Home / Featured / रज़ा युवा-2024 – सीखने का व्यापक मंच

रज़ा युवा-2024 – सीखने का व्यापक मंच

रज़ा न्यास द्वारा आयोजित ‘युवा 2024’ का आयोजन यादगार रहा। यह युवा का सातवाँ आयोजन था। युवा रचनाकारों के लिए हिन्दी पट्टी में इस तरह का शायद ही कोई दूसरा आयोजन होता हो। दो दिन चले कार्यक्रम पर यह रपट लिखी है युवा लेखिका अनु रंजनी ने। आप भी पढ़ सकते हैं-

==================================

रज़ा फाउंडेशन, दिल्ली साहित्य और कला से संबंधित लगातार विविध कार्यक्रम करता रहा है। इनमें से ही एक कार्यक्रम ‘रज़ा युवा’ के नाम से प्राय: प्रत्येक वर्ष होता रहा है। जिसमें देश के विभिन्न जगहों से युवा लेखकों को निर्धारित लेखकों/कलाकारों पर बोलने का अवसर दिया जाता है। इस बार यह कार्यक्रम दिनांक 27.03.24 और 28.03.24 को दिल्ली में आयोजित था जिसमें देश के 38 अलग-अलग जगहों से लगभग 50 युवा लेखकों ने भागीदारी की। यह कार्यक्रम हिंदी के 9 मूर्धन्य कवियों- धर्मवीर भारती, अजितकुमार, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, विजयदेव नारायण साही, श्रीकांत वर्मा, कमलेश, रघुवीर सहाय, धूमिल एवं राजकमल चौधरी पर आधारित था । कार्यक्रम में कुल 9 सत्र थे जिसमें प्रत्येक सत्र के लिए एक-एक कवि और लगभग 5-6 वक्ता निर्धारित थे और प्रत्येक सत्र के अंत में एक वरिष्ठ लेखक सत्र-पर्यवेक्षक की भूमिका निभा रहे थे, जिनका कार्य ‘युवाओं’ के वक्तव्य पर अपनी राय, सलाह, सुझाव देना था।
अब जब दो दिनों का यह समागम समाप्त हो चुका है तो बतौर प्रतिभागी वह सारे अनुभव मन में घूम रहे हैं । यदि कोई पूछे कि आख़िर ऐसा क्या था इस कार्यक्रम में तो सबसे पहली बात कही जाएगी सीखने की प्रेरणा। जिस तरह लोगों ने अपनी-अपनी बातें कहीं उससे बार-बार यह लगता रहा कि कितना ज़्यादा कुछ पढ़ने-समझने के लिए है। यह अमूमन प्रत्येक प्रतिभागी के साथ हुआ होगा कि जिन कवियों पर बोलने के लिए उन्हें कहा गया था, वे उनके अलावा शायद ही सूची में शामिल बाक़ी कवियों को पढ़ कर आए होंगे। लेकिन कार्यक्रम के अंत होते-होते तक मन में यह विचार आना कि ‘कितना अच्छा होता यदि हम अन्य कवियों को भी पढ़ कर आते!’ यह सीख ‘रज़ा युवा’ की ही देन है।
दूसरी बात जो यहाँ सीखने को प्रेरित होते रहे वह है उदारता। कार्यक्रम के उद्घाटन के अलावा प्रत्येक सत्र की शुरुआत में अशोक वाजपेयी मंच पर आ सभी से मुखातिब होते थे और यों संबोधित करते थे जिससे उनकी उदारता साफ़ झलकती थी। रज़ा फाउंडेशन के बतौर प्रबंध न्यासी, प्रत्येक वर्ष न जाने वे कितने कार्यक्रम कराते रहे हैं। इस बार 50 प्रतिभागियों में 34 युवा लेखक ऐसे थे जो पहली बार इस कार्यक्रम में शामिल हुए थे एवं 16 ऐसे जो पहले भी प्रतिभागी रह चुके हैं। यानी इस बार नए लोगों की संख्या पुराने से लगभग दोगुनी थी। इसलिए अशोक वाजपेयी बीच-बीच में रज़ा फाउंडेशन द्वारा आयोजित युवा सहित विभिन्न कार्यक्रमों की परिकल्पना हमसे साझा करते रहे और उस साझा करने की प्रक्रिया में कहीं भी, कभी भी ऐसा नहीं लगा कि कोई इतने बड़े ‘ट्रस्ट’ का
‘ट्रस्टी’ बोल रहा है, एक ऊँचे ओहदे पर बैठा व्यक्ति बोल रहा है बल्कि वह कहना ऐसा था जैसे एक अभिभावक अपने बच्चों से अपने घर के बारे में बोल रहा है, उसे उसकी जिम्मेदारी का एहसास करा रहा है जो जिम्मेदारी बच्चे की अपने घर के प्रति होती है और यदि नहीं है तो होनी चाहिए।
इतने बड़े कार्यक्रम को यदि कोई बिना किसी स्वार्थ के, निश्छल हो कर आयोजित करता है तो वह आने वाली पीढ़ी को बेहतर मनुष्य बनना सिखा रहा होता है। इस बार हम जितने प्रतिभागी आए थे उनमें से अधिक संख्या ऐसे लोगों की होगी जिन्होंने अशोक वाजपेयी का नाम निश्चित ही सुना होगा लेकिन उनसे संपर्क नहीं होगा, संपर्क क्या सामने से देखने का मौका भी नहीं मिला होगा। ऐसे में हमारा यहाँ आमंत्रित होना इस बात का ही द्योतक है कि इस छल-छद्म, स्वार्थ वाली दुनिया में एक व्यक्ति ऐसा भी है जो नि: स्वार्थ भाव से कार्य कर रहा है, और बिना किसी परिचय के भी बिल्कुल ही नए व्यक्ति को इतने बड़े मंच पर मौका मिल सकता है।
