगी की कहानी में संकलन पूर्णता नहीं पूरकता को तय करती है जीवनधारा यूं ही बहती है जीव मरते पर जीवन अनंत नहीं होता कविता …

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