श्री अशोक वाजपेयी जी का जो ईमेल हमने सार्वजनिक किया था उसके सन्दर्भ में गिरिराज किराडू का यह ईमेल हमें मिला है, जो दरअसल अशोक जी के नाम उनका पत्र है. आप इस पत्र को पढ़ें और इस पूरे प्रकरण को एक नए आलोक में समझने का प्रयास करें. यह ‘जानकी पुल’ की जनतांत्रिकता का तकाजा है कि ‘मॉडरेटर’ इस पत्र और पाठकों के बीच से हट जाए- जानकी पुल.
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आदरणीय अशोकजी,
श्री प्रभात रंजन द्वारा संचालित ब्लॉग ‘जानकीपुल‘ पर प्रकाशित आपका ई-मेल पढ़कर यह पत्र आपको लिख रहा हूँ. सबसे पहले मैं आपका दिल से आभारी हूँ कि आपने इस ई–मेल के माध्यम से यह स्पष्ट कर दिया है कि ‘प्रतिलिपि बुक्स‘ ने कभी रज़ा फाउंडेशन से अपनी पत्रिका की ‘थोक खरीद के लिए आवेदन‘ नहीं किया जैसा कि पिछले रविवार जनसत्ता में प्रकाशित अपने स्तंभ में श्री ओम थानवी ने लिखा था. यह लिखते हुए मैं आपका ध्यान इस तरफ दिलाना चाहूँगा कि ‘प्रतिलिपि बुक्स‘ ने कभी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए वित्तीय सहायता का आग्रह भी नहीं किया था जैसा आपने अपने ई-मेल में लिखा है. आप फरवरी २०११ में श्री बोधिसत्व, श्री अशोक कुमार पांडे और मेरे आमंत्रण पर ‘कविता समय‘ नामक कार्यक्रम के पहले संस्करण में आये थे. वहाँ आपने कार्यक्रम से प्रभावित हो कर मंच से एक लाख रूपये सालाना मदद की पेशकश की जिसे हमने मंच से ही अस्वीकार कर दिया यह कहते हुए कि हम इस आयोजन को अपनी मेहनत से ही करना चाहते हैं. लौटकर आपने अपने स्तंभ ‘कभी कभार‘ में जिस तरह उस आयोजन का और उसमें सक्रिय नैतिकता की आभा का ज़िक्र किया वह हम आयोजकों के लिए प्रेरणास्पद था. उसके कुछ समय बाद दिल्ली में आपसे मिलना हुआ तो आपने कहा कि आप रज़ा फाउन्डेशन से कुछ ऐसी पुस्तकें प्रकाशित करना चाहते हैं जो मुख्यधारा के प्रकाशक नहीं करते और क्या प्रतिलिपि बुक्स पहल करना चाहेगा? तय हुआ कि साल में चार पांच किताबें जो एकदम मुख्यधारा से अलग हों उनका सह-प्रकाशन किया जायेगा. इस सन्दर्भ में आपसे संभावित पुस्तकों को लेकर चर्चा हुई. आपने कहा चर्चा के आधार पर कुछ ठोस रूपरेखा बनाइये. मैंने आपको जयपुर में दूरदर्शन के एक कार्यक्रम के दौरान २५ जून २०११ को ‘आवेदन‘ नहीं ‘प्रस्ताव‘ दिया जिसमें ‘वित्तीय सहायता‘ नहीं माँगी गयी थी, सह-प्रकाशन का प्रस्ताव और हमारी तरफ से पुस्तकों के आइडियाज़ देते हुए यह कहा गया कि आप भी अपनी ओर से दीजिए. आपसे अनुरोध है आप अपने रिकार्ड में चेक करा लीजिए. मेरे पास एक प्रति है. बाद में आपने कहा फाउंडेशन ने पुस्तक प्रकाशन का विचार मुल्तवी कर दिया है क्यूंकि जो पहले से तय चीज़ें थीं (जैसे कि समास पत्रिका का प्रकाशन) हो नहीं पा रही हैं. उसके बाद जैसा आपने लिखा है आपको ‘कविता समय‘ के जयपुर संस्करण के लिए भी आमंत्रित किया गया. आपने ‘समन्वय भारतीय भाषा महोत्सव‘ के पहले संस्करण को अपनी लेखकीय उपस्थिति से समर्थन दिया, जिसके दो क्रिएटिव डायरेक्टर्स में से एक मैं हूँ. आपने अपने स्तंभ में उसके बारे में भी प्रशंसात्मक लिखा. ‘समन्वय‘ के दूसरे संस्करण के लिए जब मैंने और साथी क्रिएटिव डायरेक्टर सत्यानन्द निरुपम ने आपसे कहा कि आपको भारतीय भाषाओं के लिए इण्डिया हैबिटेट सेंटर की महत्वपूर्ण पहल में फाउन्डेशन के तरफ से भी सहयोग करना चाहिए तो आपने किया उसके लिए भी हम आपके आभारी हैं. अगर कथित रूप से मैं आपसे या फाउन्डेशन से खिन्न होता तो यह सब नहीं होता. ऐसा लगता है श्री कमलेश की विचारधारात्मक प्रस्थापनों के विरोध को या श्री व्योमेश शुक्ल के अवसरवाद के विरोध को फाउन्डेशन के विरोध की तरह पेश किया गया है.
आपने उचित ही याद किया है कि आज से तेरह चौदह बरस पहले आपने मेरी पहली प्रकाशित कविताओं में से पहली को भारत भूषण अग्रवाल सम्मान के लिए चुना था. लेकिन जिस तरह से उसका ज़िक्र आपने ई–मेल में किया है उससे लगता है उस कारण मुझे आपके बारे में आलोचनात्मक होने का अपना अधिकार तर्क कर देना चाहिए. यह निश्चय ही आपकी गरिमा के अनुकूल नहीं लगा. हमें भी पिछले बरसों में कुछ युवतर कवियों को पुरस्कृत करने का सौभाग्य मिला है. हम नहीं चाहेंगे कि आज से तेरह चौदह बरस बाद उन्हें हमें लेकर कोई आलोचनात्मक रुख लेना हो तो वे इस कारण से संकोच कर जाएँ कि हमने कभी उन्हें पुरस्कृत किया था. हालाँकि यह मैं इस अवसर पर ज़रूर कहूँगा कि दुर्भाग्य से इधर ‘संबंधों‘ और ‘उपकारों‘ को दीगर चीज़ों पर तरज़ीह देने वाले उदाहरण अधिक हो गए लगते हैं.
अज्ञेय जैसे पितृपुरुष पर विध्वंसात्मक और प्रशंसात्मक एक ही पुस्तक में लिखने वाले अपने वरिष्ठ के बारे में जिन्होंने बौद्धिक और नैतिक खुलेपन और साहस को प्रोत्साहित किया और हिंदी की दुनिया में वाद–विवाद–संवाद के लिए अनगिन अवसर जुटाए, मुझे विश्वास है कि वह विचारों की द्वंद्वात्मकता और बहुलता का हमेशा की तरह तरह सम्मान करते रहेंगे.
मैं यह ई-मेल ‘जानकीपुल‘ को भी प्रकाशनार्थ भेज रहा हूँ.
आपका
गिरिराज किराडू
विगत कई दिनों से देख, पढ़ और सुन रहा हूँ ये तमाम प्रकरण… बड़ा अफसोस हो रहा है अपने प्रिय लेखकों को इन तमाम अनरगल बहसों में अपनी ऊर्जा, अपनी सोच को व्यतीत करते हुये देखकर…वही गिरिराज किराडू, वही अशोक कुमार पाण्डेय जैसे गिने चुने नाम जिनकी रचनायें पढ़कर हम जैसे पाठकों का भरोसा कविता की तरफ लौट रहा है … किसको साबित करने में जुटे हुये हैं ये नाम… एक बहस जो महज फेसबुक की सुविधा से परवान चढ़ती है, क्या तुक है इसका ? हिन्दी का एकमात्र दैनिक जो हिन्दी नाम को जीने की कवायद में प्रयत्नरत है, किसी और सत्य को प्रमाणित करने में संपादकीय के नाम पर पन्ने के बहुमूल्य हिस्से को खर्च करने में ? हम जैसों पाठकों के प्रिय लिख्खाडों क्यों आने दे रहे हैं आपसब इस मोहभंग की स्थिति को? अनुनय है, बाज आयें अब… कोई अच्छी कविता दें….दिन हुये अब तो… !!!
गिरिराज किराडू का अर्थ यह है कि याने जो अंतर अज्ञेय और अशोक वाजपेई में था वही मेरे में और अशोक वाजपेई में है. बेवकूफी की बराबरी है.
गिर्राज किरादू का अर्थ यह है की याने जो अंतर अज्ञेय और अशोक वाजपेई में था वही मेरे में और अशोक वाजपेई में है. बेवकूफी की बराबरी है.
पुरूस्कार किसी कृति को उसकी श्रेष्ठता और उपादेयता के लिये मिलता है ,इसमें कोई किसी पर एहसान नहीं करता लेकिन लगता है जो संस्कृति राजनैतिक दलों में चलती है वही साहित्य के क्षेत्र में भी चल रही है ।
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