ऐसा नहीं था कि उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति के विचारधारा की पूर्व-सूचना ली हो। हाँ, लेकिन इस बात में वे बिल्कुल स्पष्ट हैं कि यदि कोई ऐसा है जो कहीं से भी, कैसे भी, समाज में नफ़रत फैलाने, घृणा फैलाने में, धार्मिक उन्माद फैलाने में सहायक है तो वे उसे कभी नहीं बुलाएँगे। यह बात सुन कर सिहरन पैदा होती है कि कोई व्यक्ति इस तरह भी समाज में हो रहे अन्यायों का विरोध दर्ज़ कर सकता है! और तब यह एहसास हुआ कि जिन कवियों पर दो दिनों तक विचार-विमर्श हो रहा था उसमें यह कहीं नहीं था कि सरकार के ग़लत ‘एजेंडे’ का विरोध करना इस कार्यक्रम का उद्देश्य है लेकिन जहाँ हर ओर सामूहिकता को खंडित करने का प्रयास किया जा रहा है, वहाँ विभिन्न जगहों, विभिन्न विचारों से युक्त इतने लोगों को इकट्ठा करना, यह स्वयं विरोध का कितना सुंदर रूप बन गया। यह एहसास ही हमें बेहतर मनुष्य होने के साथ-साथ बेहतर नागरिक होने के लिए भी प्रेरित करता है।
जैसा कि ऊपर भी ज़िक्र हुआ कि प्रत्येक सत्र के अंत में एक सत्र-पर्यवेक्षक अपनी बातें रखते थे जो न केवल उस सत्र के वक्ताओं के लिए उपयोगी रहा बल्कि अन्य प्रतिभागियों को भी ऐसे कई टीप मिले जिससे वह अपने पढ़ने-लिखने की शैली को भी विकसित कर सकते हैं। साथ ही सभी सत्रों के उपरांत अशोक जी ने भी दो दिनों से चल रही चर्चा पर अपने अनुभव साझा किए जो कि हम प्रतिभागियों के लिए सीखने वाला ही था वह चाहे मेहनत की कमी के बारे में कहा गया हो, भाषा की अशुद्धियों के बारे में कहा गया हो या फिर पढ़ने-लिखने के तरीक़े पर कहा गया हो। कोई भी कवि हो, लेखक हो या कोई रचना ही क्यों न हो, अमूमन यह हो चला है कि हम घूम-फिर कर रचना के विषय पर ही आ जाते हैं, वह रचना बन कैसे रही है, इस ओर कोई ध्यान न देते, क्योंकि ज़ाहिर है ध्यान जाता तो ज़िक्र भी करते। वे इस कमी पर बार-बार ध्यान दिलाते रहे कि हमें सिर्फ़ रचना के विषय-वस्तु पर ही नहीं बल्कि उस रचना की निर्मिति, उसकी शैली पर भी सोचना चाहिए।
रज़ा फाउंडेशन की ओर से ही समय-समय पर ‘आज कविता’ का भी आयोजन होता रहा है, जिसमें आमंत्रित कवि अपना कविता-पाठ करते हैं। इस बार हम ‘युवा-प्रतिभागियों’ के लिए ऐसा सुंदर अवसर आया कि दो दिनों तक जिन कवियों पर हम बातचीत करते रहे, दूसरे दिन, ‘युवा’ के सभी सत्रों की समाप्ति के बाद ‘आज कविता’ का आयोजन भी किया गया, जिसमें इस बार किसी कवि को कविता पाठ के लिए नहीं बुलाया गया था बल्कि उन्हीं नौ कवियों की कविताओं की ‘गायन प्रस्तुति’ के लिए चिन्मयी त्रिपाठी व जोयल मुखर्जी को आमंत्रित किया गया था। जिन्होंने बड़े ही सुन्दर तरीके से, ‘स्टोरीलाइन’ का इस्तेमाल करते हुए, जिसमें ऐसा लग रहा था कि उक्त उल्लिखित नौ कवि आपस में चिंतन-मनन कर रहे हों, कविताओं को गाया और शाम सुरमई हो गई। यह प्रयोग भी नायाब ही था कि आधुनिक कविता को इस तरह भी प्रस्तुत किया जा सकता है।
इस तरह रज़ा युवा-2024 हमारे लिए एक ऐसी सोहबत की तरह आया जिसमें हर कदम पर हम कुछ न कुछ सीखते गए।

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

कहानी ‘जोशी जी’ की बयाँ प्रचंड का

विद्वान लेखक प्रचण्ड प्रवीर की एक सीरिज़ है ‘कल की बात’। इस सीरिज़ की तीन पुस्तकें …

One comment

  1. यह कार्यक्रम का आउटलाइन स्केच है, बढिया है. लेकिन दो दिनों के सत्र में हमारे मूर्धन्यों पर हुई बातचीत का ब्यौरा भी मिलना ज़रूरी है. रघुवीर सहाय के सत्र समाप्ति पर एक वरिष्ठ कवि का कहना था यह सत्र तो बैठ गया… सत्र पर एक समीक्षा ज़रूरी है…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *