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   समकालीन हिंदी कहानी में सवर्ण स्त्रियों की उपस्थिति

समय के साथ हिंदी साहित्य में स्त्रियों का हस्तक्षेप बढ़ा तो है लेकिन उसमें फिर सामाजिक वर्गीकरण के अनुसार देखने पर एक व्यापक अंतर जरूर नज़र आता है। इसके अलावा जब साहित्य के भीतर हम भिन्न वर्ग की स्त्रियों को तलाशते हैं तो निश्चित रूप से उनमें भी भिन्नता नज़र आती है। इसी को आधार बनाते हुए धीरेंद्र प्रताप सिंह यह लेख लिख रहे हैं – ‘समकालीन हिंदी कहानियों में सवर्ण स्त्रियों की उपस्थिति’। धीरेंद्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पोस्ट डॉक्टोरल फेलो हैं।(संपर्क सूत्र- academicdhirendra@gmail.com) यह लेख आप भी पढ़ सकते हैं – अनुरंजनी

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     आधुनिक हिंदी कहानी के सफ़र में स्त्रियों की उपस्थिति कई रूपों मे रही है। हिन्दी कहानी के प्रारम्भिक दौर में स्त्रियों को अस्मितामूलक विमर्श के रूप में नहीं देखा जाता था; जैसे कि समकालीन हिन्दी साहित्य में बाकायदे एक विमर्श के रूप में देखा जा रहा है। स्त्रियों के संदर्भ में आजकल दलित स्त्रियाँ, आदिवासी स्त्रियाँ, पिछड़ी जाति की स्त्रियाँ और मुस्लिम महिलाएं जैसे शब्द खूब प्रचलन में है। स्त्रियों की इन अलग-अलग श्रेणियों को साहित्य में भी देखा जा सकता है जिसे समकालीन हिन्दी कहानी में भी देखा और पढ़ा जा सकता है।

    इक्कीसवीं सदी में भी प्रायः जातीय व्यवस्था में निचले पायदान कि जाति वाली स्त्रियों को उपेक्षा, हिकारत और सहज प्राप्य वस्तु के नजर से देखा जाता है। अच्छा यह है कि अपने शोषण और बुरी स्थितियों के प्रति उनकी मुखर अभिव्यक्ति होती है। जबकि उन स्त्रियों का स्वर बहुत कम सुनाई देता है, जो सवर्ण परिवार से ताल्लुक रखती हैं। इन सवर्ण स्त्रियों में ग्रामीण सवर्ण परिवारों की स्त्रियाँ और भी ज्यादा मानसिक उत्पीड़न, सामाजिक दवाब, नियम-कानून एवं सामंती पुरुषवादी दंभ का शिकार होती हैं। मुद्राराक्षस अपनी पुस्तक ‘स्त्री, दलित और जातीय दंश’ में लिखतें हैं “सवर्ण समाज में स्त्रियों को अपनी हैसियत बनाने के लिए धन, शिक्षा, ऊंचे संबंध जानकारियाँ सवर्ण पुरुषों की तुलना में कम उपलब्ध होती हैं।”[1]

    जहाँ दलित, आदिवासी या पिछड़े परिवार की स्त्रियाँ बाज़ार-हाट बेरोक-टोक जा सकती हैं, खेतों में काम कर सकती हैं, गाँवों में एक समूह के साथ हँस-बोल सकती हैं, अपना दुःख-सुख सुना सकती हैं, एक साथ खेती-मजदूरी भी कर सकती है, अपने पति, ससुर, देवर या अन्य पुरुष द्वारा ढाए जा रहे अत्याचार, अपमान और यौन शोषण का प्रतिवाद कर सकती हैं वहीं सवर्ण परिवार की स्त्रियों के यहाँ ऐसी परिस्थितियों में प्रतिकार लगभग न के बराबर होता है। उनके लिए ऊँचे कुल कि मान-मर्यादा, लोक-लाज, पति-परमेश्वर जैसे मूल्य मंगलसूत्र की तरह गले में लटकाना मजबूरी होती है। बड़ा सा घूँघट, धीमी चाल, मध्यम स्वर, किसी भी तरह की हिंसा पर चुप्पी उनकी नियति होती है। “दलित स्त्रियों की तुलना में सवर्ण स्त्री पूरी तरह पतिव्रता, पतिपूजक, पति को भगवान मानने वाली बना कर रखी गयी हैं। वह एक तिहाई निर्वाचन पाने के बाद भी पति परमेश्वरका करवा चौथ करती हुई पति का ही अनुसरण करेगी।”[2]

    राजनीतिक संदर्भों में देखें तो ग्राम पंचायतों में महिला सीट आरक्षित होने के बाद जब कोई सवर्ण महिला प्रत्याशी चुनाव में आती है तो उस परिवार द्वारा उस महिला को प्रचार से, गाँव में घूमने से रोका जाता है। उस स्त्री को पुरुष अपने मूँछ का सवाल और गाँव में घूमने से बदनामी की दुहाई देता है। जिसमें उस सवर्ण परिवार की महिलाएँ भी साथ देती हैं। चुनाव कोई महिला लड़ती है और पोस्टर प्रधान पति के नाम से छपता है। तभी तो स्त्री, प्रधान होने के बावजूद अपने पति का रबर स्टैम्प होती है। यह प्रवृत्ति सवर्ण परिवारों में ही ज़्यादा है। मैत्रयी पुष्पा की कहानी ‘फैसला’ की सवर्ण स्त्री वसुमती जब प्रधान हो जाती है तो एक दिन पंचायत चली जाती है।  इसके बाद उसका ब्लॉक प्रमुख पति रनवीर उसे समझाता है, “अभी तुम्हारी राजनीतिक उम्र कम है, वसुमती! परिपक्वता आएगी तो स्वयं चल निकलोगी मान-सम्मान बचा कर।”[3]

    यही वसुमती जब गाँव के एक पंचायत में चली जाती है तो रनवीर कहता है, “पंचायती चबूतरे पर बैठती तुम शोभा देती हो? लाज-लिहाज़ मत उतारो। कुल-परंपरा का भी ख़्याल नहीं रहा तुम्हें? औरत की गरिमा आढ़-मर्यादा से ही है। फिर तुम क्या जानो गाँव में कैसे-कैसे धूर्त हैं।”[4] वही वसुमती जब पंचायत में रनवीर का एक फैसला बदल देती है तो रनवीर आग-बबूला हो फिर चेताता है “सुन ले! और समझ ले अपनी औक़ात!मजबूरी में खड़ी करनी पड़ी तू। मैं एक साथ दो पदवी नहीं रख सकता था एक साथ। सोचा था, पत्नी से अधिक भरोसेमंद कौन…।”[5]

    मैत्रयी पुष्पा की ही एक अन्य कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में जब सवर्ण महिला प्रत्याशी अपने पति पीतम सिंह से कहती है कि मैं चुनाव घर में बैठ कर नहीं जीत सकती तो उसका पति कहता है, “बड़ी सिर्रीन हो। धीरज मत खोओ। क्या-क्या सोचने लगी हो! तुमको बेमर्यादा करने के लिए प्रधान नहीं बना रहे हम।”[6] यह प्रवृत्तियाँ बताती हैं कि मानसिक और सामाजिक जकड़बन्दियों में सवर्ण महिलाएं बुरी तरह जकड़ी हुई और एक तरह से गुलामी की यातना झेलती हैं।

    यह विचारणीय है कि जहाँ ज़्यादातर खासकर आर्थिक दृष्टि से कमजोर सवर्ण अपने परिवार कि स्त्रियों को दिन के उजाले में चहारदीवारी में रखते हैं वहीं रात के अँधियारे और भोर के उजाले में खेती-किसानी का काम करवाते हैं। यह द्वंद्व बड़ा अजीब सा है। नीलाक्षी सिंह अपनी कहानी ‘रंगमहल में नाची राधा’ में लिखती हैं कि “उस ज़माने में शरीफ़ जाति की औरतें दिन-दहाड़े बाहरी काम नहीं किया करती थीं। तो उनकी उम्रदराज कुलीन माँ रात के अँधेरे में मुँह ढाँपकर रेलगाड़ियों में मूँगफली, भूजा आदि-आदि बेचा करती थीं और दिन के उजाले में बचे-खुचे गहने और धराऊ बरतन। इन दुबले-पतले पैसों से उनकी गाड़ी खिंचती थी। निम्न मध्यवर्ग की हक़ीक़तें कभी-कभी बड़ी चौंकाऊ हुआ करती हैं।”[7]

    सवर्ण परिवार के निम्न या उच्च मध्यवर्ग होने से स्त्रियों के काम काज़ के स्वरूप में अंतर आ सकता है, लेकिन प्रवृत्तियाँ कमोबेश एक जैसी ही होती हैं। जया जादवानी कि कहानी ‘क़यामत का दिन उर्फ़ क़ब्र से बाहर’ की स्त्री पात्र भी एक सवर्ण स्त्री है। वो स्त्री एक धनाढ्य सवर्ण परिवार से ताल्लुकात रखती है। एक दिन अपने पति के अत्याचार से ऊब कर घर से भाग जाती है। खुले आसमान में आकर अपनी आज़ाद हरकतों के कारण हवालात में पहुँच जाती है। वहाँ उसे एक बुजुर्ग उसकी ज़मानत लेते हैं। वो स्त्री उस बुजुर्ग से कहती है, मेरा सुमिता नागपाल है। नागपाल परिवार की बहू हूँ।…आप मेरे घर फोन कर दें। उन्होंने लोक-लाज के भय से मेरी रिपोर्ट नहीं करवाई होगी। वर्ना अब तक सारे शहर की पुलिस मुझे ढूँढ रही होती।”[8]

    सवर्ण परिवार की स्त्रियाँ यदि बाहर नौकरी या रोजगार के सिलसिले में जाती है तो उसका परिवार और पति उसे शक की निगाह से देखते हैं या इज्जत के नाम पर राम-राम जपते हैं। तभी तो किरण सिंह की कहानी ‘कथा सावित्री सत्यवान की’ में नायिका का बीमार पति कहता है, “कहाँ चली जाती हो? उस विजयन को प्रेम पत्र पोस्ट करने धीरे से निकल गई  तुम। उसको चिट्ठियाँ लिखने के अलावा तुम कोई काम करती हो आजकल? तुम्हारे इस साहित्य के चक्कर से दो रुपया मिला नहीं, ज़िदगी मेरी अलग नरक बन गई।”[9]

    जाति व्यवस्था में सवर्ण परिवार की स्त्रियों और लड़कियों को एक खास तरह के निर्देश के साथ रखा जाता है। यदि गलती से किसी सवर्ण परिवार की कोई विधवा या नवयुवती का अपने से किसी छोटे जाति में प्रेम हो जाय तो उस लड़की और परिवार पर पहाड़ टूट पड़ता है। कहानी के संदर्भ में श्रीधरम की कहानी नवजात (क़) कथा उल्लेखनीय है। यह कहानी बताती है कि किस तरह सवर्ण परिवार के लिए उस घर कि स्त्रियाँ और लड़कियाँ इज्जत का सवाल बन जाती हैं। तभी तो जब इस कहानी में एक ब्राह्मण लड़की एक दलित युवक के साथ गाँव छोड़ देती है तो बवाल मच जाता है। ब्राह्मण समुदाय के लोग उस लड़की के पिता से कहते हैं, “गोरे बाबू! यह विपत्ति कि घड़ी है। ऐसे समय में टाका-पैसा का मोह व्यर्थ। आप अपने ढंग से कार्य संपादित कीजिये। गणेश बाबू पीछे नहीं हटेंगे। खेत रखकर ही क्या करेंगे? ब्राह्मण भले ही भीख मांग कर गुजर करता हो पर सदा इज्जत से जिया है और जब इज्जत ही नहीं बचेगी तो फ़िर ब्राह्मण और शूद्र में फर्क क्या?”[10] यह सवर्ण मानसिकता का प्रभाव ही कहा जाएगा कि लड़की की माँ ही लड़की को झिड़कती है। जब लड़की वापस घर आती है तो उसकी माँ कहती है इसने तो कुल ख़ानदान का नाम ही बोर दिया।

