कवयित्री अंजू शर्मा ने फिल्म ‘पीके’ पर एक सम्यक टिप्पणी की है. फिल्म के बहाने उसके आगे-पीछे उठने वाले सवालों से भी उलझती हुई चली हैं. एक पढ़ी जाने लायक टिप्पणी है. मेरे जैसे लोगों के लिए भी जिन्होंने अभी तक यह फिल्म नहीं देखी है- प्रभात रंजन
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पिछले दिनों चर्चा में रहा एक न्यूड पोस्टर हो या परफेक्शनिस्ट आमिर खान का नाम जुड़ा हो, राजू हिरानी की फिल्म ‘पीके’ की प्रतीक्षा सिनेप्रेमियों को लंबे अरसे से थी। लोग ‘पीके’ के बारे में जानने को इच्छुक थे जो किसी नाम का संक्षिप्त रूप प्रतीत होता था जैसा कि किसी अखबार में लिखा भी था। लेकिन अटकलों से पर्दा कुछ इस तरह से उठा कि न सिर्फ नाम, न्यूड पोस्टर बल्कि दीगर सवालों के भी जवाब मिलते चले गए। फिल्म रिलीज़ के बाद सुगबुगाहटों में दो बातें सुनने को आ रही थीं, पहली तो ये कि ये फिल्म परेश रावल की फिल्म ‘ओह माई गॉड’ से मिलती जुलती है। वहीं कुछ लोगों से ये भी सुना कि ‘पीके’ ओह माई गॉड का विस्तार हैं। यानि जहां ओह माइ गॉड खत्म होती है पीके वहीं से शुरू होती है। बहरहाल सिनेमा-हाल का रुख किए बिना ये जानना मुश्किल था कि सच आखिर क्या है क्योंकि इन सारे सवालों के जवाब वहीं थे।
एक इंसान जब पैदा होता है तो जाने अनजाने ही कुछ पूर्वाग्रह उसके साथ जन्मते हैं जो समय बीतने के साथ संस्कारों के रूप में उसकी चमड़ी में बदल जाते हैं। उसका रंग-रूप, नाम, उपनाम जन्म से तय होता, वह किस समुदाय, जाति, धर्म, प्रांत, देश यहाँ तक कि किस ग्रह से जुड़ा है इस पर भी उसका कोई वश नहीं। होश संभालने के बाद भी यदा-कदा वह चुनाव बदल तो सकता है चमड़ी को उतार फेंकने की कवायद में कभी सफल नहीं हो पाता। क्या आपने सोचा है कि कभी कोई इंसान अगर शून्य से शुरुआत करे तो कैसा हो। यानी जीवन के खाते का कोई ओपनिंग बैलेन्स नहीं, कोई बैलेन्स फॉरवर्ड नहीं। पीके इसी शून्य पर खड़ा एक पात्र है जो एलियन है। इसी ब्रह्मांड के किसी दूसरे ग्रह से आया एक शोधार्थी है जो आते ही एक चोर के हाथों अपना रिमोट कंट्रोल खो बैठता है जिसके बिना उसका वापस अपने ग्रह पर जाना संभव नहीं। जिसके लिए पृथ्वी पर फैला धर्मों और धर्मगुरुओं का मकड़जाल एक भूलभुलैया से कम नहीं। रिमोट की तलाश में भटकते पीके के लिए इस ग्रह के वस्त्र, मुद्रा, आचार-व्यवहार, मान्यताएँ और धर्म सब एक पहेली है। इस पहेली को धीरे धीरे रील दर रील सोल्व करते हुये हिरानी ने कॉमेडी का सहारा लिया है। यहाँ कई एक ऐसे दृश्य हैं जहां भीगी आँखें पीके के साथ मुसकुराती हैं।
खैर जल्दी ही पीके सब सीख जाता है और जो सबसे पहली बात उसके भेजे में प्रवेश करती है वह यह हर दुख, तकलीफ, कमी, परेशानी में हम पृथ्वीवासी भगवान की शरण में पहुँचते हैं। अब शून्य खाते वाले हमारे नायक पीके के सामने धार्मिक समुदायों का विभिन्न धर्मगुरुओं द्वारा संचालित विशाल बाज़ार है। वह मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे, हर चौखट पर गुहार लगता है, और प्रसाद, पूजा, मनौती और कर्मकांड के फेर में चिकरघिन्नी से घूमता हर चौखट से निराश लौटता है।
अब हमारी मुंबइया फिल्मों की ये परेशानी है कि उनका कोई शून्य खाता नहीं। कोई भी फिल्म धर्म या ईश्वर को लेकर किसी धारणा में उलझने से बचती हैं। यहाँ किसी भगतसिंह के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं जो ये घोषित करे कि ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’। बहरहाल ‘ओह माय गॉड’ में ‘गॉड’ धरती पर अवतरित हो जाते हैं वहीं पीके का ईश्वर में दृढ़ विश्वास भी इसी धारणा का पोषण करता है। उसे एक बार भी ईश्वर के होने में कोई शक या शुबह नहीं होता वह तो बस ईश्वर और धर्मगुरुओं के आपसी संपर्क पर सवाल उठता है जो उसकी नज़र में ‘रॉन्ग नंबर’ है। इसके बाद लगातार वे सवाल अस्तित्व में आते रहते हैं जो किसी भी तर्कशील इंसान के विचार का हिस्सा हो सकते हैं। यहाँ वे तर्क लगातार कॉमेडी के शक्ल मे पीके के माध्यम से आते रहते हैं जो शायद बॉक्स ऑफिस पर खरा उतरने की मजबूरी कही जा सकती है। आखिर कोई निर्माता किसी मुंबइया फिल्म को किसी एलियन के बोरिंग शोध में क्यूँ बदलने देगा। हालांकि ये हैरत का विषय है कि राजस्थान से लेकर दिल्ली तक किसी ‘डांसिंग कारें’ हैं जो पीके को कपड़े और करेंसी मुहैया कराती रहती हैं।
वैसे यह एलियन अन्य फिल्मों की भांति किसी खास चमत्कारित शक्ति से लैस नहीं है सिवाए हाथ छूकर लोगों का दिमाग पढ़ने के और इसी के माध्यम से वह ‘भाषा’ अर्जित करता है, यही शक्ति बीच बीच में धर्म के आस पास अटकती कहानी को धकेलती भी है। यही बात नायिका को पीके से जोड़ती है। जगत जननी यानि टीवी रिपोर्टर जग्गू के माध्यम से पीके की कहानी आगे बढ़ती हैं। जग्गू एक ऐसी दुस्साहसी युवती जो धर्म और सरहदों के फेर में प्रेम में धोखा खाकर अपने काम में डूबी है और जो पीके की परेशानी को हल करने के साथ अपने चैनल के लिए एक जबर्दस्त स्टोरी के खोज में है। पीके शुरुआत में उसके लिए एक सनसनीखेज स्टोरी भर है जो धीरे धीरे अपने विचित्र सवालों के साथ एक मजबूत कंटैंट के रूप में सामने आता है।
टीवी चैनल की मुहीम एक ऐसी फेंटेसी है जो निर्मल बाबा और ऐसे तमाम बाबाओं के ‘दिव्य वचनों’ से सुबह की शुरुआत करने वाले चैनलों के देश में आज भी एक दुर्लभ है। उम्मीद की एक सुखद बयार इस फिल्म में देशव्यापी मुहीम के रूप में सामने आती है कि हम बाबा के परम भक्त को भी तर्क के सामने पराजित होते देखते हैं जबकि सच्चाई यह है कि इस देश में ‘बलात्कारी बाबा’ के तमाम आश्रम, सारी गतिविधियां और लाखों भक्त हर मुहीम से अप्रभावित रहते हैं। बाबा और पीके के प्रायोजित कार्यक्रम में जहां जोरदार बहस होने की उम्मीद थी निर्देशक ने दोस्त की मृत्यु के गम में डूबे पीके को इतना शांत और गमगीन बनाकर इतना सेफ प्ले किया कि सारी बहस नायिका के पाकिस्तानी प्रेमी की खोज और सरहदों की तनातनी के प्रदर्शन में बदलती नज़र आई। ये दृश्य इतना लंबा खींचा कि निर्देशक की चूक दर्शकों को बेचैन करती है कि ये प्रेमकथा निपटे और बहस वापिस पीके और बाबा पर लौटे।
बहरहाल फिल्म ट्रैक पर लौटती है इस संदेश के साथ कि ईश्वर के नाम पर हो रहे डर, लालच, मनौतियों और कर्मकांड के कारोबार और धर्मगुरुओं की इस दुनिया में किसी को कोई जरूरत नहीं। ईश्वर यदि सचमुच है और इंसान उसकी संतान है तो वह कभी नहीं चाहेगा कि उसकी संतान अजीबोगरीब मनौतियों के फेर में और दुखी हो। उसके दुखों और परेशानियों को दूर करने के लिए डर या उल्टे सीधे रीति-रिवाज धर्मगुरुओं की उपज हैं। इसके लिए कहीं कोई लंबे और उबाऊ डायलाग नहीं हैं। हिरानी ने बेहद सामान्य, संप्रेषणीय और चलताऊ भोजपुरी के माध्यम से ये सारे संवाद कॉमेडी की दिलचस्प चाशनी में पीके के माध्यम से जनता के सामने परोसे हैं। बावजूद इसके कि फिल्म कई बार इसमें दोहराव का शिकार हुई, निर्देशक यहाँ पूरी तरह सफल हुआ है और यही फिल्म की यू एस पी भी है। फिल्म उन तमाम धर्मगुरुओं के फैले अरबों के कारोबार पर एक सटीक कटाक्ष है जो व्यवस्था या मीडिया का ध्याम तभी खींचते हैं जब कोई बड़ा कांड हो जाता है। इस देश में जहां सबको ईश्वर बनने की सहज सुविधा है पीके इसे साबित करता है कि धर्म के इस व्यापार में किसी इन्वेस्ट के और मेहनत के बिना भी सफल कारोबारी बनना कितना आसान है। फिल्म इस पोजिटिव नोट पर अंत की ओर बढ़ती है कि जाति, धर्म और सरहदें तो इंसान की बनाई हैं क्योंकि ईश्वर ने कभी किसी इंसान को किसी श्रेणी में विभाजित करने के लिए कोई ‘ठप्पा’ नहीं लगाया। मेरा ख्याल है यही फिल्म का हासिल भी है, जितनी जल्दी इंसान इसे समझ ले इस दुनिया में मुंबई, गुजरात और पेशावर के नाम इतिहास में कालिख नहीं कुछ शानदार उपलब्धियों के साथ याद किए जाएंगे।
अब तो फिल्म देखनी होगी . अच्छा लिखा है .
बहुत ही सच्ची एवम् विस्तृत समीक्षा। साधुवाद
बढ़िया समीक्षा
अंजू जी आप की समीक्षा अच्छी लगी , अभी फिल्म देखी नहीं है …….इस देश में जहां सबको ईश्वर बनने की सहज सुविधा है पीके इसे साबित करता है कि धर्म के इस व्यापार में किसी इन्वेस्ट के और मेहनत के बिना भी सफल कारोबारी बनना कितना आसान है।
आप सही हैं यह ओ माय गोड के आगे की कड़ी है
अंजूजी से सहमत… मुझे यह फिल्म अच्छी लगी और इसे देखते समय आह माय गॉड बिल्कुल याद नहीं आई….दो फिल्में अलग अलग…अलग अलग थीम….