    सवर्ण और अन्य जाति समूह की स्त्रियों का अंतर स्पष्ट तौर पर गाँवों में महसूस किया जा सकता है। आज भी उत्तर भारत के ज्यादातर गाँवों में अलग-अलग जातियों की छोटी-छोटी बस्तियां बसी हुई हैं। जिनमें हरिजन बस्ती अलग, ब्राह्मण बस्ती अलग, ठाकुर बस्ती अलग। इन्ही बस्तियों के बीच-बीच में अन्य दलित और पिछड़ी जातियां भी बसी हुई हैं। गाँवों में प्रायः यह देखने को मिलता है कि दलित और पिछड़ी जाति की महिलाएं घरों में चूल्हा-चौका और बर्तन मांजने के साथ खेतों में काम करती हैं, दुकान चलाती हैं, बाज़ार जाती हैं, सोसायटी (खाद-बीज भंडार) जाती हैं, समूह में गपशप करती हैं। हालाँकि, यह सब काम श्रमसाध्य और उपेक्षा की दृष्टि से देखे जाते हैं, लेकिन उन महिलाओं को खुले में सांस लेने की आज़ादी तो है। एक समूह के साथ आपस मे हँसती-बोलती और अपना दुःख- सुख साझा तो कर लेती हैं। इसी बहाने दुनिया के दुःख-सुख को भी महसूस करती हैं। अन्याय के खिलाफ़ प्रतिकार करने का सामूहिक निर्णय लेती हैं। प्राय: यह देखने को मिलता है कि गाँवों और शहरों की शराब भट्ठियों, जुआँ के अड्डों के खिलाफ़ लाठी, हंसियाँ सवर्ण महिलाएँ नहीं उठाती, जबकि सवर्ण महिलाएँ भी इन अड्डों से परेशान होती हैं।

    यद्दपि इस बात से इंकार नही किया जा सकता है कि आज भी दलित और पिछड़ी जाति की महिलाएं ही यौन शोषण/यौन हिंसा से अभिशप्त हैं। जिसका एक बड़ा कारण उनकी आर्थिक और सामाजिक हैसियत की कमजोरी होती है। वहीं सवर्ण परिवार की महिलाए सामाजिक सरोकारों से दूर होती हैं। बाजार-हाट उनका जाना मना है। खेती करने की कोई ज़रूरत नही है। खाद-बीज लाने की आवश्यकता नही है। साल में एक दो बार मेले ठेले में जाती भी हैं तो घूंघट इतना बड़ा की बस पूछिये मत! इज्ज़त का इतना बड़ा बोझ की वो स्त्रियाँ उसी तले दबे रहती हैं। और बड़े आश्चर्य की बात है कि इसी झूठी शान-शौकत को अपनी नियति मान लेती हैं। गाँव में रहने वाली सवर्ण स्त्रियाँ शायद ही अपने मन से कभी बाहर निकलती हों। या अपनी तरह की स्त्रियों से बात करने, मिलने-जुलने, घूमने-फिरने शायद ही कभी एक साथ निकलती हों।

    इसका कारण यह कि उन सवर्ण परिवार के किसी भी पुरुष को यह सब पसन्द नहीं। उस परिवार कि स्त्रियों कि दिनचर्या नियत होती है। रात में ग्यारह- बारह बजे तक सोना, सुबह चार बजे उठना, फिर चूल्हा-चौका की साफ़ सफ़ाई, आँगन में झाड़ू लगाना, बर्तन धूलना। यदि आँगन में सरसों, चना या अरहर रखा है तो उसे पीटना-पछोरना। बोरी में चावल रखा है तो उसे साफ करना। ऐसे ही हर फ़सल में अलग-अलग काम। यदि एक भी दिन उठने में लेट हुआ तो सासू-माँ की गालियां और  ससुर के ताने सुनना। देवर की डांट। इन सबसे (सासू माँ की गाली, कलह और शोर शराबे आदि-आदि) से आज़िज कर आये दिन पति का शाब्दिक और शारीरिक हिंसा कि प्रताड़ना सहना उनकी मज़बूरी बन चुकी होती है।

    यदि संयुक्त परिवार है तो छ: बजे से सबके लिए नाश्ता बनाना-खिलाना। फिर बच्चों को तैयार करना, स्कूल भेजना। फ़िर सबके लिए खाना बनाना-खिलाना। दो बजे तक यह सिलसिला चलता है। फिर कुछ न कुछ घरेलू काम। फिर शाम से वही बनाने- खिलाने का उपक्रम शुरू। फिर ज़्यादातर स्त्रियाँ इसी दिनचर्या को अपना भाग्य मानकर स्वीकार कर लेती हैं। यदि उस सवर्ण परिवार की स्त्री अपने परिवार में कभी स्वयं कोई सामान बाहर से लाने को कहती हैं तो तुरंत सास-ससुर बोलते हैं, अब यही सब देखना बाक़ी है। बहु-बेटियाँ घर से बाहर बाज़ार जाए। नान्ह जाति (छोटी जाति) की तरह घूमें। दुनिया भर की नसीहतें। उस स्त्री का देवर बोलता है भाभी बोलिये न क्या चाहिए हम लेते आएंगे। पति बोलते हैं जब हम हैं तो तुम्हे बाहर जाने की क्या ज़रूरत।? ऐसे में वो स्त्रियाँ चाह कर भी कहीं बाहर बैठने, घूमने और जाने की सोच भी नही सकते। उसी घर मे पड़े-पड़े अपना दिन काटती हैं।

    प्रख्यात कथाकार शिवमूर्ति अपनी कहानी ‘बनाना रिपब्लिक’ में लिखते हैं, “पिछड़ी या दलित औरतें तो सभा, जुलूस या मेले-ठेले में चली भी जाती है, सवर्ण औरतों की बड़ी आबादी अभी भी गाँव के बाहर नही निकलती। मायके से विदा हुई तो ससुराल में समा गईं। ससुराल से निकलती हैं तो सीधे श्मशान के लिए। देवी के थान पर लपसी, सोहारी चढ़ाने के लिए जाना ही उनकी तीर्थयात्रा या पिकनिक है।”[11] सवर्ण स्त्रियों और इस आलेख के संदर्भ में रोहिणी अग्रवाल की यह पंक्तियाँ बहुत उपयोगी और समीचीन प्रतीत होती है, “बेहद कठिन होता है लोकापवाद से दो-दो हाथ कर किन्हीं अबूझ तहख़ानों में बंद सच्चाई को मुक्त कराना। उतना ही कठिन है रूढ़ियों को अपदस्थ कर नई संकल्पनाओं को आकार देना। या शायद वैचारिक जागृति का एक व्यापक जनांदोलन चला कर रूढ़ियों को समाप्त किया जा सकता है।”[12] वस्तुत: यह विषय स्त्री पीड़ा और मुक्ति की लड़ाई को टुकड़ों में बांटता नहीं है बल्कि स्त्री पीड़ा और मुक्ति की जद्दोजहद को एक नए कोण या यूं कहें कि एक नई दृष्टि से देखे जाने की माँग करता है।

संदर्भ

1- मुद्राराक्षस, स्त्री दलित और जातीय दंश, (2011) गौतम बुक सेंटर, नई दिल्ली, पृ.सं.- 24

2- मुद्राराक्षस, स्त्री दलित और जातीय दंश, (2011) गौतम बुक सेंटर, नई दिल्ली, पृ.सं.- 25

3- स्त्री विमर्श की कहानियाँ, सं.- डॉ लालसा यादव, (2013), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.सं.- 102

4- वही, पृ.सं.- 106

5- वही, पृ.सं.- 110

6- पुष्पा, मैत्रयी, शतरंज के खिलाड़ी, (1995) इंडिया टुडे, साहित्य वार्षिकी, पृ.सं.- 84

7- स्त्री विमर्श की कहानियाँ, सं.- डॉ लालसा यादव, (2013), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.सं.- 171

8- जादवानी, जया, ये कथाएँ सुनायी जाती रहेंगी हमारे बाद भी, (2015), साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ.सं.- 98

9- सिंह, किरण, यीशु की कीलें, (2016), आधार प्रकाशन, पंचकूला, पृ.सं.- 49

10- कथा में गाँव, सं.- सुभाषचंद कुशवाहा, (2010), संवाद प्रकाशन, मेरठ, पृ.सं.- 266

11- शिवमूर्ति, कुच्ची का कानून, (2017), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.सं.- 39

12- अग्रवाल, रोहिणी, साहित्य का स्त्री स्वर, (2016), साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ.सं.- 39

 
      

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